रविवार, मई 24, 2020

एक भूतपूर्व लतीफा लेखक के संस्मरण .......................वरना हम भी आदमी थे काम के


एक भूतपूर्व लतीफा लेखक के संस्मरण
.......................वरना हम भी आदमी थे काम के

वीरेन्द्र जैन
आज जब देश  में लतीफों को बाजार करोड़ों रूपयों की सीमाएं तोड़ चुका है, तब मुझे वो पुराने दिन याद आ रहे हैं जब मैं धर्मयुग के कुछ गिनेचुने लतीफा लेखकों में हुआ करता था और उस समय एक लतीफे के कुल पांच रूपये मिलते थे। उस पर भी दो लतीफे एक साथ छपने पर दस रूपये का भुगतान मनीआर्डर से न होकर चैक से होता था तथा चैक को वसूलने के लिए उसमें से ढाई रूपये बैंक कमीशन के कट जाते थे। धर्मयुग उन दिनों किसी हिन्दी लेखक की राष्ट्रव्यापी पहचान स्थापित करने वाली प्रमुख पत्रिका थी जिसमें प्रत्येक रचना पूरी छानबीन के साथ प्रकाशित होती थी व भारतीजी प्रैस में जाने से पहले पूरे अंक के प्रत्येक पेज पर पंक्ति दर पंक्ति दृष्टिपात करना जरूरी मानते थे।
                आज जब टीवी के लाफ्टर चैलेन्ज शो में लतीफेबाजी को निकृष्टतम कोटि की भड़ेंती समझी जा रही है भले ही उसमें लाखों रूपयों के पारिश्रमिक और इनाम जुड़े हों तथा देश  की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के सांसद उसमें भाग ले रहे हों, पर उस दौर के लतीफा लेखकों की सूची पर नजर डालकर गर्व होता है। इनमें शामिल अनेक लोगों ने हिन्दी के लोकप्रिय साहित्य के आकाश  को बहुत ऊूंचाई तक छुआ है और अनेक तो अभी भी छाये हुये हैं। इन में मेरे साथ शामिल थे -के.पी सक्सेना, बालकवि वैरागी, सूर्यकुमार पांडे,  हरिओम बेचैन,  सरोजनी प्रीतम,  मधुप पांडेय काका हाथरसी आलोक मेहरोत्रा, आदि।
                रोचक यह है कि मुझसे लतीफे लिखने का आग्रह करने वाले थे हिन्दी पत्रकारिता जगत में सूर्य की तरह चमके, व पहला टीवी न्यूज शो प्रारम्भ करने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह, जो उन दिनों धर्मयुग में उपसंपादक थे। बाद में इस स्तंभ को उदयन शर्मा और योगेन्द्रकुमार लल्ला जैसे लोगों ने भी देखा था। श्री हरिवंश जो इन दिनों राज्यसभा के उपाध्यक्ष हैं, भी उन दिनों धर्मयुग में उप सम्पादक थे और बाद में जब वे बैंक आफ इंडिया में हिन्दी अधिकारी के रूप में हैदराबाद में पदस्थ हुये तब मैं भी हैदराबाद में था और तब से ही हुयी उनसे पहचान पर मैं गर्व करता रहा।
                पहले रीडर्स डायजेस्ट केवल अंग्रेजी में आती थी जिसके लतीफे अंग्रेजी के पाठकों में बहुत पठनीय माने जाते थे। वे उस समय भी श्रेष्ठ लतीफे पर पचास रूपये का पुरस्कार देते थे जबकि धर्मयुग दुष्यंत कुमार जैसे कवि की गजलों को पारिश्रमिक के तौर पर पच्चीस रूपये देता था जिस पर दुष्यंत कुमार ने भारती जी को गजल में पत्र लिखा था जिसका एक शे’र था-
                                कल मैकदे में चैक दिखाया था आपका
                                वे हॅंस के बोले इससे जहर पीजिये हुजूर

                धर्मयुग के सुरेन्द्रप्रतापसिंह का आग्रह मेरे लिए किसी बड़े प्रमाणपत्र से कम नहीं था। मैंने अंग्रेजी रीडर्स डायजेस्ट के पुराने अंक पुरानी किताबें बेचने वालों से खरीद कर उसके श्रेष्ठ पुरस्कृत लतीफे एकत्रित किये और बड़ी मेहनत से उनका अनुवाद किया। पर अनुवाद के बाद ऐसा लगा कि वे लतीफे विदेशी संस्कृति की विसंगतियों और बिडम्बनाओं से जनित हैं तथा हिन्दी भाषी क्षेत्र की संस्कृति में वैसा हास्य उनसे पैदा नहीं होता जैसा कि वहां होता होगा। अतः मैंने उन लतीफों के भावों को पचा कर उन्हें अपने परिवेश  में ढाल कर प्रस्तुत किया जो काफी श्रमसाध्य कार्य था। पर उस दौर में धर्मयुग में लतीफे लिख कर भी धन्य हुआ जा सकता था और देश व्यापी पहचान बनायी जा सकती थी, जैसाकि आज के लाफ्टर चैलेन्ज शो वाले कमा रहे हैं। इस आकर्षण ने मुझसे हजारों लतीफे लतीफे लिखवा लिये जो धर्मयुग की आवश्यकता से भी अधिक थे। बाद में इनमें से बहुत सारे लतीफे माधुरी, रंग, मनोरमा, साप्ताहिक हिुदुस्तान, आदि बहुपठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये। धर्मयुग ने बाद में मुझ से विषय अनुसार लतीफे भी लिखवाये। इन लतीफों की एक पुस्तक काका हाथरसी के सहयोग से स्टार पाकेट बुक्स से प्रकाशित हुयी जिसकी कथा भी रोचक है।

                धर्मयुग से मिली प्रसिद्धि के कारण लतीफों की पुस्तक प्रकाशित कराने का विचार बना। सोचा कि हाथ के लिखे लतीफों की पुस्तक प्रकाशक को भेजने पर हो सकता है वह लौटा दे इसलिए टाइप करा लिया जाये पर उस दौरान मेरी पोस्टिंग जिस गांव में थी वहां टाइपिंग की कोई सुविधा नहीं थी सो वहां से सत्तर किलोमीटर दूर लखनऊ में टाइप कराना पड़ी। उसी दौरान लखनऊ के सूर्यकुमार पांडेय  से मित्रता हुयी जिन्होंने टाइप कराने की जिम्मेवारी सम्हाली। टाइप होने के बाद पाण्डुलिपि को उस समय के सर्वाधिक चर्चित प्रकाशन संस्थान हिन्द पाकेट बुक्स को भेजा और आश्चर्य कि उन्होंने बिना किसी विलम्ब के स्वीकृति भेज दी। इसी दौरान मेरा ट्रांसफर बैनीगंज (हरदोई) से हाथरस हो गया। हाथरस आते ही कुछ दिनों बाद हिन्द पाकेट बुक्स के प्रबंधन में फेरबदल हुआ और प्रकाश पंडित जी जिन्होंने मेरी पाण्डुलिपि को स्वीकृति दी थी, हिन्द पाकेट बुक्स छोड़ दी। इस फेरबदल के साथ ही उनके द्वारा स्वीकृत पांडुलिपि वापिस आ गयी। मैं अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशन की संभावना पर जितना खुश था उसके टूट जाने पर उससे कहीं अधिक दुखी हुआ। धर्मयुग के कारण ही काका हाथरसीजी मुझे जानते थे और हाथरस में मुझे मकान आदि दिलाने में उन्होंने बहुत सहयोग किया था। जब उन्हें मेरा दुख मालूम हुआ तो उन्होंने सांत्वना दी और पाण्डुलिपि दिखाने को कहा। कुछ दिनों बाद उन्होंने कहा कि मेरी प्रकाशक से बात हुयी है, पुस्तक तो छप जायेगी पर तुम्हारे नाम से उतना नहीं बिकेगी जितना मेरे नाम से बिकेगी इसलिए इसे मेरे नाम से छप जाने दो। अन्दर सम्पादक के रूप में हम दोनों के ही नाम रहेंगे। उस निराशा के दौर में मैंने स्वीकृति दे दी। बाद में वह पुस्तक पाँच वर्ष बाद काका के लतीफेके नाम से छपी जबकि अन्दर के पृष्ठ और भूमिका में मेरे नाम का उल्लेख हुआ। मैंने भी सोचा कि आखिरकर तो मेरा भी काम अनुवाद का ही था सो जो हुआ सो हुआ। काका ने पुस्तक की दो हजार की रायल्टी में से आधी चैक से मुझे भेज दी। इससे पूर्व लतीफों पर इतनी बड़ी राशि का भुगतान मुझे नहीं हुआ था इसलिए बहुत दिनों तक तो काका हाथरसी का वह चैक मैं मित्रों को दिखाने के लिए रखे रहा क्योंकि उन दिनों फोटो कापी की दुकानें भी इतनी आम नहीं थीं। बिडम्बना यह थी कि वह मेरी पहली प्रकाशित पुस्तक थी जिसे मैं छाती ठोक कर अपनी पुस्तक नहीं कह सकता था और अनेक मित्र तो काका के नाम और मेरे नाम की तुलना करके मेरे ऊपर अविश्वास ही कर सकते थे।
                जब धर्मयुग में लतीफे छपने शुरू हुये तब मैं अपना पूरा नाम वीरेन्द्र कुमार जैन लिखा करता था। बम्बई निवासी जाने माने वरिष्ठ कवि कथाकार उपन्यासकार वीरेन्द्र कुमार जैन को यह नागवार गुजरा था। उन्होंने धर्मवीर भारती से कहा कि इस को रोकिये। भारतीजी ने उनसे कहा कि मैं रोक दूंगा बशर्ते आप मुझे इस बात से आश्वस्त कर सकें कि दूसरा कोई आदमी वीरेन्द्रकुमार जैन नाम नहीं रखेगा और रखेगा तो लिखेगा नहीं। यह तो लतीफे और व्यंग्य कविताएं लिख रहा है अगर कहानी उपन्यास लिखता होता तो शायद आपको और ज्यादा परेशानी होती। बहरहाल वे असन्तुष्ट रहे। उन दिनों वे महावीर स्वामी पर अपना उपन्यास अनुत्तर योगी  लिख रहे थे। संयोग से उन्हीं दिनों टाइम्स ग्रुप के मालिकों में से एक श्रेयांस प्रसाद जैन ने आंखों का आपरेशन करवाया था और लम्बे समय तक पढने के सुख से वंचित थे इसलिए उन्होंने बम्बई वाले वीरेन्द्र कुमार जैन से तय कर लिया था कि वे प्रतिदिन अपने उपन्यास के अंश  उन्हें सुनाने आयें। श्री जैन ने उन्हीं दिनों अपनी समस्या से उन्हें अवगत कराया तो उन्होंने भारतीजी से बात की। भारतीजी ने मुझे पत्र लिखा और मेरी सहमति से मेरा नामकरण वीरेन्द्र कुमार जैन (दतिया) कर दिया गया। यह नाम कुछ विचित्र सा हो गया था इसलिए इसने अनेक लोगों का ध्यान आकर्षित किया व मित्रों के बीच यह खुद लतीफा बन गया। वे इस पूरे नाम के साथ मुझे बुलाते और हॅंसने लगते।
                कवि सम्मेलनों के मंचों पर आमंत्रण पाने के लिए भी लोकप्रियता का बहुत महत्व होता है। इस बात को काका भी स्वीकारते थे कि अपनी अच्छी हास्य रचनाओं के बाबजूद भी काका हाथरसी को वैसी लोकप्रियता नहीं मिली होती अगर उन्होंने वर्षों धर्मयुग में कुण्डलियां नहीं लिखीं होतीं। धर्मयुग में यदि किसी लतीफे में किसी कवि लेखक का नाम जोड़ कर प्रकाशित किया जाता तो उसका नाम भी राष्ट्रव्यापी हो जाता था इसलिए मंच पर सफलता तलाश रहे व उसे बनाये रखने की आकांक्षा रखने वाले मंचीय कवि चाहते थे कि उन पर भी लतीफे बना कर प्रकाशित किये जायें। उन दिनों अनेक कवियों ने मुझसे आग्रह किया था कि मैं अपने लतीफों में उनका नाम भी जोड़ दूं। इसमें मेरा कुछ नहीं जाता था इसलिए मैंने उसे सहज स्वीकार कर लिया व कई मंचीय कवियों के नाम जोड़ कर झूठे लतीफेलिखे। पर इस प्रक्रिया में एक घटना बहुत संवेदनशील हो गयी। नागपुर के प्रसिद्ध कवि व संयोजक मधुप पांडेय का पत्र आया जिसमें लिखा था कि आजकल आप धर्मयुग में बड़े धड़ल्ले से छप रहे हैं, एकाध लतीफा मुझ पर भी चिपका दें। मैंने उनके आग्रह को स्वीकर करते हुए एक लतीफा धर्मयुग को भेजा जिसे धर्मयुग ने प्रकाशित कर दिया। लतीफा कुछ इस तरह बना कि मधुप पांडेय का पुत्र पहली बार नये स्कूल में जाकर लौट कर आया तो मां बाप दोनों ने ही प्यार से गोद में बिठा कर पूछा कि आज स्कूल में क्या पढा? उसने उत्तर दिया कि आज मेंने स्कूल में सीखा कि कबूतर को अंग्रेजी में क्या कहते हेंै!
                ‘‘क्या कहते हैं?’’ मां बाप दोनों ने ही उत्फुल्ल जिज्ञासा से पूछा।
                ‘‘कैबूटर’’ पु़त्र ने उत्तर दिया।
लतीफा जैसे ही धर्मयुग में छपा उसके कुछ दिनों बाद ही मधुप पांडेयजी का पत्र आया जिसमें उन्होंने लिखा था कि आपने जाने अनजाने ही बड़ा गजब कर दिया। असल में शादी के अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी ना तो मेरे कोई पुत्र है और ना पुत्री। आपका लतीफा छपने के बाद मुझे अनेक मित्रों के फोन और बधाई पत्र मिलने लगे जिससे हम लोग सकते में हैं।
                उनका पत्र पाकर मैं काटो तो खून नहीं वाली स्थिति में पहुंच गया। तुरंत उनसे क्षमा मांगी और उसके बाद कभी नाम वाले लतीफे नहीं लिखे भले ही पुराना लेन देन चुकाने के लिए मित्र लोग मेरे नाम पर भी लतीफे चिपकातेरहे।
                मैं बैंक में अधिकारी था व सारा काम कुछ अधिक ही नियम कायदे से किया करता था जबकि किसी भी व्यावसायिक संस्थान में लिखित नियमों को एकतरफ रख कर व्यवहारिक होने से काम चलता है। इस व्यवहारिक लोच के अभाव में अच्छे व्यावसायिक परिणाम के आकांक्षी वरिष्ठ अधिकारी मुझसे खुश  नहीं रहते थे पर वैधानिक रूप से कुछ कह भी नहीं पाते थे इसलिए अपनी खीझ वे मेरा ट्रांसफर करके निकालते थे। मेरी उनतीस साल की नौकरी में पन्द्रह ट्रांसफर हुये। एक बार तो नाराजी में उन्होंने मेरा ट्रांसफर गाजियाबाद से हैदराबाद जैसी दूरी पर कर दिया। इन ट्रांसफरों से आर्थिक सामाजिक पारिवारिक नुकसान तो हुये पर धर्मयुग के इस नाम वैचित्र के कारण मुझे जानने वाले हर जगह मिलते गये और मित्रों का समूह बनता गया। एक बार तो मानस पर प्रवचन करने वाले एक सम्मानित व समाज में पूज्यनीय कथावाचक ने अपने प्रवचनों को रोचक बनाने के लिए मेरा संकलन चाहा तो सुप्रसिद्ध कथा लेखक गुलशन नन्दा से फिल्मों  में हास्य लेखक की अतिरिक्त भूमिका पर पत्रव्यवहार हुआ। यह बात मुझे बाद में ज्ञात हुयी कि उन्हीं दिनों वे ब्लड कैंसर से जूझ रहे थे ओर वह बात इसी कारण आगे नहीं बढ सकी क्योंकि कुछ दिनों बाद ही उनका निधन हो गया। मैं उनकी ओर से आगे पत्रोत्तर न आने पर निराश था जिसका बाद में मुझे दुख हुआ।
                चकल्लस आयोजन की ख्याति वाले रामावतार चेतन जी ने रंग व रंग चकल्लस में मेरे काफी लतीफे छापे व साप्ताहिक हिुदुस्तान की तत्कालीन सम्पादक श्रीमती शीला झुनझुनवाला को भी पूछने पर मेरा ही नाम सुझाया था।अपने अंतिम दिनों में लिखे एक पत्र में उन्होंने मेरे पहले व्यंग्य संकलन की भूरि भूरि प्रशंसा की थी जबकि वे प्रशंसा के मामले में बहुत कंजूस समझे जाते थे।
                इतिहास में दर्ज होने की आकांक्षा वाले साहित्य से इतर लोकप्रिय लेखन की अपनी एक अलग दुनिया है जो भले ही अल्पजीवी हो किंतु उसकी परंपरा दीर्घजीवी है। पात्र बदलते रहते हैं पर कहानी चलती रहती है। भले ही गहराई को बहुत महत्व दे दिया गया हो पर सतह और किनारों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि गहराई को बांधती तो यही चीजें हैं। आज जब पीछे मुड़ कर देखता हॅूं तो सब कुछ बहुत रोचक लगता है। गुदगुदा जाता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास  भोपाल म.प्र.
फोन 9425674629  



               







               

शनिवार, मई 23, 2020

मेरे हिस्से के शरद जोशी


मेरे हिस्से के शरद जोशी


शरद जोशी की जीवनी - Sharad Joshi Biography Hindi ...
वीरेन्द्र जैन
कोरोना महामारी के कारण जो देश व्यापी लाकडाउन लागू हुआ उसने समाज में बहुत सारे परिवर्तन पैदा किये, जिनमें से एक था साहित्यिक कार्यक्रमों का बन्द हो जाना। किंतु जहाँ न पहुंचे रवि वाली तर्ज पर कुछ प्रकाशकों के सहयोग से लेखकों कवियो की बातचीत का लाइव प्रसारण शुरू हो गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुयी कि इन कार्यक्रमों में साहित्यकारों के निजी जीवन और संस्मरण सामने आये। उल्लेखनीय है अपनी मृत्यु से कुछ ही महीने पहले राजेन्द्र यादव जी ने एक बातचीत में कहा था कि संस्मरण या आत्मकथा हिन्दी गद्य की मुख्य धारा में आता जा रहा है। गत 21 मई 2020 को राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से ऐसी ही श्रंखला में सुप्रसिद्ध लेखक ज्ञान चतुर्वेदी ने शरद जोशी को केन्द्र में रख कर अपने संस्मरण साझे किये। इसी कार्यक्रम ने मुझे भी प्रेरित किया कि मैं भी पांचवें सवार की तरह शरद जोशी के साथ अपनी यादों को दर्ज कर लूं।
कच्ची उम्र ही में लाइब्रेरी में उपलब्ध वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यासों से शुरू कर के मैंने पुस्तकें तो बहुत पढ डाली थीं किंतु लाइब्रेरी की पत्रिकाएं मुझे बहुत आकर्षित करती थीं। उनके साथ दिक्कत यह थी कि किसी पहले पढने वाले से खाली होने की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी और वे डोरी से  बंधी रहती थीं इससे कई बार खाली होने पर भी दूसरा कोई पसन्दीदा पत्रिका पर पहले पहुंच जाता था। शरद जोशी के लिखे से मेरा पहला परिचय इन्हीं पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी रचनाओं से हुआ था और वे मुझे पसन्द आने लगे थे। फिर हुआ ये कि लाइब्रेरी की पुरानी पत्रिकाओं की रद्दी बिकी जिसे एक दुकानदार ने खरीदा और उनको खरीदी दर से अधिक दर में पत्रिकाओं की तरह बेचना शुरू किया। मैं अपने पास उपलब्ध पैसों से लगभग पाँच किलो कादम्बिनी खरीद लाया था। उनमें सबसे पहले प्रकाशित क्षणिकाओं, फुटनोट के लतीफों और व्यंग्यों को छांट छांट कर पढ डाला। शरद जोशी भी इसी दौरान पढ डाले गये थे। बाद में जिस राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में मेरी पहली क्षणिका प्रकाशित हुयी वह कादम्बिनी ही थी। इसी प्रोत्साहन के कारण बाद में मैं धर्मयुग और अन्य पत्रिकाओं में छोटी छोटी रचनाओं के माध्यम से छपने लगा था।
1972 में जब से मैं धर्मयुग में छपने लगा था तब वह देश की सबसे अधिक लोकप्रिय, स्तरीय, साहित्यिक और पारिवारिक पत्रिका के रूप में जानी जाने लगी थी। कादम्बिनी के सम्पादक रामानन्द दोषी का निधन हो गया था और उस पत्रिका स्तर और लोकप्रियता का पतन हो गया था। शरद जोशी उन्हीं दिनों धर्मयुग के प्रमुख व्यंग्यकार के रूप में उभर कर राष्ट्रीय स्तर पर छा गये थे, भले ही परसाई जी अपनी प्रहारक क्षमता के कारण शिखर पर थे और श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी आ चुका था। भारती जी धर्मयुग के कुशल सम्पादक के रूप में अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे। जैसा कि बशीर बद्र ने लिखा है-
शोहरत की बुलन्दी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पर बैठे हो वह टूट भी सकती है
सो शोहरत को बनाये रखने के लिए भी प्रयत्न जारी रखने होते हैं। भारती जी को अपना शिखर बनाये रखने के लिए कुछ राजनीति करना पड़ती थी। वैसे तो पहले ही प्रगतिशीलों के समानांतर इलाहाबाद में परिमल गुट सक्रिय हो गया था, भारती जी ने उसका विस्तार राष्ट्रव्यापी कर दिया। सामान्य स्तर पर कहा जाये तो यह लोहियावादी लेखकों का संगठन था जिसको प्रसिद्ध लोहियावादी बद्रीविशाल पित्ती की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ से बहुत संरक्षण मिला था। धर्मयुग यदाकदा प्रगतिशीलों के खिलाफ कुछ न कुछ लिखवाता रहता था। उसमें प्रकाशित होने वाले या प्रकाशित होने की आकांक्षा रखने वाले लेखक इस बात का ध्यान रखते थे। सन्दर्भ के लिए बता दूं कि धर्मयुग में मेरे नाम के साथ दतिया जोड़ दिये जाने से मेरे नाम में जो वैचित्र्य पैदा हुआ था, उससे वह मेरे मामूली लेखन के बाबजूद लोगों की निगाह में खटकने लगा था और इस कारण भी लोग मेरे नाम को जानने लगे थे।
इधर अस्सी के दशक में मध्य प्रदेश में साहित्यिक समझ और रुचि वाले अशोक वाजपेयी का उदय हुआ  जिन्होंने भोपाल को सांस्कृतिक राजधानी बनाने का बीड़ा उठा लिया था। वे आईएएस थे, उनके पास पद था, सरकारी पैसा खुल कर खर्च करने के लिए मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का वरद हस्त प्राप्त था। वे जिसको चाहे भोपाल आमंत्रित कर सकते थे, सम्मानित कर सकते थे। उस समय ज्यादातर साहित्यकार अपने रचनात्मक कर्म को सामने लाने, अपनी पहचान बनाने, और आर्थिक संकटों से जूझ रहे थे। भोपाल ने उन्हें यह अवसर देना शुरू किया। उन्होंने प्रत्येक लोकप्रिय कलाकार को आमत्रित किया, आकर्षित किया जिनमें प्रगतिशील भी सम्मलित थे, जो अपनी समझ और प्रतिभा के कारण कुछ अधिक ही आगे रहे। परिणाम यह हुआ कि एक प्रतियोगिता सी प्रारम्भ हो गयी जो स्वस्थ रचनात्मक प्रतियोगिता कम, अपितु सरकारी संसाधनों, और संरक्षण को अधिक से अधिक हस्तगत करने के प्रयासों की प्रतियोगिता अधिक थी।
शरद जोशी कभी उनके सबसे निकट अभिन्न मित्र होते थे। किन्हीं कारणों से शरद जोशी और अशोक वाजपेयी के रिश्तों में खटास आ गयी, यह खटास उनके व्यंग्यों में मुखर होने लगी। अशोक वाजपेयी में अपने पद और शासन के संरक्षण के कारण एक सामंती प्रवृत्ति उभर आयी थी, वे असहमति को दबाने की कोशिश करते थे, उन्होंने शरद जोशी के साथ भी यही किया। स्वभाव से अक्खड़ और राष्ट्रव्यापी ख्याति के शरद जोशी ने अपने लेखन से भरपूर प्रतिवाद किया। *[ मैं खुद तो 1974 से 1989 के बीच लगभग 10 साल तक मध्य प्रदेश से दूर पदस्थ रहा हूं। ये सारी बातें विभिन्न लोगों के लिखित और मौखिक संस्मरणों व पत्रिकाओं के आधार पर कह रहा हूं। इसमें कुछ ऊपर नीचे भी हो सकता है।]
मेरे साथ द्वन्द यह था कि मैं प्रगतिशील जनवादी चेतना से प्रभावित और उसका पक्षधर रहा हूं किंतु लेखन के क्षेत्र में मेरी जो थोड़ी बहुत पहचान बनी वह गैरप्रगतिशील मंचों से ही बनी। साहित्य के विमर्श में मैं हमेशा प्रगतिशील मूल्यों और राजनीति क पक्ष लेता रहा हूं इसलिए मुझे लोग इस गुट में शामिल और इसके काले सफेद में भागीदार समझते रहे जबकि मेरी गुट के लोगों से बराबर की दूरी रही व इसके लाभों को न मैंने कभी मांगा न पाया। अपितु मैं इनके बीच की प्रतियोगिता से उपजी विसंगतियों के मजे लेता रहा हूं। मैं प्रगतिशील जनवादी पत्र पत्रिकाएं पढता था और लोकप्रिय पत्रिकाओं में छुटपुट लिखता था।
कृश्न चन्दर, हरिशंकर परसाई से वैचारिक रूप से मैं बेहद प्रभावित था। वे मेरे भी पितृ पुरुष थे, मेरी पहली व्यंग्य कृति की चर्चा करते हुए एक समीक्षक ने यह भी कहा था कि ये परसाई की गैलेक्सी के तारे हैं। जब खबरें आनी शुरू हुयीं कि परसाई और शरद जोशी के बीच प्रतिद्वन्दिता चल रही है, तो मेरा मानस स्वाभाविक रूप से परसाई जी के पक्ष में बनने लगा। मुझे ऐसा लगने लगा कि दोनों दो भिन्न छोर पर खड़े हैं और मुझे परसाईजी के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। तब तक मैंने दोनों ही लोगों से ना तो कभी मुलकात की थी और ना ही कोई निजी परिचय था। उधर जनता पार्टी शासन काल आते ही कमलेश्वर ने सरकार के विपक्ष की भूमिका निभाते हुए सारिका में सम्पादकीय लिखना शुरू किया और धर्मयुग में सम्पादकीय न लिखने वाले भारतीजी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया जिन्होंने कभी जयप्रकाश नारायण के पक्ष में कविता लिखी थी किंतु इमरजैंसी घोषित होते ही धर्मयुग का एक तैयार अंक नष्ट करवा दिया था, जबकि कमलेश्वर ने सरकारी सेंसर बोर्ड द्वारा अनचाही रचनाओं को काला करके छापा और इस तरह एक सन्देश दिया था। कमलेश्वर ने भारती जी को केन्द्रित कर के अपने तीन सम्पादकीय लेखों का शीर्षक दिया “ जो कायर हैं, वे कायर ही रहेंगे”। । एक ही संस्थान के दो प्रमुख पत्रों के बीच यह प्रतियोगिता बहुत विचारोत्तेजक थी। उत्तर में धर्मवीर भारती ने शरद जोशी से लिखने को कहा तो उन्होंने शीर्षक की पैरोडी बना कर एक एक व्यंग्य लेख लिखा “ जो टायर हैं, वे टायर ही रहेंगे”। इसमें टायर को प्रतीक बना कर कमलेश्वर की बात का उत्तर दिया गया था। कमलेश्वर ने भी परसाईजी से नियमित कालम लिखाना शुरू कर दिया था। इन्हीं दिनों कमलेश्वर को सारिका से निकालने की बात चल निकली किंतु टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप के मालिकों के लिए यह काम कठिन था क्योंकि न केवल सारिका सबसे चर्चित कहानी पत्रिका बन चुकी थी अपितु फिल्में लिखना प्रारम्भ कर चुके कमलेश्वर की लोकप्रियता भी चरम पर थी। मालिकों ने सारिका को मुम्बई से दिल्ली ट्रांसफर करने का फैसला कर लिया क्योंकि वे जानते थे कि कमलेश्वर मुम्बई नहीं छोड़ेंगे। इन्हीं दिनों मैंने भावुक होकर उन्हें एक अलग कहानी पत्रिका निकालने के प्रस्ताव का पत्र लिख दिया जिसका आधार आगरा के डोरीलाल अग्रवाल परिवार द्वारा कभी व्यक्त किया गया ऐसा विचार था। कमलेश्वर जी का उत्साह भरा पत्र आया, पर वह विचार पुराना पड़ चुका था और प्रस्तावक उस पर गम्भीर नहीं थे। बहरहाल कमलेश्वर जी ने बहुत सारे आर्थिक लाभ लेकर सारिका छोड़ दी। इस तरह मेरा उन से परिचय हो गया।
मुम्बई से ब्लिट्ज़ जैसा एक अंग्रेजी अखबार ‘करंट’ निकलता था जिसने जनता पार्टी सरकार बनते ही इसका हिन्दी संस्करण निकालना शुरू कर दिया था। यह अखबार तत्कालीन जनता पार्टी सरकार के विरोध में था जिसके सम्पादक महावीर अधिकारी थे। इसमें कमलेश्वर, परसाई व राही मासूम रजा के पूरे पेज के कालम थे। मैंने भी इसमें व्यंग्य कविताएं लिखना शुरू कर दीं, जो लगातार छपीं। बाद में जब कमलेश्वर जी ने कथायात्रा निकालना चाही तो मैंने भी उनको यथासम्भव सहयोग दिया। बाद में जब उन्होंने श्रीवर्षा, जो गुजराती मराठी का प्रमुख साहित्यिक पत्र था, को हिन्दी में निकाला तो उसमें भी मेरी रचनाओं को स्थान दिया। जब श्रीमती गाँधी ने उन्हें दूरदर्शन का डाइरेक्टर नियुक्त किया तो उसे अधर में छोड़ कर चले गये। बहरहाल इस सब के बीच धर्मयुग परिवार में मैं अवांछित मान लिया गया था।
मेरे अन्दर एक हीन भावना थी कि मैंने साहित्य में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया है, जो सच भी था, इस कारण से जन्मी भावना यह भी थी कि मुझे कोई नहीं जानता, और मैं कुछ भी लिखता रहूं कोई गम्भीरता से नहीं लेगा। पर् यह सच नहीं था। अगर किसी के विरोध में कुछ हो रहा है तो उसे तो जरूर ही देखा जाता है। सारिका में प्रकाशित मेरे कुछ पत्र धर्मयुग परिवार को नाराज करने के लिए काफी थे।
भूमिका के बाद अब मूल विषय-
शरद जोशी भोपाल छोड़ कर मुम्बई के होटल मानसरोवर में डेरा जमा चुके थे। उन्होंने कवि सम्मेलनों में गद्य व्यंग्य का पाठ करना शुरू कर दिया था। कुछ दिनों बाद वे इंडियन एक्सप्रैस ग्रुप को प्रेरित कर एक हिन्दी पत्रिका निकलवाने में सफल हो गये थे, उन्हें ही सम्पादक की जिम्मेवारी सम्हालना पड़ी। मुझे पता चला तो मैंने भी अपनी व्यंग्य कविताएं भेजीं जिन्हें उन्होंने खुशी खुशी प्रकाशित कीं। यह 1980-81 की बात है, तब मैं हैदराबाद में पदस्थ था। कुछ दिनों में ही वह पत्रिका बन्द हो गयी। उन दिनों पारश्रमिक पुरस्कार की तरह लगता था। जब पारश्रमिक नहीं आया तो शरद जोशी को पत्र लिखा जिसके पीछे एक कुटिल इच्छा यह भी थी कि किसी बहाने उनसे पत्र व्यवहार तो हो सके। बहरहाल पत्र व्यवहार तो नहीं हुआ किंतु दो चैक जरूर आ गये।
 1982 में मेरा ट्रांसफर हैदराबाद से नागपुर हो गया। मैं ट्रांसफर होते ही देश भर के परिचितों व  मित्रों को सूचित कर देता था। पत्र पहुंचते ही अशोक चक्रधर का उत्तर आया कि फलां फलां तारीख को नागपुर में कवि सम्मेलन है और मैं फलां ट्रेन से पहुंच रहा हूं। उस दिन शनिवार था और ट्रेन दोपहर के बाद की थी। उस दिन एक व्यापारी मेरे आफिस में बैठे थे जो अशोक के मुरीद थे, जब यह चर्चा आयी तो वे बोले कि चलो मैं भी स्टेशन चलता हूं। उनकी कार में बैठ कर स्टेशन गये, और उनको लेकर गैस्ट हाउस आये तो पता चला कि शरद जोशी और बालकवि बैरागी भी आ चुके हैं। गैर की कार का प्रभाव पड़ा।
उस दिन पहली बार शरद जोशी से प्रत्यक्ष भेंट हुयी। मैंने सकुचाते हुये अपना परिचय दिया तो बोले अरे यार मैं पिछले दिनों ही कालेज के कवि सम्मेलन में तुम्हारे दतिया गया था और मैंने तुम्हारे बारे में पूछा था। ओम कटारे के परिवार वालों ने बताया था कि तुम्हारा घर उनके पास ही है पर वे यहाँ नहीं हैं। काफी बातें हुयीं, लेकिन बहुत बातें नहीं हो सकीं क्योंकि अशोक के साथ मेरा दूसरा कार्यक्रम था। शायद दामोदर खडसे भी साथ में थे।
कवि सम्मेलन में पाठ के लिए शरद जोशी को आमंत्रित करते हुए बालकवि बैरागी ने अपनी आदत के अनुसार कहा कि परसाई जी के बाद शरद जोशी अकेले ऐसे व्यंग्य लेखक है जिनका अनुशरण हिन्दी के शेष सारे व्यंग्य लेखक करते हैं। यह सुन कर मैं जिसे श्रोताओं की अग्रिम पंक्ति में स्थान मिला था, खड़ा हो गया, और कहा कि मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। इस बात से सनाका सा खिंच गया, खडसे जी ने हाथ पकड़ कर मुझे बैठा दिया। बात आयी गयी हो गयी। अशोक ने शायद शरद जी के कान में कुछ कहा।
सुबह जब स्टेशन पर मित्रों को छोड़ने गया तो दोनों तरफ की ट्रेनें लगभग एक ही समय पर थीं। शरद जोशी जी मिल गये। मैं कुछ शर्मिन्दा सा था, किंतु उन्होंने ऐसा व्यवहार किया जैसे कल कुछ उल्लेखनीय हुआ ही न हो। मेरी शर्ट की तारीफ करते रहे अपने अन्दाज में बोले अगर यह नीले रंग की होती तो अच्छा होता, आदि।
सुरेन्द्र प्रताप सिंह धर्मयुग छोड़ कर आनन्द बाज़ार पत्रिक ग्रुप की पत्रिका ‘रविवार’ के सम्पादक होकर कलकत्ता चले गये थे और उस पत्रिका में व्यंग्य की सम्भावनाओं को लेकर मेरा उनसे पत्र व्यवहार चल रहा था। उन्हीं दिनों शरद जोशी अशोक वाजपेयी के खिलाफ जम कर लिख रहे थे और रविवार में उनका स्तम्भ ‘नाविक के तीर’ छप रहा था। मैंने एक कविता लिख कर सुरेन्द्र प्रताप सिंह को भेजी जो उन्होंने कृपा पूर्वक नहीं छापी, पर किसी माध्यम से उसकी भनक शरद जोशी को जरूर लग गयी होगी। कविता इस प्रकार थी-
जो धर्मयुग में
या रविवार में
या साप्ताहिक हिन्दुस्तान में
या यहाँ
या वहाँ
या हर जगह
या कहीं भी
भोपाल के एक आई ए एस अधिकारी के खिलाफ लिखते हैं
हिन्दी साहित्य में उन्हें शरद जोशी कहते हैं
  
इस दौरान मुझे लगने लगा कि अपने आप को लेखक कहने के लिए एक किताब तो होना ही चाहिए। हैदराबाद प्रवास [1980] से मैंने के पी सक्सेना से सीखी वह जिद छोड़ दी थी कि उस पत्र पत्रिका में नहीं लिखूंगा जो लेखक को पारश्रमिक नहीं देती। यही कारण रहा था कि मेरे पास प्रकाशित लेखों की इतनी सामग्री एकत्रित हो गयी थी कि एक संकलन आ सकता था। किंतु अब दूसरी जिद थी कि खुद के पैसे से संकलन प्रकाशित नहीं कराऊंगा। मैंने प्रसिद्ध कथाकार से.रा. यात्री जी से बात की। बता दूं कि मेरी बहुत सारी कमियों, भूलों के बाबजूद भी यात्रीजी ने मुझे छोटे भाई जैसा स्नेह दिया है। उन्होंने अपने प्रभाव से मेरी पहली पुस्तक पराग प्रकाशन से छपवा दी। पराग प्रकाशन उन दिनों उभरता हुआ अच्छा प्रकाशन था जिसने अमृता प्रीतम, रवीन्द्र नाथ त्यागी, कन्हैयालाल नन्दन आदि की बहुचर्चित पुस्तकें छापी थीं। प्रकाशक का अहसान उतारने के लिए मैंने लेखक को दी जाने वाली प्रतियों के अलावा स्वेच्छा से लगभग सौ प्रतियां खरीद लीं। अब इस पासपोर्ट के सहारे अर्थात पुस्तक भेंट करने के नाम पर मैं किसी भी लेखक से भेंट करने जा सकता था।
धर्मयुग में लेखन कम हो जाने के बाद मैंने अपना ध्यान जिन अन्य पत्रिकाओं पर केन्द्रित किया था उनमें से एक रामाबतार चेतन की पत्रिका रंग भी थी। चेतन जी मुझे पसन्द करते थे और मेरे लेखों को स्थान दे रहे थे। वे भले ही मामूली सही किंतु हर रचना पर पारश्रमिक देते थे। उन दिनों महाराष्ट्र के किसान नेता शरद जोशी ने एक बड़ी किसान रैली की थी। मैंने उनकी मासिक पत्रिका ‘रंग’ में एक व्यंग्य लिखा ‘निमंत्रण गधों की रैली का’। इसमें एक वाक्य आया था
“ अरे भाई, सरकार को क्या मतलब किसानों से, क्या मतलब गधों से! अब मैं तुम से पूछूं कि सरकार ने किसानों की रैली क्यों निकाली थी, तो इस बात का है तुम्हारे पास कोई जबाब! अरे भाई किसी शरद जोशी को यह गलतफहमी हो गयी कि किसान मेरे पीछे हैं तो उनका भ्रम दूर करने के लिए उन्होंने दिखा दिया कि देखो कौन ज्यादा भीड़ जुटा सकता है इसी तरह  किसी शरद जोशी को यह गलतफहमी हो गयी होगी कि ज्यादा गधे मेरे पीछे हैं तो सरकार उन्हें यह भी दिखाये देती है कि देखो तुमसे ज्यादा गधों की भीड़ मैं जुटा सकती हूं ......”  

अनजाने में यह शरद जोशी जी के भक्तों पर सीधा सीधा हमला था। इसका कारण शायद यह था कि मैं उन्हें परसाई, व प्रगतिशीलता विरोधी मान बैठा था।
उक्त लेख भी मेरे संकलन में प्रकाशित हुआ था। संकलन चेतन जी को भी भेजा। उन्होंने उस की समीक्षा भी करवायी और खुद भी मुझे एक लम्बा प्रशंसा पत्र लिखा। यह भी लिखा कि अगर कभी रचना पाठ करने के लिए चकल्लस में आना हो तो रचना ‘हीरोइन का भाई’ पढना। 1985 में मेरा बम्बई जाना हुआ और चेतन जी से मिलने गया। मैं एक दिन का समय लेकर भी दूसरे दिन पहुंचा तो उनकी डांट भी खायी कि यह बम्बई है कल तुम्हारे इंतजार में मैं सब्जी बाजार जाने से रह गया। बहरहाल उनका स्नेह मिला। उन्होंने सलाह दी कि कल समय हो तो जाकर शरद जोशी से मिल लेना और किताब दे देना। हाँ समय लेकर जाना और समय पर पहुंचना। मैंने कान पकड़ कर हामी भरी और ऐसा ही किया।
वह एक छोटा सा स्वतंत्र बंगला था। यह बाद में पता चला कि वह बंगला कन्हैयालाल नन्दन जी का था और वे चेतन जी के रिश्ते में बहनोई लगते थे। फर्श पर डनलप का गद्दा था जिस पर सफेद चादर बिछी थी चारों ओर पुस्तकें बिखरी हुयी थीं। मैंने किसी नये व्यक्ति की तरह अपना परिचय दिया तो मुस्करा दिये, किताब के पन्ने पलटते हुए बोले कि यह लेख मैंने पढा है, यह भी पढा है और लगभग सभी तो प्रकाशित हैं। मैंने हामी भरी, भले ही एक दो अप्रकाशित भी थे। फिर मेरी क्लास शुरू हुयी। बोले लोग व्यंग्य के बारे में जानते ही क्या हैं! हमारे यहाँ अभी व्यंग्य की आलोचना का शास्त्र ही विकसित नहीं हुआ वही दो चार शब्द हैं, पैना है, धारदार है आदि आदि। फिर बोले कि मैं मध्यमवर्ग के बारे में इसलिए लिखता हूं कि उसका पक्ष लेने वाला न कोई संगठन है न पार्टी। परसाईजी इस वर्ग के खिलाफ लिख लेते हैं, मैं नहीं लिखता।
[इसी बीच में [शायद] नेहा ट्रे में चाय का पाट लाकर रख गयीं थीं, मुझे इस ऎटीकेट का ज्ञान नहीं था कि चाय मुझे बनाना चाहिए। थोड़ी देर में वे खुद आयीं और उन्होंने ही शक्कर आदि पूछ कर चाय सर्व की। वे कुछ दिन पहले पैर मैं जल गयीं थी, शरद जी ने घाव के बारे में पूछा उन्होंने उन्हें दिखाया।]
इसी वर्ष परसाई जी को पद्मश्री मिली थी। मैंने कहा कि परसाई जी को और काका हाथरसी दोनों को एक साथ पद्मश्री देकर सरकार ने क्या उनका अपमान किया है। वे बोले ऐसा पहले भी हुआ है, धर्मवीर भारती और चिरंजीत को एक साथ मिली है, बच्चन जी और गोपाल प्रसाद व्यास को भी एक साथ मिली थी, होता है। उनसे बहुत सारी बातें सुनने को मिलीं जिन्हें सुन कर मैं मुग्ध था उन्होंने पूछा बम्बई कैसे आये थे? मैंने कहा ऐसे ही बिना किसी कारण। बोले आते रहना चाहिए, व्यंग्य लेखक के लिए जरूरी है कि विरोधाभासों का अनुभव करता रहे। यहाँ की जिन्दगी फास्ट है, आदमी दौड़ता सा रहता है, पर जब मैं भोपाल जाता हूं तो आटो वाला आराम से बैठा है। सवारी बैठा कर भी वह बीड़ी पीने चला जाता है या अपने साथ वाले से बात करने लगता है। कहीं कोई जल्दी नहीं। यह विरोधाभास व्यंग्य का उत्प्रेरक बनता है। उन्होंने कहा कि वीरेन्द्र, व्यंग्य मुझ से सध गया है, अब मैं कहीं भी, किसी भी विषय पर व्यंग्य लिख सकता हूं। *[उस दिन तो मुझे यह बात हजम नहीं हुयी थी, किंतु वर्षों बाद जब भोपाल आकर बस गया तब मैंने एक फीचर सर्विस के लिए प्रतिदिन व्यंग्य लिख कर परीक्षण किया तो ऐसे ऐसे विषय सूझे कि मुझे खुद आश्चर्य हुआ]
इसके कई साल बाद मेरी मुलाकात जनवादी लेखक संघ के राम प्रकाश त्रिपाठी जी से हुयी जो परसाई जी से तो परिचित थे ही शरद जोशी के मित्रों में से थे, उन्होंने मेरी सारी गलतफहमियां दूर कीं और बताया कि परसाई जी ने जरूर पूरे देश के सामने अपने व्यंग्य से वैज्ञानिक चेतना का पक्ष रखा है किंतु जीवन में शरद जोशी की प्रगतिशीलता का कोई जबाब नहीं। उन्होंने उनके अनेक प्रसंग सुनाये। मुझे तब तक पता नहीं था कि उनकी पत्नी इरफाना जी है और उन्होंने मुस्लिम से शादी की है। कि नईम जी की पत्नी और इरफाना जी बहिनें हैं। कि जब वे शादी के बाद ट्रांसफर होकर ग्वालियर गये तो मकान मिलने में संकट होने से वे मुकुट बिहारी सरोज के घर में रहे। मुझे अज्ञानता में की गयी अपनी भूलों पर बहुत शर्म आयी।  
1987 में जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन भोपाल में हुआ। रामप्रकाश जी ने उसका स्वागताध्यक्ष शरद जोशी जी को बनाया। वे रवीन्द्र भवन के द्वार पर स्वागताध्यक्ष की तरह ही खड़े थे। मैंने आदतन अपना परिचय सा देते हुए कहा- मैं वीरेन्द्र जैन। उन्होंने गले लगाते हुए कहा- वीरेन्द्र जैन नहीं, वीरेन्द्र कुमार जैन दतिया। और ठहाका फूट पड़ा।
नवभारत टाइम्स में प्रतिदिन लिखते हुए उनके विचार किसी भी प्रगतिशील लेखक पत्रकार से ज्यादा प्रेरक थे। मैं मुरीद हो गया था। सोचा था कि किसी दिन मौका मिला तो दिल से माफी मांगूंगा। किंतु ऐसा मौका आने से पहले ही उनके निधन का समाचार आ गया था। पाकिस्तान के शायर मुनीर नियाजी की नज्म का शीर्षक है – हमेशा देर कर देता हूं मैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
                       

रविवार, मई 17, 2020

समय पूर्व प्रसव से धर्मस्थलों की स्वर्ण सदुपयोग योजना पर प्रभाव


समय पूर्व प्रसव से धर्मस्थलों की स्वर्ण सदुपयोग योजना पर प्रभाव  
वीरेन्द्र जैनसरकार की तैयारीः उत्तराखंड के ...
राजनीति ऐसी पेंचदार होती है, कि इसमें जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं। जब गुजरात में आनन्दी बेन पटेल की जगह नये मुख्यमंत्री की ‘नियुक्ति’ होनी थी और देश विदेश का पूरा मीडिया नितिन भाई पटेल के नाम की लगभग घोषणा कर चुका था,  तब एक टीवी चर्चा में गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा था कि मोदी के फैसले चौंकाने वाले होते हैं और उनका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता। हुआ भी यही था और उनकी जगह विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री की शपथ दिलायी गयी थी। नितिन पटेल को उपमुख्यमंत्री के रूप में संतोष करना पड़ा था।
हाल ही में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान ने कोरोना के अभूतपूर्व संकट से निबटने के लिए मन्दिरों में जमा अटूट सोने के सदुपयोग से आर्थिक संकट का हल निकालने का सुझाव दिया है। इस सुझाव की अच्छाई बुराई से भिन्न, सुझाव देने वाले की हैसियत व समय महत्वपूर्ण है। श्री चौहान दिग्विजय सिंह, शशि थरूर, जयराम रमेश आदि की तरह निरंतर बयान देने वाले नेता की तरह नहीं जाने जाते रहे हैं। यह भी तय था कि भाजपा काँग्रेस के बीच जो राजनीतिक रिश्ता है उसमें अगर एक सूरज के पूरब से उगने की बात करता है तो दूसरा सीधे नहीं मानेगा अपितु कम से कम विचार के बाद उत्तर देने की बात करेगा। इसलिए भाजपा के लम्पट छुटभैयों द्वारा उनके बयान का सीधा विरोध प्रत्याशित था। विश्व हिन्दू परिषदियों, बजरंगियों, और भगवाभेषधारी राजनेताओं द्वारा तुरत प्रतिक्रिया प्रत्याशित थी और ऐसा हुआ भी। उन्होंने तुरंत ही इसे हिन्दू विरोधी काँग्रेसियों, विशेष रूप से विदेशी और ईसाई का विशेषण का प्रयोग करते हुए सोनिया गाँधी पर अभद्र भाषा में शाब्दिक हमला शुरू कर दिया। पहले भाजपा की और अब काँग्रेस व एनसीपी की सहयोगी शिवसेना हतप्रभ होकर रह गयी। ऐसा ही हाल भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का भी हुआ जो अर्थ व्यवस्था में दखल रखते हैं और जानते हैं कि पैसा वहीं से निकलेगा जहाँ गया है। जिन मतदाताओं के समर्थन से सत्ता मिलती है उनकी भावनाओं को दुलराते हुए कैसे पैसा निकलवाया जा सकता है यह नेतृत्व का कौशल होता है।
हमारे देश में धन को लक्ष्मी कहा गया है और लक्ष्मी को चंचल माना गया है। इसको अर्थशास्त्र के इस सिद्धांत से समझा जा सकता है कि “ एक व्यक्ति का खर्च, दूसरे की आमदनी बनता है” अर्थात धन के चलायमान होने से ही प्रगति के रथ को गतिमान बनाया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि हिन्दुओं के धर्मस्थल ही वे स्थान रहे हैं, जहाँ इस्लाम की जकात या ईसाइयों के स्कूल अस्पताल जैसे मिशनरी कार्यों की परम्परा नहीं रही है। यही कारण रहा कि उनके धर्मस्थलों में धन के भंडार रहे व इन्हीं भंडारों की लूट के लिए उन पर विधर्मी राजाओं के हमले होते रहे। इन्हीं हमलों के बारे में साम्प्रदायिकता से लाभांवित होने वाली राजनीति धर्म आधरित हमले लिखवा कर अपना हित साध रही है। किसी के धर्मस्थल को तोड़ कर उसे भावनात्मक चोट तो पंहुचायी जा सकती है किंतु उसके धर्म पर विजय नहीं पायी जा सकती। इसके उलट चोटिल व्यक्ति अपने धार्मिक विश्वासों के प्रति और अधिक कट्टर होता जाता है।   
भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी दोनों ही सरकारों की निगाह मन्दिरों के धन पर रही है। यह निगाह गैर भाजपा सरकारों की भी रही होगी किंतु वे इसको छेड़ने के अधिकारी नहीं थे क्योंकि ऐसा करने पर भाजपा तुरंत ही साम्प्रदायिक पलटवार करके न केवल योजना को असफल करा सकती थी अपितु उसका राजनीति में साम्प्रदायिक लाभ भी ले सकती थी। सबसे पहले अटल जी की सरकार 1999 में स्वर्ण जमा योजना 1999’ लेकर आयी जिसका लक्ष्य अनुपयोगी सोने को अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में लाना और जमाकर्ता को लाभ व सुरक्षा देना घोषित किया गया था। इससे आयात घटाने में देश का लाभ होता। इसका प्रमुख लक्ष्य भी मन्दिरों में जमा सोना ही था। इसके बाद 2015 में नरेन्द्र मोदी की सरकार गोल्ड मोनेटाइजेशन योजना लेकर आयी जो सोने को मुद्रा में बदल कर उस पर दो प्रतिशत ब्याज भी दे रही थी व समय पर सोने में ही वापिसी का आश्वासन भी दे रही थी। ये दोनों ही योजनाएं अच्छी योजनाएं थीं किंतु वांछित सफलता नहीं पा सकीं।
मन्दिरों के स्वर्ण भंडार को देश हित में लगाने का इससे अच्छा अवसर दूसरा नहीं हो सकता। नरेन्द्र मोदी की सरकार न केवल पूर्ण बहुमत वाली सरकार है अपितु पूरी तरह एक ऐसे व्यक्ति की सरकार है जिसके कार्यकर्ता से लेकर नेता तक मोदी की इच्छा के खिलाफ बोलने का साहस नहीं रखते। उनका शब्द ही अंतिम शब्द होता है। उन्होंने सभी वरिष्ठ नेताओं को किनारे बैठा दिया है। पत्रकार लोग मजाक में यह भी कहते हैं कि आज अगर मोदी कह दें तो भाजपा के 90 प्रतिशत लोग इस्लाम स्वीकार करने को भी तैयार हो सकते हैं। इसका एक संकेत आसाराम बापू की गिरफ्तारी के समय दिखा था। सामान्य तौर पर हिन्दू साधु संतों के नाम पर अपनी रोटियां सेंकने वाले भाजपा नेता इनकी गिरफ्तारी के समय उत्तेजक बयान देने लगे थे जिनमें उमा भारती, कैलाश विजयवर्गीय और रमन सरकार के गृहमंत्री जैसे अनेक लोग सम्मलित थे। किंतु मोदी के एक इशारे पर सारे लोग भीगी बिल्ली की तरह चुप हो कर दुबक गये थे। यदि मोदी ने इशारा नहीं किया होता तो आज आसाराम जेल में नहीं होते। उल्लेखनीय है कि अहमदाबाद की एक अतिक्रमण विरोधी घटना में वे मोदी से टकरा चुके थे।
उल्लेखनीय है कि जब श्रीमती इन्दिरा गांधी पोखरण में बम विस्फोट करने वाली थीं, जिसकी भनक अटल बिहारी वाजपेयी को लग गयी थी। उन्होंने तब से ही देश की सरकार से परमाणु शक्ति का देश बनने की मांग शुरू कर दी थी। राजनीति में श्रेय लेने के खेल बहुत चलते हैं। पृथ्वी राज चौहान ने शायद ऐसे ही समयपूर्व खुलासे की राजनीति की हो। कोरोना संकट तो अप्रत्याशित है किंतु सीमा पर टकराव या राफेल जैसे मंहगे हथियारों की खरीद के लिए धर्मस्थलों से सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। जब बिना किसी योजना के धन एकत्रित है तो उसका इससे बेहतर उपयोग क्या होगा कि उसे संकट काल में देश के हित में उपयोग में लाया जाये। जब विपक्ष के नेता पहले ही कह चुके हों तो सराकारे पक्ष को और आसानी होगी।   
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629


शनिवार, मई 16, 2020

देश और टुकड़े टुकड़े गैंग की पहचान का अवसर


देश और टुकड़े टुकड़े गैंग की पहचान का अवसर  

वीरेन्द्र जैन
भारत के प्रधानमंत्री पद पर पदस्थ नरेन्द्र मोदी जी ने अपने सम्बोधनों के क्रम में कोरोना संकट को एक अवसर भी बतलाया है। वैसे तो हर संकट कोई ना कोई सबक दे कर ही जाता है। किंतु जिसकी जैसी सोच होती है वह उससे वैसा ही सबक ग्रहण करता है।
विद्यायाम विवादाय, धनं मदाय, शक्तिं परेशां परपीड़नाय
खलस्य साधूनाम विपरीत बुद्धिः, ज्ञानाय, दानाय च रक्षणाय
[अर्थात बुरे लोगों के पास विद्या विवाद के लिए, धन घमंड के लिए और शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के लिए होती है जबकि भले लोगों के पास विद्या ज्ञन के लिए, धन दान के लिए, और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।]
मोदीजी जिनको, और जो मोदीजी को फालो करते हैं, उन्होंने तो गोदी मीडिया के सहयोग से कोरोना को केवल मरकज के जमातियों द्वारा ही फैलायी गयी बीमारी प्रचारित कर इसे हिन्दू मुस्लिम बनाने व साम्प्रदायिक उन्माद जगाने का अवसर देखा। अगर कुछ विदेशी दबाव ना आते तो भयभीत समाज में यह उनके एजेंडा को बल देने का अवसर था। सब्जी और फलों के ठेलों को हिन्दू मुस्लिम में बदलने व हिन्दू विक्रेताओं के ठेलों पर झंडे व बैनर लगा कर मुस्लिम विक्रेताओं को लाठियों से पीटे जाने के अनेक दृश्य वायरल हुये हैं। इस कृत्य की किस ने निन्दा की और कौन चुप्पी साधे रहा, इससे पक्षधरता प्रकट होती है. अवसर के स्तेमाल का पता चलता है। सच तो यह है कि जमातियों ने ही नहीं अपितु हर धर्म के कट्टर और धर्मान्ध व्यक्तियों ने सोशल डिस्टेंसिंग [फिजीकल] की धज्जियां उड़ायीं। अभी भी अनेक धर्मांध लोग मानते हैं कि यह प्रभु द्वारा ली गयी परीक्षा है और उसी की कृपा दया से राहत मिलेगी। स्वाभाविक है कि सामाजिक आर्थिक और शैक्षिणिक रूप से पिछड़े लोग अधिक अन्धविश्वासी होंगे। किंतु संचार के साधनों के तीव्र विकास ने पूरी दुनिया के जो दृश्य उपलब्ध कराये हैं उससे अन्धविश्वासी लोग भी चिकित्सा को आस्था के बराबर रखने को विवश हुये हैं। सभी धर्मस्थलों की आय में तेजी से गिरावट आयी है। जहाँ आनलाइन दान की भी सुविधा है उन धर्मस्थलों में भी उतना दान नहीं आया जितना पहले आनलाइन आया करता था। यह धर्म में पल रहे बड़े व्यापार के लिए सबक है,
पूरी दुनिया ने देखा कि भारत में जब मिलों कारखानों, भवन निर्माणों आदि में कार्यरत लगभग आठ करोड़ मजदूरों को बिना वेतन के कार्यमुक्त कर दिया गया और उनका देय भुगतान भी नहीं दिया गया तो वे लुटे पिटे मजदूर अपने गाँवों की ओर लौटने लगे। ये असंगठित क्षेत्र के मजदूर थे। अपने हितों की रक्षा के लिए उनके पास कोई संगठन नहीं था जो इनका देय मेहताना दिलवाने के लिए दबाव बनाता। यही कारण है कि शोषक वर्ग उनके संगठन नहीं बनने देता। यह ट्रेड यूनियनों के कमजोर होते जाने का ही परिणाम था कि कोरोना काल ही मैं नरेन्द्र मोदी ने अवसर का लाभ लेकर उद्योगपतियों के पक्ष में अनेक श्रमिक विरोधी कानून लागू कर दिये जिनमें ऐतिहासिक रूप से अर्जित आठ घंटे काम के कानून की समाप्ति तक् सम्मलित है।  
इसे चमत्कार कहें या स्वाभाविक प्रवृत्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति कहें कि पूरे देश के असंगठित असम्पृक्त मजदूरों ने स्वतः स्फूर्त रूप से तय किया कि वे अपने अपने गाँवों को लौट जायेंगे। यह सबका अपना अपना फैसला था किंतु एक जैसा था। ट्रेनें, बसें, सब बन्द थीं तो उन्होंने अपना सामान बाँधा और साहसी मेहनतकश लोग छोटे छोटे बच्चों सहित पैदल या साइकिल से ही निकल पड़े। यह दूरी दस बीस किलोमीटर की नहीं थी अपितु औसतन दो से डेढ हजार किलोमीटर की थी। पिछले दिनों शेष देशवासियों ने पहली बार इन करोड़ों मजदूरों के बारे में जाना कि वे कितने कम सामान के साथ कितनी कम मजदूरी में जीवन गुजार रहे थे। उनकी झुग्गियां कितनी छोटी छोटी थीं और उन्हीं में उनका पूरा परिवार भी रह रहा था। इस दौरान किसी को पूछते नहीं देखा कि इनके बच्चे शिक्षा भी ग्रहण कर रहे हैं या नहीं! ये अपना वोट तो जरूर देते होंगे या बेचते होंगे किंतु इनकी राजनीतिक चेतना के लिए इनके पास सूचना तंत्र की क्या व्यवस्था है! इनका पहरावा केवल बदन ढकने का माध्यम था जबकि आज देश में 23% प्रतिशत कंजूमर बाजार सौन्दर्य प्रसाधनों का है जिनमें डिजायनर वस्त्र जूते आदि भी सम्मलित हैं।
असल में सच्चे देशभक्त तो ये लोग ही हैं जो पूरे देश को अपना घर समझते हैं। जहाँ काम मिलता है वहाँ पहुँच जाते हैं और बिना निजी अनुकूलतायें पैदा किये जैसा वातावरण होता है, वैसे में रहने लगते हैं। जहाँ जो खाने को मिलता है, वह खाना सीख जाते हैं। कभी एक यायावर मित्र ने मुझ से कहा था कि तुम्हारा टायलेट तो चार वाय चार का है किंतु मेरे जैसे लोगों के टायलेट की तो कोई सीमा नहीं, यह उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक फैला हुआ है [यह जहाँ शौच वहाँ शौचालय के विचर से पहले की बात है] । तुम्हारे पास नहाने के लिए दो बाल्टी पानी होता है किंतु मेरे पास तो विशाल विशाल ‘स्विमिंग पूल’ हैं, जिन्हें तुम ताल नदी झील कुछ भी पुकार सकते हो। बताओ कि दो सौ वर्गमीटर के फ्लैट में रहने वाले तुम बड़े आदमी हो या मैं? तुम्हारे पास फ्लैट है, मेरे पास देश है।
भरतपुर के एक मित्र का किस्सा याद आता है। वे किसी आन्दोलन में गिरफ्तार किसी कार्यकर्ता की जमानत देने के लिए कोर्ट में गये। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम्हारे पास कोई जमीन जायजाद है? वे बोले कि हाँ, हिन्दुस्तान के क्षेत्रफल में हिन्दुस्तान की आबादी का भाग दे दें, एक हिस्सा मेरा है।
महानगर में रह चुका आदमी यह हिम्मती आदमी, औसतन दस वर्ष बाद जब यह सोच कर गाँव पहुंचेगा कि अब वापिस शहर नहीं जाना है तो वह सवर्णों को परम्परागत सम्मान नहीं दे पायेगा जो गाँव वालों को अब भी देना पड़ता है। अब वह दलित नहीं मजदूर बनकर सामने आयेगा। वह न्यूनतम दर पर काम चाहेगा। वह बेरोजगार होगा पर, बेगार नहीं करेगा। उसके आचरण से गाँव के युवा प्रेरित होंगे। इससे न जाने कितने अनदेखे सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन सामने आयेंगे। अपने साथ हुये दुर्व्यवहार पर उसका गुस्सा फूट भी सकता है।
देश ने यह भी देखा कि इन्हीं सरकारों ने देश के भीतर राज्यों की सरहदें बना दी हैं और मजदूरों को अपने पैतृक गाँव जाने के लिए रोका जा रहा है। आवागमन के सारे साधन बन्द कर दिये हैं, उन पर लाठियां चलायी जा रही हैं, आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं। मजदूरों के प्रवेश पर राजस्थान और उत्त्तर प्रदेश की पुलिस आपस में टकराती है। उन्हें चोर रास्तों से घुसपैठ करना पड़ रही है। सवाल उठता है कि देश को टुकड़ों टुकड़ों में कौन बांट रहा है? असली टुकड़े टुकड़े गैंग कौन सी है? क्या बंगाल और झारखण्ड अलग देश हैं?
इसके बाबजूद भी सरकार जनता को धोखा देने से बाज नहीं आ रही है। आयकर रिफंड और बैंक लोन को पैकेज बता कर बीस लाख करोड़ राहत का प्रचार कर रही है। बजट की राशि को व्याख्यायित कर उसे राहत बताने की कोशिश कर रही है। कोरोना अगर अवसर है तो यह एक भिन्न अवसर है, और जरूरी नहीं कि वैसा ही अवसर हो, जैसा सत्ता में बैठ कर झूठ बोलने वाले लोग महसूस कर रहे हैं।     
      वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629


मंगलवार, मई 05, 2020

भीड़ का अनुशासन और समाज का चरित्र


भीड़ का अनुशासन और समाज का चरित्रलॉकडाउन के तीसरे फेज में शराब की ...
वीरेन्द्र जैन
हम हिन्दुस्तानियों में दोहरे चरित्र के लोग बहुतायत में होते हैं। सदियों से हमारे आदर्शों और व्यवहारों में विरोधाभास रहा है। हमारा सारा अच्छा व्यंग्य साहित्य इसी विरोधाभास को उजागर करता रहा है। यह चरित्र चाहे ‘ वैद्यराज त्वम नमस्तभै, त्वम यमराज सहोदरा ‘ के रूप में प्रकट हुआ हो या ‘पंडित, वैद्य मशालची, इनकी उल्टी रीत, औरन गैल बताय कें, आपहु नाकें भीत ‘ के रूप में आया हो। रामलीला का प्रारम्भ ही नारद मोह लीला से शुरू हुआ करता था, या केशव दास के बालों के सफेद हो जाने पर जो चन्द्र वदन मन मोहनियों का बाबा कह कर जाने  पर जगत की अनुभूति को निजी बतला कर समाज पर कटाक्ष करना हो। जैन लोगों की प्रार्थना में एक आदर्श बताया गया है – ‘ मन में हो सो, वचन उचरिए, वचन होय सो तन सों करिए ‘। आधुनिक कवियों में भी अशोक चक्रधर की जो मंचीय कविता सबसे अधिक लोकप्रिय हुयी थी, वह यंत्र थी जो एच जी वेल्स की उस विज्ञान कथा पर आधारित थी जिसमें कथा पात्र के हाथों में ऐसा यंत्र आ जाता है जो सामने वाले के मन की बातें समझ लेता है और उसके वचनों से उत्पन्न भेद से हास्य और व्यंग्य पैदा होता है।
रामचरित मानस में जब हनुमान जी राम चन्द्र जी से पहले पहल मिलते हैं और अपने लिए सेवा बताने को कहते हैं तो राम चन्द्र जी उनके कपि स्वरूप को ध्यान में रख कर जो कहते हैं, उसको तुलसीदास जी ने ये शब्द दिये हैं –
यही तुम्हार बहुत सेवकाई, भूषन वसन न लेओ चुराई ।
पिछले दिनों जब देश में लाक डाउन का तीसरा फेज प्रारम्भ हुआ तब उसमें संक्रमण की सम्भावनाओं को देखते हुए कुछ क्षेत्रों में छूट दी गयी व कुछ क्षेत्रों में नियंत्रण को कसा गया। छूट देने के मामलों में एक क्षेत्र शराब की दुकानों को खोलने की अनुमति देना भी थी। देखा गया कि चालीस दिन बाद ये दुकानें खुलने पर भीड़ अनियंत्रित हो गयी और कोरोना को नियंत्रित करने के लिए जो डिस्टेंस बनाने के नियम थे उन्हें तोड़ते हुए धक्कामुक्की करने लगे। चूंकि शराब हमारे दोहरे चरित्र का हिस्सा है इसलिए इस घटना की चतुर्दिक प्रकट आलोचना हुयी। इस मामले में न केवल सरकार के दुकानें खोलने के निर्णय को कोसा गया, अपितु मोरारजी की भाषा में देश भर में दारू बन्दी लागू करने की पुरानी बहस भी छेड़ दी गयी।
शराब से होने वाले नुकसानों पर आज से नहीं अपितु सैकड़ों सालों से बहस होती रही है, इस्लाम, वैष्णव धर्म, सिखपंथ, आदि में शराब को सीधा सीधा नकारा गया है, जबकि विडम्बना यह है कि उर्दू के सबसे अच्छे शायरों ने सबसे ज्यादा मजाक उन्हीं मुल्ला मौलवियों का उड़ाया है जो तौबा करने को कहते हैं। मेहनतकश व सम्पन्न सिख समाज में इसका भरपूर प्रयोग होता है। धार्मिक पंथों में इसके नकार का मतलब ही यह होता है कि उक्त पंथों के अस्तित्व में आने के समय इनका प्रयोग होता रहा होगा। शराब भूगोल के हर हिस्से में किसी न किसी रूप में मौजूद है और इतिहास में भी हर काल में मिलती है। हमारे कानून निर्माताओं ने इस पर उचित नियंत्रण बनाये रखने के लिए सरकारी ठेका प्रणाली प्रारम्भ की और सख्ती के लिए इस पर अधिक से अधिक कर लगाते गये। क्रमशः यह कर इतना बढता गया कि सरकारों की आय का बड़ा हिस्सा इससे ही प्राप्त होने लगा। परिणाम यह हुआ कि सरकारें इस मद से प्रतिवर्ष बीस प्रतिशत अधिक आमदनी करने के चक्कर में इसके उपयोग को बढावा देती गयीं। कोरोना नियंत्रण हेतु की गयी अभूतपूर्व तालाबन्दी में शराब की दुकाने भी बन्द करना पड़ीं और सरकार की आमदनी पर भी ताला पड़ गया। यही कारण रहा कि चालीस दिन के लाकडाउन के बाद जिस बन्द व्यापार को खोलने में प्राथमिकता दी गयी उनमें शराब की दुकाने भी थीं।
शराब के दोषों में एक प्रमुख दोष, इसके सेवन की आदत पड़ जाना भी है। मनोविज्ञान के क्षेत्र से लेकर साहित्य के क्षेत्र तक इस पर बहुत काम हो चुका है इसलिए वह विषय यहाँ चर्चा का विषय नहीं है, किंतु बीड़ी. सिगरेट, गुटखा, चाय, काफी, भांग, गाँजे से लेकर हर आदत मनुष्य को गुलाम बनाती है और उसके विवेक को भी कमजोर करती है बरना इनको सेवन करने वाला कौन है जिसे इनके नुकसानों को नहीं बताया गया है, फिर भी लोग इनका स्तेमाल करते हैं। जब इन लतखोरों को चालीस दिन बाद सरकारी आदेश से, सरकारी दुकान से, सरकारी दरों पर शराब उपलब्ध हुयी तो भीड़ होना स्वाभाविक थी। यह सीधा सीधा डिमांड सप्लाई का मामला था। जब सुविधाओं का संकट होता है तो जरा सी किरण दिखाई देने पर लोग अवसर चूक जाने के भय से नियंत्रण खो देते हैं। यह अनुशासनहीनता रेल के डिब्बे में चढते समय भी देखी जा सकती है, राशन की दुकानों पर भी दिखाई देती है, सिनेमा और बसों की टिकिट खिड़की पर भी दिखती रही है। यहाँ तक कि प्रतिवर्ष अपने देवी देवताओं के मन्दिरों में पहले दर्शन की भगदड़ में सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। दुनिया भर को अनुशासन का पाठ पढाने वाले मीडिया के पत्रकार एक बाइट के लिए जिस तरह से धक्कामुक्की पर उतरते हैं वह रोज ही दिखाई देता है। किंतु जब शराब की दुकानों पर लत के शिकार लोग टूट पड़ते हैं तो हमारे दोहरे चरित्र के लोग उनकी इस मानवीय कमजोरी को सबसे बड़ा पाप बताने लगते हैं। इतना ही नहीं लाकबन्दी से चरमरा गयी अर्थव्यवस्था से बर्बाद हो गये मजदूर जब पैदल ही गाँव लौटने लगे और इस बात की दुनिया भर में बदनामी हुयी तो गोदी मीडिया के पत्रकारों ने उन भूखे मजदूरों को शराब की आदत के शिकार लोगों से जोड़ दिया।
आदतें तो राजनीति व धर्म के नायकों की अन्धभक्ति के नशे की भी बुरी होती है जो मरकज में जमातियों को एकत्रित करा देता है व एक भावुक श्रद्धा के बहाने लाखों लोगों से लाइट बन्द करा के थाली बजवा, विजय जलूस निकलवा कर सोशल डिस्टेंस की धज्जियां उड़वा देती है। यह जानना रोचक हो सकता है कि शराब के लिए अनुशासनहीन भीड़ में विवेकहीन थाली बजाने वालों का प्रतिशत कितना था।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629