शनिवार, अगस्त 21, 2010

यह केवल आर्थिक अपराध नहीं है


यह केवल आर्थिक अपराध नहीं है
वीरेन्द्र जैन
पिछले कुछ समय से ऐसा कोई सप्ताह नहीं जाता जब समाचार माध्यमों में किसी न किसी सरकारी अधिकारी, राजनेता, या ठेकेदार के यहाँ पड़े छापों में करोड़ों रुपयों का अवैध धन और किलो की तौल में सोना निकलने का समाचार नहीं आता। समाचार माध्यमों का आम पाठक, श्रोता या दर्शक इसे कौतूहल या ईर्षा के भाव से देखता है और निरीह सा अपनी व्यवस्था में आस्था घटाते हुये चुप बैठ जाता है। इन समाचारों से केवल अल्पकालीन सनसनी भर पैदा होती है, और फिर आरोपियों को मामला रफा दफा करने के लिए पर्याप्त समय देते हुये ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। लोग यह मानते हुये कि इस देश में कुछ नहीं बदल सकता उस घटना को भूलने लगते हैं। आरोपी यथावत अपना शानदार जीवन जी रहे होते हैं उनके ऐश और सम्मान में कोई अंतर नहीं आता उल्टे समाज में उनकी दबंगई और बढ जाती है क्योंकि इतने पक्के सबूत के बाद भी लोगों को लगता है कि सरकार भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। अपनी सुरक्षा में वे और ज्यादा कठोर व आक्रामक हो जाते हैं। हमारे लोकतंत्र में शोषण का रास्ता बहुत पेंचदार है जिससे जनता को अपना शत्रु पता ही नहीं चलता। सरकार जनता से धन वसूलती है और उसे टैक्स कहती है, उसका एक बड़ा हिसा जिस तरह से खर्च करती है उसे देश की सुरक्षा, जनहित या विकास कहती है। इस सुरक्षा, जनहित और विकास के नाम पर ही सारा खेल खेला जाता है। रोचक यह है कि देश में काम करने वाले राजनीतिक दल इस अप्रत्यक्ष शोषण के खिलाफ कभी आन्दोलन खड़ा नहीं करते जबकि यह सीधा सीधा आर्थिक अपराध ही नहीं अपितु दण्डनीय अपराध भी है। मध्य प्रदेश में अकेले एक स्वास्थ विभाग के मामूली से अधिकारी के पास से सौ करोड़ रुपयों की अवैध कमाई का पता चला था, उसके बाद विभाग के मंत्री के भाई भतीजों के यहां से भी इतनी ही राशियाँ बरामद हुयी थीं। विभाग के लोग बताते हैं कि ये तो बहुत ही मामूली से नमूने हैं इन से भी बड़े सैकड़ों मगरमच्छ तो अभी भी धन के सरोवर में तैर रहे हैं। यहाँ केवल उनकी काली कमाई का सवाल ही नहीं है अपितु यह कमाई उन्होंने जनस्वास्थ में खर्च होने वाले जिस बजट में से की है वह आम जनता के स्वास्थ के साथ आपराधिक खिलवाड़ का मामला है। उनके इस अपराध के कारण हजारों की संख्या में वे सामान्य लोग असमय ही काल कवलित हो गये जिन्हें अगर इलाज और उचित दवा मिल जाती तो उनकी जान बचाई जा सकती थी। लाखों की संख्या में लोग सरकारी अस्पतालों से मिली नकली दबाइयों के कारण स्वस्थ नहीं हो सके या और अधिक बीमार और अपंग हो गये। कभी पंजाब और महाराष्ट्र में लोक सेवा आयोग के सचिव करोड़ों रुपयों के साथ पकड़े गये थे जिनके द्वारा चयनित अपात्रों के सहारे प्रशासन चल रहा है। उन लोगों ने अपनी नियुक्ति के लिए चुकाये गये धन को कितने गुना वसूला होगा और प्रशासन में क्या न्याय किया होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
अपनी काली कमाई करने के लिए ये लोग मूल रूप से हत्यारे हैं और इनका अपराध मय सबूतों के सामने आ चुका है फिर भी वे आज समाज में गर्व से सिर ऊंचा करके घूम रहे हैं। मंत्रीजी का पद यथावत है और वे उस पद के प्रभाव से मामले को रफा दफा करने में लगे हैं। आयकर विभाग का काम केवल सामने आई सम्पत्ति पर टैक्स और मामूली दण्ड की राशि वसूलने तक सीमित है, उसे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उक्त राशि किसने कैसे कमाई है और यह राशि हजारों लोगों की अप्रत्यक्ष हत्या करके वसूली गयी है। राज्य सरकारें स्वयं ही इसमें सम्मलित हैं इसलिए उसकी कार्यवाही पहले तो होती ही नहीं है और यदि हो भी जाये तो वह ऐसी होती है जिसमें से आरोपी न केवल आसानी से निकल जाता है अपितु अपनी पिछली भरपाई भी कर लेता है। दण्ड का एक उद्देश्य दूसरे सम्भावित अपराधियों के मन में एक भय पैदा करना भी होता है, किंतु जब सामने आये अपराधियों को दण्ड नहीं मिलता और वे ईर्षायोग्य जीवन शैली जीते नजर आते हैं तो उससे प्रतिदिन नये नये लोग अपराधों के लिए प्रोत्साहित होते हैं। एक मतदाता भी जब यह पाता है कि उसके मत से कुछ भी नहीं होने जा रहा तो वह अपने मत को उपलब्ध तात्कालिक लाभ से ही भुनाने की कोशिश करता हुआ पूरे लोकतंत्र को ही चूना लगा देता है। अपराधी बड़ी शान से खरीदे हुये वोटों से जनता के विश्वास की दुहाई देता हुआ विधानसभा में पहुँचता है और मंत्री पद सुशोभित करता है। सड़कें अपना जीवन चार दिन भी नहीं जी पातीं और उनके गड्ढों से न जाने कितने वाहन फिसलते और गिरते रहते हैं सैकड़ों सम्भानाशील युवा सड़कों के इन गड्ढों के शिकार होकर दुर्घटना में प्रति वर्ष काल के गाल में समा जाते है, पर इंजीनियर, ठेकेदार और मंत्री के घरों में सोने की बरसात होती रहती है। उनके बंगले कभी नहीं गिरते। सिंचाई मंत्री के यहाँ बोरों में नोट भरे रहते हैं और उनके अधिकारियों के बैड में नोट बिछे रहते हैं। वहीं सूखे में कर्ज न चुका पाने के कारण किसान आत्म हत्या करते रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी स्वीकार करते हैं कि तीस प्रतिशत न्यायाधीश भ्रष्ट हैं और यह आंकड़ा उनका अनुमान भर है यह कई गुना कम या ज्यादा भी हो सकता है। किसी भी काम के लिए किसी को भी कितने ही दिन का स्टे मिल सकता है, भले ही वह स्टे न्याय को टालने के लिए ही क्यों न लिय जा रहा हो। शिकायतों पर जाँच बैठा दी जाती है जिसका कार्यकाल अनिश्चित काल तक बढता रहता है। ऐसा एक जगह से ही नहीं होता है अपितु अब यही तरीका सब जगह अपनाया जाने लगा है और इतने बड़े बड़े नक्कारखाने पैदा हो गये हैं कि उनमें तूतियों की आवाजें कहीं नहीं सुनायी देतीं। कुछ ज्यादा आवाज पैदा करने वाली तूतियों को शांत कर दिया जाता है।
इस हम्माम में न केवल विरोधी दल भी सम्मलित हैं अपितु पुलिस प्रशासन और मीडिया भी हिस्सेदार है। पुल धसक रहे हैं, भवन गिर रहे हैं, बाँध रिस रहे हैं, खेती सूख रही है, लोगों को इलाज नहीं मिल पाता, बच्चे कुपोषित हैं, शिक्षा का निजीकरण और निजीकरण से लूट मची हुयी है, जरूरी वस्तुयें लागत मूल्य और उपलब्धता के अनुपात से भी मँहगी हो रही हैं। दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिला और अल्प्संख्यकों को सशक्तिकरण के नाम पर अरबों रुपयों का बण्टाढार हो रहा है पर उनकी दशा में कोई परिवर्तन होता नहीं दिखता। गरीबी, बेरोजगारी और अपराध दिन प्रति दिन वृद्धि पर हैं। सीमा पर अनावश्यक तनाव पैदा कर रक्षा खर्चों में बजट का बड़ा हिस्सा व्यय किया जाता है, जिसका विवरण गोपनीय रहता है। किंतु जनता को अपना दुश्मन सीधे सीधे दिखाई नहीं देता। सरकारें आये दिन अखबारों में पूरे पूरे पृष्ठों के विज्ञापन और उन विज्ञापनों में अपनी उपलब्धियाँ बखानती रहती रहती हैं जो राष्ट्रीय या प्रदेश स्तर की होती हैं। यदि यही उपलब्धियाँ ग्राम स्तर पर लाभांवित के नाम सहित छोटे छोटे अखबारों में प्रकाशित की जायें तब पता चलेगा कि इनकी सच्चाई क्या है।
आर्थिक अपराधों के खिलाफ मारे गये छापों में उस अपराध के मूल तत्व को पहचाना जाना जरूरी है। यह गैरकानूनी ढंग से केवल मुद्रा का संचयन भर नहीं है अपितु जिन लोगों का इस पर अधिकार था, या जिनके उपयोग के लिए यह राशि जनता से वसूली गयी थी उनके हित में उपयोग न करके उन्हें कुपोषण, बीमारी, और मौत के मुँह में झोंकने की यह हत्यारी मुहिम है और जनता को गलत जानकारी से धोखा देने का प्रयास है।


वीरेन्द्र जैन
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