गुरुवार, मार्च 27, 2014

अनैतिकिता और अवसरवाद की अति तंत्र में अनास्था उपजाती है

अनैतिकिता और अवसरवाद की अति तंत्र में अनास्था उपजाती है
वीरेन्द्र जैन

                भाजपा केम्प से प्रतिदिन जो खबरें आ रही हैं वे भीड़ के नाम पर अवसरवादी भिखमंगे एकत्रित करने की खबरें हैं। उल्लेखनीय है कि एक प्रदेश की राजधानी में नगर के बीचों बीच एक पार्क है और उसके किनारे रैन बसेरा है। इस पार्क के आसपास सैकड़ों की संख्या में भिखारी रहते हैं जो अपने काम पर निकलने के अलावा अपना पूरा समय इसी पार्क में बिताते हैं और बहुत अधिक प्रतिकूल मौसम में रैन बसेरे का सहारा ले लेते हैं। यह पार्क राजनीतिक दलों और स्वयंसेवी गैर सरकारी संगठनों की रैलियों धरनों अनशन आदि के काम में भी आता है। उक्त भिखारियों का एक ठेकेदार है जो तय दर पर राजनीतिक दलों या गैर सरकारी संगठनों के लिए भीड़ सप्लाई करने का काम करता है। उस दिन ये सारे भिखारी चन्द रुपयों और भरपेट भोजन के लिए उस दल या संगठन के कार्यकर्ता बन जाते हैं। भाजपा आदि दलों में इस चुनाव के दौर में सम्मलित होने वाले राजनेता भी इन्हीं भिखमंगों का दूसरा रूप हैं।  
       नगर पालिका के स्तर पर होने वाली राजनीति का यही काम आज राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है और अपने लालच की पूर्ति के लिए चन्द नेता अचानक इतने विपरीत विचार के दलों या गठबन्धनों में एकत्रित हो रहे हैं कि उनकी बेशर्मी पर घृणा पैदा हो रही है। विचार परिवर्तन या दल परिवर्तन तो स्वाभाविक और स्वस्थ संकेत है बशर्ते कि यह सचमुच विचार परिवर्तन हो। किंतु जब ठीक चुनाव के समय अपने मूल दल के साथ सौदेबाजी में असफल हो जाने पर दूसरे दल में टिकिट मिलने की शर्त पर यह काम किया जाता है तो जुगुप्सा जगाता है।
       हर मोबाइल में उपलब्ध वीडियो कैमरे, सीसी कैमरे, हिडिन कैमरे और टेप रिकार्डर, मीडिया की प्रतियोगिता में हो रहे स्टिंग आपरेशन, नेट के माध्यम से तीव्र गति की सम्प्रेषण क्षमता, मोबाइल फोन से लोकेशन की जानकारी, आदि ने दुनिया को बेहद पारदर्शी बना दिया है। ऐसी दशा में नकली आचरण वाली राजनीति की उम्र लम्बी नहीं हो सकती। इन दिनों जो कुछ भी परदे के पीछे घटित होता है वह क्षणों में सामने आ जाता है। अमेरिका के राष्ट्रपति भवन के कारनामों से लेकर विकीलीक्स द्वारा एकत्रित किये गये बातचीत के टेप और इंतरनेट सन्देशों की चोरी से गोपनीयता दुर्लभ चीज हो गयी है। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों एनसीपी नेता शरद पवार पहले नकार के बाद भी मोदी से अपनी गुप्त भेंट को छुपा नहीं सके थे।  
       इस सच के बाद भी अवसरवादी अनैतिक आचरणों की भरमार जनता के विवेक को सीधी चुनौती देते लगते हैं। इससे भी अधिक चुनौतीपूर्ण उस दल का आचरण लगता है जो ऐसे लोगों को सार्वजनिक रूप से गले लगाते हुए उन्हें वे सर्वोच्च पद दे देता है जिनके लिए उनके कर्मठ कार्यकर्ता वर्षों से उम्मीद कर रहे होते हैं। ये कार्यकर्ता भले ही तुरंत अपने दल के नेताओं के प्रति विद्रोह करते नज़र न आते हों किंतु वे जिन आदर्शों के लिए उससे जुड़े होते हैं वह विश्वास डगमगा जाता है, व राजनीति का उद्देश्य स्वार्थ की येन केन प्रकारेण पूर्ति में बदल  जाता है। अपने नेताओं के पीछे पीछे क्षणों में दल बदल लेने वाले लोग कार्यकर्ता से गिरोह में बदल जाते हैं और उनका लक्ष्य भी सामाजिक परिवर्तन और विकास का न हो कर व्यक्तिगत हित साधन हो जाता है।
       ऐसी गतिविधियां लोकतंत्र में अनास्था पैदा करती हैं क्योंकि सच्चे वोटर ने जिस घोषणा पत्र से आकर्षित होकर अपना समर्थन दिया होता है वह ठगा हुआ महसूस करता है। शिक्षित क्षेत्र में कम मतदान और पहली बार पाँच विधानसभा चुनावों में नोटा की सुविधा मिलने पर अच्छी संख्या में उसका उपयोग होना इसका संकेत है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए अब प्रत्येक दल में सदस्यता नियमों और टिकिट वितरण की आचार संहिता को अनिवार्य किया जाना चाहिए। मान्यता प्राप्त दलों द्वारा संसद और विधानसभा में टिकिट की पात्रता के लिए न्यूनतम दो साल की वरिष्ठता को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।         
       मीडिया के सामने आँखें पौंछते हुए जसवंत सिंह हों, या बार बार रूठ कर अपना असंतोष व्यक्त करते अडवाणी हों, मुरली मनोहर जोशी हों, वरिष्ठ समर्पित नेता हरेन पाठक हों, लालमुनि चौबे हों, लालजी टण्डन हों, सिद्धू हों, अपने स्वय़ं सेवकों से नमो नमो का जाप न करने की सलाह देते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत हों, सभी मोदी की आक्रमकता से आहत और असमर्थ से प्रतीत हो रहे हैं। दूसरी ओर जिस कांग्रेस मुक्त भारत का आवाहन किया जा रहा हो उसी कांग्रेस के नेताओं को बिना सदस्यता फार्म भराये भर्ती वाले दिन ही टिकिट भी दे दिया जा रहा है। सुषमा स्वराज जैसी वरिष्ठ नेता और शैडो मंत्रिमण्डल के माडल के अनुरूप प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदार को दुख व्यक्त करते हुए कहना पड़ रहा है कि जसवंत सिंह को टिकिट न देने का फैसला असाधारण है और संसदीय बोर्ड की बैठक से बाहर लिया गया है। देश भर में अपनी लहर का दावा करने वाले का डर इतना ज्यादा है कि दो जगहों से उम्मीदवारी घोषित कर देने के बाद भी न तो गुजरात विधानसभा की विधायकी छोड़ने को तैयार है और न ही मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार है।
       दुर्भाग्य से हमारी न्याय व्यवस्था में आस्था कमजोर होते जाने से समाज में हिंसा और जंगली न्याय जगह बनाते जा रहे हैं। संसद में कामकाज निरंतर बाधित किया जा रहा है। भ्रष्टाचार ने कार्यपालिका को नाकारा बना दिया है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि जब जनता की आस्था लोकतंत्र से टूटती है तो अराजकता आती है या उसका स्थान तानाशाही या फौजी शासन ही लेता है। इसलिए लोकतंत्र का मखौल बनाना खतरनाक हो सकता है।    
वीरेन्द्र जैन
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