शुक्रवार, जून 27, 2025

फिल्म समीक्षा – सितारे जमीं पर फिल्मी सितारों के बिना फिल्म बनाने वाला सितारा – आमिर खान

 

फिल्म समीक्षा – सितारे जमीं पर

फिल्मी सितारों के बिना फिल्म बनाने वाला सितारा – आमिर खान

वीरेन्द्र जैन


पीके, दंगल, लगान, तारे जमीं पर जैसी फिल्में और सत्यमेव जयते जैसा टीवी शो बनाने वाले आमिर खान ने सामाजिक चेतना को झकझोर देने वाली एक और फिल्म बनायी है ‘सितारे जमीं पर’। आमिर की फिल्में हिन्दी सिनेमा की रूढियों को तोड़ते हुए बनती हैं। सितारों की लोकप्रियता के आधार पर फिल्म खींचने की परम्परा से बाहर निकल कर कथ्य के आधार पर फिल्में बनाते हैं जिनमें समाज की सच्चाई सामने आती है। इन फिल्मों से दर्पण देखने के बाद समाज अपने चेहरे की कमियों को पहचान कर उसे ठीक करने के लिए प्रेरित हो सकता है। वे उस दर्शक वर्ग की पसन्द के फिल्मकार हैं जो समाज में अच्छी सोच के साथ बदलाव चाहता है और अपेक्षाकृत ईमानदार है।

फिल्म निर्माण एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें लागत बहुत लगती है और मुनाफा अनिश्चित रहता है। यही कारण है कि आम निर्माता ऐसी मनोरंजक फिल्में बनाता है जो उत्तेजना या सतही संवेदनाओं को उभार कर बाक्स आफिस पर कमाई कर सके और अपनी लागत निकाल सके। आमिर खान इन से अलग हैं। ‘तारे जमीं पर’ की सफलता के बाद वे चाहते तो फिल्म का नाम ‘तारे जमीं पर -2’ रख सकते थे किंतु ‘ लीक छांड़ तीनों चलें, शायर सिंह सपूत ‘ की तर्ज पर उन्होंने फिल्म का नाम सितारे जमीं पर रखा जबकि कथ्य उससे मिलता जुलता है। आमिर खान राज कपूर परम्परा के एक बड़े अभिनेता हैं, सफल हैं, लोकप्रिय हैं, और मनोरंजन को फिल्म की कथा से ही निकालते हैं उसे अलग से नहीं चिपकाते।

लगभग अस्सी प्रतिशत हिन्दी फिल्मों में नायक नायिका की शादी को जीवन की अंतिम उपलब्धि मानते हुए फिल्म को पूरा करते हैं किंतु राज कपूर ने कभी इस तरह से फिल्म को समाप्त नहीं किया। इस फिल्म में आमिर खान ने शादी को हैप्पी एंडिंग की तरह तो लिया है, किंतु नायक नायिका की शादी को नहीं अपितु नायक की परित्यक्ता माँ की घर के बाबर्ची के साथ शादी को दिखाया है।  एक परित्य्कता माँ जिसने अपने बेटे को आठ वर्ष के उम्र से माँ और बाप दोनों की भूमिका निभाते हुए बड़ा किया है, का भी अपना जीवन है। जैसे नायक की माँ अपने कम लम्बाई के बेटे को पाल कर उसे बास्केट बाल का खिलाड़ी और फिर कोच बनाती है, तो उसका भी दायित्व बनता है कि वह अपनी माँ की भावनाओं का खयाल रखे।

परिवार में बच्चा होने या न होने के बारे में नायक और उसकी पत्नी में मतभेद है। नायक बच्चा नहीं चाहता जबकि उसकी पत्नी चाहती है। इस मतभेद पर नायक घर छोड़ देता है, किंतु परित्यक्ता का दर्द समझने वाली माँ अपना बुटिक का व्यवसाय बहू को सौंप देती है। फिल्म का सबसे बड़ा सन्देश यह है कि जिसे हम नार्मल समझते हैं, वह सबके लिए नार्मल होना जरूरी नहीं। सबका अपना अपना नार्मल होता है और जब हम अपने नार्मल को दूसरे के ऊपर लादने की कोशिश करते हैं, वहीं से समस्या पैदा हो जाती है। कई हादसों से गुजर कर नायक को समझ में आता है कि वह अहंकारी [ इगोइस्ट ] है और अपने नार्मल को दूसरे के नार्मल पर लादना चाहता है। इसी कारण से उसका संस्थान के अपने सीनियर से झगड़ा होता है, मारपीट होती है, जिस पर दण्ड मिलने की उत्तेजना में वह शराब पीकर गाड़ी चलाते हुए कई लोगों की गाड़ी को ठोक देता है, जिसमें पुलिस की गाड़ी भी होती है। उसका चालान कटता है और कोर्ट से उसे सजा मिलती है जो जुर्माने के साथ साथ तीन महीने की कम्युनिटी सर्विस की होती है व उसकी विशेषज्ञता देखते हुए मानसिक विकलांग बच्चों को बास्केट बाल की कोचिंग देने की होती है। इन बच्चों में से एक सजा देने वाली मजिस्ट्रेट का भतीजा भी होता है।

भिन्न भिन्न तरह की पृष्ठभूमि से आये हुए बच्चों के अपने अपने काम्प्लेक्सेस होते हैं। कोई रंग के कारखाने में काम करता है, तो कोई होटल में बर्तन मांजता है, किसी की माँ प्रास्टीट्यूट है, एक पशु प्रेमी लड़का नहाने से डरता है क्योंकि वह डूबते डूबते बचा है, एक नाटी और मोटी लड़की स्वभाव से हिंसक है और बार बार चेतावनी देती रहती है कि मुझे लाइन मत मारना, एक लड़का जो बहुत अच्छा खिलाड़ी है किंतु नेशनल चयन में पक्षपात हो जाने के कारण उदासीनता का शिकार हो जाता है। इन सब की अपनी अपनी प्रतिक्रियाएं हैं, और उन्हें एक टीम में समेटना तराजू में मेंढक तौलने की तरह है। उन्हें खिलाने के लिए सार्वजनिक बस में चंडीगढ ले जाते समय उनकी हरकतों से यात्री डर जाते हैं और ‘पागलों’ को साथ ले जाने से मना कर के बीच रास्ते में ही उतार देते हैं। बच्चों को पागल कहने पर कोच [आमिर खान] का झगड़ा हो जाता है। रास्ते से ही वह अपनी पत्नी को फोन कर किसी गाड़ी की व्यवस्था करने को कहता है, जिससे उनका रुका हुआ संवाद शुरू होता है। इसी संवाद से उसे समझ में आता है कि वह इगोइस्ट है और सबका अपना अपना नार्मल होता है क्योंकि सबकी परिस्तिथियां भिन्न भिन्न हैं। जब बास्केट बाल की टीम फाइनल में पहुँच जाती है तो सेवा संघ का मैनेजर बताता कि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि टीम को मुम्बई भेज सकें। मजबूरन कोच को कभी अभिनेत्री बनने की इच्छा रखने वाली पत्नी को पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका में लाकर मजदूरों का शोषण करने वाले होटल मैनेजर पर दबाव बनाना पड़ता है जिससे वह बच्चों को मुम्बई भिजवा दे।

इसी क्रम में आम हिन्दी फिल्मों की तरह का संयोग भी जोड़ा गया है जिसमें आश्रम जाने का कह कर बाबर्ची के साथ गयी उसकी माँ उसी होटल में टकरा जाती है और उसका राज खुल जाता है। आमिर क्रोधित होता है किंतु उसकी पत्नी मामले को शांत करती है। वह इसे उनका नार्मल मानने को मजबूर हो जाता है।

फाइनल मैच में बच्चे बहुत अच्छा खेलते हैं किंतु अंत में हार जाते हैं। वे हार पर भी खुश हैं और उनमें से एक कहता है कि मेरी माँ कहती है कि दो एक से बड़ा होता है। हमेशा जीतने और एक नम्बर पर होने की वासना से भरा कोच बच्चों की खुशी में अपना दुख भूल जाता है और सब खुशी मनाते हैं। इसी खुशी के माहौल में उसकी माँ और बाबर्ची की शादी हो जाती है।

फिल्म में तेज कार चलाने वाले, जल्दी गुस्सा हो जाने वाले कोच का लिफ्ट में जाने से डरना चरित्र मे अस्वाभाविकता पैदा करता है, फिर भी परोक्ष में फिल्म देश की विविधता को स्वीकार कर एकता का सन्देश देती है। एक नई नैतिकता अपनाने और पितृसत्ता के दोषों से मुक्त होने का सन्देश भी देती है। कुल मिला कर एक वर्ग विशेष के लिए आमिर खान की फिल्मों की श्रंखला में एक और अच्छी फिल्म है। आमिर खान तो अभिनय में हमेशा की तरह लाजबाब हैं ही, जेनेलिया में बहुत सम्भावनाएं नजर आती हैं, उनकी गिनती इस फिल्म से बड़ी अभिनेत्रियों में होने लगना तय है।       

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

  

मंगलवार, फ़रवरी 11, 2025

दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम

 

दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम

वीरेन्द्र जैन

दिल्ली विधानसभा के चुनाव सम्पन्न होने के बाद उसके परिणाम आ चुके हैं। इन चुनावों में सीधे सीधे दो दलों, आम आदमी पार्टी [आप] और भारतीय जनता पार्टी [भाजपा] के बीच मुकाबला था, भले ही इस रासायनिक क्रिया में उत्प्रेरक के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व ए आई एम आइ एम [अखिल भारतीय मुस्लिम एकता संघ ] भी थीं। यदि ये उत्प्रेरक नहीं होते तो सीटों के परिणाम में भी दोनों मुख्य प्रतिद्वन्दी बिल्कुल बराबर पर होते या विपरीत होते। अभी भी उनके मतों के बीच कुल दो प्रतिशत का अंतर है। वैसे पिछले विधानसभा चुनावों से भाजपा के वोट सात प्रतिशत बढे हैं तो आम आदमी पार्टी के आठ प्रतिशत घटे हैं। लोकसभा चुनावों में भाजपा को 50% वोट मिले थे और संयुक्त रूप से लड़ने वाली काँग्रेस [18%] व आप [22%] अर्थात कुल 40% वोट मिले थे। यह बताता है कि दिल्ली में चुनाव अनुसार मत बदलने वाले मतदाता बड़ी संख्या में हैं। जिन मतदाताओं ने तीन बार राज्य में आम आदमी की सरकार बनवायी, उन्हीं ने उसके ठीक बाद भाजपा प्रत्याशियों को लोकसभा में भेजा।

 

चूंकि हमारी प्रणाली में विजेता जनप्रतिनिधियों की संख्या का महत्व सचेत मतदाताओं की संख्या से अधिक होता है, इसलिए चुनावी जीत कुछ अर्थ रखती है। विपक्ष में रहने के दौरान लोहिया पंथियों के कथन हुआ करते थे कि ज़िन्दा कौमें पाँच साल तक इंतजार नहीं करतीं। वे निरंतर सड़क के आन्दोलन किया करते थे। अब वैसा नहीं होता। अन्ना आन्दोलन के बाद जनता का स्वतःस्फूर्त कोई आन्दोलन नहीं हुआ, भले ही वेतन आदि में वृद्धि के लिए संगठित मजदूर कर्मचारियों के प्रदर्शन भले ही हुये हों, या कुछ वर्ष पूर्व एम एस पी के लिए सम्पन्न किसानों का आन्दोलन हुआ था। पिछले दिनों विशाल बहुमत से सरकार बनाने वाले केजरीवाल और उनकी पार्टी के प्रमुख लोगों को बिना किसी ठोस सबूत के जेल में भी डाल दिया गया फिर भी इस कार्यवाही के खिलाफ कोई विरोध प्रदर्शन तक नहीं हुआ।  कारण यह रहा कि वे सब प्रभुता के मद से घिर चुके थे, और ना तो उनकी पार्टी का संगठन ही बनाया गया था और ना ही कोई ठोस कार्यक्रम ही बनाया गया था जिसकी रक्षा के लिए कार्यकर्ता आदोलन करने लगते।

विडम्बना यह रही कि उक्त विधानसभा चुनाव में दोनों प्रमुख और दोनों उत्प्रेरक दलों में से किसी ने भी लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप चुनाव नहीं लड़ा। पूरा चुनाव सत्तारूढ आम आदमी और उसके पूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की आलोचना पर केन्द्रित रहा। अरविन्द केजरीवाल ने तत्कालीन काँग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ चले आन्दोलन से लोकप्रियता अर्जित की थी और उसे राजनीतिक दल में बदलकर अपनी पार्टी बना ली थी। इस पार्टी ने आरोपों से घिरी काँग्रेस पार्टी द्वारा खाली किये गये स्थान को भर कर अपना अस्तित्व बनाया था। उसका इकलौता कार्यक्रम और नीति थी, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देना। उसने यह कर के दिखाने की कोशिश भी की। दूसरी ओर देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने अपने अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा छोड़ा हुआ था और वे काँग्रेस द्वारा खाली किये गये स्थान को भरने के लिए उतावले थे, इस कारण दोनों में प्रतियोगिता थी। देश के मतदाताओं में एक बड़ा वर्ग अभी भी गैर राजनीतिक आधार पर वोट देता है इसलिए भाजपा के पास एक सुनिश्चित हिन्दू वोट बैंक है और मुस्लिम मतदाता एकजुट होकर भाजपा को हराने वाले दल को समर्थन देते हैं। दिल्ली के चुनाव में आम आदमी के साथ काँग्रेस और एआईएमआईएम के बीच बंट गया फिर भी अधिकतम हिस्सा आम आदमी पार्टी को ही मिला, पर वह सीटें जीतने वाला बहुमत नहीं अर्जित कर सकी और पिछड़ गयी। जीत दर्ज करने वाली भाजपा केवल अपनी केन्द्र सरकार को ही दुहराती रही। डबल इंजन की सरकार को प्रचार का आधार बनाना यह भी बताता है कि केन्द्र सरकार अपने ही दल की सरकार को वांछित मदद करती है। कुल मिला कर दल के आधार पर चुनाव परिणाम का निष्कर्ष निम्नानुसार है –

भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस – इसके स्थानीय नेताओं ने उनकी सरकार पर लगाये गये आरोपों का बदला लेने के लिए वोट काट कर आम आदमी पार्टी से बदला ले लिया, भले ही वे एक भी सीट नहीं जीत सके हों और जिस बड़े उद्देश्य अर्थात साम्प्रदायिक भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए बनाया गये इंडिया गठबन्धन को चोट पहुंचायी हो। काँग्रेस के बड़े नेताओं की असहमति से यह हुआ है तो काँग्रेस की एकता को भी नुकसान पहुंचा है।

भारतीय जनता पार्टी- विधानसभा चुनाव जीत गयी है किंतु उसको लोकसभा में अर्जित वोटों में घटत मिली है। पराजित आम आदमी पार्टी से कुल दो प्रतिशत मत से ही आगे है, दूसरे मुख्यमंत्री चयन के सवाल पर उसे बहुत सारे समझौते करना होंगे। प्रतियोगिता में उसने जो अतिरंजित वादे किये हैं उन्हें निभाने में मुश्किलें आयेंगीं।

आम आदमी पार्टी-  पार्टी चुनाव हार गयी है किंतु यह पार्टी एक व्यक्ति को केन्द्रित कर सिद्धांत और संगठन विहीन पार्टी थी। इसके प्रमुख नेता की छवि को भाजपा ने खराब किया, उसे और उसके सहयोगियों को महीनों जेल में डाल कर रखा। जिस ईमानदारी के आधार पर इन्होंने अपना अस्तित्व बनाया था उसे ही दागदार किया गया। इसके पास जन समर्थन तो है किंतु संसाधनों की कमी है। इनके विधानसभा अध्यक्ष ने पार्टी छोड़ कर भाजपा ज्वाइन कर ली और यही काम टिकिटों से वंचित होने पर आठ और अन्य विधायकों ने भी किया। पार्टी के संस्थापकों में से अनेक पहले ही जा चुके थे जिनमें से एक कवि तो घनघोर आलोचक हैं। इनकी प्रशासनिक ईमानदारी के इतिहास के कारण इनकी जगह भरने वाली पार्टी लम्बे समय तक सतर्क होकर काम करेगी।

ए आइ एम ए आइ एम- मुस्लिम साम्प्रदायिक पार्टी है, हर चुनाव में ध्रुवीकरण करके हिन्दू साम्प्रदायिक पार्टियों को लाभ पहुंचा कर खुद भी लाभांवित होती है। इस चुनाव में भी बिना कोई सीट जीते लाभ में रही। अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी उपस्थिति बना ली।

किसी शायर का शे’र है –

अय परिन्दो हिज्र करने से भी क्या हासिल हुआ / चोंच में थे चार दाने, चार दाने ही रहे

बुधवार, जनवरी 15, 2025

श्रद्धांजलि : राम मेश्राम उन्होंने कभी गलत के साथ समझौता नहीं किया

 

श्रद्धांजलि : राम मेश्राम  

उन्होंने कभी गलत के साथ समझौता नहीं किया

वीरेन्द्र जैन


गत ग्यारह जनवरी 2025 को गज़लकार पूर्व प्रशासनिक अधिकारी राम मेश्राम का 80 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने सरकारी पद पर रहते हुए इस समय में नियमों का पालन करते हुए शुचिता के जो मानक स्थापित किये वे उन्हें अपनी तरह का अकेला साबित करते थे। साहित्य और संगीत के प्रति उनका समर्पण बे मिसाल था। मेरा परिचय उनसे साहित्यिक गोष्ठियों के माध्यम से ही हुआ।

बहुत से लोग अपनी पहचान बनाने के लिए युवा अवस्था में साहित्य और कलाओं से जुड़ते हैं किंतु कोई पद प्राप्त करने के बाद उसे पीछे छोड़ देते हैं पर इसके विपरीत राम मेश्राम उन लोगों में से जिनका साहित्य अनुराग, पद के साथ साथ गहरा होता गया। मेश्राम जी और मेरे दूसरे प्रशासनिक अधिकारी मित्र जब्बार ढाकवाला एक ही बैच के थे किंतु जब्बार जी अधिक सक्रिय व युग अनुकूल व्यवहारिक थे इसलिए उनका आई ए एस में चयन हो गया था और मेश्राम जी पीछे रह गये थे। उन्होंने ना तो कभी सिफारिश करवायी और ना ही अपने पद के निर्वहन में किसी की अनुचित सिफारिश मानी इसलिए भी वे राजनेताओं से गठजोड़ नहीं कर सके।

उन्होंने हिन्दी गज़ल की विधा में रचनाएं कीं और संगीत आयोजनों की समीक्षाएं लिखते लिखते खुद भी संगीत का शौक पाल लिया था। मैंने एक लेख लिखा था ‘ हिन्दी गज़ल को गज़ल [उर्दू] से भिन्न विधा मानें’। यह लेख उस समय लिखा गया था जब उर्दू के उस्ताद शायर हिन्दी गज़ल को गज़ल के मानदण्डों से नाप कर उसे कमजोर बताने में लगे थे। मेरा कहना था कि जैसे नई कविता ने छन्द से मुक्त होकर अपनी अलग राह पकड़ी और बात ज्यादा सरल तरह से कह कर अपना स्थान थोड़ा ऊपर बना लिया है उसी तरह हिन्दी गज़ल ने अनावश्यक बन्धनों से मुक्ति लेकर अपने कथ्य पर ध्यान केन्द्रित किया, लोगों के दिलों को छुआ और लोकप्रियता प्राप्त की। हिन्दी गज़ल नवगीत की तरह है जो निजी दुख दर्द की जगह समाज की बात अधिक करती है। दुष्यंत आदि इसके सबसे प्रमुख उदाहरण हैं। यह विचार अनेक उन लोगों को पसन्द आया जो हिन्दी गज़ल के नाम से रचनारत थे। मेश्राम जी भी उनमें से एक थे। प्रकाशन से पूर्व जिन मित्रों को रचना सुना कर प्रतिक्रिया ली जाती है, उन्होंने उनमें मुझे भी शामिल कर लिया था। मैं भी उनको यह कह कर अपनी सलाह देता था कि यह अच्छी रचना अगर मैंने लिखी होती तो इन शब्दों का प्रयोग करता। उन्हें दूसरे मित्रों की तुलना में मेरा यह अन्दाज पसन्द आता जिसमें कहीं ऊंच नीच का भाव नहीं होता।

मेश्राम जी सरकारी नौकरी के आरक्षित वर्ग की उस पीढी से आते थे जिनके परिवारीजनों ने संविधान लागू होने के बाद इस सुविधा का पहले पहले लाभ लिया था इसलिए अगली पीढी व उनके पूरे परिवारीजन और रिश्तेदार शिक्षित थे व सरकारी नौकरी में थे। उन्होंने बुद्ध और अम्बेडकर को पढा ही नहीं समझा भी था, व अपनाया भी था। मैं वामपंथी राजनीति से प्रेरित था व लेखन का शौक पूर करने के लिए स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले चुके होने के कारण भरपूर लिख व छप रहा था। मेरे ज्यादा छपने का एक कारण यह भी था कि प्रकाशन संस्थानों के लायक लिखने के बाद भी उनसे पारश्रमिक का कोई दुराग्रह नहीं करता था। मेरा लिखना मेश्राम जी को पसन्द आता था।

उन्होंने पत्रकारिता में डिग्री ली थी और प्रारम्भ में म.प्र. के जनसम्पर्क विभाग में जनसम्पर्क अधिकारी के रूप में ही सेवायें दीं। इस विभाग के बड़े अधिकारी उनके समकालीन रहे थे और वे इस मामले में सक्षम थे कि किसी भी पत्र पत्रिका को उसकी पात्रता व विभाग के नियमानुसार विज्ञापन दिलवा सकें। भोपाल ही नहीं दिल्ली आदि से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के सम्पादक प्रकाशक भी उनसे सहयोग की अपेक्षा रखते थे। कई समाचार साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं के सम्पादकों को उन्होंने मुझ से रचना मांगने के लिए कहा। उनके आग्रह पर मैंने उन्हें रचनाएं दीं जिसे उन्होंने सम्मान पूर्वक प्रकाशित भी कीं। उन दिनों मैं ताजा ताजा राज्यस्तरीय पत्रकार के रूप में मान्य हुआ था और इस मान्यता को सही सिद्ध करने में जी जान से जुटा हुआ था।

अगर भोपाल या भोपाल से बाहर किसी साहित्यिक कार्यक्रम का उन्हें आमंत्रण मिलता तो वे आयोजकों को मुझे भी निमंत्रित करने के लिए कहते और कनफर्म हो जाने के बाद वे अपने वाहन से साथ चलने के लिए कहते। इस बीच उक्त आमंत्रण में उनकी भूमिका की कोई चर्चा नहीं होती। यह बात बाद में पता चली कि वे आयोजक को मना भी कर देते थे कि इस आमंत्रण में उनकी भूमिका की कोई चर्चा न हो।

सरल सहज और निराभिमानी होने के कारण साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए शिखर के किसी साहित्यकार के न आ पाने की स्थिति में वे अच्छे विकल्प माने जाते थे। नौकरशाही में उलझे किसी भी सही मामले में वे अपने प्रभाव व सम्पर्क का लाभ उपलब्ध करा सकते थे, उसके पक्ष में दलील दे सकते थे। उनकी स्वच्छ छवि के कारण कोई उन पर अनावश्यक पक्षधरता का सन्देह नही करता था। सेवा निवृत्ति के बाद जब उनको नर्मदा बाँध में बांटे गये मुआवजों की शिकायत सुनने की जाँच समिति में पद का प्रस्ताव मिला तो मुझसे चर्चा हुयी। मैंने बिना मांगे सलाह दी कि यह पद स्वीकारना उनके लिए ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें इतनी पोल और दबाव होंगे कि सिवाय झूठे आरोपों के कुछ हासिल नहीं होना है, व अंततः नीचे से ऊपर तक सभी असंतुष्ट रहेंगे। उस समय तो उन्होंने कुछ नहीं कहा पर अंततः उन्होंने वह पद नहीं स्वीकारा।

एक दिन उनका फोन आया और पूछा कि वो तुम्हारे अम्बेडकर वाले लेख की कापी तो है। मैंने हामी भरी तो बोले कल ज्ञानवाणी चले जाइए और उसे रिकार्ड करा दीजिए, मैं तो अम्बेडकर जयंती पर कई साल से जा रहा हूं और बार बार वही बात कहता आ रहा हूं, तुम्हारे उस लेख में एक नया कोण है। मैं चला गया रिकार्ड करा दिया जहाँ से हाथों हाथ पाँच सौ रुपयों का चैक भी मिल गया, जो मैंने सोचा भी नहीं था। एक बार दिल्ली प्रैस के मालिक परेशनाथ भोपाल आये तो उन्होंने स्थानीय लेखकों को मिलने के लिए बुलवाया जिनमें मेश्राम जी भी एक थे। वे भारतीय भाषाओं की पत्रिकाओं के सम्पादकों के संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे तो उनसे बहुत सारी सूचनाएं भी मिलीं और देर तक बात हुयी। जब मेश्राम जी आये तो उन्होंने दिल्ली प्रैस की पत्रिकाओं की सामग्री की कठोर समीक्षा की व अपने बैग से ढेर सारी पत्रिकाएं निकाल कर दिखाते हुए कहा कि देखिए रचनाएं ये होती हैं। संयोग से उन्होंने जिन पत्रिकाओं के जो पृष्ठ दिखाये वे सब मेरी रचनाओं के थे। मैं अचम्भित था और सोच रहा था कि परेशनाथ जी क्या सोच रहे होंगे और उनको कैसे बताऊं कि इस सब में मेरी कोई भूमिका नहीं है।

आकाशवाणी के उद्घोषक राजुरकर राज ने अपने निजी प्रयासों से दुष्य़ंत कुमार के नाम पर एक पाण्डुलिपि संग्रहालय स्थापित किया था जो विस्तरित होकर पत्रिकाओं का प्रकाशन। लेखकों के पते, फोन नम्बर और उनके सुख दुख की सूचनाएं भी साझा करने का काम भी करता था। बाद में उन्होंने लेखकों को सम्मानित करना भी प्रारम्भ कर दिया था। बाहर से आने वाले विशिष्ट लेखकों को वे संग्रहालय देखने के लिए आमंत्रित करते थे और चुनिन्दा लोगों को उनसे बातचीत के लिए आमंत्रित करते थे। एक कार्यकाल में उन्होंने राम मेश्राम जी को ट्रस्ट का अध्यक्ष भी चुना था। जब पुष्पा भारती जी का भोपाल आगमन हुआ तो इस अवसर पर मेश्राम जी ने मुझे बुलवाया क्योंकि मैं धर्मयुग में काफी समय तक छपता रहा हूं। इस बातचीत में उनसे सार्थक संवाद हुआ। उन्होंने कुछ बहुत रोचक संस्मरण सुनाये जो भारती जी के साथ लोहियाजी, चन्द्रशेखर, लता मंगेशकर आदि के बारे में थे जो हम लोगों ने पहली बार सुने थे।

नवगीत के प्रति उनको कुछ विशेष लगाव था। हम दोनों ही नईम जी को पसन्द करते थे। जब वे अस्वस्थ हुये तो सरकारी सहायता दिलाने में उन्होंने बहुत प्रयास किये। बाद में भोपाल में भी उनकी स्मृति में एक नवगीत पर सम्मेलन आयोजित कराया व उन पर नवगीत को केन्द्रित कर एक स्मारिका भी प्रकाशित करायी जिसके विमोचन के अवसर आयोजित सम्मेलन में मुझे भी देवास ले गये थे। मैंने नईम जी के निधन पर हंस में जो श्रद्धांजलि लेख ‘ न हन्यते’ स्तम्भ में लिखा था उसमें मेश्राम जी के प्रयासों का उल्लेख भी किया था।

छोटी छोटी बहुत सी यादें हैं। पिछले कुछ वर्षों से वे होशंगाबाद रोड पर अपने नये मकान में रहने चले गये थे और मुलाकातें कम हो गयी थीं। उनके अस्वस्थ होने की जगह अखबार से सीधी उनके निधन की खबर मिली। विद्युत शवदाह गृह में बौद्ध रीति रिवाज से उनका अंतिम संस्कार हुआ। एक बात कई दिनों से सता रही है कि उन्होंने साहित्य संगीत व प्रकाशन के क्षेत्र में भोपाल के सैकड़ों लोगों की बिना किसी स्वार्थ के मदद की किंतु उनके अंतिम संस्कार के समय दुष्यंत संग्रहालय की करुणा राजुरकर व अध्यक्ष वामनकर जी के अलावा उनके साहित्यिक मित्रों में मैं अकेला था।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल 462023

फोन न. 0755 4205073