बुधवार, अक्तूबर 16, 2013

पशुबलि और राजनीति

पशुबलि और राजनीति
 वीरेन्द्र जैन

  वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक डा. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि राजनीति अल्पकालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति है।
 इतिहासकार बताते हैं कि प्राचीनकाल में जब यज्ञ, धर्म और राजनीति का अटूट हिस्सा माने जाते थे तब यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाती थीं जिसकी अनेक विधियां पुराणों में वर्णित हैं। अश्वमेघ यज्ञ की विधियों के बारे में आज बहुत कम लोग जानते हैं जो बहुत ही जुगुप्सापूर्ण है। यज्ञों के कई प्रसंग तो ऐसे हैं जिन्हें आज लिखा तक नहीं जा सकता। यद्यपि जैन लोग इसे स्वीकार नहीं करते किंतु इतिहासकार मानते हैं कि जैन धर्म का उद्भव और विकास यज्ञों में पशुओं की बलि के विरोध में ही हुआ था। जिन गौतम बुद्ध का सन्देश पूरी दुनिया में फैला उनकी जीवनी में पहला महत्वपूर्ण प्रसंग उनके भाई द्वारा किसी पक्षी का तीर से शिकार करना और बुद्ध द्वारा उसकी रक्षा करने के सन्दर्भ वाला ही आता है। आज की दुनिया के बहुसंख्यक मांसाहारी किसी पशु को स्वयं मार नहीं सकते और अगर पशु वधग्रह बन्द हो जायें तो मांसाहारियों की संख्या दस प्रतिशत से कम रह जाने का अनुमान है। आज पशुवध का व्यवसाय करने वालों के अलावा यह धर्मान्धता ही है जो अन्य लोगों से भी पशुवध करवाती है। हिन्दुओं में शाक्त लोग देवी के मन्दिर में पशु बलि देते हैं, पूजा में अंडा फोड़ते हैं, तो मुसलमान ईदुज्जुहा के दिन भेड़ बकरी ऊंट आदि की कुर्बानी देते हैं। भारत के अलावा दूसरे देशों के मुसलमान अन्य पशुओं के साथ साथ गायों बैलों आदि की कुर्बानी भी देते हैं, पर हमारे देश में अनेक राज्यों में गौकशी पर प्रतिबन्ध है। शाकाहारी लोग मांसाहारियों से नफरत करते हैं क्योंकि उनके परिवार और परिवेश में उन्हें बचपन से ही मांसाहार और मांसाहारियों से नफरत करना सिखाया जाता है। इस नफरत का स्तेमाल कुछ साम्प्रदायिक राजनीतिक दल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए करते हैं क्योंकि नफरत का यह तैयार बीज उन्हें परम्परा से सहज ही मिल जाता है। कुटिलता की राजनीति करने वाले मतदाताओं की हर कमजोरी का लाभ लेने की कोशिश करते हैं जिनमें मांसाहार से नफरत भी शामिल है। चुनावी वर्ष में वे इसका भी स्तेमाल कर रहे हैं। पिछले दिनों सम्पन्न हुए ईदुज्जुहा के अवसर पर भाजपा समर्थक सोशल मीडिया के प्रचारकों ने पशुबलि की भयावहता और मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली पोस्टों की जो बाढ पैदा की वह चिंता पैदा करने वाली है। ऐसे प्रचार ही साम्प्रदायिक दंगों की भावभूमि तैयार कर देते हैं जिससे मामूली सी दुर्घटना भी बड़े दंगों का कारण बन जाती है। देश में संस्थागत रूप से साम्प्रदायिकता फैलाने वाली शक्तियों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष शक्तियां शिथिल हैं। जिन साम्प्रदायिक शक्तियों ने पशु बलि के खिलाफ या कहें कि उसके बहाने नफरत फैलाने का जो अभियान चलाया है, उन्हें उस विषय पर बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि वे स्वयं ही उस धर्म के नाम की राजनीति करते हैं जिसमें पशुबलि की भी परम्परायें हैं। भीष्म साहनी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘तमस’, जिस पर एक सफल धारावाहिक भी बन चुका है, में संघ के स्वयं सेवक को मुर्गी काटना सिखा कर हिंसा से उसकी हिचकिचाहट को दूर करते हुए दर्शाया गया है। उल्लेखनीय है कि जब भाजपा नेता और तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने तामिलनाडु से भारत यात्रा का प्रारम्भ किया था तब उसकी सफलता के लिए पशुबलि दिये जाने का समाचार प्रकाश में आया था। हिन्दुओं में शाकाहारियों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत से अधिक नहीं है और हिन्दुओं की साम्प्रदायिक पार्टी शाकाहार को आधार नहीं बना सकती इसलिए पशुबलि के नाम से मुसलमानों के त्योहार का विरोध कर रही है। दूसरी ओर अल्पसंख्यक मोर्चा बना कर ये मतदान के लिए मुसलमानों को बरगलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते और ईदुज्जहा पर मुसलमानों को बधाई देने में ईदगाह पर सबसे आगे खड़े होने की कोशिश करते हैं। यहाँ सवाल पशुबलि के विरोध या पक्षधरता से ज्यादा एक राजनीतिक पार्टी के रवैये और उसके दुहरे चरित्र का है। ये बहुसंख्यकों का समर्थन पाने के लिए उस हर वस्तु का विरोध करते हैं जो अल्पसंख्यकों की आस्था या पहचान से जुड़ा है, और पशुबलि विरोध भी उनमें से एक है। जरूरत इनकी चाल और चरित्र को पहचानने की है।

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