गुरुवार, जून 10, 2010

भोपाल गैस काण्ड- फैसला तो हो गया न्याय कब होगा


भोपाल गैस काण्ड का फैसला तो हो गया पर न्याय कब होगा
वीरेन्द्र जैन
आज भोपाल शहर सारी दुनिया में जाना जाता है किंतु यह अपने सबसे बड़े तालाब के कारण नहीं, लम्बे समय तक बेगमों के शासन के कारण नहीं, यहाँ के लोकप्रिय शायरों के कारण नहीं अपितु 1984 में हुये ज़हरीले भोपाल गैस काण्ड के कारण जाना जाता है। लगभग वैसे ही जैसे कि जापान का हिरोशिमा और नागासाकी जाना जाता है। सारी दुनिया को पता है कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड जैसी अमरीकी कम्पनी का कारखाना था जो शहर के बीचों बीच था। एक दिसम्बर की रात में इस कारखाने से ज़हरीली मिक गैस का रिसाव हुआ जिसने पूरे शहर के निचले इलाकों को प्रभावित किया था जहाँ ज्यादातर गरीब लोग रहते थे। तीन हज़ार लोग तो तुरंत ही मर गये थे तथा जो लाखों लोग प्रभावित हुये थे उनमें से पन्द्रह हज़ार कुछ ही दिनों में मौत के शिकार हो गये। गैस पीड़ित होने का दावा करने वाले चार लाख पचहत्तर हज़ार लोगों को उनके आवेदनों के आधार पर अदालतों ने गैस पीड़ित स्वीकार किया है।
जैसा कि होता आया है, वैसे ही इस भीषण दुर्घटना की भी जाँच बैठी, और जैसा कि होता आया है जाँच का दिखावा पीड़ितों के पक्ष में बताया गया, किंतु जैसा कि होता आया है जाँच धन कुबेर विदेशी फैक्ट्री मालिक के नेताओं के साथ मधुर सम्बन्धों, विदेश विभाग के दबाओं और जाँच कर्ताओं पर इनके अंकुश की भेंट चढ गयी। इस बीच उच्च न्यायालयों ने थोड़ा सा मुआवजा घोषित करवा दिया जिसे पाने के लिए मोहताज और तिकड़मबाज मिल कर टूट पड़े। यह वैसा ही था जैसे अपने पीछे भागती आ रही भीड़ को भटकाने के लिए कोई लुटेरा नोट फैंकते हुए भागे और पीछा करने वाले अपना ध्यान नोट बटोरने में लगा कर पीछा करना छोड़ दें। गरीबों की मजबूरी होती है कि ज़िन्दा रहने के लिए की जाने वाली ज़द्दोज़हद में वे अपनी लड़ाई दूर तक नहीं ले जा पाते और मरते खटते रोटी कमाने की लड़ाई में बड़े दुश्मन के सामने अपने को हारा हुआ ही महसूस करके रह जाते हैं। परिणाम यह हुआ कि कोई बड़ा जन आन्दोलन खड़ा नहीं हो पाया। कुछ संस्थाएं खड़ी हुयीं पर वे झूठे सच्चे मुआवजे दिलाने की लड़ाई में उलझ कर रह गयीं। कई संस्थाओं के पदाधिकारी साइकिल से हवाई जहाज का सफर करने लगे और झोपड़ी से निकलकर बंगलों में रहने लगे।
किंतु अपने देश में जो शासन प्रणाली चल रही है उसका नाम लोकतंत्र है और चाहे जैसे होते हों पर चुनाव होते हैं। नियत समय पर होने वाले इन चुनावों के लिए नेताओं को जनता के पास आना होता है। उनके वोट पाने के लिए उन्हें कुछ सपने दिखाने होते हैं, कुछ लालच देने होते हैं, और अतीत में हुयी ज्याद्तियों के खिलाफ न्याय के वादे करना होते हैं। भोपाल का ज़हरीली गैस काण्ड भी इसी राजनीति का शिकार हुआ। चुनाव के समय न्याय के वादे किये गये, भोपाल के सभी वार्डों को गैस पीड़ित घोषित करने का लालच दिया जाता रहा किंतु प्रदेश के दौनों ही प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस इसी कम्पनी से चुनाव का चन्दा लेते रहे।
लम्बे समय तक चली जाँच के बाद मुकदमा दर्ज़ किया गया जिसे खींचा जाता रहा, इसका खुलासा फैसला आने के बाद प्रकरण दायर करने वाली संस्था सीबीआई के पूर्व अधिकारी बी के लाल ने यह कह कर किया ही है कि विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने वारेन एंडर्सन के मामले में आगे न बढने की सलाह के बाद जाँच प्रभावित हुयी थी। तत्कालीन मुख्य मंत्री ने किसके दबाव में वारेन एंडेर्सन को सरकारी हवाई जहाज उपल्ब्ध कराके सुरक्षित वापिस भेजा था इसका खुलासा होना अभी बाकी है।

जो प्रकरण अदालत में चल रहा होता है उस पर अदालत का सम्मान करने के नाम कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता- शांततः कोर्ट चालू आहे-। अदालत जारी रही, मुकदमा चलता रहा एक दो तीन चार नहीं अपितु पूरे पच्चीस साल तक न्याय की प्रतीक्षा बनी रही। भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर संस्थाएं गठित हुयीं जो क्रमशः गैस पीड़ितों को मुआवजा जैसी खैरात दिलाने या उनके मुहल्ले में पानी बिजली आदि जैसी ज़रूरी सुविधाएं दिलाने की राजनीति करती रहीं। बहुत सारी संस्थाओं के प्रमुख बड़े अधिकारियों के साथ बैठने, बड़े नेताओं के साथ विमर्श करने और मीडिया को बाइट देते देते स्टार बनते गये। गैस पीड़ितों की लड़ाई उनका धन्धा बनता गया, और धन्धे को कोई भी जल्दी बन्द नहीं करना चाहता।
अदालत ज़ारी रही न्यायाधीश बदलते रहे और उन्नीसवें न्यायाधीश ने अपना फैसला सुनाया जिसमें सभी आरोपियों को सजा मिली केवल दो साल की। कानून यही कहता है और दलीलें अदालतों को इसी फैसले तक पहुँचाती है। इसके बाद आरोपियों को तुरंत जमानत भी मिल गयी । उन्हें आगे फैसले के खिलाफ उच्च न्यायलयों में जाने का अधिकार है। ये अदालतें अगर इसी गति से चलीं तो जब फैसला आयेगा तब न न्याय को तरसती आँखें रहेंगीं और न ही आरोपी रहेंगे। रह जायेगा केवल दो-तीन दिसम्बर 1984 की रात का काला इतिहास और पीढितों द्वारा अपने वंशजों को दी हुयी आनुवांशिक बीमारियां।
फैसला सबूतों, दलीलों, गवाहियों, और धाराओं के आधार पर होता है न कि भावनाओं के आधार पर, न की भीड़ की माँग के आधार पर। और यह कोई अकेला फैसला थोड़े ही है। इसी मध्य प्रदेश में पिछले दिनों अनेक ऐसे फैसले हुये हैं जिनमें न्यायाधीश को खुद लिखना पड़ा है कि अभियोजन की रुचि आरोपियों को सजा दिलाने में नहीं थी। इसी तरह इस में भी फैसला तो हुआ पर न्याय नहीं मिला।
मेरे एक न्यायाधीश मित्र एक किस्सा सुनाते थे कि गाँव के एक दबंग ने एक युवती के साथ ऐसी यौनिक छेड़छाडं कर उसका ऐसा अपमान कर दिया था जिसका कानून में अधिकतम दण्ड पचास रुपया था। अपने फैसले में न्यायाधीश ने उक्त दण्ड दिया। अपराधी ने हँसते हुये कहा कि जज साहब हमारे पास सौ का नोट है खुल्ले नहीं है सो आप एक बार और वैसा ही काम कर लेने दो और उसकी सजा भी सुना दो। बाद में उन्होंने उस पर अदालत की मानहानि का मुकदमा चलाया यह अलग बात है किंतु जज तो वही सजा दे सकता है जिसे अभियोजन ने सिद्ध किया है और जिसके लिए जितनी सजा का प्रावधान है।
इस फैसले में यह बात भुला देनी पड़ी कि सजा से न केवल अपराधियों को दण्डित ही किया जाता है अपितु दूसरे लोगों को यह सन्देश भी दिया जाता है कि अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें ऐसी ही सजा मिलेगी। अब कोई भी फैक्ट्री वाला पन्द्रह हजार लोगों को मौत के मुँह में धकेल सकता है, चार लाख पचहत्तर हजार लोगों और उनकी अगली पीढियों को रोगग्रस्त बना सकता है एक पूरे हरे भरे ऎतिहासिक शहर को जहरीला बना सकता है, और उस घटना के पच्चीस साल बाद उसे कुल दो साल की सजा मिलेगी। ऐसी ही सजाओं पर रुचिरा जैसी मासूमों की मौत के लिए ज़िम्मेवार देश के राठौर सजा के बाद अदालत के बाहर आकर मुस्कराते हैं। उनकी यह मुस्कान हमारी व्यवस्था के खिलाफ एक हिकारत भरी टिप्पणी होती है।
नई आर्थिक नीति आने के बाद विदेशी कम्पनियों के लिए पलक पाँवड़े बिछाने वाली सरकारें बड़े गर्व के साथ घोषित करती हैं कि उन्होंने इंसपेक्टर राज्य को समाप्त कर दिया है। ऐसा इसलिए किया क्योंकि इंसपेक्टर फैक्ट्री मालिकों की जाँच करते रहते थे और व्यवस्था की कमजोरियों के अनुरूप उन पर सख्त दबाव बनाते थे। उद्द्योगपतियों के ये सतारूढ हितैषी उन फैक्ट्री मालिकों के हित में यह भुला देते हैं कि इंस्पेक्टरों का ठीक तरह काम न करना उनके शासन प्रशासन की कमजोरी होती है कि न कि इंस्पेक्टर के काम की। अगर शासन प्रशासन ईमानदार है तो कोई इंसपेक्टर बेईमान नहीं हो सकता। इंसपेक्टरों के महत्व को भुलाया नहीं जा सकता।
इस नीति में विदेशी कम्पनियों के लिए दरवाज़े ही नहीं खोल दिये गये हैं अपितु चौखटें तक निकाल कर फेंक दी गयी हैं, उन्हें आमंत्रण देते हुये राज्य में औद्योगिक शांति को ‘विज्ञापित’ किया जाता है जिसका मतलब यह होता है कि श्रम प्रतिरोध हीन शोषण के लिए उपलब्ध है। मजदूर संगठन लगभग समाप्त प्रायः हैं। हाल ही में बाल्को, जेपी, कोल्फील्ड आदि में जन हानि वाली दुर्घाटनाएं घट चुकी हैं किंतु कोई बड़ा आन्दोलन सक्रिय नहीं हो सका। राजनीति में बड़ा हिस्सा वकील हथियाते जा रहे हैं और यही वकील ऊंची ऊंची फीस पर बड़ी बड़ी विदेशी कम्पनियों के “विधिक सलाहकार” होते हैं। जिस दिन ऐसे दलालों की पूरी सूची सामने आयेगी उस दिन आँखें खुली रह जायेंगीं।
भोपाल गैस काण्ड का यह विलम्बित फैसला सारे राजनीतिक दलों और समाज के लिए एक चेतावनी है कि आगे रास्ता किस तरफ को जाता है, और अगर इसे रोकने की कोशिश नहीं हुयी तो देश के सामने वही विकल्प बचेगा जिसे प्रधानमंत्रीजी आज देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बतलाते रहते हैं, और जिसका प्रसार देश के 180 जिलों तक हो गया बताया जा रहा है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629









3 टिप्‍पणियां:

  1. काहे इन चक्करों में पड़े हैं भाई साहब।

    देश की सबसे बड़ी समस्या है भाजपा-संघ और साम्प्रदायिकता, पहले इन्हें समूल नाश कीजिये… बाकी सब अपने-आप ठीक हो जायेगा… :) :)

    कांग्रेस जैसी पवित्र पार्टी और बलिदानी "परिवार" कभी कोई गलत काम कर सकते हैं भला?

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  2. जैन साहब , आप कहाँ थे? बड़ी देर से लिखा आपने यह लेख , अब तो बासी हो गया समझिये क्योंकि इस देश में कौंग्रेस के सुशासन में लोगो ने दो दिन बाद उस गैस काण्ड को भुला दिया था, अब तो सिर्फ २५ साल बाद फैसले की बात हो रही है !

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  3. बहुत खूब

    ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी के साये न होंगे नसीब
    ऐसी मंज़िल का हमें वह रास्ता दे जाएगा

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