सोमवार, मार्च 10, 2014

फिल्म समीक्षा गुलाबी गैंग, यथार्थवादी विषयवस्तु पर व्यावसायिक फिल्म

फिल्म समीक्षा
गुलाबी गैंग, यथार्थवादी विषयवस्तु पर व्यावसायिक फिल्म
वीरेन्द्र जैन

       गुलाबी गैंग सोलहवीं लोकसभा के लिए चुनावी प्रचार के दौर में रिलीज हुयी एक ऐसी फिल्म है जिसमें एक डाकूमेंटरी फिल्म से विषयवस्तु ले लोकप्रिय और मँहगे सितारों के साथ एक व्यावसायिक फिल्म बना डाली गयी है। फिल्म की पब्लिसिटी के लिए उसे अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन पूर्व ही रिलीज किया गया और उससे कुछ दिन पूर्व दिल्ली हाईकोर्ट से स्थगन लेने और उससे मुक्त होने का खेल भी चला जिसकी खबर के प्रसारण ने फिल्म को ज्यादा बड़े क्षेत्र तक पहुँचाया।
       फिल्म बड़ी लागत का उद्योग है और इसमें निवेश करने वाले अपना धन डुबाने के लिए पैसा नहीं लगाते हैं अपितु उस निवेश से अधिकतम धन कमाना उनका लक्ष्य होता है। इसके लिए वे यथार्थ के साथ ऐसे प्रयोग करते हैं जिससे दर्शक या कहें कि ग्राहक उनके पास तक पहुँचे। ये समझौते भले ही कलात्मक सिनेमा के दर्शक वर्ग को निराश करते हों किंतु मनोरंजन उद्योग की भी अपनी मजबूरियां होती हैं। इससे भी संतोष किया जा सकता है कि निर्माता ने अपने धन का उपयोग चालू बम्बैया फिल्म बनाने में न करके एक उद्देश्यपरक आन्दोलन पर फिल्म बनायी।   
       2006 में गुलाबी गैंग नामक महिलाओं की एक संस्था बाँदा जिले में गठित हुयी थी जिसने बिजली कटौती के विरुद्ध एक सफल आक्रामक आन्दोलन से शुरुआत की थी और फिर पुरुषवादी समाज में महिलाओं के खिलाफ होने वाली घरेलू हिंसा का मुकाबला संगठित महिलाओं की लाठियों से करने में सफलता अर्जित की। उन्होंने राशन की दुकानों में होने वाली हेराफेरी और् गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वालों के राशन को ब्लेक करने वालों के खिलाफ प्रभावी आन्दोलन चलाया था और उनकी चोरियों पर छापामारी की थी। आज उसके सदस्यों की संख्या पचास हजार के आसपास बतायी जाती है। यथार्थ में ये महिलाएं अपने संघर्ष के अनुरूप ही रफ एंड टफ हैं किंतु फिल्म में एक सुन्दर सुडौल कोमलांगी रोमांटिक अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को यह भूमिका दी है जिनका स्टंट दर्शकों के मन में बनी उनकी छवि और छरहरी देहयष्टि भूमिका के साथ न्याय नहीं करती। कठोर जीवन जीने वालों की खुरदरी भाषावली के कुछ संवाद बोल देने से बात नहीं बनती। कोई भी व्यवस्था या दुर्व्यवस्था समकालीन राजनीति से प्रभाव लिये बिना न तो बनती है और न ही बनी रह सकती है इसलिए उस पर बनी फिल्म में भी तत्कालीन राजनीति के प्रसंग आना स्वाभाविक है। इन प्रसंगों में भी जिस सत्तारूढ महिला राजनीतिज्ञ को चित्रित किया गया है उसमें भी उस राजनीतिज्ञ की छवि नहीं उभर पायी है जिसकी ओर इंगित किया गया है। उल्लेखनीय है कि जब इस संस्था का गठन हुआ था तब उत्तर प्रदेश में मायावती का शासन था, और गुलाबी गैंग फिल्म की खलनायिका उनके राजनीतिक आचरण की किवदंतियों से झलक लेती सी दिखती है। मुख्य रूप से ग्रामेण परिवेश पर बनी फिल्म की भाषा में स्थानीयता की बहुत हल्की सी ध्वनि दो चार संवादों में ही सुनाई देती है जिससे कुल मिला कर फिल्म की भाषा खड़ी बोली के साथ बुन्देली, अवधी, और भोजपुरी के साथ मिलकर एक खिचड़ी सी बन कर रह गयी है। नायिका के एक प्रसिद्ध नृत्यांगना होने के कारण फिल्म में नृत्य भी ठूंसे गये हैं जिनका कथास्थल के लोक नृत्यों और लोक धुनों से कहीं कोई जुड़ाव प्रकट नहीं होता। सारी लोककलाएं जीवन जीने के अन्दाज़ से ही विकसित होती हैं किंतु फिल्म में पात्रों की भूमिका जीवन जीने के ढंग और उनके गीत संगीत में कोई तालमेल नहीं है। दुखद यह है कि यह फिल्म उस कालखण्ड में बनी है जब कि यथार्थवादी कलात्मक और लीक से हटकर बनने वाली फिल्में भी अच्छी संख्या में बन रही हैं। अगर इसी विषय पर श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक फिल्म बनाते तो फिल्म कुछ दूसरी ही बनती। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे ही विषय और पृष्ठभूमि के आसपास बैंडिट क्वीन, गैंग आफ वासेपुर, पानसिंह तोमर, पीपली लाइव आदि फिल्में बनी हैं जिनके सामने यह फिल्म बहुत कमजोर लगती है। व्यावसायिक रूप से भले ही यह फिल्म अपने निर्माताओं का नुकसान न होने दे किंतु इस फिल्म ने इसी विषय पर बन सकने वाली एक अच्छी और दीर्घजीवी फिल्म की सम्भावनाओं को नष्ट कर दिया है।
       फिल्म में घरेलू हिंसा और दहेज के अभिशाप, ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था की कमजोरियों, जनवितरण प्रणाली के दोषों, पुलिस की सत्तारूढ शक्तियों के पक्ष में दमनकारी ताकत में बदल जाने, हत्यारी राजनीति के कुटिल और अमानवीय समझौते, सुरक्षा के बिना सूचना के अधिकारों की दुर्गति, के चलताऊ संकेत मिलते हैं, किंतु उसी क्षेत्र में चल रहे विषाक्त जातिवाद, खराब स्वास्थ व्यवस्था, प्रशासकीय भ्रष्टाचार, अन्ध आस्थाएं, बढते अपराधीकरण और खराब न्यायव्यवस्था से आँखें मूँद ली गयी हैं, जिनका आपस में गहरा सम्बन्ध है। यह कहीं प्रकट नहीं है कि एक संगठन बनाने में जातिवादी जहर, ऊंच नीच की भावना, और छुआछूत से कैसे मुक्ति पायी गयी।
       भ्रष्टाचार, पक्षपात, दिशाहीनता से ग्रसित आज का समाज बदलाव के लिए छटपटा रहा है किंतु उसे सही दिशा नहीं मिल रही। वह आसारामों और निर्मल बाबाओं से लेकर अन्ना हजारे और आम आदमी पार्टी तक जगह जगह भटक रहा है। जहाँ से भी उसे झूठी सच्ची किरण नज़र आती है वह दरवाज़ा खोल देता है। गुलाबी गैंग से लेकर नक्सलवादियों तक मेघापाटकर से लेकर मोदियों तक में वह सम्भावनाएं तलाशता दिखता है।
       कभी राजेन्द्र यादव ने हंस के एक सम्पादकीय में लिखा था कि आजकल कहानी से ज्यादा संस्मरण और आत्मकथाएं पाठकों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। हम देखते हैं कि टीवी के दूसरे सीरियलों की तुलना में क्राइम पैट्रोल जैसे सीरियल या स्टिंग आपरेशन के समाचार अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं क्योंकि लोग प्रामाणिक सच जानना चाहते हैं और कथाओं की जगह घटनाओं से सम्वेदना ग्रहण करना चाहते हैं। गुलाबी गैंग जैसी फिल्में यथार्थ का प्रचार करके कहानी दिखा रही हैं जो विशिष्ट दर्शक वर्ग के साथ इमोशनल अत्याचार है। बहरहाल मात्र मनोरंजन के लिए फिल्में देखने वालों के लिए यह एक विकल्प हो सकती है जिनके लिए नृत्य, गीत, फाइट के साथ कहानी भी है।   
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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