शनिवार, मई 16, 2020

देश और टुकड़े टुकड़े गैंग की पहचान का अवसर


देश और टुकड़े टुकड़े गैंग की पहचान का अवसर  

वीरेन्द्र जैन
भारत के प्रधानमंत्री पद पर पदस्थ नरेन्द्र मोदी जी ने अपने सम्बोधनों के क्रम में कोरोना संकट को एक अवसर भी बतलाया है। वैसे तो हर संकट कोई ना कोई सबक दे कर ही जाता है। किंतु जिसकी जैसी सोच होती है वह उससे वैसा ही सबक ग्रहण करता है।
विद्यायाम विवादाय, धनं मदाय, शक्तिं परेशां परपीड़नाय
खलस्य साधूनाम विपरीत बुद्धिः, ज्ञानाय, दानाय च रक्षणाय
[अर्थात बुरे लोगों के पास विद्या विवाद के लिए, धन घमंड के लिए और शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के लिए होती है जबकि भले लोगों के पास विद्या ज्ञन के लिए, धन दान के लिए, और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।]
मोदीजी जिनको, और जो मोदीजी को फालो करते हैं, उन्होंने तो गोदी मीडिया के सहयोग से कोरोना को केवल मरकज के जमातियों द्वारा ही फैलायी गयी बीमारी प्रचारित कर इसे हिन्दू मुस्लिम बनाने व साम्प्रदायिक उन्माद जगाने का अवसर देखा। अगर कुछ विदेशी दबाव ना आते तो भयभीत समाज में यह उनके एजेंडा को बल देने का अवसर था। सब्जी और फलों के ठेलों को हिन्दू मुस्लिम में बदलने व हिन्दू विक्रेताओं के ठेलों पर झंडे व बैनर लगा कर मुस्लिम विक्रेताओं को लाठियों से पीटे जाने के अनेक दृश्य वायरल हुये हैं। इस कृत्य की किस ने निन्दा की और कौन चुप्पी साधे रहा, इससे पक्षधरता प्रकट होती है. अवसर के स्तेमाल का पता चलता है। सच तो यह है कि जमातियों ने ही नहीं अपितु हर धर्म के कट्टर और धर्मान्ध व्यक्तियों ने सोशल डिस्टेंसिंग [फिजीकल] की धज्जियां उड़ायीं। अभी भी अनेक धर्मांध लोग मानते हैं कि यह प्रभु द्वारा ली गयी परीक्षा है और उसी की कृपा दया से राहत मिलेगी। स्वाभाविक है कि सामाजिक आर्थिक और शैक्षिणिक रूप से पिछड़े लोग अधिक अन्धविश्वासी होंगे। किंतु संचार के साधनों के तीव्र विकास ने पूरी दुनिया के जो दृश्य उपलब्ध कराये हैं उससे अन्धविश्वासी लोग भी चिकित्सा को आस्था के बराबर रखने को विवश हुये हैं। सभी धर्मस्थलों की आय में तेजी से गिरावट आयी है। जहाँ आनलाइन दान की भी सुविधा है उन धर्मस्थलों में भी उतना दान नहीं आया जितना पहले आनलाइन आया करता था। यह धर्म में पल रहे बड़े व्यापार के लिए सबक है,
पूरी दुनिया ने देखा कि भारत में जब मिलों कारखानों, भवन निर्माणों आदि में कार्यरत लगभग आठ करोड़ मजदूरों को बिना वेतन के कार्यमुक्त कर दिया गया और उनका देय भुगतान भी नहीं दिया गया तो वे लुटे पिटे मजदूर अपने गाँवों की ओर लौटने लगे। ये असंगठित क्षेत्र के मजदूर थे। अपने हितों की रक्षा के लिए उनके पास कोई संगठन नहीं था जो इनका देय मेहताना दिलवाने के लिए दबाव बनाता। यही कारण है कि शोषक वर्ग उनके संगठन नहीं बनने देता। यह ट्रेड यूनियनों के कमजोर होते जाने का ही परिणाम था कि कोरोना काल ही मैं नरेन्द्र मोदी ने अवसर का लाभ लेकर उद्योगपतियों के पक्ष में अनेक श्रमिक विरोधी कानून लागू कर दिये जिनमें ऐतिहासिक रूप से अर्जित आठ घंटे काम के कानून की समाप्ति तक् सम्मलित है।  
इसे चमत्कार कहें या स्वाभाविक प्रवृत्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति कहें कि पूरे देश के असंगठित असम्पृक्त मजदूरों ने स्वतः स्फूर्त रूप से तय किया कि वे अपने अपने गाँवों को लौट जायेंगे। यह सबका अपना अपना फैसला था किंतु एक जैसा था। ट्रेनें, बसें, सब बन्द थीं तो उन्होंने अपना सामान बाँधा और साहसी मेहनतकश लोग छोटे छोटे बच्चों सहित पैदल या साइकिल से ही निकल पड़े। यह दूरी दस बीस किलोमीटर की नहीं थी अपितु औसतन दो से डेढ हजार किलोमीटर की थी। पिछले दिनों शेष देशवासियों ने पहली बार इन करोड़ों मजदूरों के बारे में जाना कि वे कितने कम सामान के साथ कितनी कम मजदूरी में जीवन गुजार रहे थे। उनकी झुग्गियां कितनी छोटी छोटी थीं और उन्हीं में उनका पूरा परिवार भी रह रहा था। इस दौरान किसी को पूछते नहीं देखा कि इनके बच्चे शिक्षा भी ग्रहण कर रहे हैं या नहीं! ये अपना वोट तो जरूर देते होंगे या बेचते होंगे किंतु इनकी राजनीतिक चेतना के लिए इनके पास सूचना तंत्र की क्या व्यवस्था है! इनका पहरावा केवल बदन ढकने का माध्यम था जबकि आज देश में 23% प्रतिशत कंजूमर बाजार सौन्दर्य प्रसाधनों का है जिनमें डिजायनर वस्त्र जूते आदि भी सम्मलित हैं।
असल में सच्चे देशभक्त तो ये लोग ही हैं जो पूरे देश को अपना घर समझते हैं। जहाँ काम मिलता है वहाँ पहुँच जाते हैं और बिना निजी अनुकूलतायें पैदा किये जैसा वातावरण होता है, वैसे में रहने लगते हैं। जहाँ जो खाने को मिलता है, वह खाना सीख जाते हैं। कभी एक यायावर मित्र ने मुझ से कहा था कि तुम्हारा टायलेट तो चार वाय चार का है किंतु मेरे जैसे लोगों के टायलेट की तो कोई सीमा नहीं, यह उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक फैला हुआ है [यह जहाँ शौच वहाँ शौचालय के विचर से पहले की बात है] । तुम्हारे पास नहाने के लिए दो बाल्टी पानी होता है किंतु मेरे पास तो विशाल विशाल ‘स्विमिंग पूल’ हैं, जिन्हें तुम ताल नदी झील कुछ भी पुकार सकते हो। बताओ कि दो सौ वर्गमीटर के फ्लैट में रहने वाले तुम बड़े आदमी हो या मैं? तुम्हारे पास फ्लैट है, मेरे पास देश है।
भरतपुर के एक मित्र का किस्सा याद आता है। वे किसी आन्दोलन में गिरफ्तार किसी कार्यकर्ता की जमानत देने के लिए कोर्ट में गये। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम्हारे पास कोई जमीन जायजाद है? वे बोले कि हाँ, हिन्दुस्तान के क्षेत्रफल में हिन्दुस्तान की आबादी का भाग दे दें, एक हिस्सा मेरा है।
महानगर में रह चुका आदमी यह हिम्मती आदमी, औसतन दस वर्ष बाद जब यह सोच कर गाँव पहुंचेगा कि अब वापिस शहर नहीं जाना है तो वह सवर्णों को परम्परागत सम्मान नहीं दे पायेगा जो गाँव वालों को अब भी देना पड़ता है। अब वह दलित नहीं मजदूर बनकर सामने आयेगा। वह न्यूनतम दर पर काम चाहेगा। वह बेरोजगार होगा पर, बेगार नहीं करेगा। उसके आचरण से गाँव के युवा प्रेरित होंगे। इससे न जाने कितने अनदेखे सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन सामने आयेंगे। अपने साथ हुये दुर्व्यवहार पर उसका गुस्सा फूट भी सकता है।
देश ने यह भी देखा कि इन्हीं सरकारों ने देश के भीतर राज्यों की सरहदें बना दी हैं और मजदूरों को अपने पैतृक गाँव जाने के लिए रोका जा रहा है। आवागमन के सारे साधन बन्द कर दिये हैं, उन पर लाठियां चलायी जा रही हैं, आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं। मजदूरों के प्रवेश पर राजस्थान और उत्त्तर प्रदेश की पुलिस आपस में टकराती है। उन्हें चोर रास्तों से घुसपैठ करना पड़ रही है। सवाल उठता है कि देश को टुकड़ों टुकड़ों में कौन बांट रहा है? असली टुकड़े टुकड़े गैंग कौन सी है? क्या बंगाल और झारखण्ड अलग देश हैं?
इसके बाबजूद भी सरकार जनता को धोखा देने से बाज नहीं आ रही है। आयकर रिफंड और बैंक लोन को पैकेज बता कर बीस लाख करोड़ राहत का प्रचार कर रही है। बजट की राशि को व्याख्यायित कर उसे राहत बताने की कोशिश कर रही है। कोरोना अगर अवसर है तो यह एक भिन्न अवसर है, और जरूरी नहीं कि वैसा ही अवसर हो, जैसा सत्ता में बैठ कर झूठ बोलने वाले लोग महसूस कर रहे हैं।     
      वीरेन्द्र जैन
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