सोमवार, जून 07, 2021

संस्मरण / श्रद्धांजलि श्याम बाबू गुप्ता [श्रीवास्तव

 

संस्मरण / श्रद्धांजलि

श्याम बाबू गुप्ता [श्रीवास्तव]


वीरेन्द्र जैन

अब कभी समय असमय नोबाइल की घंटी बजने के बाद फोन उठाने पर लम्बा अट्टहास सुनाई नहीं देगा। और ना ही फिर पूछा जायेगा कि सो तो नहीं रहे थे, या बिजी तो नहीं थे।

श्याम का जन्म दतिया में गया प्रसाद पहलवान के घर हुआ था, वे उनकी सबसे छोटी संतानों में से एक थे। उनके अनेक भाई बहिन थे। उनके जन्म के समय परिवार नियोजन का ना तो सन्देश घर घर पहुंचा था और ना ही आदेश [ इमरजैंसी जैसा]। पहलवान गया प्रसाद जी गामा पहलवान के जमाने के पहलवान थे, उनका नगर में बहुत सम्मान था। साठ - सत्तर के दशक तक वे प्रतिवर्ष कुश्ती प्रतियोगिता का आयोजन करते रहे जिसमें देश भर के पहलवान भाग लेते थे। श्याम की शिक्षा दीक्षा भी ऐसे ही हुयी थी जैसे कि उन दिनों आम तौर पर बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला दिला कर संरक्षक अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते थे, उसके बाद यह बच्चे की रुचि और परिवेश पर निर्भर करता था कि वह चाहे तो पढ ले। ऐसे ही माहौल से निकल कर बच्चे बड़े बड़े पदों तक भी पहुंचे हैं और साधारण स्तर का जीवन भी जीते रहे हैं। सामंती प्रभाव वाले दतिया में किसी भी स्तर पर जीवन जीने वालों में स्वाभिमान कम नहीं रहा। श्याम को अपनी तरह से कैरियर गढने का भरपूर मौका मिला। सम्भवतः शिक्षा में उसने बी ए पास कर लिया था, वैसे इस विषय पर कभी लम्बी बात नहीं हुयी। वह भले ही हम उम्र रहा हो किंतु पढाई में मेरा समकालीन नहीं रहा।

मेरा उससे परिचय तब हुआ जब मैं एम,ए, कर रहा था और कैरियर के लिए अनिश्चित सा कुछ करना चाहता था। लेखन और पत्रकारिता के प्रति कुछ आकर्षण था किंतु यह भी समझता था कि इसके सहारे जीवन यापन नहीं किया जा सकता।

संभाग स्तर के दो तीन अखबार दतिया में आते थे जिनके हाकर्स या एजेंट्स को ही स्थानीय संवाददाता का दर्जा प्राप्त था जो जनसम्पर्क से प्राप्त न्यूज बुलेटिंस को समाचार की तरह भेज देते थे। कभी कोई स्थानीय समाचार भेजना हो तो वे किसी सक्षम व्यक्ति से लिखवाते थे। इस विषय पर लिखते समय शिवमोहन लाल श्रीवास्तव की चर्चा किये बिना बात आगे नहीं बढ सकेगी। शिवमोहन भी एक शिक्षक परिवार और लेखक पिता की संतान थे, जिन्हें उस समय के सभी बड़े लेखक जानते थे। उनके पिता ने भी लेखन के आकर्षण में सरकारी हाईस्कूल का प्राचार्य पद छोड़ दिया था और उस भूल का आजीवन प्रायश्चित सा किया था। यह परिवार भी बड़ा परिवार था और अधिकांश शिक्षा विभाग में शिक्षक के पद पर कार्यरत रहे। उनकी अध्यापक माँ ही आधा दर्जन बच्चों को जेब खर्च देती रहीं। शिव मोहन में गज़ब की महात्वाकांक्षा थी व उनके पिता ने उनके लिए जो इकलौता बड़ा काम किया, वह था कि उन्हें अंग्रेजी में लिखने बोलने में पारंगत कर दिया था। वे लगातार विभिन्न तरह की संस्थाओं, व्यक्तियों के सम्पर्क में रहे और बाद में तो भारत सोवियत मैत्री संघ के सहयोग से रूसी भाषा प्रशिक्षण के लिए मास्को गये। लौट कर वे केन्द्र सरकार के भाषा विभाग में डायरेक्टर आफीसियल लेंगवेज के पद तक भी पहुंचे। जिस दौर की मैं चर्चा कर रहा हूं, उस दौर में शिवमोहन के पास भी कोई सुनिश्चित आय वाला काम नहीं था और वे विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में किसी भी विषय, अर्थात फिल्म से लेकर विज्ञान, साहित्य आदि की पत्रकारिता कर के नाम तो कमा रहे थे किंतु समुचित नामा नहीं कमा पा रहे थे। किसी संयोग से अखबारों के हाकरों के लिए समाचार लिख देने वाला एक ग्रुप सा बन गया था जो एक अखबार के एजेंट पत्रकार अवधेश पुरोहित के खोके नुमा आफिस में बैठ कर समाचार लिखता था। इसका मेहताना यह था कि लगभग प्रति दिन हम लोग अपने नाम् को किसी ना किसी समाचार से जोड़ देते थे। कुछ ना हो तो किसी दिवंगत व्ही आई पी की शोकसभा का समाचार बना कर अथवा किसी की जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने का समाचार डाल देते थे। अध्यक्षता अदल बदल कर करते थे और कुछ ऐसे नाम डाल देते थे जो लड़कियों के नाम के संक्षिप्त रूप होते थे। यह कुनबा भी बढ रहा था जिसमें बाद में श्याम और अशोक खेमरिया आदि भी जुड़ गये थे। इसी क्रम में अशोक ने एक अखबार के रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन किया जिस हेतु तीन नाम देने होते थे और उस हेतु मजाक में एक नाम मैंने सुझा दिया था ‘यंग लवर्स ‘।  और यही नाम मंजूर हो गया। बाद में अशोक ने कुछ वर्ष तक यह अखबार निकाला जिससे शायद् श्याम भी जुड़ा रहा। शायद इसलिए कि मेरी बैंक में नौकरी लग गई थी और मैं दतिया से बाहर हो गया था।

चाय के ढाबों को होटल कहा जाता था और वहाँ बीस तीस लोगों के बैठने की जगह होती थी। इनमें इसी तरह के स्वयंभू साहित्यकार, पत्रकार, संगीतकार, अध्यापक, आदि लोग बैठे रहते थे और अखबार पढते रहते थे या रेडियो पर क्रिकेट की कमेंटरी सुनते थे। इन्हीं में एक हायर सेकेंड्री स्कूल के वरिष्ठ अध्यापक वंशीधर सक्सेना भी थे, जिनका लिबास, रहन सहन और व्यवहार चुटकलों वाले फिलास्फरों जैसा था, और वे थे भी। वे सुन्दर के होटल के स्थायी स्तम्भ थे। किसी भी तरह की बनावट से मुक्त वे हर उम्र के लोगों के मित्र थे। वे घर की जिम्मेवरियों से भी मुक्त थे और होटल ही उनका स्थायी पता था। खूब पढे लिखे थे और निरंतर पढते, सुनते और गुनते रहते थे। उनमें ना तो कोई अहंकार था और ना ही कोई भेदभाव या वर्जना मानते थे। उन्हें किसी भी चीज का शौक नहीं था व निस्पृह भाव से दर्शक की भूमिका में सब कुछ देखते रहते थे। बोलते तब ही थे जब उनसे बोलने के लिए कहा जाता था, जिसमें उनका अध्य्यन बोलता था। मैंने रजनीश को पढना शुरू किया तो एक ग्रुप सा बन गया जिसमें वंशीधर जी के साथ साथ श्री राम प्रसाद कटारे, और अन्य साथी भी जुड़ गये। रजनीश के हास्य योग के प्रभाव में कटारे जी ने अभिवादन का तरीका ही यह बना लिया था कि जब भी कुछ लोग मिलें तो बिना बात के खुल कर अट्टहास करें। अट्टहास की इस शैली में अन्य दर्जन भर से अधिक लोगों के साथ श्याम भी सम्मलित था।

 इसी बीच श्याम का एक लेख सरकारी पत्रिका ‘मध्यप्रदेश सन्देश ‘ में प्रकाशित हो गया और उसके उसे 35/- रुपये पारिश्रमिक के प्राप्त हुये, तो वह खुद को सम्पूर्ण पत्रकार मानने लगा। वह पेंटर भी था और उसकी नौकरी एटलस साइकिल के विज्ञापन विभाग में वाल पेंटिंग के लिए लग गयी थी जो उसे रास नहीं आई और वह कुछ दिन बाद उसे छोड़ कर दतिया लौट आया।

दतिया में कई कवि थे और गाहे बगाहे कवि गोष्ठियां होती रह्ती थीं, एक स्थायी रूप से वार्षिक कवि सम्मेलन होता था और कभी कविता प्रेमी सरकारी अधिकारी आ जाने पर एक दो और हो जाते थे। श्याम उन कवि सम्मेलनों में मुखर दाद देने वाला सैकड़ों अन्य श्रोताओं में से एक था। खराब कविता के छन्द की पैरोडी बना कर जोर से बोल देने के लिए भी वह बदनाम हो गया।

मुझे अठारह साल दतिया से बाहर गुजारने पड़े और आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि दूरस्थ स्थानों में भी रहना पड़ा इसलिए मैं दतिया की गतिविधियों से कटा रहा। श्याम की शादी एक ऐसे परिवार में हुयी थी जिनके एक रिश्तेदार बहुत सम्पन्न थे। उनके अनेक पैट्रोल पम्प आदि व्यापारिक प्रतिष्ठान थे, जिन्हें संचालन के लिए वे अपने रिश्तेदारों को ही सौंपते थे। शायद उनका फार्मूला यह था कि प्रतिमाह आय में से एक निश्चित राशि चुकाने के बाद वह रिश्तेदार ही उसका मालिक कहलाता था। इन्हीं शर्तों के साथ श्याम को भी मैहर में एक पैट्रोल पम्प मिल गया था।

उसके ससुराल पक्ष के वे रिश्तेदार उपजाति ‘गुप्ता’ लिखते थे इसलिए वह वहाँ श्रीवास्तव से गुप्ता हो गया। मैहर में कई सीमेंट कम्पनियां भी हैं और अलाउद्दीन खाँ की यह नगरी शारदा माँ के मन्दिर के लिए भी मशहूर है। फिर् पैट्रोल पम्प स्वामी श्याम का पत्रकारिता का शौक उभर आया था और वह वहाँ के पत्रकारों की विरादरी में उठने बैठने लगा था। कविता के शौकीन एक प्रसिद्ध जैन डाक्टर साहब प्रतिवर्ष एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन कराते रहे थे। वे अपनी ओर से भी भरपूर मदद करते थे व मैहर स्थित मन्दिर ट्रस्ट व सीमेंट कम्पनियां भी सहयोग करती थीं इसलिए कवि सम्मेलन स्तरीय होता था। इसी के समानांतर एक और जैन साहब जो अध्यापन से जुड़े थे व जिनका परिचय आप इससे समझ सकते हैं कि वे हंस जैसी पत्रिकाओं के नियमित पाठक थे, ने अंकुर नाम से एक साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था की स्थापना की थी, जो प्रतिवर्ष एक गरिमापूर्ण कवि सम्मेलन का आयोजन करती थी। श्याम इस संस्था से जुड़ गया, उसमें पदाधिकारी भी बना और आयोजकों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया। जैन साहब के असामायिक निधन के बाद वह संस्था का अध्यक्ष भी चुन लिया गया था।

1989 में मेरा ट्रांसफर दतिया हो गया था और जब श्याम दतिया आता तब,-या फोन पर उससे बात हो जाती थी। मेरी भी कुछ कविताएं मंचों पर सुनी जाती रही थीं और मैं विभिन्न राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहा था इसलिए श्याम ने अपनी संस्था के अध्यक्ष जैन साहब को मेरा कुछ अतिरंजित परिचय दिया होगा, सो वे मुझ से मिलने को उत्सुक हुये क्योंकि कभी कभी मेरी टिप्पणियां हंस में भी छपती रहती थीं, जिन्हें वे पढते रहते थे।

आते आते 1992 आ गया जब देश में रामजन्म भूमि मन्दिर के बहाने साम्प्रदायिक वातावरण बना दिया गया था। श्याम भी इसके प्रभाव में आ गया क्योंकि उसके दतिया और कटनी दोनों जगह के परिवारों की पृष्ठभूमि संघ से जुड़ी रही थी। बाबरी मस्जिद को षड़यंत्र पूर्वक तोड़े जाने के बाद देश भर में हुए साम्प्रदायिक तनाव व मुम्बई में हुए बम विस्फोटों व दंगो के बाद मैं बहुत आहत था और मेरी कविताओं व लेखों में मेरा दर्द प्रकट हो रहा था। इन कविताओं को पढ कर श्याम ने मुझे एक पत्र लिखा जिस में उसके दुष्प्रचार से दुष्प्रभावित होने का साफ पता चलता था। उसके पत्र के उत्तर में मैंने उसे एक लम्बा जवाब लिखा जिससे उसके जाले साफ हुये। उसने वह पत्र अपनी पत्रकारों की संस्था और साहित्यिक संस्था में पढ कर सुनाया तो उन संस्थाओं के धर्मनिरपेक्ष साथी बहुत प्रभावित हुये और श्याम से कहा कि इन्हें तो मैहर बुलवाइए। मैं और ‘दैनिक दतिया प्रकाश’ के सम्पादक रमेश मोर मैहर गये, जहाँ पत्रकारों ने बहुत भावभीना स्वागत किया और एक गोष्ठी में मुझे सुना गया। बाद में तो एक सरदार जी बोले कि तुम्हारा यह दोस्त तो यहाँ दंगा कराये देता था, वह तो आपकी चिट्ठी ने इसके मानस को बदला।

इसके बाद मुझे दो बार अंकुर के वार्षिक कवि सम्मेलन में आमंत्रित किया गया जिनमें उदयप्रताप सिंह, बुद्धिनाथ मिश्र, सरिता शर्मा, अनिल खम्परिया, रमा सिंह. सुरेश उपाध्याय, बेकल उत्साही, बुद्धि नाथ मिश्र, आदि कवि आमंत्रित थे। बाद में मेरा ट्रांसफर दतिया से भोपाल हो गया और फिर वापिस दतिया, जिससे वहाँ जाना तो नहीं हो पाया, किंतु श्याम अपनी संस्था द्वारा आयोजित कवि सम्मेलनों से पहले आमंत्रित कवियों के बारे में मेरी सलाह जरूर लेता रहा। संस्था की ओर से उसी सम्मेलन में प्रति वर्ष एक चर्चित कवि का सम्मान भी किया जाता था जिसमें मुकुट बिहारी सरोज, सोम ठाकुर, आदि के बाद इस वर्ष बुद्धिनाथ मिश्र का सम्मान होना था किंतु कोरोना के कारण आयोजन टल गया था।

श्याम व्यापारी नहीं था इसलिए पैट्रोल पम्प में उधारी डूब जाने के कारण उसे छोड़ना पड़ा, उसके बाद उसे दूसरा पैट्रोल पम्प दिया गया जो भी उसके नियंत्रण से बाहर हो गया। उसके ससुराल पक्ष के लोगों ने कटनी में बन रहे एक माल के निर्माण प्रबन्धन की जिम्मेवारी सौंपी जिसके लिए वह प्रतिदिन मैहर से कटनी आता जाता रहता था। वह काम पूरा होने के बाद उसने मैहर के ही एक होटल व विवाह गृह के प्रबन्धन का काम सम्हाल लिया था। यहाँ उसे केवल बैठने और शादी ब्याह के लिए बुकिंग का काम था। बैठे बैठे जब भी खाली होता तो फोन करता रहता, कभी कभी असमय भी फोन कर देता था और फिर भूल मान कर कह देता था कि अगर कोई व्यस्तता हो तो मेरा फोन ना उठाया करो मैं तो यूं ही फोन कर देता हूं।

साधारणतयः व्यक्ति अपने मन में घुमड़ रहे विचरों और तर्क वितर्को को किसी से कह कर हल्का हो जाना चाहता है और यह भी चाहता है कि जिससे वह कह रहा है, वह उसकी गोपनीयता बनाये रखे। ना जाने क्यों मैं इस काम के लिए अनेक मित्रों द्वारा पात्र समझा जाता रहा और वे अपने मन की बात मुझे सुना कर ही चैन पाते रहे। श्याम भी उनमें से एक था। पिछले दिनों उसका पारिवार बीमारियों से घिरा रहा था, बेटे को किडनी की समस्या हो गयी थी जिसके लिए उसे दिल्ली और फिर उसके बाद लखनऊ आदि जगहों पर भटकना पड़ा। जहाँ भी वह रहता था वहाँ से विस्तार से बताता रहता था। उसके रिश्तेदारों ने भी उसको हर तरह से सहयोग दिया। कुछ ही माह पहले उसने विवाह की 50वीं सालगिरह धूमधाम से मनायी थी। बाद में पिछले महीने ही यह भी सूचना दी कि पत्नी के हार्ट का आपरेशन हुआ है और ब्लाकेड के कारण स्टेंट डलवाने पड़े हैं।

कोरोना की दूसरी लहर आने के बाद मैंने वैक्सीनेशन कराया था व उसके प्रभाव में कुछ दिन अस्वस्थ रहा, तब से प्रतिदिन फुरसत मिलने पर हाल पूछने वाला नियमित व्यक्ति श्याम ही होता था। उसके फोन इस बारम्बारता के साथ आते रहते थे कि मुझे कभी उसको फोन करने की जरूरत नहीं पड़ी।

मृत्यु से दो तीन दिन पहले उसका फोन आया था कि लगता है कि मुझे कोरोना हो गया है। मैंने पूछा कि जब तुमने टैस्ट नहीं कराया तो कैसे लगता है, इस पर वह बोला कि बुखार आ रहा है। मैंने पूछा कि स्वाद गंध आ रही तो बोला हाँ वह तो आ रही है, तो मैंने अपने ज्ञान के अनुसार कहा कि फिर बुखार ही है किसी डाक्टर को दिखा कर दवा ले लो। जब उसने कहा कि एसिडिटी भी बढ गयी है तो मैंने बताया कि आयुर्वेद का अविपत्तिकर चूर्ण ने मुझे हमेशा और तुरंत आराम दिया है. तुम चाहो तो ले लो।

कभी फोन न करने वाले मैंने अगले दिन शाम को उसे फोन किया और हाल पूछा तो उसने उत्तर दिया कि अब ठीक है, अपनी आदत के विपरीत वह जल्दी फोन बन्द करना चाहता था, पर मैंने पूछा कि एसिडिटी का क्या हुआ, वह चूर्ण लिया था तो बोला कि हाँ और लाभ भी हुआ था। मैं निश्चिंत हो गया।

इस बातचीत के तीसरे दिन ही फेसबुक खोलने पर अंकुर संस्था के अध्यक्ष वीरेन्द्र सिंह की पोस्ट पढी कि श्याम बाबू गुप्ता जो मैहर में बाबूजी के नाम से जाने जाते थे नहीं रहे। विश्वास तो नहीं होना चाहिए था किंतु रोज रोज सुन रही मौतों की खबरों के बीच अविश्वास का भी कोई कारण नहीं पाया तो मैंने भी फेसबुक पर पोस्ट डाल दी। तीन दिन बाद उसी के नम्बर पर काल किया तो उसके बेटे ने विस्तार से बताया। कि रात्रि में ही उन्होंने अस्पताल ले चलने को कहा था और सुबह नहीं रहे।

आजकल अंतिम संस्कार में आने से लोग बचते हैं इसलिए घर के लोगों ने ही अंतिम संस्कार किया। जो व्यक्ति जीवन भर सार्वजनिक रहा हो उसे अंतिम समय में परिवार तक सीमित होकर जाना पड़े इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है।

अब जब भी मोबाइल की घंटी बजती है तो दूसरे ही मिनिट याद आ जाता है कि यह फोन श्याम का तो नहीं हो सकता। उसका फोन अब कभी नहीं आयेगा।

 वीरेन्द्र जैन

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