बुधवार, अगस्त 12, 2009

धर्म परिवर्तन और धर्म का अधिकार

धर्म परिवर्तन और धर्म का अधिकार
वीरेन्द्र जैन
यदि हम दुनिया के विकास के बारे में डार्विन के विकासवाद को मानते हैं जो कि किसी भी वैज्ञानिक सोच वाले व्यक्ति को मानना ही होगा, तो हमें यह भी मानना होगा कि धर्मों का जन्म मनुष्य की सामाजिक आवशयकताओं के अनुरूप हुआ है और जब जहां जैसे समाज को जिस तरह के सामाजिक नियमों की जरूरत थी उसने वैसे ही धर्म को पैदा कर लिया । उस पर जनता का विशवास बनाने व बनाये रखने के लिये उसे दैवीय शक्ति वाले विश्वास से जोड़ कर लोगों की आस्था को बनाये रखा गया। इस आस्था की रक्षा करते हुये जब जब उसमें सुधार की आवशयकता महसूस हुयी तो व्याख्या के बहाने सुधार डाल दिये गये। यदि हम ''यदा यदा हि धर्मस्य ग्लार्नि भवति भारते'' क़े वास्तविक अर्थ में जायें तो यह स्पप्ट होगा कि इसका मूल अर्थ ''आवशयकता ही अविप्कार की जननी'' से भिन्न नहीं है।अवतार लेने के लिये व धर्म के प्रचार के लिये संकट काल की सीमा क्यों तय की गयी है। अर्थ अपने आप में स्पष्ट है कि जब जब तत्कालीन धर्म से समस्या का हल नहीं मिल पा रहा हो तो धर्म के नये प्रवर्तक की आवश्यकता पड़ जाती है।
धर्मों का इतिहास हमें बताता है कि प्रत्येक धर्म ने अलग अलग समय में जन्म लेकर अपने समय की अवांछित शक्तियों के साथ संघर्ष किया है। यदि उस समय की सामाजिक शक्तियां समाज की आकांछाओं के अनुरूप होतीं तो संदर्भित धर्म का जन्म नहीं हुआ होता। नये धर्म की आवशयकता इसलिये भी पड़ती रही क्योंकि पुराने धर्म के मठाधीशों ने धर्म की दैवीय शक्तियों के नाम पर अपने मनमाने स्वार्थ हल करने शुरू कर दिये थे व धर्म भीरूता के चलते सामान्यजन उसका विरोध करने का साहस नहीं रखता था। दुनिया के समस्त समाजविज्ञानी व सुशिक्षित लोग धर्म को एक सामाजिक संविधान ही मानते हैं।धर्मों के विकास का इतिहास बताता है कि पुराने अनुपयोगी हो चुके धर्म को यदि छोड़ा न गया होता तो नये धर्म कभी अस्तित्व में नहीं आ पाते। कहने का अर्थ यह कि दुनिया में धर्म परिर्वतन का बहुत पुराना इतिहास रहा है।आज हमारे देश में कुछ निहित स्वार्थ नागरिकों के धर्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को रोकने की जी तोड़ कोशिशों में लगे हुये हैं। एक समय था जब धर्म पर शंका करना पाप माना जाता था पर अब लोग प्रत्येक बात को परख कर ही स्वीकार करते हैं।

एक समय था जब भारत में जन्मे बौद्ध धर्म का दूर दूर देशों तक प्रचार हुआ था और उस समय के सम्राट अशोक ने अपने पुत्र और पुत्री को एशिया के तमाम देशों में धर्म प्रचार के लिए भेजा था। आज भी ईसाई और ,इस्लाम, के बाद बौद्ध धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है जिसने अपने जन्म वाले देश की सीमाएं लांघी हैं। आजादी के बाद डा भीमराव अम्बेडकर ने नागपूर में पांच लाख दलितों के साथ हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया था। पुराने समय में जो लोग अपना घर छोड़ कर ज्ञान की तलाश में निकल जाते थे वे परोक्ष रूप में अपने मूल धर्म की सीमाओं को पहचान रहे होते थे ।मुगलकाल में शासकों के धर्म को लाखों लोगों ने अपनाया था और औरंगजेब शासन के तथाकथित जोर जबरदस्ती के पूर्व अपनाया था। कहने का अर्थ यह है कि धर्म परिवर्तन तो कोई नई घटना नहीं है पर धर्म परिवर्तन का विरोध जरूर नई घटना है। गुरू गोबिन्द सिंह के पुत्रों द्वारा धर्म परिवर्तन का विरोध भी स्वयं अपने लिये था न कि दूसरों को रोकने के लिये।
ऐसा लगता है कि इन दिनों संघपरिवार के पास इकलौता कार्यक्रम धर्म परिवर्तन के अधिकार से नागरिकों को वंचित करना ही हो गया है। वे जोर जबरदस्ती और लालच से धर्म परिवर्तन कराये जाने की झूठी कहानियां उछालकर अपने झूठ को ढकने की कोशिश करते हैं किंतु इस तरह का कानून तो पहले ही से मौजूद है और कहीं पर भी ऐसी कोई शिकायतें दर्ज न होने के बाबजूद भी धर्म परिवर्तन का शोर मचाये जाने के पीछे राजनीतिक कारण अधिक हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों हिन्दू धर्म के सैकड़ों बड़े और हजारों छोटे मोटे संत महंत पूरे देश में धुआंधार धर्म प्रचार करने में जुटे हैं और विजुअल मीडिया पर
पचासों कार्यक्रम हैं जिनमें से अनेक तो चौबीस घंटे वाले चैनल है पर इन चैनलों का टीअारपी दयनीय ही बना रहता है। ऐसा ही हाल ईसाई और इस्लामिक चैनलों का भी है । जब धर्म में लोगों की रूचि का ये हाल है तो दूसरे के धर्म में प्रवेश लेना तो सचमुच ही अपने पारम्परिक संस्कारों के साथ बड़ा साहसपूर्ण विद्रोह माना जाना चाहिये।
जिन लोगों को धर्म परिवर्तन से रोकने की कोशिश की जाती है उनका धर्म से केवल इतना सम्बन्ध होता है कि अपने नाम के बाद या किसी फार्म में लिखने के काम आता है। जिनके सामने जिन्दा रहने का संकट होता है वे अपनी अधिकंाश गतिविधियां उसी के आसपास केन्द्रित रखते हैं ।ऐसे अधिकांश लोगों को तो धर्म की याद त्योहारों या बच्चों की शादियों के समय ही आती है।

विचारणीय यह भी है कि धर्म परिवर्तन का सबसे बड़ा संकट संघ परिवार ही क्यों महसूस करता है। ईसाई, मुसलमान, जैन,बौद्ध,आदि के सामने यह संकट क्यों नहीं आता जबकि ये धर्म तो अपने आप में अल्पसंख्यक हैं और धर्म परिवर्तन से उन्हें अपेक्षाकृत अधिक भयभीत होना चाहिये । मुस्लिम तत्ववादी भी निरंतर दूसरी दूसरी शिकायतें तो करते रहते हैं पर धर्म परिवर्तन की शिकायतें उनकी ओर से नहीं आतीं।
हिंदू समाज में भी सवर्ण और उच्चवर्ग में धर्म परिवर्तन की घटनाएं नहीं होतीं अपितु ये केवल दलित आदिवासी समाज में ही देखी सुनी जाती हैं। ये वे लोग हैं जो धर्म के मामले में सामान्यतय; बहुत ज्यादा जानने की फुरसत नहीं रखते। उनके द्वारा धर्म परिवर्तन, उनकी तात्कालिक ज्वलंत समस्याओं के हल से जुड़ा होता है। जो लोग भी, चाहे जिस कारण से इन्हें धर्म परिवर्तन से रोकना चाहते हैं उन्हें उनकी समस्याओं को हल करने की ओर अग्रसर होना चाहिये। खेद है कि वे ऐसा नहीं करते अपितु वर्णाश्रम धर्म वालों के साथ और समर्थन से ही अपना अस्तित्व बनाये हुये हैं।
धर्मपरिवर्तन का सीधा सम्बन्ध जातिवादी भेदभाव से है और जब तक ये भेदभाव समाप्त नहीं होगा तब तक संघ के डन्डों और संघी सरकारों के कानूनों से इसे रोका नहीं जा सकेगा।इस अवसर पर याद किया जाना चाहिये कि जिस गांधी को संघ परिवार से प्रेरित गोडसे ने गोली मारने के बाद कहा था कि मैंैने ऐसे सांप को मारा है जो हिन्दू धर्म को डस रहा था, वह गांधी अपेक्षाकृत अधिक समझदारी के साथ हिन्दू धर्म को बचाने के लिये प्रयासरत था। यदि गांधीजी के प्रयास व स्वतंत्रता आन्दोलन के साथसाथ हरिजनोद्धार न चलाया गया होता तो अब तक करोड़ों दलित धर्म परिवर्तन कर चुके होते। वर्तमान में चल रहे आरक्षण विरोधी आन्दोलन पर संघ परिवार को जो मुंह सिल कर बैठना पड़ा है उसके पीछे उनकी यही कमजोरी है।नागरिकों के धार्मिक अधिकारों की सुरक्षा के लिये न्याय व्यवस्था को घ्यान देना चाहिये क्योंकि संविधान की मूल भावना ऐसी अपेक्षा रखती है।

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