शुक्रवार, जून 19, 2009

एक टिप्पणी

मेनें संजय ग्रोवर के ब्लॉग पर उनकी एक पोस्ट पर टिप्पणी लिखी है में इसे अपने पाठक मित्रों के लिय्स भी उपलब्ध करा रहा हूँ
रजनीश ने थोडा घुमा फिरा कर कभी कहा था की समग्र का योग ही ईश्वर है . आठ लाख मील दूर से सूरज की किरणें आती हैं और वृक्षों की पत्तियों पर पड़ती हैं जिसके क्लोरोफिल से आक्सीजन बनती है जिससे हमारी सांस चलती है और जीवन संभव हो पाता है . हम उस आठ लाख मील दूर की चीज से जुड़े हैं और तभी जीवन है पर हम अपने को स्वतंत्र मानते हैं . असल में यह जो नामकरण है यह बदमाशी है . हमें आइन्स्टीन की तरह मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों को समझना चाहिए . ये पूजा पाठ इबादत और इनके करने पर भौतिक पुरस्कार और न करने पर दंड सब धूर्तों के चोंचले हैं. मनुष्य ने सदैव अपने अपने समय में अज्ञात के बारे में तरह तरह की कल्पनाएँ की हैं उसकी इस कल्पना वृत्ति का सम्मान करना चाहिए किन्तु हजारों साल पहले की गयी कल्पनाओं को मानना मुर्खता ही होगी जबकि आज हमारे पास अपेक्षाकृत अधिक जानकारियाँ उपलब्ध हैं आइन्स्टीन ने ही कहा था की ज्ञान तो समुद्र की तरह अनंत है और में तो एक छोटा सा बच्चा हूँ जो घोंघे सीपियों से खेल रहा हूँ

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