विवाह की परम्पराओं में व्यापक सुधार की जरूरत
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों में हरियाणा के पूर्व विधायक सुखवीर सिंह जौनपुरिया की बेटे की शादी दिल्ली के कांग्रेस के नेता कंवर सिंह तंवर के बेटे ललित कंवर से हुयी और इस शादी में व्यय किये गये धन ने इसे देश के अखबारों की प्रथम पृष्ठ की घटना बना दिया। इस शादी में कुल 250 करोड़ रुपये खर्च किये गये। बारात में आये 18 प्रमुख बारातियों का टीका एक एक करोड़ से किया गया और दूसरे 2000 बरातियों को 30-30 ग्राम के चांदी के बिस्कुट और नैनो कार भेंट में दी गयी। राजस्थान के सालासर बालाजी मन्दिर को 71 लाख रुपयों का दान दिया गया। इस को देखते हुए बारातियों के लिए की गयी शेष व्यवस्था की बात करना ही फिजूल होगी।
हमारे समाज में जब पुत्रियों को पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता था इसलिए उनके विवाह के अवसर पर उनके हिस्से की राशि एक नये परिवार के काम आने वाली दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं, और गहनों के रूप में दहेज की तरह दे दी जाती थी। यह एक स्वीकार्य प्रथा थी जो बाद में सम्भवतः कन्या पक्ष के पक्षपात आदि के कारण वर पक्ष द्वारा पहले से तय की जाने वाली राशि में बदल दी गयी व बाद में तो यह एक सौदेबाजी की बुराई में बदल गयी। इस बुराई में दहेज में नकदी भी ली जाने लगी। इस तरह की माँग कन्या के पिता की हैसियत देखे बिना भी की जाने लगी जिससे अनेक लड़कियां दहेज की कारण कुँवारी रह जाती रहीं या उनके पिता को कर्ज लेना पड़ा जो परोक्ष में उनके घर-जमीनें बिकने और आत्म हत्याओं तक का कारण भी बना। प्रकारांतर में दहेज का कागजी विरोध भी होता रहा किंतु पूंजीवादी समाज, जिसे प्रेमचन्द ने महाजनी सभ्यता कहा है, के विकास ने धन प्राप्त होने वाली इस परम्परा को दूर होने नहीं दिया। भले ही बेमन से इसके लिए कानून बने और सामाजिक सुधारों की बातें होती रहीं, पर सुधार कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि इसकी जड़ पर कभी प्रहार ही नहीं किया गया। धर्म जाति, उपजाति और गोत्र के अनुसार विवाह की परम्परा ने वर वधू के चयन के क्षेत्र को सिकोड़ दिया जिससे दहेज माँगने वालों को अनुकूलता हुयी। स्वतः चयन पर समाज के ठेकेदारों ने न केवल ऐसे विवाहों को अस्वीकार करते हुये नवदम्पति के साथ असहयोग किया अपितु कई मामलों में इन नवविवाहितों की हत्याएं तक कर दी गयीं।
पिछले दो तीन दशकों से हमारे देश में किसी भी तरह के कोई बड़े आन्दोलन नहीं हुये। ये न तो राजनीति के क्षेत्र में हुये और ना ही समाज सुधार के क्षेत्र में। राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता में इस तरह की कमी आयी है कि लोगों ने उनसे किसी सुधार की उम्मीद करना ही छोड़ दी है। किसी भी दल की रैली या विरोध प्रदर्शन में केवल उस दल के बँधुआ कार्यकर्ता, झूठे आश्वासनों से बहकाये मजबूर लोग या किराये से ले जाये गये लोग ही सम्मलित होते हैं। जनता का कोई व्यक्ति स्वतःस्फूर्त ढंग से इन दलों के आवाहन पर रैलियों में नहीं जाता भले ही वह कितनी भी जनहितैषी माँग के लिए बुलायी गयी हो। इसी तरह सामाज सुधार आन्दोलन तो सिरे से गायब हो गये। शायद जयप्रकाश नारायण राजनीतिक क्षेत्र के राष्ट्रीय आन्दोलनों वाले अंतिम नेता थे और समाज सुधार के आन्दोलनों के लिए तो महात्मा गान्धी के बाद कोई नहीं हुआ। काँशीराम जी ने संगठन तो बड़ा खड़ा किया किंतु उसका उपयोग केवल धन और राजनैतिक सत्ता हासिल करने के लिए किया, जिससे सम्बन्धित समाज का कोई भला नहीं हुआ। एकाध सफल किसान आन्दोलन के बाद महेन्द्र सिंह टिकैत ने शादी में कुल ग्यारह बाराती ले जाने और मामूली राशि से रस्में पूरी करने के आदेश निकाले थे किंतु उनको आर्थिक माँगों पर समर्थन देने वालों की भीड़ ने उनके सुझावों की बुरी तरह उपेक्षा कर दी थी, जिससे बाद में उभोंने ऐसे कोई प्रयास नहीं किये। संघ के सर संघ चालक बनते ही मोहन भागवत ने हिन्दुओं में अंतर्जातीय विवाह हेतु अभियान शुरू करने की बात की थी पर अपने राजनीतिक दल पर पड़ने वाले प्रभाव को अनुमानित कर जल्दी ही वे भी पूंछ दबा कर चुप बैठ गये।
सवाल यह है कि ऐसा दूध का धुला कौन है जो जनता को आवाज दे और उसकी आवाज का असर हो। यही सवाल शायद कभी भवानी प्रसाद मिश्र के मन में घुमड़ रहा होगा जब उन्होंने लिखा- कोई है? कोई है ? कोई है? जिसकी जिन्दगी दूध की धोई है।
संस्था के रूप में राष्ट्रव्यापी आज कुछ राजनीतिक दल हैं जिनकी आवाज उनके सदस्यों के लिए बाध्यकारी हो सकती है, किंतु सीपीएम को छोड़ कर कोई भी अन्य दल सामाजिक कुरीतियों को पार्टी अनुशासन का दोषी नहीं मानती। अधिकांश राजनीतिक दलों के सदस्य कुरीतियों से घिरे होते हुए भी उस दल के सदस्य रह सकते हैं। दहेज शादी से जुड़ी कुरीतियों का एक हिस्सा बन गया है और इसके कारण भी समाज में बहुत सारी बुराइयाँ पैदा होती हैं। धन संग्रह की वृत्तियों को बढाने में इसका बहुत बड़ा हाथ है और प्रशासनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार का कारण बनता है। इसके कारण ही लड़की के जन्म को बुरा माना जाता है और भ्रूण हत्या से लेकर बाल विवाह और बहू दहन के पीछे भी इसी का हाथ होता है। लड़कियों में हीनता बोध और कुपोषण आदि के पीछे भी इसकी भूमिका है और यही हमारे समाज में नारी को दोयम दर्जे का नागरिक माने जाने का एक कारण बनता है।
जनता के लिए बड़े बड़े वादे करने वाले राजनीतिक दल यदि अपने सदस्यों को सदस्य बनाते समय सामाजिक सुधारों की कुछ शर्तें अनिवार्य कर दें एक बहुत बड़ी आबादी सामाजिक बुराइयों से दूर हो सकेगी। राजनीतिक दलों को यह समझना पड़ेगा कि सभी दल सत्ता में नहीं आ सकते और ना ही सत्तारूढ दलों के सभी सदस्य मंत्री, सांसद, या विधायक या पंचायती राज नगर निगमों के पदाधिकारी बन सकते हैं, किंतु उन्हें बिना पद पाये हुए भी समाज के लिए कुछ तो करना पड़ेगा अन्यथा वे फिर कभी भी सत्ता में नहीं आ सकेंगे। आज जब भ्रष्टाचार के खुलासों के कारण पूरा देश आन्दोलित है और सुप्रीम कोर्ट को अपने क्षेत्र से बाहर निर्देश देने को विवश होना पड़ रहा है, तब यह सही समय है जब राजनीतिक दल एक साझी आचार संहिता लागू करें और सामाजिक कुरीतियों को अपनाने वाले व्यक्तियों को सदस्यता देने से इंकार कर दें।
वीरेन्द्र जैन
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jain sahab, aaj education main se naitik shikchha subject he gayab hai. ek yojnabadh prayas ka nitant aabhav hai. political parties sirf election main jitna chahte hai, kaise bhi. ek bahut bade badlao ki jarurat hai. ek aasha thi ki nai piri shayad dahej jaise boorai ko door karege, aap ka diya example to es ummed ko todta hai.
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