मंगलवार, मई 05, 2020

भीड़ का अनुशासन और समाज का चरित्र


भीड़ का अनुशासन और समाज का चरित्रलॉकडाउन के तीसरे फेज में शराब की ...
वीरेन्द्र जैन
हम हिन्दुस्तानियों में दोहरे चरित्र के लोग बहुतायत में होते हैं। सदियों से हमारे आदर्शों और व्यवहारों में विरोधाभास रहा है। हमारा सारा अच्छा व्यंग्य साहित्य इसी विरोधाभास को उजागर करता रहा है। यह चरित्र चाहे ‘ वैद्यराज त्वम नमस्तभै, त्वम यमराज सहोदरा ‘ के रूप में प्रकट हुआ हो या ‘पंडित, वैद्य मशालची, इनकी उल्टी रीत, औरन गैल बताय कें, आपहु नाकें भीत ‘ के रूप में आया हो। रामलीला का प्रारम्भ ही नारद मोह लीला से शुरू हुआ करता था, या केशव दास के बालों के सफेद हो जाने पर जो चन्द्र वदन मन मोहनियों का बाबा कह कर जाने  पर जगत की अनुभूति को निजी बतला कर समाज पर कटाक्ष करना हो। जैन लोगों की प्रार्थना में एक आदर्श बताया गया है – ‘ मन में हो सो, वचन उचरिए, वचन होय सो तन सों करिए ‘। आधुनिक कवियों में भी अशोक चक्रधर की जो मंचीय कविता सबसे अधिक लोकप्रिय हुयी थी, वह यंत्र थी जो एच जी वेल्स की उस विज्ञान कथा पर आधारित थी जिसमें कथा पात्र के हाथों में ऐसा यंत्र आ जाता है जो सामने वाले के मन की बातें समझ लेता है और उसके वचनों से उत्पन्न भेद से हास्य और व्यंग्य पैदा होता है।
रामचरित मानस में जब हनुमान जी राम चन्द्र जी से पहले पहल मिलते हैं और अपने लिए सेवा बताने को कहते हैं तो राम चन्द्र जी उनके कपि स्वरूप को ध्यान में रख कर जो कहते हैं, उसको तुलसीदास जी ने ये शब्द दिये हैं –
यही तुम्हार बहुत सेवकाई, भूषन वसन न लेओ चुराई ।
पिछले दिनों जब देश में लाक डाउन का तीसरा फेज प्रारम्भ हुआ तब उसमें संक्रमण की सम्भावनाओं को देखते हुए कुछ क्षेत्रों में छूट दी गयी व कुछ क्षेत्रों में नियंत्रण को कसा गया। छूट देने के मामलों में एक क्षेत्र शराब की दुकानों को खोलने की अनुमति देना भी थी। देखा गया कि चालीस दिन बाद ये दुकानें खुलने पर भीड़ अनियंत्रित हो गयी और कोरोना को नियंत्रित करने के लिए जो डिस्टेंस बनाने के नियम थे उन्हें तोड़ते हुए धक्कामुक्की करने लगे। चूंकि शराब हमारे दोहरे चरित्र का हिस्सा है इसलिए इस घटना की चतुर्दिक प्रकट आलोचना हुयी। इस मामले में न केवल सरकार के दुकानें खोलने के निर्णय को कोसा गया, अपितु मोरारजी की भाषा में देश भर में दारू बन्दी लागू करने की पुरानी बहस भी छेड़ दी गयी।
शराब से होने वाले नुकसानों पर आज से नहीं अपितु सैकड़ों सालों से बहस होती रही है, इस्लाम, वैष्णव धर्म, सिखपंथ, आदि में शराब को सीधा सीधा नकारा गया है, जबकि विडम्बना यह है कि उर्दू के सबसे अच्छे शायरों ने सबसे ज्यादा मजाक उन्हीं मुल्ला मौलवियों का उड़ाया है जो तौबा करने को कहते हैं। मेहनतकश व सम्पन्न सिख समाज में इसका भरपूर प्रयोग होता है। धार्मिक पंथों में इसके नकार का मतलब ही यह होता है कि उक्त पंथों के अस्तित्व में आने के समय इनका प्रयोग होता रहा होगा। शराब भूगोल के हर हिस्से में किसी न किसी रूप में मौजूद है और इतिहास में भी हर काल में मिलती है। हमारे कानून निर्माताओं ने इस पर उचित नियंत्रण बनाये रखने के लिए सरकारी ठेका प्रणाली प्रारम्भ की और सख्ती के लिए इस पर अधिक से अधिक कर लगाते गये। क्रमशः यह कर इतना बढता गया कि सरकारों की आय का बड़ा हिस्सा इससे ही प्राप्त होने लगा। परिणाम यह हुआ कि सरकारें इस मद से प्रतिवर्ष बीस प्रतिशत अधिक आमदनी करने के चक्कर में इसके उपयोग को बढावा देती गयीं। कोरोना नियंत्रण हेतु की गयी अभूतपूर्व तालाबन्दी में शराब की दुकाने भी बन्द करना पड़ीं और सरकार की आमदनी पर भी ताला पड़ गया। यही कारण रहा कि चालीस दिन के लाकडाउन के बाद जिस बन्द व्यापार को खोलने में प्राथमिकता दी गयी उनमें शराब की दुकाने भी थीं।
शराब के दोषों में एक प्रमुख दोष, इसके सेवन की आदत पड़ जाना भी है। मनोविज्ञान के क्षेत्र से लेकर साहित्य के क्षेत्र तक इस पर बहुत काम हो चुका है इसलिए वह विषय यहाँ चर्चा का विषय नहीं है, किंतु बीड़ी. सिगरेट, गुटखा, चाय, काफी, भांग, गाँजे से लेकर हर आदत मनुष्य को गुलाम बनाती है और उसके विवेक को भी कमजोर करती है बरना इनको सेवन करने वाला कौन है जिसे इनके नुकसानों को नहीं बताया गया है, फिर भी लोग इनका स्तेमाल करते हैं। जब इन लतखोरों को चालीस दिन बाद सरकारी आदेश से, सरकारी दुकान से, सरकारी दरों पर शराब उपलब्ध हुयी तो भीड़ होना स्वाभाविक थी। यह सीधा सीधा डिमांड सप्लाई का मामला था। जब सुविधाओं का संकट होता है तो जरा सी किरण दिखाई देने पर लोग अवसर चूक जाने के भय से नियंत्रण खो देते हैं। यह अनुशासनहीनता रेल के डिब्बे में चढते समय भी देखी जा सकती है, राशन की दुकानों पर भी दिखाई देती है, सिनेमा और बसों की टिकिट खिड़की पर भी दिखती रही है। यहाँ तक कि प्रतिवर्ष अपने देवी देवताओं के मन्दिरों में पहले दर्शन की भगदड़ में सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। दुनिया भर को अनुशासन का पाठ पढाने वाले मीडिया के पत्रकार एक बाइट के लिए जिस तरह से धक्कामुक्की पर उतरते हैं वह रोज ही दिखाई देता है। किंतु जब शराब की दुकानों पर लत के शिकार लोग टूट पड़ते हैं तो हमारे दोहरे चरित्र के लोग उनकी इस मानवीय कमजोरी को सबसे बड़ा पाप बताने लगते हैं। इतना ही नहीं लाकबन्दी से चरमरा गयी अर्थव्यवस्था से बर्बाद हो गये मजदूर जब पैदल ही गाँव लौटने लगे और इस बात की दुनिया भर में बदनामी हुयी तो गोदी मीडिया के पत्रकारों ने उन भूखे मजदूरों को शराब की आदत के शिकार लोगों से जोड़ दिया।
आदतें तो राजनीति व धर्म के नायकों की अन्धभक्ति के नशे की भी बुरी होती है जो मरकज में जमातियों को एकत्रित करा देता है व एक भावुक श्रद्धा के बहाने लाखों लोगों से लाइट बन्द करा के थाली बजवा, विजय जलूस निकलवा कर सोशल डिस्टेंस की धज्जियां उड़वा देती है। यह जानना रोचक हो सकता है कि शराब के लिए अनुशासनहीन भीड़ में विवेकहीन थाली बजाने वालों का प्रतिशत कितना था।
वीरेन्द्र जैन
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