बुधवार, जुलाई 07, 2010

आरक्षित पद समानुपातिक प्रणाली से भरे जायें


आरक्षित पद समानुपातिक प्रणाली से भरे जायें
वीरेन्द्र जैन
हमारे संविधान ने सदियों से चले आ रहे भेदभाव को दूर करने के लिए समाज के उन वर्गों को समुचित प्रोत्साहन देने के प्रावधान किये हैं जो दबे कुचले रहे हैं तथा सामाजिक आर्थिक रूप से समाज के निचले पायदान पर स्थापित किये जाते रहे हैं। संसद और विधान सभाओं के पदों लिए संविधान निर्माताओं ने यह आरक्षण प्रारंभ में दस साल के लिए रखा था और ऐसा करते समय हमारे संविधान निर्माताओं को भ्रम था कि दस साल में ही समाज में ऐसी एकरूपता आ जायेगी जिससे सब सामाजिक रूप से समान हो जायेंगे और बाद में वे स्वतंत्र प्रतियोगिता के बाद योग्यता के आधार पर अपनी प्रतिभा के उपयुक्त स्थान पाने लगेंगे। बाद के हालात ने यह सिद्ध किया कि यह एक बेहद सुखद सपना था या कहें कि कि देने वालों ने किसी मजबूरी में बड़े बेमन से बिना सोचे विचारे यह भ्रम पाल लिया था।
सामाजिक व्यवहारों की जड़ें इतनी सतही नहीं होती हैं कि फूंक मारने से उखड़ जायें अपितु वे ऐसी हवाओं से और अधिक पुष्पित पल्लवित होती हैं। सामाजिक परिवर्तन हमेशा सामाजिक क्रान्तियों से ही आते हैं तथा वे तूफान ही इन बुराइयों के वटवृक्षों का उन्मूलन कर सकते हैं। यद्यपि आरक्षण व्यवस्था के द्वारा कुछ लोगों को रेवड़ियां अवशय मिली हैं किंतु उसका लाभ उन्हें व्यक्ति रूप में ही हुआ है जबकि आरक्षण का उद्देशय उनकी जातियों के उत्थान का था। जिन व्यक्तियों को इसका लाभ मिला उन्होंने इसे अपनी पूरी जाति के साथ बांट कर नहीं भोगना चाहा अपितु अपने जाति भाइयों से काट कर खुद को उन लोगों के साथ बैठा लेने की कोशिश की जो भेद भाव को मानते आ रहे थे और उसे दूर करने के पक्ष में नहीं थे।
परिवर्तन का यह प्रयास ही असल में उल्टा चला। कोई भी स्वयं को दलित पिछड़ा ओर शोषित नहीं बनाये रखना चाहेगा अपितु उन्हें दलित शोषित और पिछड़े वे लोग बनाते हैं जो उनकी इस दशा से आर्थिक सामाजिक और मानसिक रूप से लाभान्वित होते हैं। वे ही लोग इनकी दशा में सुधार के विरोधी भी होते हैं। इसलिए सुधार की आवश्यकता दोनों तरफ से ही थी। जहाँ एक ओर वंचित वर्गों को प्रोत्साहित किये जाने के प्रयास होने थे वहीं दूसरी ओर अपने को उच्च मानने वाले वर्गों की मानसिकता बदलने के लिए उनके अधिकारों और विशिष्ट स्थितियों में कठोरता पूर्वक कमी लाने के प्रयास होने चाहिये थे। अभी हुआ ये है कि वंचित वर्ग के चन्द लोगों को जो थोडे से अवसर दिये गये हैं उसकी तुलना में शोषकवर्ग की आर्थिक सामाजिक शौक्षणिक दशा में उससे भी अधिक तेजी के साथ विकास हुआ है। सवर्णों में कम योग्य लोगों के वंचित हो जाने का कारण भी आरक्षण बतला कर उनकी नफरतों में और भी वृद्धि कर दी गयी है जिसके फलस्वरूप शोषण और दमन के लिए वे और अधिक आक्रामक और संगठित हो गये हैं। आंकड़े बताते हैं कि जो गैर दलित लोग संविधान लागू होने के पूर्व जिस आर्थिक सामाजिक हैसियत में थे वे अब उससे भी बहुत अधिक अच्छी स्थिति में हैं किंतु दलितों व अन्य वंचित वर्गों की दशा में उस अनुपात में विकास नहीं हुआ है और ना ही उनकी मानसिकता में परिवर्तन ही हुआ है जिससे सामाजिक भेद भाव कम नहीं हो सका है।
गांवों और कस्बों में जहाँ पर आदमी की अपनी पहचान होती है वहाँ तो हालात में बहुत ही मामूली सा परिवर्तन ही आया है। दूसरी ओर आरक्षण के द्वारा जो पद सुरक्षित किये गये थे उन पर भले ही अनुसूचित श्रेणी के परिवार में जन्मे व्यक्तियों को ही अवसर मिला है किंतु वे लोग अपनी जाति के उत्थान के पक्षधर और प्रतिनिधि न होकर उन लोगों के कारिन्दे सिद्ध हुये जिन्होंने उन्हें उन पदों पर आने में मदद की थी। इससे कुछ व्यक्तियों को तो पद पर बैठने व उसकी सुख सुविधाओं को पाने का अवसर मिल गया पर आरक्षण का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। जिन चुनाव क्षेत्रों को अनुसूचित वर्ग के प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित किया गया था उनमें भी चुनाव का फैसला तो सवर्ण मतदाताओं के हाथ में ही रहा जिससे भी आरक्षण का लाभ अन्तत: व्यक्ति केन्द्रित ही रहा।
गत वर्षों से आरक्षण का लाभ लेने के लिए विभिन्न जातियाँ स्वयं को अनूसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ावर्ग या अल्पसंख्यकों में सम्मिलित कराने के लिए सक्रिय हुयी हैं तथा वोटों की राजनीति करने वाली पार्टियां उनकी इन मांगों को बिना सोचे समझे हवा ही नहीं दे रहीं अपितु अपनी ओर से भी उनको झूठे आश्वासन देने में जुट गयी हैं। यह घोर आशचर्य की वस्तु है कि जो जातियाँ संविधान के निर्माण के समय अनुसूचित जातियों जनजातियों पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों में नहीं मानी गयीं वे आजादी के साठ साल बाद धर्म जाति रंग भाषा और क्षेत्र के भेद न रखने वाले संविधान के लागू रहने के बाद, अपने को अनुसूचित जाति जनजाति में सम्मिलित करने के लिए हिंसक हो रही हैं। यह कितना शर्मनाक है कि दलितों वंचितों के उत्थान की बात तो पीछे छूट गयी और जो दलित वंचित नहीं समझे गये थे वे अब साठ साल बाद उनमें सम्मिलित होकर सरकारों से यह मनवा रहे हैं कि उनके राज में जिनके लिए कुछ करने का तय किया था उनके लिए तो कुछ भी नहीं हो सका अपितु कुछ गैर दलित आदि वर्ग उस श्रेणी में और आ गये हैं। इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह है कि सरकारें अपने राजनीतिक स्वार्थें में अंधी होकर इन मांगों को स्वीकार कर रही हैं।
आरक्षण के क्षेत्र में ताजा मामला संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण का है। राजनीतिक गठबंधनों के जो हालात हैं उन में वामपंथियों को छोड़ कर कोई भी बड़ा गठबंधन अभी तक अपने अनेक प्रमुख घटक दलों को आरक्षण के लिए नहीं मना सका है तथा उनके तुष्टीकरण के कारण ही यह बिल अभी तक लटक रहा है। अल्पमत सरकार के किन्हीं दबावों के कारण गत अधिवेशन में भले ही उसे प्रस्तुत कर दिया गया हो किंतु उस पर बहुमत का मौखिक समर्थन होते हुये भी यह संभव प्रतीत नहीं होता कि वह शांतिपूर्वक पास हो सके। मेरे विचार में उचित तो यह होगा कि सीधे चुनाव वाले सारे आरक्षण एक साथ ही समाप्त कर दिये जावें और आरक्षित पदों के लिए समानुपातिक प्रणाली द्वारा उन्हें भरा जाये। चुनाव का फार्म भरते समय ही प्रत्येक दल को प्रत्येक आरक्षित वर्ग में अपना पैनल घोषित करना अनिवार्य किया जावे। इससे उन वर्गों के वोट पाने के लिए दलों को मजबूर होकर यह प्रकट करना होगा कि वे क्या चाहते हैं और इसके साथ साथ जनता भी यह बता देगी कि वह क्या चाहती है। वैसे भी दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक मतदाताओं का बहुमत निर्मित करते हैं और वे पैनल के अनुसार अपने दल का चुनाव कर सकते हैं व उसके साथ ही साथ दूसरी सामाजिक आर्थिक राजनीतिक घोषणाओं के साथ उनका समन्वय भी बैठा सकते हैं। महिला के प्रतिनिधित्व के लिए जेडी(यू), राजद और समाजवादी पार्टी जैसे दल उनको मिले समस्त वोटों के आधार पर पिछड़े वर्ग की महिलाओं को सदन में भिजवा सकते हैं तो बहुजनसमाज पार्टी दलितवर्ग की महिलाओं को सदन में भेज सकती है। वामपंथी दल महिला श्रमिक नेताओं को भेज सकते हैं। गैर मान्यताप्राप्त दल अपने मतों को मान्यताप्राप्त दलों के शेष बचे मतों के साथ जोड़ कर किसी मान्य उम्मीदवार को चुनवा सकते हैं। इसी से मिलती जुलती प्रणाली अनुसूचित जाति जनजाति तथा पिछड़ों के लिए भी की जा सकती है।
इस प्रणाली का एक लाभ यह भी होगा कि देश और समाज में जातिवादी बुराई पर रोक लग सकेगी क्योंकि सीधे सीधे जाति आधारित चुनाव नहीं होगा तथा मतदाता को यह पता होगा कि किस पार्टी ने किस जाति के प्रतिनिधि को अपने पैनल में किस क्रम पर रखा है। जो लोग पैनल की जगह पार्टी के कार्यक्रम और घोषणा पत्र पर वोट देते हैं उन्हें भी किसी मजबूरी के आधार पर वोट देने के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा। जो लोग अपनी पार्टी में अपने को आवंटित क्रम से सन्तुष्ट नहीं हैं वे सीधे स्वतंत्र चुनाव भी लड़ सकते हैं।
उससे दोनों ही तरह की बुराइयों पर रोक लगेगी तथा विचार और कार्यक्रमों की राजनीति को बल मिलेगा क्योंकि तब प्रत्येक दल अपने उम्मीदवार की जगह अपनी पार्टी के लिए भी वोट मांगेगा और अपने कार्यक्रम को सामने रखेगा। दूसरी ओर वोट काट कर जीतने के लिए बोगस उम्मीदवार खड़ा कर देने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। सीधे चुनाव में एक भी सीट न पा सकने वाली पार्टी भी अपने कुछ आरक्षितवर्ग के प्रतिनिधि भेजने में सफल हो सकती है।

वीरेन्द्र जैन
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