रविवार, नवंबर 01, 2009

समीक्षा मेरे मुंह में ख़ाक -लेखक मुश्ताक अहमद यूसुफी

मेरे मुंह में खाक्””
मुश्ताक अहमद यूसुफी के उपन्यास का हिन्दी अनुवाद
वीरेन्द्र जैन
मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताब - मेरे मुंह में खाक- के हिन्दी में प्रकाशित होने की सुचना के साथ ही इस बारे में कोई दूसर विचार नहीं आया सिवाय इसके कि इसे खरीदना है और पढना है। यह इस्दलिये कि इससे पहले में उनकी किताब- आबे गुम- का अनुवाद -खोया पानी के अंश पहले लफ्ज़ में और फिर पुस्तकाकार पढ कर मुग्ध हो चुका था। -राग दरबारी- के बाद यह दूसरी पुस्तक ठी जिसके पढने का आग्रह में सेकदों दूसरे लोगों से कर चुका था। एक बेहद अच्छे शायर तुफैल चतुर्वेदी अपनी शायरी के साथ साथ इस बात के लिये भी सराहे जायेंगे कि उन्होंने न मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताबों का अनुवाद किया अपितु उसे प्रकाशित करके हिन्दी पाठ्कों तक पहुंचाया। मुझे ऐसा कहना चाहिये फिर भी में नहीं कहता कि यूसुफीजी भारतीय उपमहाद्वीप के सर्वश्रेष्ठ हास्य लेखक हैं पर इतना ज़रूर कह सकता हूं कि हास्य व्यंग्य की असंख्य पुस्तकें पढ जाने के बाद भी मैंने इससे बेहतर कोई भी हास्य पुस्तक नहीं पढी। पुस्तक का फ्लेप मैटर सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने और भूमिका डा. ज्ञान चतुर्वेदी ने तैयार की है और वे दौनों भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।
मैंने जब भी युसुफी जी की किताब के बारे में लिखने की सोची तो में यह नहीं तय कर पाया कि कहां से शुरुआत की जाये क्योंकि सिरे से आखिर तक पूरी किताब ऐसे ऐसे ज़ुम्लों से भरी हुयी है कि पढते समय अंडरलाइन करता गया तो पूरी किताब ही अंडरलाइन हो गयी जैसे कि कम्प्यूटर में सलेक्ट आल का विकल्प होता है।
कहा गया है और सही कहा गया है कि दृष्टा ही सृष्टा होता है भोक्ता सृष्टा नहीं होता। उनकी पुस्तकें पढ कर लगता है कि वे किसी विदेह की तरह इस पूरी दुनिया को देखते और इस फानी दुनिया के कार्य कलापों”को ऐसे ज़ुमलों में व्यक्त करते हैं कि इस नटखट दुनिया की शैतानियों”पर एक वात्सल्य भरा आनन्द महसूस होता है। ऐसा लगता है कि पाठक भी हंस कर प्रभु से प्रार्थना करता महसूस होता है कि- हे प्रभु इन्हें माफ कर देना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।
उक्त पुस्तक में एक जगह वे अपने पात्र के मुंह से कहलवाते हैं- हर वह जानवर जिसे मुसलमान खा सकते हैं पाक है, इस कारण से मुस्लिम देशों में बकरों को अपनी पवित्रता के कारण खासा नुकसान पहुंचा है।
अपनी भूमिका में वे लिखते हैं कि स्वयं प्राक्थान लिखने में वही आसानी और फायदे निहित हैं, जो खुद्कुशी में होते हैं, यानि देहांत की तिथि, हत्या का उपकरण,और हत्या के स्थान का चयन मृतक खुद करता है।
वे कहते हैं कि यह किताब चराग तले के पूरे आठ साल बाद प्रकाशित हो रही है। जिन प्रशंसकों को हमारी पहली किताब में ताज़गी, ज़िन्दादिली और जवानी का अक्श नज़र आया, सम्भव है कि उन्हें बुज़ुर्गी के आसार दिखायी दें। इसका कारण हमें तो यही लगता है कि उनकी (पाठक) उम्र में आठ साल की बढोत्तरी हो चुकी है।
aaआगे कहते हैं कि इंसान को हैवाने ज़रीफ (प्रबुद्ध जानवर्) कहा गया है लेकिन यह हैवानों के साथ बड़ी ज्यादती है, इसलिये कि देखा जाय तो इंसान अकेला वह जानवर है जो मुसीबत से पहले मायूस हो जाता है।
अगर आप को इस किताब की कोई ऐसी प्रति मिल जाय जो इससे पहले कोई आलोचक पढ चुका हो तो आपको हर पेज पर ढेरों हाईलाइट किये हुये वाक्य मिल जायेंगे, पर आप आलोचक की आलोचना करते हुये कहेंगे कि जो वाक्य उसने हाईलाइट करने से छोड़ दिये हैं वे क्यों छोड़ दिये हैं!
में उनके उदाहरण देने की गलती नहीं करूंगा जैसा कि अच्छी पार्टी के बुफे भोजन के बाद लगता है कि फलां आइटम तो खा ही नहीं पाये!
इस हाईटेक ज़माने में आपको इस किताब को प्राप्त करने के लिये कोई चिटठी पत्री ड्राफ्ट मनी आर्डर की ज़रूरत नहीं है अपितु आप केवल लफ्ज़ के खाता संख्या 2629020000251 में बैंक आफ बड़ोदा में 300/-रुपये ज़मा करने के बाद वहीं से मोबाइल नम्बर 9810387857 पर पूरा पता एस एम एस कर दें तो आपको अति शीघ्र डाक या कोरिअर से किताब मिल जायेगी।
में अंत में केवल इतना ही कह सकता हूं कि शिषृ हास्य व्यंग्य को पसन्द करने वाला कोई भी व्यक्ति जो उक्त राशि व्यय कर सकता हो अगर इस किताब को स्टाक खत्म होने से पहले मंगा कर नहीं पढेगा तो यह उसका दुर्भाग्य होगा। अगर में इसका परकाशक होता तो यह भी लिखना देता कि पसन्द न आने पर पैसे वापिस्।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

5 टिप्‍पणियां:

  1. जरूर पढूंगा। आप सराहें। और हम वंचित रह जाएं। ऐसा नहीं होगा। इस पोस्‍ट का लिंक नुक्‍कड़ पर जोड़ रहा हूं जिससे अधिक से अधिक पाठक मिलें और अपना ज्ञानवर्द्धन करें। सबके हित में अपना हिट। आभारी हूं।

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  2. क्यों नही ऐसी हास्य की किताब भला कोई पढ़ने से चूक जाए..हो ही नही सकता..पढ़ना ही पड़ेगा...

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  3. यह अच्छी समीक्षा भी है ।
    शरद कोकास "पुराततववेत्ता " http://sharadkokas.blogspot.com

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