कर्मचारियों को वेतनवृद्धि और उनकी जिम्मेवारियां
वीरेन्द्र जैन
केन्द्रीय व राज्य सरकारों के कर्मचारियों के लिए छठवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जो वेतनवृद्धियाँ हुयी हैं उनसे सरकारी कर्मचारियों और गैर सरकारी कर्मचारियों तथा पेंशन पाने वालों और पेंशन न पाने वालों के बीच वेतन/पेंशन की खाई और चौड़ी हो गयी है। इससे सरकार पर अरबों रूपयों का अतिरिक्त भार भी पड़ा है जिसकी भरपाई भी अंतत: जनता से उगाहे गये धन से ही की जानी है इसलिए इसका असर भी गैरसरकारी कर्मचारियों को अलग से भुगतना पड़ेगा।
वेतन वृद्धि की मांग के दो आधार होते हैं एक होता है बढती मंहगाई के कारण पुराने वेतन की क्रयशक्ति कम हो जाती है जिसकी पूर्ति नये वेतनमान लागू करके ही हो सकती है। दूसरा यह कि विकसित होते समाज में रहन सहन का स्तर बदल जाता है जिसके लिए अधिक धन की आवश्यकता पड़ने लगती है। कहने का अर्थ यह है कि वेतनवृद्धि कर्मचारियों का एक सुनिश्चित जीवन स्तर को बनाये रखने के लिए की जाती है दूसरी ओर गैर सरकारी कर्मचारियों को भी उन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ता है पर उनको राहत का कोई उपाय सरकार के पास नहीं मिलता। सरकारी कर्मचारियों को पेंशन और स्वास्थ योजना के अर्न्तगत सरकारी खर्च पर आजीवन सपरिवार इलाज की सुविधा भी उपलब्ध रहती है, इसलिए उन्हें वुद्धावस्था के लिए धन जोड़ने की मजबूरी नहीं होती जबकि गैर सरकारी कर्मचारी को ऐसी व्यवस्था के लिए धन का संचय करना पड़ता है।
अर्थशास्त्र कहता है कि एक आदमी का खर्च दूसरे की आमदनी होता है इसलिए समाज में आने वाला प्रत्येक रूपया एक से दूसरे के पास जाकर अर्थव्यवस्था को गतिमान करता है व अपनी प्रत्येक गति में सरकार के लिए कुछ न कुछ टैक्स के रूप में सरकार के लिए छोड़ता जाता है। इस तरह समाज में उतरा धन फिर से सरकार के खजाने में पहुँचता रहता है व व्यवस्था चलती रहती है। मन्दी के समय में उत्पादन के केन्द्रों को गतिमान बनाये रख कर मेहनतकशों के रोजगार को बनाये रखने के लिए धन का प्रवाह करना जरूरी हो जाता है इसलिए ऐसे समय में वेतनवृद्धि करना महत्वपूर्ण वित्तीय उपाय भी है बशर्ते यह सैद्धांतिक होकर ही न रह जाये। यदि हम किसी समाज के सामाजिक सांस्कृतिक व्यवहार को दृष्टि में रखे बिना केवल आर्थिक सिद्धांतों के आधार पर फैसले लेते हैं तो त्रुटि की संभावनाएँ बनी रहती हैं। जैसे कि जीवनयापन और जीवन स्तर के विकास के लिए की गयी वेतन वृद्धि को बेटी के दहेज के लिए जोड़ कर रखने की आदत धन के प्रवाह को अवरूद्ध कर देती है जबकि दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध की श्रेणी में आते हैं।
वेतन की मांग भले ही बढती मंहगाई और विकासमान जीवन स्तर के आधार पर की जाती हो किंतु बढा हुआ वेतन सदैव बाजार में आकर खर्च नहीं होता है। जब यह पैसा बाजार में नहीं आता है तो अर्थ व्यवस्था के पहिये को आगे नहीं बढाता है। इसलिए इस मंदी की दशा में आवश्यक है कि वेतनवृद्धि अनुशसित वास्तविक व्यय से अधिक न हो। सरकारी कर्मचारियों के मामले में अब लगभग शतप्रतिशत वेतन भुगतान बैंकों के द्वारा होता है इसलिए यह संभव है कि उनको मिलने वाले वेतन और उसके वास्तविक व्यय पर एक अध्ययन रिपोर्ट तैयार की जाये जिससे उनकी वास्तविक जरूरतों और उपयोग पर दृष्टि डाली जा सके।
सरकारी कर्मचारियों को जो वेतन मिलता है वह आम जनता से विभिन्न प्रत्यक्ष या परोक्ष टैक्सों के द्वारा वसूला जाता है। वे सेवानिवृत्ति के बाद भी सरकार से आजीवन पेंशन पाते रहते हैं व उनके निधन के बाद उनके परिवार को भी पेंशन मिलती रहती है। जब जनता अपनी गाड़ी कमाई से उनका आजीवन पालन पोषण करती है तब कर्मचारियों का यह दायित्व भी होता है कि वे भी समाज को कम से कम उतनी सेवा तो दें ही जितनी कि देना उनके द्वारा स्वीकृत सेवा शर्तों में आता है व उन्हें जनता के पैसे से जिस स्तर की सुविधाएं प्राप्त हैं वे उसके साथ बेईमानी न करें।
वेतन और पेंशन जीवन यापन के लिए होती हैं ना कि पूंजी बनाने के लिए। आज सरकारी कर्मचारियों को सेवा काल में ही नहीं अपितु उसके बाद भी स्वास्थ सेवायें नि:शुल्क उपलब्ध होती हैं उन्हें सेवाकाल में सरकारी मकान ही नहीं अपितु मकान बनाने के लिए बैंकों से ऋण भी उपलब्ध होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि सरकारी कर्मचारियों को आजीवन एक सुरक्षा प्राप्त रहती है। यही कारण है कि लोग अधिक वेतनमान की नौकरी की जगह सरकारी नौकरी को अधिक महत्व देते हैं। किंतु खेद है कि नौकरशाही को सर्वाधिक गैर जिम्मेवार तथा कार्यों में अवरोध लगाने वाला पाया गया है व आम जनमानस उनसे असन्तुष्ट पाया जाता है। किसी सरकारी कार्यालय में जाते समय आम आदमी को भय की अनुभूति होती है। यह भय उपेक्षा अपमान र्दुव्यवहार का ही नहीं अपितु रिश्वत मांगे जाने और इस रिश्वत की सौदेबाजी के लिए काम को जबरदस्ती अटकाने के रूप में भी महसूस किया जाता है।
जब आज सरकारी नौकरियों की संख्या दिनोंो दिन कम हो रही है व इन नौकरियों में वेतनमान अपेक्षा से भी अधिक मिल रहा है जिसके लिए राज्य सरकार के कर्मचारियों के प्रतिनिधि अपनी मांगों के स्थान पर सरकार की कृपा के प्रति आभार व्यक्त कर रहे हों तब इस समय में यह जरूरी हो जाता है कि थोड़ी बात कर्मचारियों की जिम्मेवारी और कार्य निष्पादन की भी कर ली जाये।
अभी जब मध्यप्रदेश की राजधानी में एक किसान ने कचहरी परिसर में ही आत्महत्या कर ली क्योंकि कई साल भटकने के बाद भी उसका वैध काम नहीं हो सका तब प्रदेश के मुखिया ने पाया कि यह हालत केवल राजधानी की ही नहीं है अपितु पूरे प्रदेश में सरकारी कर्मचारी जनता के साथ इसी तरह का व्यवहार कर रहे हैं। आज लाखों फाइलें केवल रिश्वत की राशि की सौदेबाजी के लिए ही अटकी पड़ी हैं और कार्यालयों के बाहर आम आदमी को यह कहते सुना जा सकता है कि अच्छा हों कि सरकार रिश्वत के रेट तय कर दे जिससे कम से कम समय और भटकन तो बचेगी। ट्रेड यूनियनों का गठन श्रमिकों की न्यायोचित मांगों के लिए किया गया था किंतु अब अनेक मामलों में यह संस्था कामचोरी व कहीं कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली कार्यवाही से सुरक्षा पाने के लिए रह गयी है। ट्रेड यूनियन नेता अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले लीडर की जगह अपराधियों को बचाने वाले वकीलों में बदल गये हैं। प्रतिमाह दिया जाने वाला यूनियन का चंदा सुरक्षा प्रीमियम बन गया है। इसलिए जब कर्मचारियों को नये और बड़े वेतनमान दिये जा रहे हैं तब यह सुनिश्चित भी किया जाना चाहिये कि कर्मचारी उनको दिया गया तयशुदा काम बिना देर किये और बिना कुछ लिये दिये करें व कार्यालय में आये हुये आम नागरिक के साथ सहयोग व सम्मान से पेश आते हुये करें। जानबूझ कर व अवैध लाभ को पाने के लिए काम में देर करने वालों के प्रति कठोर कार्यवाही करने का भी यही उचित समय है। इस अवसर पर कर्मचारी नेताओं की कार्यसीमायें भी तय कर दी जाना चाहिये जिससे उनके आन्दोलन को दूरगामी लाभ पहुँचेगा।
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