स्वयंसेवी और गैर सरकारी संगठनों में पारदर्शिता का अभाव
वीरेन्द्र जैन
स्वयंसेवी संगठन बहुत लम्बे काल से चले आ रहे हैं जो कभी रास्तों में प्याऊ लगवाते थे, धर्मशालाएं, अनाथाश्रम, विधवाश्रम, भंडारे, अस्पताल और स्कूल चलवाते थे। ऐसे स्वयंसेवी संगठन चलाने वालों के प्रति न केवल लाभान्वित लोगों द्वारा धन्यवाद का भाव उभरता था अपितु वे सब जिनके मन में दूसरों के लिए कुछ करने का भाव होता था किंतु जो अपनी सीमाओं के कारण कार्यांवित नहीं कर पाते थे, उनके मन में भी श्रद्धा का भाव पैदा होता था। ये सारा काम समाज का अपेक्षाकृत सम्पन्न वर्ग अपनी आवश्यकता से अधिक कमाई में से करता था व विपन्न वर्ग अपनी निःस्वार्थ सेवाएं देता था। छुट्पुट रूप से ये संस्थान अभी भी कार्यरत हैं पर इन से अलग दो तरह के संस्थान तेजी से उभरे हैं, एक, सन्युक्त राष्ट्र संघ आदि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से चलने वाले संगठन, दूसरे सरकार द्वारा जन कल्याण योजनाएं ठीक से नहीं चला पाने के कारण गैर सरकारी संगठनों को अनुदान देकर काम करवाने की योजना के अंतर्गत काम करने वाले गैर सरकारी संगठन। ये दोनों तरह के संगठन इतनी तेजी से उभरे हैं कि इनकी बाढ सी आ गयी है। वैसे तो बाढ में कचरा आता ही है किंतु यह बाढ ऐसी आयी है जिसने केवल कचरा ही कचरा कर दिया है और कीचड़ ही कीचड़ फैला दिया है।
गत दिनों एक मित्र ने जब कुछ अच्छे सुझाव रखे और मैंने उनके कार्यांवयन के लिए उन्हें एक गैर सरकारी संगठन बनाने की सलाह दी तो उन्होंने कानों से हाथ लगाते हुए कहा कि जब मैंने सारी उम्र पाक साफ तरीके से गुजार दी है तो क्यों जीवन के उत्तरार्ध में कलंकित होने के काम करूं। उन्होंने यह कह कर तो अपनी घृणा को और तीव्रता से प्रकट कर दिया कि जब भी जहाँ भी आप किसी ऐसी संस्था का बोर्ड देखें तो समझ लेना कि यहाँ कोई चोर रहता है। उनका यह कथन बहुत सारे मामलों में इतना कटु सत्य है कि जो अच्छे लोग समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं वे भी इस काजल की कोठरी में उतरने से डरने लगे हैं। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि इन संगठनों के लिए एक ओर तो पिछले कुछ वर्षों में अथाह पैसा उपलब्ध हुआ है पर उनकी कार्यप्रणाली, वित्तीय व्यवस्था और कार्य मूल्यांकन की कोई उचित प्रणाली विकसित नहीं हो सकी है। आज बहुतायत में ऐसे गैरसरकारी संगठन कार्यरत हैं जिनका काम केवल योजनाएं बनाना और धन स्वीकृति के बाद कार्य निष्पादन की झूठी रिपोर्ट तैयार करना है। उनके इस कार्य में प्रोजेक्ट स्वीकृत करने वाले अधिकारी और उसे स्वीकृत कराने वाली दलाल संस्थाएं भी पैदा हो गयी हैं, जो प्रोजेक्ट तैयार करने का प्रशिक्षण देने के नाम पर खुले आम दलाली कर रही हैं। जो लम्पट लोग आवश्यकता पढने पर सौ पचास लोग एकत्रित करने और किसी चर्चित व्यक्ति को मुख्य अतिथि की तरह बुला सकने में सक्षम हैं वे कोई न कोई फर्जी गैर सरकारी संस्था खोले बैठे हैं। बहुत सारे जाति समाज के संगठन और राजनीतिक दलों से जुड़े आनुषंगिक संगठन इस तरह की संस्थाएं खोले बैठे हैं जो किसी भी नाम से बुलायी गयी भीड़ को अपने बैनर के साथ जोड़ कर अपनी कार्य रिपोर्ट बना लेते हैं। छोटे समाचार पत्र जिनके पास अपना कोई फील्ड रिपोर्टेर नहीं होता वे ऐसे संगठनों द्वारा दिये गये समाचार जस के तस छाप कर उनकी रिपोर्ट का झूठा आधार तैयार कर देते हैं।
जो गोष्ठियाँ या सेमीनार आयोजित किये जाते हैं उनके प्रतिभागियों की योग्यता केवल आयोजकों से उनके सम्बन्ध होना भर होती है। किसी प्रतिभागी को यह पता नहीं होता कि इस सेमीनार के लिए कितनी राशि स्वीकृत हुयी थी और वह किस किस मद में कितनी कितनी खर्च होना थी और वास्तव में कितनी हुयी। इन सेमिनारों के निष्कर्षों के प्रयोग और प्रतिफल की जानकारी किसी प्रतिभागी को नहीं होती। उच्च श्रेणी में यात्रा, आरामदायक होटल में निवास और वातानुकूलित हाल में ऊंघते लोगों के बीच वर्षों से रौंदे जा रहे विचारों का पुनर्पाठ ही आयोजन को सम्पन्न कर देता है। भूलवश यदि कभी कोई अपने मौलिक विचारों के आधार पर यथार्थवादी असहमति प्रकट करता है तो वह उक्त संस्थाओं में ब्लेक लिस्टेड हो जाता है। नये विचारों और नई सम्भावनाओं में कोई हाथ नहीं डालना चाहता। ऐसे अनेक लोग हैं जो समाचार पत्र पत्रिकाओं में निरंतर अपने मौलिक विचारों से समाज को परिचित कराते रहते हैं किंतु उन्हें कोई सेमिनार आयोजक बुलाने का खतरा मोल लेकर अपना ‘शो’ नहीं बिगाड़ना चाहता। आकाशवाणी दूरदर्शन जैसी संस्थाएं भी अपने प्रयास से नई प्रतिभाओं की खोज नहीं करतीं। शायद उनके यहाँ चयन की कोई प्रणाली नहीं है और अगर होगी तो वह केवल उनकी फाइलों की शोभा बढाती होगी।
समाज में जब भी अनार्जित धन का प्रवेश होता है वह अनेक तरह की विकृत्तियां लेकर आता है। गैर सरकारी संगठनों में भी धन का यह प्रवाह बहुत सारे मामलों में न केवल विकृत्तियां ही पैदा कर रहा है अपितु देश और दुनिया को स्वास्थ और शिक्षा समेत अनएक समाज सुधार कार्यक्रमों के बारे में उस काम के किये जाने की गलत सूचना दे रहा है जो वास्तव में किया ही नहीं गया हैं। पिछले दिनों आर के लक्षमण ने चुनावों के दौरान एक कार्टून बनाया था जिसमें एक पेड़ के नीचे फटे कपड़ों और बिखरे बालों में बैठे ग्रामीणों के सामने एक नेताजी अपनी उपल्ब्धियाँ बता रहे हैं जिसे सुनकर वे ग्रामीण आपस में कहते हैं कि हमारे लिए इतना कुछ हो गया और हमें पता ही नहीं चला।
अगर सरकार चाहे तो इस त्रुटि को दूर कर सकती है यदि ऐसी संस्थाओं के काम काजों और वित्तीय प्रबन्धन में पारदर्शिता को सुनश्चित कर सके। जब कारपोरेट जगत को अपनी बैलेंस शीट और वार्षिक रिपोर्ट सार्वजनिक करना अनिवार्य है, जब राजनेताओं को अपनी सम्पत्ति घोषित करना जरूरी बना दिया गया है तो गैर सरकारी संगठनों और अनुदान प्राप्त करने वाली स्वयं सेवी संस्थाओं को अपने द्वारा किये गये कार्य और वित्तीय प्रबन्धन को सार्वजनिक करना क्यों जरूरी नहीं किया जा सकता। जब पंचायतें किये जाने वाले कामों को पंचायत भवन की दीवारों पर लिखवाती हैं तो गैर सरकारी संगठनों को अपने कार्य क्षेत्र किये गये कामों को दीवालों पर क्यों नहीं लिखवाना चाहिए। एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि अगर आजादी के बाद किये गये विकास कार्यों के आंकड़ों को क्षेत्रवार बाँट कर देखा जाये तो पूरा देश ही हरा भरा और सम्पन्नता से लबालब नजर आयेगा किंतु यथार्थ दुष्यंत के एक शेर में कहा गया है-
यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियां
हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
बहुत ही अच्छा और सार्थक लिखा है आपने ,लेकिन हम इसमें इतना और जोड़ना चाहेंगे की सरकार हो या गैर सरकारी संगठन या सरकारी संगठन जिसके कार्यों की जाँच का अधिकार आम लोगों को ना हो वो संगठन अच्छा काम कर ही नहीं सकता | इस देश में कुछ संगठन हैं जो बहुत ही अच्छा और सच्चा काम कर रहें है जिनको सहायता और एकजुटता की ताकत से मजबूत करने की जरूरत है ,क्योकि इस देश और समाज को सिर्फ और सिर्फ गैर सरकारी संगठन ही बचा सकता है बशर्ते उसे जन सहयोग से आर्थिक और सामाजिक सहायता मिले क्योकि ईमानदारी भरा आर्थिक आधार तो हर संगठन के लिए जरूरी है | इस देश में हर सरकारी खर्चों और घोटालों की सामाजिक जाँच की आवश्यकता है तब जाकर सरकार सही काम कर सकेगी |
जवाब देंहटाएं