मंगलवार, अगस्त 11, 2009

लोकतंत्र के हित में नहीं यह अंध श्रद्घा

लोकतंत्र के हित में नहीं यह अंध श्रद्धा
वीरेन्द्र जैन
जार्ज फर्नांडीज के पूर्वार्ध जीवन के प्रति पूरे सम्मान के बाबजूद नीतीश कुमार द्वारा इस समय उनको राज्यसभा में भेजा जाना और उनका स्वीकार कर लेना दोनों ही जुगुप्साजनक हैं। यह उस बिहार की जनता का अपमान भी है जिसने उन्हें हाल ही में उनके 'स्वास्थ' को दृष्टिगत रखते हुये उन्हें लोकसभा के लिए न चुन कर सांसद के रूप में उनकी ताजा क्षमताओं के प्रति अपना अविश्वास जताया था। अपनी श्रद्धा के लिए जनता के हितों को दाँव पर लगाने का नीतीश कुमार एन्ड कम्पनी को कोई अधिकार नहीं है।
इस दया से पूर्व राजनीति में वे किसी की कृपा के मोहताज नहीं रहे व कोई नहीं कह सकता कि उसने उन्हें रोपा था। जार्ज ऐसे नेता हैं जो अपने काम से नेता के रूप में क्रमश: विकसित हुये और उन्होंने अपनी देशव्यापी स्वीकृति बनायी। वे जब तक विश्वनाथ प्रताप सिंह मंत्रिमंडल के सदस्य रहे तब तक वे विश्वसनीय रहे व जनता को उनसे बड़ी उम्मीदें रहीं। उनके प्रति यह जनता का विश्वास ही था कि इमरजैंसी के बाद हुये चुनाव में वे हथकड़ी डाले हुये अपने फोटो के माध्यम से चुनाव जीते और मोरारजी भाई मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री बने। उस दौरान उन्होंने दुनिया की सबसे ताकतवर कोका कोला को देश से बाहर का रास्ता दिखा दिया। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार के समय उसी रेल विभाग के केन्द्रीय मंत्री बनाये गये जिसकी पटरियों को उड़ाने के प्रकरण में उन्हें कैद किया गया था ।
वे खाली हाथ मुंबई (तब की बम्बई) पहुँचे थे, फुटपाथ पर सोये थे व कुछ ही दिनों में वहाँ ट्रेडयूनियनों के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में सामने आये थे। मुंबई जो अपनी मिली जुली आबादी के कारण संवैधानिक हिन्दुस्तान का सच्चा नमूना है व जहाँ पर हर प्रदेश के लोग अपना 'देश' मान कर रहते रहे हैं, वहाँ उन्होंने प्रत्येक क्षेत्र के मजदूरों का समर्थन जुटा कर उस समय महाराष्ट्र के सबसे शक्तिशाली नेता एस के पाटिल को हरा कर पूरे देश को चौंका दिया था। वे कुछ उन विरले राष्ट्रीय नेताओं में रहे जो हिन्दुस्तान के अलग अलग हिस्सों से चुनाव लड़े व समर्थन हासिल किया।
जनता पार्टी के शासनकाल में उन्होंने राजनारायण के साथ मिल कर अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की दोहरी सदस्यता के खिलाफ अभियान चलाया था और मोरारजी सरकार को गिरवाने में संकोच नहीं किया था। राजनारायण तो उन्हें प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे पर उन्होंने ही चौधरी चरण सिंह के नाम का सुझाव रखा था। 1989 के चुनाव के दौरान हिन्दू साम्प्रदायिकता की भयावहता के खिलाफ उनके भाषण रोमांचित कर देने वाले होते थे पर उस समय उन पर कभी कोई यह आरोप नहीं लगा सका कि वे किसी साम्प्रदायिक पृष्ठभूमि पर खड़े होकर किसी समुदाय के तुष्टीकरण के लिए यह बोल रहे हैं।
कहते हैं कि सत्ता विचारभ्रष्ट करती है। बाद में जैसे जैसे उन्हें सत्ता की सुख सुविधाओं की आदत पड़ती गयी तब उन्होंने अपना हेयर स्टाइल और पहनावा तो नहीं बदला पर वे केन्द्र में मंत्री बने रहने के लिए किसी भी स्तर पर गिर कर सैद्धांतिक समझौते करने लगे यहाँ तक कि भाजपा के अडवाणी जैसे लोगों के साथ केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अपेक्षाकृत कनिष्ठ मंत्री बनना और साम्प्रदायिकता के सवाल पर मौन रहने का अभ्यास डालना भी आ गया। उन्होंने उड़ीसा में फादर स्टेंस और उसके दो मासूम बच्चों को जिन्दा जलाने वाले का बचाव करने की कोशिश की व संघ परिवार ने उन्हें ढाल की तरह स्तेमाल किया। उन्होंने गुजरात के भीषण नरसंहार पर आये अविश्वास प्रस्ताव के अवसर पर भी अटल बिहारी सरकार का बचाव कर अपनी छवि घूमिल की। उनके रक्षामंत्री रहते हुये ही कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ हुयी और कारगिल की पहाड़ियों को मुक्त कराने में हमें अपने पाँच सौ सैनिकों और अधिकारियों का बलिदान देना पड़ा। यही नहीं उनके विभाग में मृत सैनिकों के लिए खरीदे गये ताबूतों की खरीद में भी भ्रष्टाचार पाया गया। यहीं से उनके पतन का प्रारंभ होता है। उन्हें अटल बिहारी बाजपेयी के परमाणु कार्यक्रम का समर्थन करने के लिए मजबूर होना पड़ा जबकि कभी वे इस कार्यक्रम के सख्त खिलाफ थे। तहलका के स्टिंग आपरेशन ने उनकी रही सही कसर भी पूरी कर दी थी जब उनकी पार्टी पदाधिकारी और घरेलू मित्र का नाम रक्षा सौदों के भ्रष्टाचार में छुपे कैमरों में कैद प्रमाण सहित सामने आया था। इस अवसर पर वे कुछ दिन के लिए मंत्रिमंडल से बाहर भी रहे। ये वे दिन थे जब उन्हें राजग की जगह 'अटल बिहारी का रक्षा मंत्री', कहा जाने लगा था। उन दिनों एक षड़यंत्र रच कर अमेरिका के एक अखबार में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी के स्वास्थ और आदतों के बारे में निंदात्मक समाचार प्रकाशित कराया गया था व उसे आधार बना कर आडवाणी को आनन फानन में उप प्रधानमंत्री की शपथ दिला दी गयी थी जबकि उससे अगले ही दिन मंत्रिमंडल का विस्तार होना था और विश्वस्त सूत्रों के अनुसार आडवाणी और जार्ज दोनों को ही उपप्रधानमंत्री की शपथ दिलायी जाना थी किंतु आरएसएस व आडवाणीी को जार्ज का उपप्रधानमंत्री बनना मंजूर नहीं था।
स्मरणीय है कि जब 2009 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी जनता दल (यू) ने उन्हें टिकिट देने से मना कर दिया तब उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा व पराजित हुये। इस चुनाव में उन्होने अपनी सम्पत्ति 15 करोड़ पचास लाख घोषित की जबकि पिछले चुनाव में यह, उनकी पत्नी की सम्पत्ति मिला कर भी, साढे तीन करोड़ थी। उन्हें उनके खराब स्वास्थ के नाम पर नीतिश कुमार व शरद यादव ने टिकिट देने से इंकार कर दिया था किंतु अगर वे चुनाव न लड़ें तो उन्हें राज्यसभा में भेजने का वादा किया था। वे नहीं माने थे व चुनाव लड़ कर बुरी तरह हारे। इस अवसर पर उनका कहना था कि राज्यसभा तो चुके हुये नेताओं की शरण स्थली है। उनके बयान से ऐसा लगता था कि वे कभी भी पिछले दरवाजे से संसद में प्रवेश करने के लिए राज्यसभा की उम्मीदवारी स्वीकार नहीं करेंगे किंतु उन्होंने जनता द्वारा ठुकराये जाने के बाद बहुत बेशर्मी से उन्हीं नीतीश कुमार और शरदयादव जैसे लोगों के सहयोग से राज्यसभा में जाने का पर्चा भी भर दिया जिन्होंने उन्हें पार्टी अध्यक्ष भी नहीं रहने दिया था। इतना ही नहीं वे जब राज्यसभा के सदस्य के रूप में शपथ पढने के लिए गये तो अपने खराब स्वास्थ के कारण शपथ तक नहीं पढ सके जिसे किसी दूसरे ने पढा और वे केवल बुदबुदाते रहे। संयोग से उन पर दया दिखलाते हुए उसे पढा हुआ मान लिया गया।
ऐसा लगता नहीं है कि भविष्य में वे संसद में बोल भी सकेंगे या राजनीतिक घटनाक्रम पर सहज रूप से अपने विचार व्यक्त कर सकेंगे। उनकी पत्नी लैला कबीर जो कुछ वर्षों से उनके साथ नहीं रहतीं, ने भी कहा था कि जो लोग उन्हें चुनाव लड़वा रहे हैं वे उनके शुभ चिंतक नहीं हैं क्योंकि उन्हें संसद में जाने की नहीं अपितु बेहतर देखभाल की जरूरत है। तब समझ में नहीं आता कि जनता द्वारा नकार दिये जाने के बाद आखिर वे क्यों सदन में बने रहना चाहते हैं! क्या उन पर किसी निकटस्थ अनजान व्यक्ति का दबाव है कि वे पद पर बने रहें.
स्मरणीय है कि मंत्री होने के दौरान उन पर सन 2000 में इजरायल से बराक मिसाइल सिस्टम खरीदने के मामले में 10अक्टूबर 2006 को उनके, उनकी मित्र जया जेटली, और नौसेना प्रमुख एडमिरल सुशील कुमार के खिलाफ सीबीआई ने एक प्रकरण दर्ज किया था। पर जिसके बारे में जार्ज का तब कहना था कि उस सौदे को उस समय के रक्षा सलाहकार जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने एपीजे अब्दुल कलाम ने सहमति दी थी। यह प्रकरण अभी लंबित है। जार्ज साहब केन्द्र में मंत्री रहते हुये न केवल म्यांमार(बर्मा) के अलगाव वादियों के ही खुले पक्षधर रहे हैं अपितु लंका में सक्रिय रहे लिबरेशन टाइगर आफ तमिल इलम (लिट्टे) के समर्थक भी रहे हैं। वे भारत में रह रहे तिब्बतविद्रोहियों के रक्षक और शरणदाता रहे हैं। कहते हैं कि इन पड़ोसी देशों के कई वांछित लोग उनके रक्षामंत्री निवास में शरण पाते रहे हैं। वे समाजवादी चीन को अपना दुशमन नम्बर वन बताते रहे हें जबकि उनके बयानों का हर बार ही सेना के बड़े अधिकारियों ने खण्डन किया है। चीन से दुश्मनी बनाये रखने के लिए वे समय समय पर चीन के हमलों का शगूफा छोड़ते रहते हैं जबकि चीन कोई साम्राज्यवादी देश नहीं है, और ना ही उसकी अर्थव्यवस्था शस्त्र उद्योग पर आधारित है। इसके बाबजूद भी अमेरिका की निगाह में उनकी हैसियत यह है कि देश के रक्षा मंत्री होते हुये भी सन 2002 में डयूल्स हवाई अड्डे पर उनकी कपड़े उतार कर तलाशी ली गयी थी व वे उफ भी नहीं कर सके थे।
बहुत सम्भव है कि नीतीश और शरद यादव ने उनकी उम्र और सेवाओं को देख कर ही उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाने में रूचि ली हो किंतु यह श्रद्धा देश और जनता को मँहगी पड़ सकती है और उसके छींटे नीतीश सरकार पर भी पड़ सकते हैं। देश का उच्च सदन कोई वृद्धों और बीमारों और आरोपितों की शरणस्थली नहीं है, यह देश का भविष्य तय करने वाला पवित्र स्थल है।

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