रविवार, जून 27, 2021

कबीर जयंती पर कुछ औघड़ विचार

 

कबीर जयंती पर कुछ औघड़ विचार

वीरेन्द्र जैन




महीनों हो गये, कुछ भी नहीं लिखा। कविता जैसा जो कभी कुछ लिखता था उसे छोड़े तो वर्षों हो गये। लगता है कि अब बहुत लोग लिख रहे हैं, और अच्छा लिख रहे हैं। वे अखबारों में प्रकाशित भी हो रहे हैं, उनकी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, समीक्षाएं भी आ रही हैं. गोष्ठियां विमोचन आदि के प्रमोशन कार्यक्रम भी चल रहे हैं। कई पुस्तकों को तो बिना जुगाड़ जमाये पुरस्कार भी घोषित हो रहे हैं. मिल भी रहे हैं। जब इतने सब के बाद भी समाज में कोई हलचल नहीं हो रही तो लगने लगा कि क्यों दूसरों के प्रतियोगी बनें! जिन्हें इस माध्यम से कुछ उम्मीदें हैं, उनके लिए जगह छोड़ दें। इसी बीच कोरोना आ गया मेल मुलाकातें बन्द हो गयीं। ‘मौखिक प्रकाशन’ तक बन्द हो गया और सारा जोर सोशल मीडिया पर आ गया। मैं भी फेसबुक पर अपनी भड़ास निकालने लगा। इसमें भी कुछ लोग विधा तलाशने लगे तो कुछ विषय वस्तु पर नाक भों सिकोड़ने लगे। लोग इतने परम्पारावादी हैं कि अभिव्यक्ति के किसी भिन्न स्वरूप को सहन ही नहीं करना चाह्ते। उन्हें वही मात्रिक छन्द या रामकथा जैसी कहानियों के आसपास ही सब कुछ होते दिखना चाहिए। गिंसवर्गों को पेंट की जिप खोलना पड़ती है। हलचलें उससे भी नहीं होतीं।

कबीर, नानक, दयानन्द सरस्वती. विवेकानन्द, गायत्री परिवार समेत महाराष्ट्र के सुधारवादी संत सहित गांधी और कम्युनिष्ट भी सामाजिक जड़ता नहीं तोड़ सके। शायर को कहना पड़ा कि ‘ गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं,’  या ‘पुकारने की हदों तक तो हम पुकार आये ‘ । प्रतीक्षा बनी रही कि माटी का वह दिन कब आयेगा जब वह कुम्हार को रूंदेगी! इस आशावाद से ऊब होने लगी। इसके उलट वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग यथास्थितिवाद को मजबूत करने वाली शक्तियां करने लगीं। तर्क के स्तेमाल सत्य के अन्वेषण के लिए नहीं अपितु अभियुक्त के वकील की तरह होने लगे। राही मासूम रजा की वह नज़्म बार बार याद आती है – लगता है बेकार गये हम।   

यह अकेली मेरी तकलीफ नहीं है अपितु जिसने भी सामाजिक परिवर्तन के सपने देखे थे वे सभी बेचैन हैं। कबीर अपने समय की सबसे बेचैन आत्मा रहे होंगे। इसीलिए वे हाथ में लाठी लेकर बाज़ार में निकल पड़े होंगे और पाखंडी अनुयायियों से कहने को विवश हुए होंगे कि जिसमें अपना घर जला देने का साहस हो वही मेरे साथ आये। वे रूढवादियों से तू तड़ाक की भाषा में बात करने लगते हैं और कहते हैं कि –

तू बामन बमनी का जाया, आन द्वार से क्यों न आया

तू तुर्की तुर्किन का जाया,  भीतर खतना क्यों ना कराया

मूढ मुढाये हरि मिले तो सब कोई ले मुढाय, बार बार के मूढते, भेड़ ना बैकुंठ जाय

कर का मनका छांड़ के, मन का मनका फेर

मन ना रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा

दुनिया ऐसी बावरी पाथर पूजन जाय, घर की चाकी क्यों ना पूजै जिसका पीसा खाय

कांकर पाथर जोड़ के मस्ज़िद लयी बनाय, ता पर मुल्ला बांग दे, क्या बैरा भया खुदाय

तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखन की देखी

वे स्वर्ग भेजने वाली काशी में नहीं मगहर में मरना चाहते हैं, जहाँ के बारे में मान्यता है कि वहाँ मरने वाले नर्क में जाते हैं और तथाकथित ईश्वर को चुनौती देते हुए कहते हैं कि

‘जो कबिरा काशी मरे, तू को कौन निहोर’

वे एक साथ हिन्दू मुसलमान दोनों को चुनौती देते हुए कहते हैं-

साधो. देखो जग बौराना

हिन्दू कहे मोय राम पियारा, तुरक कहे रहिमाना

आपस में दुई लड़े मरत हैं मरम ना कोई जाना

साधो देखो जग बौराना

कबीर अपने समय की व्यवस्था को जो खुली चुनौती देते हुए अपने बिना लिखे शब्दों को जन जन की जुबान तक पहुंचा देते हैं जो लिखने छपने की स्थिति आने तक सैकड़ों साल लोगों को याद रहते हैं और पीढियों तक सम्प्रेषित होती रहते हैं। कविता की ताकत उसके मुहावरे में बदल जाने से ही पता चलती है।

यही कारण रहा कि अपने समय की सत्ता की व्यवस्था को चुनौती देने में उनके समतुल्य हरिशंकर परसाई ने विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में जो स्तम्भ लिखे उनके शीर्षक कबीर और गालिब की पंक्तियों को ही बनाये।  

कबीर की कविता जन मानस में गहरी खुबी हुई है, पर जरूरत है उसे आचरण में उतारने की। आज खुद को कबीरपंथी कहनेवाले भी कबीर की दुकानें खोल के बैठे हैं, कोई सत्य के पक्ष में लुकाठी लेकर बीच बाजार में खड़ा नहीं होता।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें