मेरे हिस्से के शरद
जोशी
वीरेन्द्र जैन
कोरोना महामारी के कारण जो देश व्यापी लाकडाउन लागू हुआ उसने समाज में बहुत
सारे परिवर्तन पैदा किये, जिनमें से एक था साहित्यिक कार्यक्रमों का बन्द हो जाना।
किंतु जहाँ न पहुंचे रवि वाली तर्ज पर कुछ प्रकाशकों के सहयोग से लेखकों कवियो की
बातचीत का लाइव प्रसारण शुरू हो गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुयी कि इन
कार्यक्रमों में साहित्यकारों के निजी जीवन और संस्मरण सामने आये। उल्लेखनीय है
अपनी मृत्यु से कुछ ही महीने पहले राजेन्द्र यादव जी ने एक बातचीत में कहा था कि
संस्मरण या आत्मकथा हिन्दी गद्य की मुख्य धारा में आता जा रहा है। गत 21 मई 2020
को राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से ऐसी ही श्रंखला में सुप्रसिद्ध लेखक ज्ञान
चतुर्वेदी ने शरद जोशी को केन्द्र में रख कर अपने संस्मरण साझे किये। इसी
कार्यक्रम ने मुझे भी प्रेरित किया कि मैं भी पांचवें सवार की तरह शरद जोशी के साथ
अपनी यादों को दर्ज कर लूं।
कच्ची उम्र ही में लाइब्रेरी में उपलब्ध वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यासों से
शुरू कर के मैंने पुस्तकें तो बहुत पढ डाली थीं किंतु लाइब्रेरी की पत्रिकाएं मुझे
बहुत आकर्षित करती थीं। उनके साथ दिक्कत यह थी कि किसी पहले पढने वाले से खाली
होने की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी और वे डोरी से बंधी रहती थीं इससे कई बार खाली होने पर भी
दूसरा कोई पसन्दीदा पत्रिका पर पहले पहुंच जाता था। शरद जोशी के लिखे से मेरा पहला
परिचय इन्हीं पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी रचनाओं से हुआ था और वे मुझे पसन्द आने
लगे थे। फिर हुआ ये कि लाइब्रेरी की पुरानी पत्रिकाओं की रद्दी बिकी जिसे एक
दुकानदार ने खरीदा और उनको खरीदी दर से अधिक दर में पत्रिकाओं की तरह बेचना शुरू
किया। मैं अपने पास उपलब्ध पैसों से लगभग पाँच किलो कादम्बिनी खरीद लाया था। उनमें
सबसे पहले प्रकाशित क्षणिकाओं, फुटनोट के लतीफों और व्यंग्यों को छांट छांट कर पढ
डाला। शरद जोशी भी इसी दौरान पढ डाले गये थे। बाद में जिस राष्ट्रीय स्तर की
पत्रिका में मेरी पहली क्षणिका प्रकाशित हुयी वह कादम्बिनी ही थी। इसी प्रोत्साहन
के कारण बाद में मैं धर्मयुग और अन्य पत्रिकाओं में छोटी छोटी रचनाओं के माध्यम से
छपने लगा था।
1972 में जब से मैं धर्मयुग में छपने लगा था तब वह देश की सबसे अधिक लोकप्रिय,
स्तरीय, साहित्यिक और पारिवारिक पत्रिका के रूप में जानी जाने लगी थी। कादम्बिनी
के सम्पादक रामानन्द दोषी का निधन हो गया था और उस पत्रिका स्तर और लोकप्रियता का
पतन हो गया था। शरद जोशी उन्हीं दिनों धर्मयुग के प्रमुख व्यंग्यकार के रूप में
उभर कर राष्ट्रीय स्तर पर छा गये थे, भले ही परसाई जी अपनी प्रहारक क्षमता के कारण
शिखर पर थे और श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी आ चुका था। भारती जी धर्मयुग के कुशल
सम्पादक के रूप में अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे। जैसा कि बशीर बद्र ने लिखा है-
शोहरत की बुलन्दी भी
पल भर का तमाशा है
जिस डाल पर बैठे हो
वह टूट भी सकती है
सो शोहरत को बनाये
रखने के लिए भी प्रयत्न जारी रखने होते हैं। भारती जी को अपना शिखर बनाये रखने के
लिए कुछ राजनीति करना पड़ती थी। वैसे तो पहले ही प्रगतिशीलों के समानांतर इलाहाबाद
में परिमल गुट सक्रिय हो गया था, भारती जी ने उसका विस्तार राष्ट्रव्यापी कर दिया।
सामान्य स्तर पर कहा जाये तो यह लोहियावादी लेखकों का संगठन था जिसको प्रसिद्ध
लोहियावादी बद्रीविशाल पित्ती की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ से बहुत
संरक्षण मिला था। धर्मयुग यदाकदा प्रगतिशीलों के खिलाफ कुछ न कुछ लिखवाता रहता था।
उसमें प्रकाशित होने वाले या प्रकाशित होने की आकांक्षा रखने वाले लेखक इस बात का
ध्यान रखते थे। सन्दर्भ के लिए बता दूं कि धर्मयुग में मेरे नाम के साथ दतिया जोड़
दिये जाने से मेरे नाम में जो वैचित्र्य पैदा हुआ था, उससे वह मेरे मामूली लेखन के
बाबजूद लोगों की निगाह में खटकने लगा था और इस कारण भी लोग मेरे नाम को जानने लगे
थे।
इधर अस्सी के दशक में मध्य प्रदेश में साहित्यिक समझ और रुचि वाले अशोक
वाजपेयी का उदय हुआ जिन्होंने भोपाल को
सांस्कृतिक राजधानी बनाने का बीड़ा उठा लिया था। वे आईएएस थे, उनके पास पद था,
सरकारी पैसा खुल कर खर्च करने के लिए मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का वरद हस्त प्राप्त
था। वे जिसको चाहे भोपाल आमंत्रित कर सकते थे, सम्मानित कर सकते थे। उस समय
ज्यादातर साहित्यकार अपने रचनात्मक कर्म को सामने लाने, अपनी पहचान बनाने, और
आर्थिक संकटों से जूझ रहे थे। भोपाल ने उन्हें यह अवसर देना शुरू किया। उन्होंने
प्रत्येक लोकप्रिय कलाकार को आमत्रित किया, आकर्षित किया जिनमें प्रगतिशील भी
सम्मलित थे, जो अपनी समझ और प्रतिभा के कारण कुछ अधिक ही आगे रहे। परिणाम यह हुआ
कि एक प्रतियोगिता सी प्रारम्भ हो गयी जो स्वस्थ रचनात्मक प्रतियोगिता कम, अपितु
सरकारी संसाधनों, और संरक्षण को अधिक से अधिक हस्तगत करने के प्रयासों की
प्रतियोगिता अधिक थी।
शरद जोशी कभी उनके सबसे निकट अभिन्न मित्र होते थे। किन्हीं कारणों से शरद
जोशी और अशोक वाजपेयी के रिश्तों में खटास आ गयी, यह खटास उनके व्यंग्यों में मुखर
होने लगी। अशोक वाजपेयी में अपने पद और शासन के संरक्षण के कारण एक सामंती
प्रवृत्ति उभर आयी थी, वे असहमति को दबाने की कोशिश करते थे, उन्होंने शरद जोशी के
साथ भी यही किया। स्वभाव से अक्खड़ और राष्ट्रव्यापी ख्याति के शरद जोशी ने अपने
लेखन से भरपूर प्रतिवाद किया। *[ मैं खुद तो 1974 से 1989 के बीच लगभग 10 साल तक
मध्य प्रदेश से दूर पदस्थ रहा हूं। ये सारी बातें विभिन्न लोगों के लिखित और मौखिक
संस्मरणों व पत्रिकाओं के आधार पर कह रहा हूं। इसमें कुछ ऊपर नीचे भी हो सकता है।]
मेरे साथ द्वन्द यह था कि मैं प्रगतिशील जनवादी चेतना से प्रभावित और उसका
पक्षधर रहा हूं किंतु लेखन के क्षेत्र में मेरी जो थोड़ी बहुत पहचान बनी वह
गैरप्रगतिशील मंचों से ही बनी। साहित्य के विमर्श में मैं हमेशा प्रगतिशील मूल्यों
और राजनीति क पक्ष लेता रहा हूं इसलिए मुझे लोग इस गुट में शामिल और इसके काले
सफेद में भागीदार समझते रहे जबकि मेरी गुट के लोगों से बराबर की दूरी रही व इसके
लाभों को न मैंने कभी मांगा न पाया। अपितु मैं इनके बीच की प्रतियोगिता से उपजी
विसंगतियों के मजे लेता रहा हूं। मैं प्रगतिशील जनवादी पत्र पत्रिकाएं पढता था और
लोकप्रिय पत्रिकाओं में छुटपुट लिखता था।
कृश्न चन्दर, हरिशंकर परसाई से वैचारिक रूप से मैं बेहद प्रभावित था। वे मेरे
भी पितृ पुरुष थे, मेरी पहली व्यंग्य कृति की चर्चा करते हुए एक समीक्षक ने यह भी
कहा था कि ये परसाई की गैलेक्सी के तारे हैं। जब खबरें आनी शुरू हुयीं कि परसाई और
शरद जोशी के बीच प्रतिद्वन्दिता चल रही है, तो मेरा मानस स्वाभाविक रूप से परसाई
जी के पक्ष में बनने लगा। मुझे ऐसा लगने लगा कि दोनों दो भिन्न छोर पर खड़े हैं और
मुझे परसाईजी के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। तब तक मैंने दोनों ही लोगों से ना तो
कभी मुलकात की थी और ना ही कोई निजी परिचय था। उधर जनता पार्टी शासन काल आते ही
कमलेश्वर ने सरकार के विपक्ष की भूमिका निभाते हुए सारिका में सम्पादकीय लिखना
शुरू किया और धर्मयुग में सम्पादकीय न लिखने वाले भारतीजी के खिलाफ मोर्चा खोल
दिया जिन्होंने कभी जयप्रकाश नारायण के पक्ष में कविता लिखी थी किंतु इमरजैंसी
घोषित होते ही धर्मयुग का एक तैयार अंक नष्ट करवा दिया था, जबकि कमलेश्वर ने
सरकारी सेंसर बोर्ड द्वारा अनचाही रचनाओं को काला करके छापा और इस तरह एक सन्देश
दिया था। कमलेश्वर ने भारती जी को केन्द्रित कर के अपने तीन सम्पादकीय लेखों का
शीर्षक दिया “ जो कायर हैं, वे कायर ही रहेंगे”। । एक ही संस्थान के दो प्रमुख
पत्रों के बीच यह प्रतियोगिता बहुत विचारोत्तेजक थी। उत्तर में धर्मवीर भारती ने
शरद जोशी से लिखने को कहा तो उन्होंने शीर्षक की पैरोडी बना कर एक एक व्यंग्य लेख
लिखा “ जो टायर हैं, वे टायर ही रहेंगे”। इसमें टायर को प्रतीक बना कर कमलेश्वर की
बात का उत्तर दिया गया था। कमलेश्वर ने भी परसाईजी से नियमित कालम लिखाना शुरू कर
दिया था। इन्हीं दिनों कमलेश्वर को सारिका से निकालने की बात चल निकली किंतु
टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप के मालिकों के लिए यह काम कठिन था क्योंकि न केवल सारिका
सबसे चर्चित कहानी पत्रिका बन चुकी थी अपितु फिल्में लिखना प्रारम्भ कर चुके
कमलेश्वर की लोकप्रियता भी चरम पर थी। मालिकों ने सारिका को मुम्बई से दिल्ली
ट्रांसफर करने का फैसला कर लिया क्योंकि वे जानते थे कि कमलेश्वर मुम्बई नहीं
छोड़ेंगे। इन्हीं दिनों मैंने भावुक होकर उन्हें एक अलग कहानी पत्रिका निकालने के
प्रस्ताव का पत्र लिख दिया जिसका आधार आगरा के डोरीलाल अग्रवाल परिवार द्वारा कभी
व्यक्त किया गया ऐसा विचार था। कमलेश्वर जी का उत्साह भरा पत्र आया, पर वह विचार
पुराना पड़ चुका था और प्रस्तावक उस पर गम्भीर नहीं थे। बहरहाल कमलेश्वर जी ने बहुत
सारे आर्थिक लाभ लेकर सारिका छोड़ दी। इस तरह मेरा उन से परिचय हो गया।
मुम्बई से ब्लिट्ज़ जैसा एक अंग्रेजी अखबार ‘करंट’ निकलता था जिसने जनता पार्टी
सरकार बनते ही इसका हिन्दी संस्करण निकालना शुरू कर दिया था। यह अखबार तत्कालीन जनता
पार्टी सरकार के विरोध में था जिसके सम्पादक महावीर अधिकारी थे। इसमें कमलेश्वर,
परसाई व राही मासूम रजा के पूरे पेज के कालम थे। मैंने भी इसमें व्यंग्य कविताएं
लिखना शुरू कर दीं, जो लगातार छपीं। बाद में जब कमलेश्वर जी ने कथायात्रा निकालना
चाही तो मैंने भी उनको यथासम्भव सहयोग दिया। बाद में जब उन्होंने श्रीवर्षा, जो
गुजराती मराठी का प्रमुख साहित्यिक पत्र था, को हिन्दी में निकाला तो उसमें भी मेरी
रचनाओं को स्थान दिया। जब श्रीमती गाँधी ने उन्हें दूरदर्शन का डाइरेक्टर नियुक्त
किया तो उसे अधर में छोड़ कर चले गये। बहरहाल इस सब के बीच धर्मयुग परिवार में मैं
अवांछित मान लिया गया था।
मेरे अन्दर एक हीन भावना थी कि मैंने साहित्य में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं
किया है, जो सच भी था, इस कारण से जन्मी भावना यह भी थी कि मुझे कोई नहीं जानता,
और मैं कुछ भी लिखता रहूं कोई गम्भीरता से नहीं लेगा। पर् यह सच नहीं था। अगर किसी
के विरोध में कुछ हो रहा है तो उसे तो जरूर ही देखा जाता है। सारिका में प्रकाशित
मेरे कुछ पत्र धर्मयुग परिवार को नाराज करने के लिए काफी थे।
भूमिका के बाद अब
मूल विषय-
शरद जोशी भोपाल छोड़ कर मुम्बई के होटल मानसरोवर में डेरा जमा चुके थे।
उन्होंने कवि सम्मेलनों में गद्य व्यंग्य का पाठ करना शुरू कर दिया था। कुछ दिनों
बाद वे इंडियन एक्सप्रैस ग्रुप को प्रेरित कर एक हिन्दी पत्रिका निकलवाने में सफल
हो गये थे, उन्हें ही सम्पादक की जिम्मेवारी सम्हालना पड़ी। मुझे पता चला तो मैंने भी
अपनी व्यंग्य कविताएं भेजीं जिन्हें उन्होंने खुशी खुशी प्रकाशित कीं। यह 1980-81
की बात है, तब मैं हैदराबाद में पदस्थ था। कुछ दिनों में ही वह पत्रिका बन्द हो
गयी। उन दिनों पारश्रमिक पुरस्कार की तरह लगता था। जब पारश्रमिक नहीं आया तो शरद
जोशी को पत्र लिखा जिसके पीछे एक कुटिल इच्छा यह भी थी कि किसी बहाने उनसे पत्र
व्यवहार तो हो सके। बहरहाल पत्र व्यवहार तो नहीं हुआ किंतु दो चैक जरूर आ गये।
1982 में मेरा ट्रांसफर हैदराबाद से
नागपुर हो गया। मैं ट्रांसफर होते ही देश भर के परिचितों व मित्रों को सूचित कर देता था। पत्र पहुंचते ही
अशोक चक्रधर का उत्तर आया कि फलां फलां तारीख को नागपुर में कवि सम्मेलन है और मैं
फलां ट्रेन से पहुंच रहा हूं। उस दिन शनिवार था और ट्रेन दोपहर के बाद की थी। उस
दिन एक व्यापारी मेरे आफिस में बैठे थे जो अशोक के मुरीद थे, जब यह चर्चा आयी तो
वे बोले कि चलो मैं भी स्टेशन चलता हूं। उनकी कार में बैठ कर स्टेशन गये, और उनको
लेकर गैस्ट हाउस आये तो पता चला कि शरद जोशी और बालकवि बैरागी भी आ चुके हैं। गैर
की कार का प्रभाव पड़ा।
उस दिन पहली बार शरद जोशी से प्रत्यक्ष भेंट हुयी। मैंने सकुचाते हुये अपना
परिचय दिया तो बोले अरे यार मैं पिछले दिनों ही कालेज के कवि सम्मेलन में तुम्हारे
दतिया गया था और मैंने तुम्हारे बारे में पूछा था। ओम कटारे के परिवार वालों ने
बताया था कि तुम्हारा घर उनके पास ही है पर वे यहाँ नहीं हैं। काफी बातें हुयीं,
लेकिन बहुत बातें नहीं हो सकीं क्योंकि अशोक के साथ मेरा दूसरा कार्यक्रम था। शायद
दामोदर खडसे भी साथ में थे।
कवि सम्मेलन में पाठ के लिए शरद जोशी को आमंत्रित करते हुए बालकवि बैरागी ने
अपनी आदत के अनुसार कहा कि परसाई जी के बाद शरद जोशी अकेले ऐसे व्यंग्य लेखक है
जिनका अनुशरण हिन्दी के शेष सारे व्यंग्य लेखक करते हैं। यह सुन कर मैं जिसे
श्रोताओं की अग्रिम पंक्ति में स्थान मिला था, खड़ा हो गया, और कहा कि मैं इस बात
से सहमत नहीं हूं। इस बात से सनाका सा खिंच गया, खडसे जी ने हाथ पकड़ कर मुझे बैठा
दिया। बात आयी गयी हो गयी। अशोक ने शायद शरद जी के कान में कुछ कहा।
सुबह जब स्टेशन पर मित्रों को छोड़ने गया तो दोनों तरफ की ट्रेनें लगभग एक ही
समय पर थीं। शरद जोशी जी मिल गये। मैं कुछ शर्मिन्दा सा था, किंतु उन्होंने ऐसा व्यवहार
किया जैसे कल कुछ उल्लेखनीय हुआ ही न हो। मेरी शर्ट की तारीफ करते रहे अपने अन्दाज
में बोले अगर यह नीले रंग की होती तो अच्छा होता, आदि।
सुरेन्द्र प्रताप सिंह धर्मयुग छोड़ कर आनन्द बाज़ार पत्रिक ग्रुप की पत्रिका ‘रविवार’
के सम्पादक होकर कलकत्ता चले गये थे और उस पत्रिका में व्यंग्य की सम्भावनाओं को
लेकर मेरा उनसे पत्र व्यवहार चल रहा था। उन्हीं दिनों शरद जोशी अशोक वाजपेयी के
खिलाफ जम कर लिख रहे थे और रविवार में उनका स्तम्भ ‘नाविक के तीर’ छप रहा था।
मैंने एक कविता लिख कर सुरेन्द्र प्रताप सिंह को भेजी जो उन्होंने कृपा पूर्वक
नहीं छापी, पर किसी माध्यम से उसकी भनक शरद जोशी को जरूर लग गयी होगी। कविता इस
प्रकार थी-
जो धर्मयुग में
या रविवार में
या साप्ताहिक
हिन्दुस्तान में
या यहाँ
या वहाँ
या हर जगह
या कहीं भी
भोपाल के एक आई ए एस
अधिकारी के खिलाफ लिखते हैं
हिन्दी साहित्य में
उन्हें शरद जोशी कहते हैं
इस दौरान मुझे लगने लगा कि अपने आप को लेखक कहने के लिए एक किताब तो होना ही
चाहिए। हैदराबाद प्रवास [1980] से मैंने के पी सक्सेना से सीखी वह जिद छोड़ दी थी
कि उस पत्र पत्रिका में नहीं लिखूंगा जो लेखक को पारश्रमिक नहीं देती। यही कारण
रहा था कि मेरे पास प्रकाशित लेखों की इतनी सामग्री एकत्रित हो गयी थी कि एक संकलन
आ सकता था। किंतु अब दूसरी जिद थी कि खुद के पैसे से संकलन प्रकाशित नहीं कराऊंगा।
मैंने प्रसिद्ध कथाकार से.रा. यात्री जी से बात की। बता दूं कि मेरी बहुत सारी
कमियों, भूलों के बाबजूद भी यात्रीजी ने मुझे छोटे भाई जैसा स्नेह दिया है।
उन्होंने अपने प्रभाव से मेरी पहली पुस्तक पराग प्रकाशन से छपवा दी। पराग प्रकाशन
उन दिनों उभरता हुआ अच्छा प्रकाशन था जिसने अमृता प्रीतम, रवीन्द्र नाथ त्यागी,
कन्हैयालाल नन्दन आदि की बहुचर्चित पुस्तकें छापी थीं। प्रकाशक का अहसान उतारने के
लिए मैंने लेखक को दी जाने वाली प्रतियों के अलावा स्वेच्छा से लगभग सौ प्रतियां
खरीद लीं। अब इस पासपोर्ट के सहारे अर्थात पुस्तक भेंट करने के नाम पर मैं किसी भी
लेखक से भेंट करने जा सकता था।
धर्मयुग में लेखन कम हो जाने के बाद मैंने अपना ध्यान जिन अन्य पत्रिकाओं पर
केन्द्रित किया था उनमें से एक रामाबतार चेतन की पत्रिका रंग भी थी। चेतन जी मुझे
पसन्द करते थे और मेरे लेखों को स्थान दे रहे थे। वे भले ही मामूली सही किंतु हर
रचना पर पारश्रमिक देते थे। उन दिनों महाराष्ट्र के किसान नेता शरद जोशी ने एक बड़ी
किसान रैली की थी। मैंने उनकी मासिक पत्रिका ‘रंग’ में एक व्यंग्य लिखा ‘निमंत्रण
गधों की रैली का’। इसमें एक वाक्य आया था
“ अरे भाई, सरकार को
क्या मतलब किसानों से, क्या मतलब गधों से! अब मैं तुम से पूछूं कि सरकार ने
किसानों की रैली क्यों निकाली थी, तो इस बात का है तुम्हारे पास कोई जबाब! अरे भाई
किसी शरद जोशी को यह गलतफहमी हो गयी कि किसान मेरे पीछे हैं तो उनका भ्रम दूर करने
के लिए उन्होंने दिखा दिया कि देखो कौन ज्यादा भीड़ जुटा सकता है इसी तरह किसी शरद जोशी को यह गलतफहमी हो गयी होगी कि
ज्यादा गधे मेरे पीछे हैं तो सरकार उन्हें यह भी दिखाये देती है कि देखो तुमसे
ज्यादा गधों की भीड़ मैं जुटा सकती हूं ......”
अनजाने में यह शरद जोशी जी के भक्तों पर सीधा सीधा हमला था। इसका कारण शायद यह
था कि मैं उन्हें परसाई, व प्रगतिशीलता विरोधी मान बैठा था।
उक्त लेख भी मेरे संकलन में प्रकाशित हुआ था। संकलन चेतन जी को भी भेजा।
उन्होंने उस की समीक्षा भी करवायी और खुद भी मुझे एक लम्बा प्रशंसा पत्र लिखा। यह
भी लिखा कि अगर कभी रचना पाठ करने के लिए चकल्लस में आना हो तो रचना ‘हीरोइन का
भाई’ पढना। 1985 में मेरा बम्बई जाना हुआ और चेतन जी से मिलने गया। मैं एक दिन का
समय लेकर भी दूसरे दिन पहुंचा तो उनकी डांट भी खायी कि यह बम्बई है कल तुम्हारे
इंतजार में मैं सब्जी बाजार जाने से रह गया। बहरहाल उनका स्नेह मिला। उन्होंने
सलाह दी कि कल समय हो तो जाकर शरद जोशी से मिल लेना और किताब दे देना। हाँ समय
लेकर जाना और समय पर पहुंचना। मैंने कान पकड़ कर हामी भरी और ऐसा ही किया।
वह एक छोटा सा स्वतंत्र बंगला था। यह बाद में पता चला कि वह बंगला कन्हैयालाल
नन्दन जी का था और वे चेतन जी के रिश्ते में बहनोई लगते थे। फर्श पर डनलप का गद्दा
था जिस पर सफेद चादर बिछी थी चारों ओर पुस्तकें बिखरी हुयी थीं। मैंने किसी नये
व्यक्ति की तरह अपना परिचय दिया तो मुस्करा दिये, किताब के पन्ने पलटते हुए बोले
कि यह लेख मैंने पढा है, यह भी पढा है और लगभग सभी तो प्रकाशित हैं। मैंने हामी
भरी, भले ही एक दो अप्रकाशित भी थे। फिर मेरी क्लास शुरू हुयी। बोले लोग व्यंग्य
के बारे में जानते ही क्या हैं! हमारे यहाँ अभी व्यंग्य की आलोचना का शास्त्र ही
विकसित नहीं हुआ वही दो चार शब्द हैं, पैना है, धारदार है आदि आदि। फिर बोले कि
मैं मध्यमवर्ग के बारे में इसलिए लिखता हूं कि उसका पक्ष लेने वाला न कोई संगठन है
न पार्टी। परसाईजी इस वर्ग के खिलाफ लिख लेते हैं, मैं नहीं लिखता।
[इसी बीच में [शायद]
नेहा ट्रे में चाय का पाट लाकर रख गयीं थीं, मुझे इस ऎटीकेट का ज्ञान नहीं था कि
चाय मुझे बनाना चाहिए। थोड़ी देर में वे खुद आयीं और उन्होंने ही शक्कर आदि पूछ कर चाय
सर्व की। वे कुछ दिन पहले पैर मैं जल गयीं थी, शरद जी ने घाव के बारे में पूछा
उन्होंने उन्हें दिखाया।]
इसी वर्ष परसाई जी को पद्मश्री मिली थी। मैंने कहा कि परसाई जी को और काका
हाथरसी दोनों को एक साथ पद्मश्री देकर सरकार ने क्या उनका अपमान किया है। वे बोले
ऐसा पहले भी हुआ है, धर्मवीर भारती और चिरंजीत को एक साथ मिली है, बच्चन जी और
गोपाल प्रसाद व्यास को भी एक साथ मिली थी, होता है। उनसे बहुत सारी बातें सुनने को
मिलीं जिन्हें सुन कर मैं मुग्ध था उन्होंने पूछा बम्बई कैसे आये थे? मैंने कहा
ऐसे ही बिना किसी कारण। बोले आते रहना चाहिए, व्यंग्य लेखक के लिए जरूरी है कि विरोधाभासों
का अनुभव करता रहे। यहाँ की जिन्दगी फास्ट है, आदमी दौड़ता सा रहता है, पर जब मैं
भोपाल जाता हूं तो आटो वाला आराम से बैठा है। सवारी बैठा कर भी वह बीड़ी पीने चला
जाता है या अपने साथ वाले से बात करने लगता है। कहीं कोई जल्दी नहीं। यह विरोधाभास
व्यंग्य का उत्प्रेरक बनता है। उन्होंने कहा कि वीरेन्द्र, व्यंग्य मुझ से सध गया
है, अब मैं कहीं भी, किसी भी विषय पर व्यंग्य लिख सकता हूं। *[उस दिन तो मुझे यह
बात हजम नहीं हुयी थी, किंतु वर्षों बाद जब भोपाल आकर बस गया तब मैंने एक फीचर
सर्विस के लिए प्रतिदिन व्यंग्य लिख कर परीक्षण किया तो ऐसे ऐसे विषय सूझे कि मुझे
खुद आश्चर्य हुआ]
इसके कई साल बाद मेरी मुलाकात जनवादी लेखक संघ के राम प्रकाश त्रिपाठी जी से
हुयी जो परसाई जी से तो परिचित थे ही शरद जोशी के मित्रों में से थे, उन्होंने
मेरी सारी गलतफहमियां दूर कीं और बताया कि परसाई जी ने जरूर पूरे देश के सामने
अपने व्यंग्य से वैज्ञानिक चेतना का पक्ष रखा है किंतु जीवन में शरद जोशी की
प्रगतिशीलता का कोई जबाब नहीं। उन्होंने उनके अनेक प्रसंग सुनाये। मुझे तब तक पता
नहीं था कि उनकी पत्नी इरफाना जी है और उन्होंने मुस्लिम से शादी की है। कि नईम जी
की पत्नी और इरफाना जी बहिनें हैं। कि जब वे शादी के बाद ट्रांसफर होकर ग्वालियर
गये तो मकान मिलने में संकट होने से वे मुकुट बिहारी सरोज के घर में रहे। मुझे
अज्ञानता में की गयी अपनी भूलों पर बहुत शर्म आयी।
1987 में जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन भोपाल में हुआ। रामप्रकाश जी
ने उसका स्वागताध्यक्ष शरद जोशी जी को बनाया। वे रवीन्द्र भवन के द्वार पर
स्वागताध्यक्ष की तरह ही खड़े थे। मैंने आदतन अपना परिचय सा देते हुए कहा- मैं
वीरेन्द्र जैन। उन्होंने गले लगाते हुए कहा- वीरेन्द्र जैन नहीं, वीरेन्द्र कुमार
जैन दतिया। और ठहाका फूट पड़ा।
नवभारत टाइम्स में प्रतिदिन लिखते हुए उनके विचार किसी भी प्रगतिशील लेखक
पत्रकार से ज्यादा प्रेरक थे। मैं मुरीद हो गया था। सोचा था कि किसी दिन मौका मिला
तो दिल से माफी मांगूंगा। किंतु ऐसा मौका आने से पहले ही उनके निधन का समाचार आ
गया था। पाकिस्तान के शायर मुनीर नियाजी की नज्म का शीर्षक है – हमेशा देर कर देता
हूं मैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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