रविवार, मई 24, 2020

एक भूतपूर्व लतीफा लेखक के संस्मरण .......................वरना हम भी आदमी थे काम के


एक भूतपूर्व लतीफा लेखक के संस्मरण
.......................वरना हम भी आदमी थे काम के

वीरेन्द्र जैन
आज जब देश  में लतीफों को बाजार करोड़ों रूपयों की सीमाएं तोड़ चुका है, तब मुझे वो पुराने दिन याद आ रहे हैं जब मैं धर्मयुग के कुछ गिनेचुने लतीफा लेखकों में हुआ करता था और उस समय एक लतीफे के कुल पांच रूपये मिलते थे। उस पर भी दो लतीफे एक साथ छपने पर दस रूपये का भुगतान मनीआर्डर से न होकर चैक से होता था तथा चैक को वसूलने के लिए उसमें से ढाई रूपये बैंक कमीशन के कट जाते थे। धर्मयुग उन दिनों किसी हिन्दी लेखक की राष्ट्रव्यापी पहचान स्थापित करने वाली प्रमुख पत्रिका थी जिसमें प्रत्येक रचना पूरी छानबीन के साथ प्रकाशित होती थी व भारतीजी प्रैस में जाने से पहले पूरे अंक के प्रत्येक पेज पर पंक्ति दर पंक्ति दृष्टिपात करना जरूरी मानते थे।
                आज जब टीवी के लाफ्टर चैलेन्ज शो में लतीफेबाजी को निकृष्टतम कोटि की भड़ेंती समझी जा रही है भले ही उसमें लाखों रूपयों के पारिश्रमिक और इनाम जुड़े हों तथा देश  की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के सांसद उसमें भाग ले रहे हों, पर उस दौर के लतीफा लेखकों की सूची पर नजर डालकर गर्व होता है। इनमें शामिल अनेक लोगों ने हिन्दी के लोकप्रिय साहित्य के आकाश  को बहुत ऊूंचाई तक छुआ है और अनेक तो अभी भी छाये हुये हैं। इन में मेरे साथ शामिल थे -के.पी सक्सेना, बालकवि वैरागी, सूर्यकुमार पांडे,  हरिओम बेचैन,  सरोजनी प्रीतम,  मधुप पांडेय काका हाथरसी आलोक मेहरोत्रा, आदि।
                रोचक यह है कि मुझसे लतीफे लिखने का आग्रह करने वाले थे हिन्दी पत्रकारिता जगत में सूर्य की तरह चमके, व पहला टीवी न्यूज शो प्रारम्भ करने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह, जो उन दिनों धर्मयुग में उपसंपादक थे। बाद में इस स्तंभ को उदयन शर्मा और योगेन्द्रकुमार लल्ला जैसे लोगों ने भी देखा था। श्री हरिवंश जो इन दिनों राज्यसभा के उपाध्यक्ष हैं, भी उन दिनों धर्मयुग में उप सम्पादक थे और बाद में जब वे बैंक आफ इंडिया में हिन्दी अधिकारी के रूप में हैदराबाद में पदस्थ हुये तब मैं भी हैदराबाद में था और तब से ही हुयी उनसे पहचान पर मैं गर्व करता रहा।
                पहले रीडर्स डायजेस्ट केवल अंग्रेजी में आती थी जिसके लतीफे अंग्रेजी के पाठकों में बहुत पठनीय माने जाते थे। वे उस समय भी श्रेष्ठ लतीफे पर पचास रूपये का पुरस्कार देते थे जबकि धर्मयुग दुष्यंत कुमार जैसे कवि की गजलों को पारिश्रमिक के तौर पर पच्चीस रूपये देता था जिस पर दुष्यंत कुमार ने भारती जी को गजल में पत्र लिखा था जिसका एक शे’र था-
                                कल मैकदे में चैक दिखाया था आपका
                                वे हॅंस के बोले इससे जहर पीजिये हुजूर

                धर्मयुग के सुरेन्द्रप्रतापसिंह का आग्रह मेरे लिए किसी बड़े प्रमाणपत्र से कम नहीं था। मैंने अंग्रेजी रीडर्स डायजेस्ट के पुराने अंक पुरानी किताबें बेचने वालों से खरीद कर उसके श्रेष्ठ पुरस्कृत लतीफे एकत्रित किये और बड़ी मेहनत से उनका अनुवाद किया। पर अनुवाद के बाद ऐसा लगा कि वे लतीफे विदेशी संस्कृति की विसंगतियों और बिडम्बनाओं से जनित हैं तथा हिन्दी भाषी क्षेत्र की संस्कृति में वैसा हास्य उनसे पैदा नहीं होता जैसा कि वहां होता होगा। अतः मैंने उन लतीफों के भावों को पचा कर उन्हें अपने परिवेश  में ढाल कर प्रस्तुत किया जो काफी श्रमसाध्य कार्य था। पर उस दौर में धर्मयुग में लतीफे लिख कर भी धन्य हुआ जा सकता था और देश व्यापी पहचान बनायी जा सकती थी, जैसाकि आज के लाफ्टर चैलेन्ज शो वाले कमा रहे हैं। इस आकर्षण ने मुझसे हजारों लतीफे लतीफे लिखवा लिये जो धर्मयुग की आवश्यकता से भी अधिक थे। बाद में इनमें से बहुत सारे लतीफे माधुरी, रंग, मनोरमा, साप्ताहिक हिुदुस्तान, आदि बहुपठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये। धर्मयुग ने बाद में मुझ से विषय अनुसार लतीफे भी लिखवाये। इन लतीफों की एक पुस्तक काका हाथरसी के सहयोग से स्टार पाकेट बुक्स से प्रकाशित हुयी जिसकी कथा भी रोचक है।

                धर्मयुग से मिली प्रसिद्धि के कारण लतीफों की पुस्तक प्रकाशित कराने का विचार बना। सोचा कि हाथ के लिखे लतीफों की पुस्तक प्रकाशक को भेजने पर हो सकता है वह लौटा दे इसलिए टाइप करा लिया जाये पर उस दौरान मेरी पोस्टिंग जिस गांव में थी वहां टाइपिंग की कोई सुविधा नहीं थी सो वहां से सत्तर किलोमीटर दूर लखनऊ में टाइप कराना पड़ी। उसी दौरान लखनऊ के सूर्यकुमार पांडेय  से मित्रता हुयी जिन्होंने टाइप कराने की जिम्मेवारी सम्हाली। टाइप होने के बाद पाण्डुलिपि को उस समय के सर्वाधिक चर्चित प्रकाशन संस्थान हिन्द पाकेट बुक्स को भेजा और आश्चर्य कि उन्होंने बिना किसी विलम्ब के स्वीकृति भेज दी। इसी दौरान मेरा ट्रांसफर बैनीगंज (हरदोई) से हाथरस हो गया। हाथरस आते ही कुछ दिनों बाद हिन्द पाकेट बुक्स के प्रबंधन में फेरबदल हुआ और प्रकाश पंडित जी जिन्होंने मेरी पाण्डुलिपि को स्वीकृति दी थी, हिन्द पाकेट बुक्स छोड़ दी। इस फेरबदल के साथ ही उनके द्वारा स्वीकृत पांडुलिपि वापिस आ गयी। मैं अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशन की संभावना पर जितना खुश था उसके टूट जाने पर उससे कहीं अधिक दुखी हुआ। धर्मयुग के कारण ही काका हाथरसीजी मुझे जानते थे और हाथरस में मुझे मकान आदि दिलाने में उन्होंने बहुत सहयोग किया था। जब उन्हें मेरा दुख मालूम हुआ तो उन्होंने सांत्वना दी और पाण्डुलिपि दिखाने को कहा। कुछ दिनों बाद उन्होंने कहा कि मेरी प्रकाशक से बात हुयी है, पुस्तक तो छप जायेगी पर तुम्हारे नाम से उतना नहीं बिकेगी जितना मेरे नाम से बिकेगी इसलिए इसे मेरे नाम से छप जाने दो। अन्दर सम्पादक के रूप में हम दोनों के ही नाम रहेंगे। उस निराशा के दौर में मैंने स्वीकृति दे दी। बाद में वह पुस्तक पाँच वर्ष बाद काका के लतीफेके नाम से छपी जबकि अन्दर के पृष्ठ और भूमिका में मेरे नाम का उल्लेख हुआ। मैंने भी सोचा कि आखिरकर तो मेरा भी काम अनुवाद का ही था सो जो हुआ सो हुआ। काका ने पुस्तक की दो हजार की रायल्टी में से आधी चैक से मुझे भेज दी। इससे पूर्व लतीफों पर इतनी बड़ी राशि का भुगतान मुझे नहीं हुआ था इसलिए बहुत दिनों तक तो काका हाथरसी का वह चैक मैं मित्रों को दिखाने के लिए रखे रहा क्योंकि उन दिनों फोटो कापी की दुकानें भी इतनी आम नहीं थीं। बिडम्बना यह थी कि वह मेरी पहली प्रकाशित पुस्तक थी जिसे मैं छाती ठोक कर अपनी पुस्तक नहीं कह सकता था और अनेक मित्र तो काका के नाम और मेरे नाम की तुलना करके मेरे ऊपर अविश्वास ही कर सकते थे।
                जब धर्मयुग में लतीफे छपने शुरू हुये तब मैं अपना पूरा नाम वीरेन्द्र कुमार जैन लिखा करता था। बम्बई निवासी जाने माने वरिष्ठ कवि कथाकार उपन्यासकार वीरेन्द्र कुमार जैन को यह नागवार गुजरा था। उन्होंने धर्मवीर भारती से कहा कि इस को रोकिये। भारतीजी ने उनसे कहा कि मैं रोक दूंगा बशर्ते आप मुझे इस बात से आश्वस्त कर सकें कि दूसरा कोई आदमी वीरेन्द्रकुमार जैन नाम नहीं रखेगा और रखेगा तो लिखेगा नहीं। यह तो लतीफे और व्यंग्य कविताएं लिख रहा है अगर कहानी उपन्यास लिखता होता तो शायद आपको और ज्यादा परेशानी होती। बहरहाल वे असन्तुष्ट रहे। उन दिनों वे महावीर स्वामी पर अपना उपन्यास अनुत्तर योगी  लिख रहे थे। संयोग से उन्हीं दिनों टाइम्स ग्रुप के मालिकों में से एक श्रेयांस प्रसाद जैन ने आंखों का आपरेशन करवाया था और लम्बे समय तक पढने के सुख से वंचित थे इसलिए उन्होंने बम्बई वाले वीरेन्द्र कुमार जैन से तय कर लिया था कि वे प्रतिदिन अपने उपन्यास के अंश  उन्हें सुनाने आयें। श्री जैन ने उन्हीं दिनों अपनी समस्या से उन्हें अवगत कराया तो उन्होंने भारतीजी से बात की। भारतीजी ने मुझे पत्र लिखा और मेरी सहमति से मेरा नामकरण वीरेन्द्र कुमार जैन (दतिया) कर दिया गया। यह नाम कुछ विचित्र सा हो गया था इसलिए इसने अनेक लोगों का ध्यान आकर्षित किया व मित्रों के बीच यह खुद लतीफा बन गया। वे इस पूरे नाम के साथ मुझे बुलाते और हॅंसने लगते।
                कवि सम्मेलनों के मंचों पर आमंत्रण पाने के लिए भी लोकप्रियता का बहुत महत्व होता है। इस बात को काका भी स्वीकारते थे कि अपनी अच्छी हास्य रचनाओं के बाबजूद भी काका हाथरसी को वैसी लोकप्रियता नहीं मिली होती अगर उन्होंने वर्षों धर्मयुग में कुण्डलियां नहीं लिखीं होतीं। धर्मयुग में यदि किसी लतीफे में किसी कवि लेखक का नाम जोड़ कर प्रकाशित किया जाता तो उसका नाम भी राष्ट्रव्यापी हो जाता था इसलिए मंच पर सफलता तलाश रहे व उसे बनाये रखने की आकांक्षा रखने वाले मंचीय कवि चाहते थे कि उन पर भी लतीफे बना कर प्रकाशित किये जायें। उन दिनों अनेक कवियों ने मुझसे आग्रह किया था कि मैं अपने लतीफों में उनका नाम भी जोड़ दूं। इसमें मेरा कुछ नहीं जाता था इसलिए मैंने उसे सहज स्वीकार कर लिया व कई मंचीय कवियों के नाम जोड़ कर झूठे लतीफेलिखे। पर इस प्रक्रिया में एक घटना बहुत संवेदनशील हो गयी। नागपुर के प्रसिद्ध कवि व संयोजक मधुप पांडेय का पत्र आया जिसमें लिखा था कि आजकल आप धर्मयुग में बड़े धड़ल्ले से छप रहे हैं, एकाध लतीफा मुझ पर भी चिपका दें। मैंने उनके आग्रह को स्वीकर करते हुए एक लतीफा धर्मयुग को भेजा जिसे धर्मयुग ने प्रकाशित कर दिया। लतीफा कुछ इस तरह बना कि मधुप पांडेय का पुत्र पहली बार नये स्कूल में जाकर लौट कर आया तो मां बाप दोनों ने ही प्यार से गोद में बिठा कर पूछा कि आज स्कूल में क्या पढा? उसने उत्तर दिया कि आज मेंने स्कूल में सीखा कि कबूतर को अंग्रेजी में क्या कहते हेंै!
                ‘‘क्या कहते हैं?’’ मां बाप दोनों ने ही उत्फुल्ल जिज्ञासा से पूछा।
                ‘‘कैबूटर’’ पु़त्र ने उत्तर दिया।
लतीफा जैसे ही धर्मयुग में छपा उसके कुछ दिनों बाद ही मधुप पांडेयजी का पत्र आया जिसमें उन्होंने लिखा था कि आपने जाने अनजाने ही बड़ा गजब कर दिया। असल में शादी के अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी ना तो मेरे कोई पुत्र है और ना पुत्री। आपका लतीफा छपने के बाद मुझे अनेक मित्रों के फोन और बधाई पत्र मिलने लगे जिससे हम लोग सकते में हैं।
                उनका पत्र पाकर मैं काटो तो खून नहीं वाली स्थिति में पहुंच गया। तुरंत उनसे क्षमा मांगी और उसके बाद कभी नाम वाले लतीफे नहीं लिखे भले ही पुराना लेन देन चुकाने के लिए मित्र लोग मेरे नाम पर भी लतीफे चिपकातेरहे।
                मैं बैंक में अधिकारी था व सारा काम कुछ अधिक ही नियम कायदे से किया करता था जबकि किसी भी व्यावसायिक संस्थान में लिखित नियमों को एकतरफ रख कर व्यवहारिक होने से काम चलता है। इस व्यवहारिक लोच के अभाव में अच्छे व्यावसायिक परिणाम के आकांक्षी वरिष्ठ अधिकारी मुझसे खुश  नहीं रहते थे पर वैधानिक रूप से कुछ कह भी नहीं पाते थे इसलिए अपनी खीझ वे मेरा ट्रांसफर करके निकालते थे। मेरी उनतीस साल की नौकरी में पन्द्रह ट्रांसफर हुये। एक बार तो नाराजी में उन्होंने मेरा ट्रांसफर गाजियाबाद से हैदराबाद जैसी दूरी पर कर दिया। इन ट्रांसफरों से आर्थिक सामाजिक पारिवारिक नुकसान तो हुये पर धर्मयुग के इस नाम वैचित्र के कारण मुझे जानने वाले हर जगह मिलते गये और मित्रों का समूह बनता गया। एक बार तो मानस पर प्रवचन करने वाले एक सम्मानित व समाज में पूज्यनीय कथावाचक ने अपने प्रवचनों को रोचक बनाने के लिए मेरा संकलन चाहा तो सुप्रसिद्ध कथा लेखक गुलशन नन्दा से फिल्मों  में हास्य लेखक की अतिरिक्त भूमिका पर पत्रव्यवहार हुआ। यह बात मुझे बाद में ज्ञात हुयी कि उन्हीं दिनों वे ब्लड कैंसर से जूझ रहे थे ओर वह बात इसी कारण आगे नहीं बढ सकी क्योंकि कुछ दिनों बाद ही उनका निधन हो गया। मैं उनकी ओर से आगे पत्रोत्तर न आने पर निराश था जिसका बाद में मुझे दुख हुआ।
                चकल्लस आयोजन की ख्याति वाले रामावतार चेतन जी ने रंग व रंग चकल्लस में मेरे काफी लतीफे छापे व साप्ताहिक हिुदुस्तान की तत्कालीन सम्पादक श्रीमती शीला झुनझुनवाला को भी पूछने पर मेरा ही नाम सुझाया था।अपने अंतिम दिनों में लिखे एक पत्र में उन्होंने मेरे पहले व्यंग्य संकलन की भूरि भूरि प्रशंसा की थी जबकि वे प्रशंसा के मामले में बहुत कंजूस समझे जाते थे।
                इतिहास में दर्ज होने की आकांक्षा वाले साहित्य से इतर लोकप्रिय लेखन की अपनी एक अलग दुनिया है जो भले ही अल्पजीवी हो किंतु उसकी परंपरा दीर्घजीवी है। पात्र बदलते रहते हैं पर कहानी चलती रहती है। भले ही गहराई को बहुत महत्व दे दिया गया हो पर सतह और किनारों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि गहराई को बांधती तो यही चीजें हैं। आज जब पीछे मुड़ कर देखता हॅूं तो सब कुछ बहुत रोचक लगता है। गुदगुदा जाता है।
वीरेन्द्र जैन
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