बुधवार, जनवरी 07, 2015

फर्क, म्युनिसिपिल्टी और केन्द्र सरकार का



फर्क, म्युनिसिपिल्टी और केन्द्र सरकार का
वीरेन्द्र जैन

       वरिष्ठ भाजपा नेता और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के पूर्व मंत्री अरुण शौरी ने नरेन्द्र मोदी सरकार पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि म्युनिसिपिल्टी और केन्द्र की सरकार चलाने में फर्क होता है। श्री शौरी एक प्रतिष्ठित अखबार के बड़े पत्रकार लेखक रहे हैं और अपनी बात कहने के मामले में शब्दों के चयन में भूल करने वाले नहीं माने जा सकते। वे न तो सुब्रम्यम स्वामी की तरह चौंचलेबाज हैं जो पीके फिल्म में आईएसआई का पैसा लगा होने जैसे बयान देते हैं, और न ही श्री लालू प्रसाद यादव की तरह बयान में अति रोचकता डालने की नीति के पक्षधर हैं, इसलिए उनका बयान गम्भीरता से विश्लेषण की अपेक्षा रखता है। यह बयान श्री नरेन्द्र मोदी पर ही नहीं अपितु उनके मंत्रिमण्डल के सदस्य व समर्थक सदस्यॉं पर भी लागू होता है।  
राजनीतिक विश्लेषकों के बीच यह बात सर्वमान्य है कि प्रधान मंत्री पद पर बैठने वाले जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गाँधी, वीपी सिंह जननेता होने के साथ साथ अच्छे प्रशासक भी रहे हैं जबकि मोरारजी भाई देसाई, नरसिंहा राव, मनमोहन सिंह, इन्द्र कुमार गुजराल, अच्छे प्रशासक थे पर जन नेता नहीं थे। लाल बहादुर शास्त्री, राजीव गाँधी, अटल बिहारी वाजपेयी, विभिन्न कारणों से लोकप्रिय नेता थे किंतु उनकी प्रशासनिक क्षमता पद के लिए वांछित योग्यता से कम आँकी गयी है। शास्त्रीजी के निधन पर तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राधा कृष्णन के शब्दों को याद करें कि उन्होंने कहा था – सिंसियरिटी इस बैटर दैन एबिलिटी........... श्री वैकट रमन ने अपनी पुस्तक माई प्रेसीडेंशियल डेज में श्री राजीव गाँधी के मानवीय पक्ष की प्रशंसा करते हुए भी उनकी कमजोर प्रशासनिक क्षमता की ओर इंगित किया है। श्री चरण सिंह, चन्द्र शेखर और देवगौड़ा अच्छे व्यक्तित्व वाले लोकप्रिय क्षेत्रीय नेता होने के कारण परिस्तिथिवश इस महत्वपूर्ण पद पर पहुँच गये थे इसलिए कम समय तक ही पद पर रह सके। श्री नरेन्द्र मोदी एक जननेता भी हैं और गुजरात राज्य में उन्होंने अपनी प्रशासनिक क्षमताओं का प्रदर्शन भी किया है। यही कारण रहा कि लोकसभा में अपने चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने भाजपा या अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल को चुनावी प्रचार का मुद्दा बनाने की जगह गुजरात के विकास को माडल के रूप में, और अटल अडवाणी समेत सारे नेताओं को नीचे करके अपने नाम को ही प्रचार में आगे रखने की नीति से सफलता पायी। श्री अरुण शौरी ने अपने बयान में उनकी प्रशासनिक क्षमताओं पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया है अपितु उन क्षमताओं के स्तर की सीमाओं की ओर उंगली उठायी है। इसमें वे गलत प्रतीत नहीं होते।
श्री मोदी जब भी आम लोगों को सम्बोधित करते हैं तब वे यह भूल जाते हैं कि वे इस महान देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित करने वाले प्रधानमंत्री हैं न कि वोट झटकने के लिए भाजपा के गैरजिम्मेवार चुनाव प्रचारक। उनकी भाषा और अन्दाज चुनावी आयोजनों में अपने विरोधी की अतिरंजित आलोचना और उपहास करने वाला रहा है। छोटे मोटे चुनावों में यह मान कर गैरजिम्मेवार ढंग से वादे किये जाते हैं कि उनको कोई गम्भीरता से नहीं लेता और इन वादों के प्रति उत्तरदायित्व नहीं बनता। मोदीजी ने प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित हो जाने के बाद भी उसी तरह से भाषण दिये थे जिसका नुकसान उन्हें काले धन की वापिसी के मामले में उठाना पड़ा। श्री मनमोहन सिंह एक ईमानदार और जिम्मेवार राजनेता थे जिन्हें अनचाहे पद सम्हालना पड़ा था। उनसे नीतियों पर मतभेद हो सकते हैं और उनकी नीतियों की असफलता की आलोचना की जा सकती है किंतु योग्यता और ईमानदारी पर सवाल उठाने का कोई आधार नहीं बनता था। किंतु चुनावी सभाओं में मोदी ने स्वयं जिस भाषा में जिस तरह के आरोप लगाये उससे उनको सौंपे गये पद की मर्यादाएं ही घटीं।
भाषा के प्रयोग में अतिचतुर अडवाणी ने उन्हें एक अच्छा इवेंट मैनेजर कहा तो उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद वीजा देने वाले बराक ओबामा ने मैन आफ एक्शन कहा। तय है कि इन दोनों ही कथनों को व्यंजना में भी कहा हुआ माना जा सकता है। पश्चिमी इवेंट मैनेजरों की सलाह पर जापान में उनका ढोल बजाना या चीनी राष्ट्रपति को गुजरात में झूला झुलाना देश के लोगों को हजम नहीं हुआ। हर घंटे पोषाकें बदलने की सलाह किसी विदेशी सलाहकार ने ही दी होगी जो भारतीय मानस को कम समझता हो। आस्ट्रेलिया और अमेरिका में भारतीयों की रैली प्रायोजित करने से भारत में उनके अन्ध प्रशंसक भले ही मुदित हो गये हों किंतु उन देशों के अखबारों ने उनकी नौटंकी को अन्दर के पेजों पर जो स्थान दिया उससे ही इसके प्रभाव का पता चलता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ में या दूसरे कई स्थानों में हिन्दी में बोल कर उन्होंने समझदारी का काम किया क्योंकि ब्रिस्क की अपनी पहली बैठक में उनका अंग्रेजी में भाषण बहुत निष्प्रभावी माना गया था। भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है और जिस भाषा मे आप सहज हों उसका ही प्रयोग करना चाहिए। लालू प्रसाद या अन्य स्थानीय नेता अपनी बोली में जब सम्बोधित करते हैं तो भले ही अभिजात्य वर्ग को मनोरंजक लगता हो किंतु उस क्षेत्र के लोगों को वह एक ईमानदार बयान लगता है। मोदीजी अंग्रेजी जानते हैं किंतु अब तक के कार्यव्यवहार में उसका प्रयोग न करने के कारण वे अभ्यासी नहीं हैं, इसलिए स्वाभाविकता नहीं आती। मनमोहन सिंह सरकारी कार्यक्रमों के अलावा कम से कम बोलते थे या तैयार किया हुआ भाषण पढते थे।
अम्बानी द्वारा शुरू किये गये अस्पताल के उद्घाटन के अवसर पर उन्होंने गणेशजी को हाथी का सिर लगाये जाने की पौराणिक कथा का उल्लेख करते हुए इसे प्राचीन काल की शल्य चिकित्सा के गौरव से जोड़ने की जो हास्यास्पद बात की उससे उनकी ही नहीं उनका समर्थन करने वालों की भी बड़ी किरकिरी हुयी। वे यह भूल गये कि वे अब भारत देश के प्रधानमंत्री भी हैं और उनके कथन में इस देश का प्रतिनिधित्व भी होता है, जिसमें अनेक दर्शन हैं और एक दर्शन चार्वाक का भी है। एक प्रधानमंत्री को वैज्ञानिकिता से विमुख नहीं होना चहिए। दूसरे परमाणु विस्फोट के अवसर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने शास्त्रीजी के नारे – जय जवान जय किसान में जय विज्ञान भी जोड़ा था। अटलजी को भुलाना मोदीजी की अपनी राजनीतिक जरूरत हो सकती है किंतु पौराणिक कथाओं के भरोसे आधुनिक विज्ञान को भुलाना तो आत्मघाती होगा।
आतंकवाद के नाम पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की मुहिम तब ठंडी पड़ गयी थी जब मडगाँव, मालेगाँव, समझौता एक्सप्रैस, हैदराबाद, अजमेर आदि में हुए बम विस्फोटों के रहस्य खुल गये थे और जिम्मेवार लोगों की पहचान सामने आयी थी। स्मरणीय है कि उससे पहले भाजपा आतंकवाद को देश की सबसे पहली समस्या बता कर एक वर्ग के खिलाफ नफरत फैलाने की राजनीति करती थी। बाद में कुछ पुलिस अधिकारियों और अन्य लोगों के बयानों से यह भी स्पष्ट हुआ कि गुजरात में जो अनेक फर्ज़ी एनकाउंटर किये गये थे उनमें मृतकों पर आरोप लगा दिया गया था कि वे मोदी को मारने के इरादे से आये थे। अक्षरधाम मन्दिर पर किये गये हमले के षड़यंत्र के सहयोगी बताये गये आरोपियों को पिछले साल बाइज्जत बरी कर दिया गया है। अब यही बात निराधार रूप से जाँच से पूर्व ही एक विदेशी नाव के विस्फोट से डूब जाने के बाद कही जाने लगी थी कि उस नाव में आतंकी सवार थे और वे छब्बीस ग्यारह दुहराने आ रहे थे। जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति को भारत के प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में आयोजित कर के सम्बन्ध सुधारने के दावे किये जा रहे हों तब सरकारी तौर पर आरोप लगाने से पहले जाँच तो पूरी करा लेना चाहिए थी। बच्चों की गलतियां तो माफ की जा सकती हैं किंतु बड़ों की गलतियों से गलत परिणाम निकल सकते हैं। यही कारण है कि श्री अरुण शौरी को म्युनिसिपिल्टी और केन्द्र सरकार का फर्क याद दिलाना पड़ा। इसका स्वच्छता अभियान या लालकिले से घर घर शौचालय बनवाने के आवाहन से कोई सम्बन्ध नहीं है।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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