राजनीतिक सामाजिक और साहित्यिक रंगमंच के नेपथ्य में चल रही घात प्रतिघातों का खुलासा
गुरुवार, अप्रैल 21, 2011
गलत समय पर सिविल सोसाइटी के सदस्यों का विरोध
गलत समय पर सिविल सोसाइटी के सदस्यों का विरोध
वीरेन्द्र जैन
जब गाँव में आग लग गयी हो तब यह आग बुझाने वाले लोगों के नैतिक आचरण पर विचार विमर्श करने का सही अवसर नहीं होता। यह काम आग बुझने के बाद भले ही किया जा सकता हो।
जब अन्ना हजारे ने आमरण अनशन करके लाखों लोगों को भ्रष्टाचार के विरोध में एकजुट करके गत साठ सालों से लम्बित लोकपाल विधेयक को तयशुदा अवधि में पास कराने का आश्वासन सरकार से प्राप्त कर लिया हो तब ऐसे में इस विधेयक को तैयार करने के लिए नामित सिविल सोसाइटी के सदस्यों पर आरोप लगाने का सही समय नहीं है। इस समय ऐसा करने वाले स्वयं ही सन्देह के घेरे में आने लगते हैं। इस समय प्रश्न किसी आरोप के सही या गलत होने का नहीं है, अपितु आरोप लगाने के समय का है। जिन लोगों को पूर्व में ही उन आरोपों की जानकारी थी तो उन्होंने उसी समय कानूनी कार्यवाही के लिए सम्बन्धित विभाग को सूचित न करके स्वयं भी नागरिक कर्तव्यों का पालन न करने का दोषी बना लिया है।
सुप्रसिद्ध पूर्व न्यायाधीश शांति भूषण और एडवोकेट प्रशांत भूषण को लोकपाल बिल तैयार करने वाली समिति में सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि सदस्य के रूप में चयनित किया गया है। ये दोनों रिश्ते में पिता पुत्र भी हैं। इन दोनों को एक साथ लेने का सबसे पहला विरोध योग गुरु के रूप में लोकप्रिय हो गये बाबा रामदेव ने किया। उन्होंने इनके चयन का विरोध करने का कारण वंशवाद बताया। उनका यह आरोप भी अपने आप में हास्यास्पद था। वंशवाद तब होता है जब किसी को विरासत में अपने पूर्वज द्वारा खाली किये गये पद को स्वतः भरने का अवसर मिल जाये। यह आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़े, उद्देश्य के प्रति समर्पित और सम्बन्धित विषय के अधिकारी विद्वान दो लोगों का चयन है जो संयोगवश पिता-पुत्र भी हैं। जबकि दूसरी ओर अति महात्वाकांक्षी बाबाभेषधारी उद्योगपति रामदेव हैं, जिन्होंने बहुत ही कम समय में ग्यारह सौ करोड़ की दौलत बना ली है, जिसके स्रोत सार्वजनिक नहीं हैं। वे स्वयं को प्रत्येक मंच पर बैठे देखना चाहते हैं। यही कारण है कि वे अच्छे-खासे लोकप्रिय योगगुरू होने से संतुष्ट नहीं हैं और राजनीतिक सत्ता की ओर लालायित हैं। स्वयं को जेड श्रेणी सुरक्षा प्राप्त करने के लिए वे षड़यंत्र रचते हैं व कई पदासीनों पर आरोप लगा कर उनके नाम बताने से इंकार करने का ब्लेकमेलिंग जैसा काम करते रहते हैं। उक्त कानून विशेषज्ञों पर आरोप लगाने वाले दूसरे व्यक्ति अमर सिंह हैं। इन्होंने एक सीडी जारी करते हुए उन्हें चार करोड़ रुपयों की पेशकश किये जाने का आरोपी बताया गया है। इस बातचीत में दूसरी ओर से बात करने वाले बताये गये मुलायम सिंह ने भी इसके द्वारा उनको बदनाम करने के लिए रचा गया षडंयंत्र बताया है। स्वयं वकील पिता पुत्र ने सीडी को बनावटी बताया है। अमर सिंह को समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद वे मुलायम सिंह के जानी दुश्मन बने हुये हैं और उनके साथ किये गये ढेरों कूटनीतिक रहस्यों की दम पर उनको ब्लेकमेल कर समझौते के लिए विवश करने की लगातार कोशिशें करते रहे हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि केन्द्र के गठबन्धनों को समर्थन देने या वापिस लेने के नाम पर, या परमाणु समझौते के विधेयक पर अपनी पार्टी को अचानक यू टर्न दिला कर उन्होंने अनेक राज दबा रखे हैं जिनकी दम पर वे मुलायम सिंह को मिले जातिवादी समर्थन का सौदा करते रहे हैं। उनके पास अपना कोई जन समर्थन का क्षेत्र नहीं है और वे अपनी कुशल वाकपटुता और शातिर कूटनीतिक चालों से सत्ता के शिखर पर दखल देते रहे हैं, जो एक बुन्देली कहावत के अनुसार, ‘गाड़ी बैल पटेल के बन्दे की ललकार’, जैसा कुछ रहा है। अब उनके पास से गाड़ी बैल छीन लिये गये हैं और खाली खाली ललकार बौखलाहट में बदल गयी है। उनसे बेहतर सवाल तो उनके कट्टर प्रतिद्वन्दी दिग्विजय सिंह ने उठाया जिन्होंने पूरे अनशन आन्दोलन के दौरान किये गये खर्चे और उसके स्त्रोत को जानने की जिज्ञासा की जिससे आन्दोलन के गान्धीवादी होने के साथ यह भी पता लग सके कि इस गैरराजनीतिक बताये जा रहे आन्दोलन के पीछे कहीं किसी के राजनीतिक हित तो नहीं छुपे हैं। जैसे अभी पिछले दिनों ही यह तथ्य प्रकट हुआ था कि जनता से योग के प्रचार के नाम पर दौलत उगाहने वाले रामदेव के ट्रस्ट भाजपा को बड़ी बड़ी रकमें चन्दे में देते हैं। इससे रामदेव के गैरराजनीतिक होने का मुखौटा उतर गया था। शायद यही कारण था कि अन्ना के अनशन के दौरान समर्थकों ने रामदेव और सन्यासिन के चोले में रहने वाली उमाभारती को भी अनशन स्थल से खदेड़ दिया था। यद्यपि दिग्विजय सिंह के सवाल भी असमय उठाये गये सही सवाल हैं।
दरअसल उसकी जड़ों को समझे और उखाड़े बिना भ्रष्टाचार का विरोध एक अवधि की सनसनी से अधिक कुछ नहीं देने वाला। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सिविल सोसाइटी के सदस्य ही संसद में बैठे होते हैं बशर्ते कि सुशिक्षित, जागरूक और राजनीतिक रूप से सचेतन नागरिक एक दोषमुक्त प्रक्रिया से उन्हें चुनते हों। पर हमारी संसद व्यवहार में जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हमारी संसद का बड़ा हिस्सा चन्द बड़े भूस्वामियों, उद्योगपतियों के प्रतिनिधियों, और पुराने सामंतों के बचेखुचे प्रभाव से जनता को बहला, फुसला और डरा के बनता है और उन्हीं के हित साधने में लगा रहता है। हाल ही में हुये 2जी और विकीलीक्स के खुलासों से पता लगता है कि बड़े उद्योगपति किस तरह से मंत्रिमण्डल निर्माण को निर्देशित करते हैं और अमेरिका जैसा साम्राज्यवादी देश वित्तमंत्री की नियुक्ति पर सवाल पूछता है कि चुने गये वित्तमंत्री किस औद्योगिक घराने का प्रतिनिधित्व करते हैं! यही कारण है कि जब अन्ना हजारे एक चुनी हुयी संसद और सरकारों द्वारा चालीस साल तक जनहितकारी लोकपाल विधेयक को लटकाये जाने के खिलाफ तथाकथित सिविल सोसाइटी के सद्स्यों को विधेयक बनाने के लिए शामिल करने की माँग रखते हैं तो उन्हें जनविरोध की जगह जनसमर्थन मिलता है। यह इस बात का प्रमाण है कि लोग तीन सौ करोड़पतियों से भरी संसद को अपने अधिकारों को संरक्षित करने वाली और जनहितैषी संस्था स्वीकारने में संकोच करते हैं, और अन्ना हजारे जैसी पचास लाख का अनशन करने वाली नवगान्धीवादी गैरसंवैधानिक सत्ता में भरोसा करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक बड़े जागरूक और सक्रिय जनसमुदाय द्वारा समकालीन व्यवस्था में भरोसा खोने का संकेत भी है। शायद यही कारण है कि इस व्यवस्था में अनधिकृत रूप से फलफूल रहे लोग अन्ना को ‘ ए बुल इन द चायना शाप ‘ समझ रहे हैं, और बौखला रहे हैं।
अन्ना के इस आन्दोलन से सवालों के जबाब नहीं मिलने वाले किंतु इससे नये नये सवाल खड़े होंगे जो शायद समाज को हल पाने की दिशा में अग्रसर कर सकें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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