गुरुवार, अगस्त 20, 2020

सच कह सकने का साहस - क्या उमा भारती ही भाजपा में इकलौती उम्मीद हैं?


सच कह सकने का साहस - क्या उमा भारती ही भाजपा में इकलौती उम्मीद हैं?
वीरेन्द्र जैन

मैं जानता हूं कि मेरी बात सुन कर लोग हँसेंगे, या मुस्करायेंगे और कुछ लोग तो इसे व्यंजना में कही बात समझेंगे, किंतु मैं इसे पूरी गम्भीरता से कह रहा हूं। इस उम्मीदी का सबसे बड़ा कारण उमा भारती कम हैं, अपितु भाजपा और परोक्ष रूप से देश की दशा ज्यादा है। जब पाकिस्तान में जिन्ना की मजार से लौट कर लालकृष्ण अडवाणी संघ वालों की निगाहों में गिर गये थे तब 2011 में मैंने एक लेख लिखा था जिसमें संभावना व्यक्त की गयी थी कि 2014 के आम चुनाव में अगर भाजपा अडवाणी जी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित नहीं करती तो उसके पास नरेन्द्र मोदी के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं होगा। मैंने कहा था कि भले ही श्री मोदी इस समय राष्ट्रीय नेता नहीं हैं किंतु वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम नेता तो हैं, और अमेरिका, ब्रिट्रेन आदि ने उन्हें वीजा न देकर उनकी नकारात्मक छवि को और बड़ा कर दिया है। जो छवि एक सोच के लोगों के बीच नकारात्मक है, वही दूसरे पक्ष के लोगों के बीच नायक बना देती है।  मैंने लिखा था -

और अंत में विख्यात या कुख्यात नरेन्द्र मोदी आते हैं जिन्होंने भले ही गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार करने के आरोप में दुनिया भर की बदनामी झेली हो पर इसी कारण से वे हिन्दू साम्प्रदायिकता से ग्रस्त हो चुके एक वर्ग के नायक भी बन चुके हैं। जो मोदी पहली बार विधानसभा के उपचुनाव में उस सीट के पूर्ववर्ती द्वारा अर्जित जीत के अंतर के आधे अंतर से ही जीत सके हों, पर आज वे गुजरात में सौ से अधिक विधानसभा सीटों या गुजरात की 75% लोकसभा सीटों में से जीत सकने में सक्षम हैं। संयोग से वे जिस राज्य के मुख्यमंत्री हैं वह प्रारम्भ से ही औद्योगिक रूप से विकासशील राज्य रहा है, जिसने मोदी के कार्यकाल में भी अपनी गति बनाये रखी। दूसरी ओर मोदी सरकार पर अपने विरोधियों के खिलाफ गैरकानूनी ढंग से हत्या करवाने तक के आरोप लगे हों, पर आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई बड़ा आरोप नहीं लगा। वहाँ तुलनात्मक रूप से प्रशासनिक भ्रष्टाचार की शिकायतें कम हैं जिससे उनकी एक ऐसे प्रशासक की छवि निर्मित हुयी है जिसकी आकांक्षा आम तौर पर नौकरशाही से परेशान जनता करती है। केन्द्रीय सरकार की योजना के अंतर्गत सड़कों के चौड़ीकरण का काम तेजी से हुआ है जिससे प्रदेश के प्रमुख नगर एक ऐसी साफ सुथरी छवि देने लगे हैं जो मध्यम वर्ग को प्रभावित करती है। मोदी वाक्पटु भी हैं और अडवाणीजी की तरह शब्दों को चतुराईपूर्वक प्रयोग करने की क्षमता रखते हैं।“
मेरे द्वारा व्यक्त आशंका सही साबित हुयी थी। संघ ने सारे अनुमानों को नकारते हुए नरेन्द्र मोदी को ही प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित किया था।
नरेन्द्र मोदी ने आते ही भाजपा में उसके नाम के अलावा बहुत कुछ बदल गया।  उन्होंने पार्टी को हाथ में लेते ही वरिष्ठ व मुखर नेताओं तथा संजय जोशी जैसे अपने दुश्मनों को किनारे कर दिया। मीडिया हाउसों के साथ सौदा किया। भाजपा के पक्षधर पत्रकारों से ही वाजपेयी सरकार और उनके प्रति भक्तिभाव रखने वालों की छवि खराब करवायी, काँग्रेस नेताओं के भ्रष्टाचार की अतिरंजित छवि, और अपेक्षाकृत साफ छवि के नेताओं को अयोग्य व हास्यास्पद बताने में सोशल मीडिया का स्तेमाल करने की संस्थाएं बनवायीं। फिल्मी कलाकारों, लोकगायकों, पूर्व राजपरिवार के सदस्यों, धार्मिक वेषधारियों, खिलाड़ियों सहित हर तरह के सैलीब्रिटीज का सहारा चुनव जीतने के लिए लिया। काँग्रेस से लेकर राज्य स्तर की पार्टियों के नामी सदस्यों, रिटायर्ड सेना, पुलिस, और प्रशासनिक अधिकारियों को पार्टी में उनकी शर्तों पर शामिल किया। मुजफ्फरनगर आदि दंगों से हुए ध्रुवीकरण के एक पक्ष को खुला समर्थन देकर उसका फायदा उठाया। कार्पोरेट जगत से चुनावी सहायता भरपूर मात्रा में अर्जित की और उसे मतदाताओं के बीच वैसे ही खुले हाथों से खर्च भी किया। ड्रोन कैमरे से लेकर भीड़ को अतिरंजित दिखाने की तकनीक का भी सहारा लिया। इसके विपरीत मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की बारात का कोई नियंत्रक नहीं था। परिणाम स्वरूप उन्होंने न केवल सरकार बनाने का वांछित नम्बर पा लिया अपितु राज्य सरकारों में भी दखल बनाने में सफलता प्राप्त की। 
चुनावी सफलता के बाद मंत्रिमण्डल के गठन में अरुण जैटली और सुषमा स्वराज को छोड़ कर कोई इस कद का नहीं था जो कभी मोदी के लिए चुनौती बन सकता हो। इन दो का मुकाबला करने के लिए उन्होंने अमित शाह को न केवल मंत्रिमण्डल में शामिल कराया अपितु उन्हें भाजपा का अध्यक्ष भी बनवा दिया। अब पूरी सरकार और पार्टी उनकी पकड़ में थी। अटल जी पहले ही लकवा ग्रस्त हो गये थे। इसे संयोग ही कहेंगे कि गोपीनाथ मुंडे, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, अनंत कुमार, अनिल माधव दवे, मनोहर पारीकर, आदि को बीमारी ने दूर कर दिया। कभी कभी सिर उठाने वाले जसवंत सिंह अस्वस्थ हो गये। यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा का विरोध किसी काम नहीं आया। अडवाणी और सुषमा भक्त शिवराज सिंह ने मौका देख कर हथियार डाल दिये। मदन लाल खुराना दिवंगत हो गये, कल्याण सिंह को राज्यपाल बना दिया, राजनाथ सिंह कभी महात्वाकांक्षी नहीं रहे। जो नये लोग मोदीजी की कृपा से सरकारी पार्टी के सांसद बन गये वे उपकृत थे और उन्हें इससे अधिक नहीं चाहिए था, जिन्हें चाहिए था वे किसी ना किसी स्कैम या प्रकरण में फंसे हुये थे।
काँग्रेस केवल सत्ता की लूट के गिरोह का नाम होकर रह गया है सो जिन से सम्भव हुआ उन लोगों ने मौका देख कर दल बदल लिया, कुछ विपक्षियों पर सीबीआई के प्रकरण चल रहे थे और जिन पर कुछ नहीं था वे चुनावों में संसाधनों का मुकाबला कर सकने में सक्षम नहीं थे । राज्य स्तर की जो पार्टियां विपक्ष में थीं वे अपना उपयुक्त स्थान पाकर खुश रहने की आदत पाल चुकी थीं। मीडिया के मालिक चाशनी पी रहे थे और महत्वपूर्ण प्रशासनिक व सैनिक पदों पर विश्वस्त लोग बैठाये जा चुके थे। ध्यान भटकाने के लिए राम मन्दिर व दूसरे साम्प्रदायिक मुद्दों को सुलगता रखा जाता था। अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी, प्रोफेसर, कलाकार आदि जरूर निराश थे किंतु उनके पास देश में अभिव्यक्ति का मंच ही नहीं था, सो उनके विचार निष्प्रभावी थे। अर्थ व्यवस्था बुरी तरह डूब चुकी है, बेरोजगारी की स्थिति विस्फोटक है। ऐसे में परिवर्तन की उम्मीद केवल भाजपा में घुट रहे नेताओं द्वारा प्रभावी आवाज उठाने से ही सम्भव हो सकती है। ऐसी आवाज उठाने वाले नेतृत्व हेतु केवल एक नाम याद आता है और वह है उमा भारती का। यह नाम उस निर्भय बच्चे की तरह है जो राजा को नंगा कह सकता है।
उमाजी अपने दुस्साहस के भरोसे ही आज इस ऊंची स्थिति तक पहुंची हैं। वे जिस परिवेश से आयी थीं वहाँ उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था, जो कुछ था वह पाने के लिए था। अवसरवादी षड़यंत्रकारी घाघ नेताओं ने उनकी मुखर अभिव्यक्ति और महिला प्रवचनकर्ता होने के कारण मिली सुविधा का जम कर उपयोग किया। जब उन्होंने उसका पारितोषक चाहा तो उन्हें धता बता दी गयी। पर अपने हक के लिए उन्होंने रणनीति में शामिल होने से जानी भाजपा की कमजोरियों की दम पर उल्टा दबाव बनाना शुरू किया। मजबूर होकर उन्हें वह सब कुछ देना पड़ा जो उन्होंने मांगा। उन्हें खजुराहो सीट से लोकसभा का टिकिट देना पड़ा, फिर उन्हें नेताओं के न चाहते हुए भी भोपाल से टिकिट देना पड़ा। केन्द्र में मंत्रीपद देना पड़ा। मध्यप्रदेश में चुनाव के लिए भेजा गया तो मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करना पड़ा, और जीत होने पर मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। एक कमजोर सा अवसर देख कर उन्हें बदल तो दिया गया, किंतु दुबारा बनाने का आश्वासन देना पड़ा। उन्होंने पार्टी की बिना अनुमति के तिरंगा यात्रा निकाली। फिर भी जब मुख्यमंत्री पद वापिस नहीं दिया तो उन्होंने राम रोटी पदयात्रा शुरू कर के मुश्किल खड़ी की। फिर पूरी प्रैस के सामने अटल और अडवाणी की क्लास ले ली क्योंकि अरुण जैटली ने उनके खिलाफ खबरें लीक की थीं। पार्टी अध्यक्ष वैंक्य्या नाइडू को इतना भला बुरा कहा कि उन्हें स्तीफा देकर भागना पड़ा। जब उन्होंने स्तीफे के पीछे पत्नी की बीमारी का झूठा बहाना बनाया तो उमाजी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि उन्होंने अपनी पत्नी की रजोनिवृति को राष्ट्रीय बीमारी बना दिया। सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनाये जाने के खिलाफ जब सुषमा स्वराज ने सिर मुंड़ाने और चने खाकर जमीन में सोने की धमकी दी तो उमा जी ने भी बिना अनुमति के ऐसा करने की घोषणा करके बात का मजाक बनवा दिया। फिर पार्टी छोड़ कर नई पार्टी बनायी, जिससे विधानसभा चुनाव लड़ा और भरपूर नुकसान पहुंचाया। इसी बीच गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जो खुद को विकास पुरुष बताते थे को विनाश पुरुष बताने का साहस किया। उन्हें समझौता करना पड़ा। अंततः उन्हें पार्टी में वापिस लेना पड़ा पर शिवराज सिंह की जिद के कारण मध्य प्रदेश से बाहर काम करने की शर्त रखी गयी । उनसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए कहा गया तो उन्होंने मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करने की शर्त रख दी जिसे मानना पड़ा. भले ही कल्याण सिंह और योगी नाराज हो गये। वे विधायक बन गयीं किंतु शपथ लेने के अलावा कभी वहां की विधानसभा नहीं गयीं। 2014 के आम चुनाव में उन्हें फिर लोकसभा  का टिकिट देना पड़ा और केन्द्र में मंत्री बनाना पड़ा, भले ही विभाग और काम केवल अपने बंगले में पड़े रहने का दिया गया। उन्हें हटाने का फैसला लेकर भी मोदी उन्हें नहीं हटा सके, केवल मंत्रालय बदला गया। फिर उन्होंने अपनी मर्जी से लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा, राजनीति से सन्यास की घोषणा की व कुछ दिनों बाद वापिस सक्रिय हो गयीं। भाजपा में उन्होंने सुन्दरलाल पटवा व उनके पटशिष्य शिवराज सिंह चौहान, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, वैंकय्या नायडू, कैलाश जोशी, अडवाणी जी, नरेन्द्र मोदी, आदि अनेक वरिष्ठ नेताओं से खुली टकराहट मोल ली।
उनके सलाहकार भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय सचिव गोबिन्दाचार्य हैं, जिन्होंने ही राममन्दिर अभियान के नाम से भाजपा को आज की स्थिति में पहुंचाया है। वे उनके राजनीतिक गुरु हैं। उमा भारती का दुस्साहस, मुखरता, उनसे कुछ भी करवा सकती है। वे भाजपा में घुट रहे पार्टी सदस्यों की आवाज बन सकती हैं। गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में वे स्वदेशी आन्दोलन को पुनर्जीवित करेंगी तो विपक्ष का भी व्यपक समर्थन मिल सकता है, क्योंकि वे जमीन से जुड़ी नेता हैं। एक बार तो वे कह चुकी हैं कि मेरे पिता तो कम्युनिष्ट थे।
वीरेन्द्र जैन
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