शनिवार, मई 31, 2014

बदलाव की दिशा



बदलाव की दिशा
वीरेन्द्र जैन
      प्राकृतिक जल के प्रवाह को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने के दो प्रमुख मार्ग होते हैं जिनमें से एक का नाम नदी होता है और दूसरे को नहर कहते हैं। नदी, उपलब्ध भूगोल में पानी द्वारा अपना मार्ग बनाने और लम्बे काल खण्ड में अवरोधों से निरंतर टकरा कर उसे सुगम बनाते रहने से बनती है, जबकि नहर को अपनी जरूरत के अनुसार निकाला जाता है और जल प्रवाह की दिशा को मनचाहा मोड़ दिया जाता है। आदर्श लोकतंत्र, नदी जैसे स्वाभाविक प्रवाह और सतत स्वाभाविक टकराहटों का ही नाम है, पर जब जनमानस को नहर जैसे मार्ग से बहा ले जाकर अपना स्वार्थ हक किया जाने लगता है तो लोकतंत्र की आत्मा कुंठित होती है।
      हमारे देश में 2014 के आम चुनाव द्वारा हुये राजनीतिक परिवर्तन, जनमानस रूपी जल के किसी नहर की तरह के स्थान परिवर्तन जैसे हैं जिन्हें कुशल प्रबन्धन द्वारा संभव बनाया गया है। यदि नैतिक मूल्यों को अलग रख कर इस प्रबन्धन को परखा जायेगा तो इस के लिए किये गये प्रयासों और कौशल की प्रशंसा करनी होगी। ऐसे परिवर्तन घटना होते हैं इतिहास नहीं। इन ताश के महलों को निरंतर साधना पड़ता है। उपलब्ध आंकड़ों और तथ्यों द्वारा इसे समझा जा सकता है।
      स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उस आन्दोलन से जन्मी कांग्रेस, अर्धसामंतवादी, अर्धपूंजीवादी समाज में एक स्वाभाविक पार्टी थी और तब सत्ता में आने की हक़दार थी। पर उसके दो दशक बाद ही समाज में तेजी से पैदा हुयी अपेक्षाओं को पूरा न कर पाने के कारण उसने अपनी चमक खो दी थी, तब उसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गयी जिसे श्रीमती इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में नई कांग्रेस द्वारा पूरा किया गया। बैंकों और बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण, पुराने राजपरिवारों के विशेष अधिकारों और प्रिवीपर्स की समाप्ति, सर्वजनिक क्षेत्रों का विकास, आदि के साथ साथ गरीबी हटाओ का नारा भी दिया गया था। इसी दौरान साम्यवादी रूस के साथ कई व्यापार समझौतों ने पार्टी को पुनर्जीवित कर दिया। इन समझौतों का परिणाम कृशि के क्षेत्र में हमारी आत्म निर्भरता के साथ पाकिस्तान के विभाजन के दौरान अमेरिका के सातवें बेड़े को इस महाद्वीप तक न पहुँचने देने के रूप में भी देखने को मिला था। इतना ही नहीं उस समय की कांग्रेस ने देश के तत्कालीन प्रमुख साम्यवादी दल से राजनीतिक गठबन्धन करके स्वयं को जनपक्षधर प्रचारित कर दिया था, जिसका प्रभाव उस दौरान हुये विभिन्न आमचुनावों के परिणामों में देखने को मिल रहा था। देश का एक विशाल जनमानस श्रीमती गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेस के साथ खड़ा हो गया था जिसका चुनावी मुकाबला करने के लिए विभिन्न दक्षिणपंथी दलों और अलग हुये कांग्रेस के हिस्से ने अपने सैद्धांतिक मतभेद भुला कर समझौता कर लिया था। बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा श्रीमती गाँधी के चुनावों से सम्बन्धित फैसले को आधार बना और मँहगाई व भ्रष्टाचार के नाम पर जयप्रकाश नारायण को आगे करके आन्दोलन किया गया जो बाद में इमरजैंसी लागू किये जाने की जरूरतों तक गया। इमरजेंसी के बाद 1977 में जो आम चुनाव हुआ वह बहुत हद तक पहला आम चुनाव था जिसे राजनीतिक आधार पर लड़ कर विपक्षी गठबन्धन ने जीता था व सत्तारूढ दल की हार हुयी थी। वह ऐसा दुर्लभ आम चुनाव भी था जिसमें मुस्लिम समुदाय के मतदाताओं ने राजनीतिक आधार पर मतदान किया था। उसके बाद के आमचुनाव या तो भावनात्मक आधार पर हुये या नकारात्मक आधार पर। हर बार मतदाताओं को लुभाने के लिए पैसा या शराब वितरित करने में वृद्धि होती गयी। करोड़पति और बाहुबली उम्मीदवारों की संख्या में बढोत्तरी होती गयी व चुनावी हिंसा व बूथ लूटने की घटनाएं बढती गयीं। फिल्म व टीवी के स्टार, क्रिकेट खिलाड़ी, कलाजगत के लोकप्रिय व्यक्ति, धार्मिक पोषाकों वाले धर्मगुरू, उद्योगपति व राजपरिवारों से जुड़े लोगों की संख्या बढने लगी। 1989 से अल्पसंख्यक सरकारों का जो दौर शुरू हुआ उसमें छोटे छोटे समर्थक दलों का महत्व और सौदेबाज़ी की ताकत बड़ी जिससे क्षेत्रीय दलों ने अपना विस्तार किया और केन्द्र की सरकारें दबावों में काम करने लगीं। 2004 की यूपीए-1 और 2009 की यूपीए-2 की सरकारें इसका उदाहरण हैं।
      2014 के आम चुनाव के दौरान मँहगाई अपने शिखर पर थी और भ्रष्टाचार के अतिरंजित प्रचार का आरोप भी सत्तारूढ गठबन्धन के प्रमुख दल पर लग रहा था भले ही उसके लिए गठबन्धन के घटक दल अधिक ज़िम्मेवार हों। विडम्बना यह थी कि भ्रष्टाचार के ऐसे ही आरोपों से सबसे बड़े विपक्षी दल की राज्य सरकारें भी घिरी थीं पर उनका गठबन्धन प्रचारतंत्र में मजबूत था जिसकी दम पर उन्होंने सारे तीर केन्द्र में सत्तारूढ दल की ओर मोड़ दिये थे। भाजपा के प्रबन्धन ने सबसे पहला काम यह किया कि अपने उम्रदराज नेताओं को एक किनारे लगाकर अपने सर्वाधिक ऊर्जावान युवा नेता को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करके चुनाव को युद्ध की तरह लड़ा और उसका नाम ही भारत विजय रखा। नेतृत्व उस नेता को दिया जिसके राज्य ने उनके द्वारा शासित दूसरे राज्यों की तुलना में भ्रष्टाचार कम था और कई दशकों से चल रही विकास की परम्परा को वह अपने नाम पर गिना रहा था। अपनी पार्टी के नाम और काम तक को उस नेता के आगे ढक जाने दिया गया, व इसके विरुद्ध पार्टी में कहीं भी विरोध नहीं पनपने दिया। पार्टी से बाहर गये येदुरप्पा, उमाभारती, कल्याण सिंह, आदि को पार्टी में सम्मलित कर लिया। बिहार में रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी, और उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी, उ.प्र. में स्व. सोनेलाल पटेल की पुत्री अनुप्रिया पटेल का अपना दल, समेत दक्षिण के अनेक छोटे दलों को सहयोगी दल बना लिया। पूर्व इनकम टैक्स कमिश्नर उदितराज जैसे दलित नेता समेत प्रत्येक चर्चित नाम को आकर्षित किया और सेना के सेवा निवृत्त जनरल वीके सिंह, मुम्बई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह, पूर्व आईएएस अधिकारी भागीरथ प्रसाद, आदि नौकरशाहों को टिकिट देकर चुनाव में उतारा। चुनाव जीतने के लिए दलबदल का ऐसा नंगा खेल खेला कि कुछ ही दिन पहले तक केन्द्र में यूपीए सरकार में मंत्री रहे जगदम्बिकापाल, और मानव संसाधन विकास मंत्री डी पुष्पेन्दरी ही नहीं कांग्रेस के होशंगाबाद के सांसद उदय प्रताप सिंह, भिण्ड के घोषित प्रत्याशी भगीरथ प्रसाद, बाड़मेर से कर्नल सोना राम, पाटलिपुत्र से राजद के रामकृपाल यादव को टिकिट देकर जीत सुनिश्चित की। नोएडा के कांग्रेस प्रत्याशी को तो नाम वापिसी की तिथि निकल जाने के बाद भाजपा में सम्मलित करवा लिया गया, जिससे कांग्रेस की हार सुनिश्चित हो गयी। फिल्मी और मंचीय कलाकारों में हेमामालिनी, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, परेश रावल, किरण खेर, स्मृति ईरानी, मनोज तिवारी, बप्पी लहरी, बाबुल सुप्रियो, आदि को उतारा गया जिनमें से ज्यादातर ने अपनी लोकप्रियता के आधार पर चुनाव जीत भाजपा के सिद्धांतों की लोकप्रियता के डंकॆ पिटवाये हैं। क्रिकेट खिलाड़ियों में से कीर्ति आज़ाद इस बार भी जीत गये हैं। चुनावों के दौरान ही प्रसिद्ध पत्रकार एमजे अकबर, और उत्तराखण्ड के पूर्व कांग्रेसी मंत्री सत्यपाल महाराज, कामेडियन राजू श्रीवास्तव, को ही भाजपा से नहीं जोड़ा गया अपितु दक्षिण के रजनीकांत को भी समर्थक बनाया गया।  
      विकास के नाम पर चुनाव लड़ने का दावा करने वाले व्यक्ति ने न केवल फैज़ाबाद में मंच पर राम मन्दिर के चित्र वाला बैनर ही लगाया अपितु गंगा पूजा न कर पाने का लाभ भी लिया। इतना ही नहीं उन्होंने भगवा वेषधारी साध्वी उमा भारती, स्वामी सच्चिदानन्द साक्षी महाराज, निरंजन ज्योति, योगी आदित्यनाथ, सुमेधानन्द सरस्वती, चाँदनाथ आदि को टिकिट देकर पार्टी की धार्मिक पहचान बनाये रखी।             
      रैलियों में समुचित भीड़ की न केवल व्यव्स्था ही की गयी अपितु उसे अतिरंजित करने वाले कैमरों के द्वारा बढा चढा कर भी चैनलों तक पहुँचवाया गया। सबसे अधिक कर्ज़ वाले गुजरात से उद्योग जगत को जो सुविधाएं मिली हैं तो बदले में उन्होंने भी उसके अनुकूल उदारता दिखायी। विजुअल मीडिया ने एक स्वर से पक्षधरता की जिनके मालिक उद्योग जगत के लोग ही थे। थ्री डी चुनाव प्रचार सभायें ही नहीं अपितु चाय पर चर्चाएं तक आयोजित की गयीं। सोशल मीडिया के अतिरंजित प्रचार की योजना तो बहुत पहले से ही बना ली गयी थी जिसकी बहुत सारी कहानियां पहले ही सामने आ चुकी थीं और कुछ अब सामने आ रही हैं। अमेठी में तो विपक्षी के खिलाफ अश्लील कहानियों की पुस्तिकाएं भी चोरी छुपे बँटवायी गयीं। 
      कुल मिला कर कहा जा सकता है कि भरपूर साधनों की मदद से यह एक प्रबन्धन का चुनाव था जिसका लाभ दूसरे दल नहीं उठा सके या उनकी नैतिकता में यह नहीं आता। देश में प्रचलित प्रणाली के अनुसार यह सब लगभग विधि के अनुसार ही है कि इस तरह से अर्जित कुल मतों का 31 प्रतिशत और देश के कुल मतों का 20 प्रतिशत पाने वाला दल पूर्ण बहुमत पा कर शासन करे। जिन्हें चिंता है वे प्रणाली में बदलाव के बारे में सोचें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

शनिवार, मई 17, 2014

इस विजयोत्सव पर गर्व करने के समानांतर



इस विजयोत्सव पर गर्व करने के समानांतर
वीरेन्द्र जैन

हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, और सबसे अच्छे लोकतंत्र होने की सम्भावनाओं से भरे हुये हैं। सोलहवीं लोकसभा के लगभग हिंसा रहित चुनावों द्वारा सता के बदलने या कहें उलटने की घटना ने इस विश्वास को और भी बल दिया है। आइए इन परिणामों के उत्सवी माहौल में एक निगाह हाशिये की ओर भी डालें।
इन चुनावों ने भले ही गत पच्चीस वर्षों से चले आ रहे इस विश्वास को तोड़ दिया है कि बहु राष्ट्रीयताओं, विभिन्न क्षेत्रीयताओं वाले इस देश में कई दलों की गठबन्धन सरकारें ही सम्भव हैं, पर परिणामों पर निगाह डालने पर क्षेत्रीयताओं का जो ध्रुवीकरण देखने को मिल रहा है वह चौंका देने वाला है। तामिलनाडु में जयललिता के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय दल एआईडीएमके ने देश भर में पड़े इक्यावन करोड़ मतों में से  एक करोड़ अठत्तर लाख मत लेकर लोकसभा की 39 में से 37 सीटें जीत ली हैं। यही पार्टी देश की दक्षिण सीमा पर बसे राज्य पर पूर्व से ही  शासन कर रही है। इसने भाजपा को छोड़ कर शेष सभी राष्ट्रीय दलों को हरा दिया और भाजपा भी वहाँ के छह छोटे क्षेत्रीय दलों से गठबन्धन करने और सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म अभिनेता रजनीकांत का समर्थन हासिल करने के बाद भी गठबन्धन में एक सीट ही निकालने में सफल हो सकी।
पूर्वी तट पर बसे उड़ीसा राज्य में भी बीजूजनतादल ने इक्कीस में से बीस लोकसभा सीटें जीत भाजपा को केवल एक सीट पर थम जाने के लिए विवश होना पड़ा। लोकसभा के साथ हुए विधानसभा चुनावों में भी इसी दल ने जीत हासिल की। उनके पक्ष में लगभग पिंचानवे लाख वोट पड़े।  
देश की पूर्वी सीमा के राज्य पश्चिम बंगाल में जहाँ राष्ट्रीय मान्य दल सीपीएम, कांग्रेस और भाजपा सक्रिय रूप से चुनाव के मैदान में थीं, वहाँ भी क्षेत्रीय दल तृणमूल कांग्रेस ने दो करोड़ बारह लाख वोट ले 42 में 34 सीटें जीत कर अपना दबदबा कायम कर लिया। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में शासन कर रही ममता बनर्जी केन्द्र के साथ टकराव लेने के लिए जानी जाती रही हैं व विदेश नीति तक के मामलों में राष्ट्रीय सहमति नहीं बना पातीं। इन चुनावों में केवल उनकी पार्टी पर ही हिंसक टकराव के आरोप लगे हैं। बंगलादेशी शरणार्थियों के मामले में आम चुनावों के दौरान ही भाजपा के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी से उनकी बयानबाजी कटुतम स्तर तक पहुँच चुकी थी।
देश की पश्चिमी सीमा पर स्थित महाराष्ट्र में शिवसेना का तेज उभार भी ध्यान देने योग्य है। उसने 2009 में जीती ग्यारह सीटों की तुलना में अठारह सीटें जीती हैं और तिरेसठ लाख वोटों से बढ कर एक करोड़ तीन लाख वोट अर्जित किये। इतना ही नहीं उसके साथ भाजपा ने उनकी शर्तों पर समझौता किया था और तय है कि वे अपनी शर्तों पर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान व मंत्रालय लेंगे। उल्लेखनीय है कि वे अपनी मराठी राष्ट्रीयता को बहुत कठोरता से प्रदर्शित करते हुये भारतीयता को पीछे रखते हैं। गत वर्षों में उन्होंने बिहार और उत्तर प्रदेश से काम के सिलसिले में आये श्रमिकों के खिलाफ हिंसक दमन किये थे जिस पर भाजपा ने राजनीतिक हित देखते हुए अपने होंठ सिल लिये थे। स्मरणीय है कि गठबन्धन सरकारों में शिवसेना द्वारा दबाव बनाने का इतिहास पुराना है और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय बाला साहब ठाकरे ने अपने पिता के नाम से डाक टिकिट तक जारी करवा लिया था।
हाल ही में विभाजित आन्ध्र प्रदेश से जनित तेलंगाना और सीमान्ध्र में भी राष्ट्रीय दल किनारे कर दिये गये हैं और तेलंगाना में के सी आर की टीआरएस ने सरसठ लाख वोट लेकर ग्यारह सीटें जीत लीं तो तेलगुदेशम पार्टी ने एक करोढ उनतालीस लाख वोट लेकर सोलह सीटें जीत लीं। वायएसआरसी ने भी आर्थिक अनियमितताओं के ढेरों आरोपों के बाद भी एक करोड़ अड़तीस लाख वोट लेकर नौ सीटें जीत लीं। इन राज्यों में भाजपा तीन पर और कांग्रेस दो पर सिमिट कर रह गयी।
कश्मीर घाटी में नैशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस को हरा कर तीनों सीटें पीडीपी द्वारा जीतना भी घाटी में चल रही हलचल का संकेत देता है। विचारणीय विषय यह है कि उपरोक्त राज्य हमारी सीमाओं के राज्य हैं जिनमें से राष्ट्रीय दल सिकुड़ रहे हैं और क्षेत्रीयतावादी दल उभर रहे हैं। स्मरणीय यह भी है कि प्रधानमंत्री बनने जा रहे नरेन्द्र मोदी तक ने एक बार केन्द्र से टकराव की स्थिति में धमकी दी थी कि अगर केन्द्र ने गुजरात की माँगें नहीं मानी तो गुजरात के लोग आयकर देने से इंकार कर सकते हैं। जब हम कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में सेना के सहारे शासन करने को विवश हैं तब सीमावर्ती राज्यों के चुनावों में क्षेत्रीयता के तेज उभार की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। हमें किसी राजनीतिक समाधान की ओर बढ कर इन दलों को देश की मुख्यधारा में लाने की पहल करनी चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, मई 08, 2014

स्मृतिशेष भाजपा और मोदी सेना के गठन की पृष्ठभूमि



स्मृतिशेष भाजपा और मोदी सेना के गठन की पृष्ठभूमि 
वीरेन्द्र जैन
       2014 के आमचुनावों में मोदी मोदी के नाम का इतना प्रायोजित जयकारा लगाया गया कि विवेक की आवाज दब कर रह गयी। अपने अप्रिय चरित्र को छुपाने के लिए गुजरात के विकास और सुशासन का ऐसा नक्कारा बजाया गया कि कुपोषित बच्चों की करुण पुकार को अनसुनी कर दी गयी। यह बिडम्बना ही रही कि सैकड़ों वर्ष पुराने जड़ हो चुके मूल्यों के आधार पर गठित पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए आधुनिकतम संसाधन और कार्पोरेट प्रबन्धन की तकनीक का प्रयोग कर युवाओं को बहकाने लगी, वहीं आधुनिक और प्रगतिशील मूल्यों में भरोसा रखने वाली पार्टियों ने अपने पुराने घिसे पिटे तौर तरीकों से ही चुनाव लड़ा व उम्मीद बाँधे रही कि बोध कथा वाला कछुआ ही खरगोश से दौड़ जीत लेगा। 
       ऋग वेद में कहा गया था कि आ नो भद्रा क्रतवो यंतु विश्वत अर्थात अच्छे विचार पूरे विश्व से आने दो। इसी तरह रामकथा के अनुसार जब राम के तीर से धाराशायी होकर रावण गिर पड़ा और मृत्यु की ओर बढने लगा तब राम ने लक्षमण को यह कहते हुए उसके पास भेजा कि रावण कई विद्याओं का ज्ञाता था इसलिए उसकी मृत्यु से पहले उससे कुछ ज्ञान प्राप्त कर लो। यह कथा सन्देश देती है कि हमें किसी से भी सीखने में संकोच नहीं करना चाहिए। अपने से असहमत व्यक्तियों द्वारा अपनाये गये अनैतिक तरीके भी इसलिए जान लेना चाहिए ताकि भविष्य में इनसे सावधान रह सकें और समय पूर्व उनसे बचने के उपाय कर सकें। आइए मोदी के आक्रामक चुनाव प्रबन्धन पर एक विश्लेषणात्मक निगाह डालें।
       स्मरणीय है कि मोदी ने भाजपा की कार्यसमिति की उपेक्षा करते हुए उसको नियंत्रित करने वाले संघ प्रमुख को अपनी हैसियत समझायी और उन्हें कार्यांवयन के लिए मजबूर किया जिसका परिणाम यह हुआ कि इस अलोकतांत्रिक ढंग से काम करने वाले संगठन में अडवाणी जैसे प्रमुख नेता समेत दूसरे सारे प्रमुख नेताओं का भिन्न स्वर तूती की आवाज़ में बदल कर रह गया। संघ प्रमुख के फैसले के आगे अडवाणी का रूठना, स्तीफा देना, और सुषमा स्वराज के साथ मुम्बई के अधिवेशन से बिना आमसभा को सम्बोधित किये हुए वापिस लौटना भी बे असर रहा। जो अरुण जैटली दो दिन पहले तक यह कह रहे थे कि पार्टी में अकेले मोदी ही नहीं अपितु दस से अधिक नेता प्रधानमन्त्री पद के प्रत्याशी बनने योग्य हैं, वही मोदी की वकालत करते हुए कहने लगे कि उन्हें तुरंत ही पीएम प्रत्याशी घोषित नहीं किया गया तो भाजपा हिट विकेट हो सकती है। मोदी ने भी इसी समय संशय में पड़ी पार्टी को चेतावनी दी कि उन्हें 2017 तक गुजरात की सेवा करने का जनादेश मिला हुआ है, अर्थात वह तो पूर्व से ही एक पद पर पदारूढ हैं किंतु यदि पार्टी ने फैसला नहीं लिया तो हो सकता है वह अवसर खो दे। सत्ता के लिए बुरी तरह लालायित इस दल ने जिसका पूरा इतिहास ही सत्ता के लिए सभी तरह के सिद्धांतविहीन समझौतों से भरा पड़ा है, मोदी को उम्मीदवार घोषित कर दिया। उल्लेखनीय है कि ऐसा होते ही मोदी ने चुनाव में जीत की रणनीति तय करने के नाम पर पूरा नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया और कुछ प्रतीकात्मक ऐसे फैसले करवाये जिससे संघ और पार्टी दोनों ही जगह यह सन्देश गया कि सबको मोदी की शरण में ही जाना होगा, अन्यथा वे कहीं के नहीं रहेंगे। सबसे पहले तो उन्होंने संघ के प्रिय और समर्पित पदाधिकारी संजय जोशी को परिदृश्य से बाहर करवा कर पूरे संघ के पदाधिकारियों को सन्देश दिया कि सत्ता के लिए संघ प्रमुख किसी की भी सेवायें नकार सकते हैं। इसके बाद उन्होंने संघ के द्वारा नामित अध्यक्ष पद पर नितिन गडकरी के नाम के प्रस्ताव को रद्द कराया जिससे पूरी पार्टी में मोदी के नाम का डंका पिट गया। अपने कारनामों के लिए जेल में रह चुके और अदालत के आदेश के अनुसार गुजरात से प्रदेश निकाला प्राप्त पूर्वमंत्री अमित शाह को उन्होंने उत्तरप्रदेश के प्रभारी के रूप में थोप दिया और बड़े बड़े अनुभवी नेताओं से भरे इस प्रदेश में कोई चूं भी नहीं कर सका। इतना ही नहीं उन्होंने भोपाल से प्रत्याशी बनने को उत्सुक अडवाणी को गान्धीनगर, मुरली मनोहर जोशी को बनारस से कानपुर, राजनाथ सिंह को गाज़ियाबाद से लखनऊ और स्वयं बनारस से दूसरा प्रत्याशी बनकर संकेत दिया कि सब उनके मोहरे बन कर रहें और अपने सोचने की क्षमता व समझ को बन्द करके रखें।
       गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपने पिछले दस सालों के कार्यकाल में उन्होंने पूरे गुजरात को सबसे अधिक कर्ज़ में डुबोते हुए उद्योगपतियों को इतनी सुविधाएं और कौड़ियों के मोल ज़मीनें दीं कि सब उनके मुरीद हो गये। अम्बानी और टाटा जैसे उद्योगपतियों ने तो सार्वजनिक मंच से बयान भी दे दिया था कि श्री मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देख कर उन्हें खुशी होगी। मुफ्त मिलने वाली सुविधाओं के भण्डार से मुदित होकर मुकेश अम्बानी ने तो एक मंच से कहा था कि कौन सा उद्योगपति होगा जो गुजरात में उद्योग स्थापित न करना चाहेगा! इन उद्योगपतियों का यही प्रमाणपत्र उनके काम में आया जो आमचुनाव में उनके लिए पैसे के प्रवाह को देख कर महसूस किया जा सकता है।         
       स्टेशनों पर बिकने वाले मोटे मोटे उपन्यासों के बारे में किसी ने बताया था कि इनके लेखक केवल एक ब्रांड नाम भर हैं और विभिन्न नौसिखिया लेखकों से लुगदी साहित्य लिखा कर उक्त लोकप्रिय नामों से छपा कर बेच लिया जाता है। मोदी ने भाजपा के नाम को नेपथ्य में डालते हुए अपने नाम को ब्रांड नेम बना कर आगे कर दिया और पूरे चुनाव में अपने नाम पर वोट माँगते हुए मतदाताओं से अपील की आपके द्वारा कमल का बटन दबाने पर आपका वोट सीधा मुझे मिलेगा। इसका असर यह हुआ कि भाजपा की दूसरी नाकारा और भ्रष्ट सरकारों से कोई तुलना नहीं रह गयी अपितु गुजरात और मोदी के श्रंगारित बनावटी चेहरे से तुलना होने लगी। देश भर में अकले मोदी के नाम से आमसभाएं आहूत की गयीं, और दूसरे केवल सहयोगी कलाकार के रूप में सम्मलित रहे। ट्विटर और फेसबुक के लाखों नकली प्रशंसकों और बेनामी खातों से युवाओं में मोदी के प्रति युवाओं के झुकाव का नकली भ्रम फैलाया गया, तथा कार्पोरेट घराने के मीडिया द्वारा ऐसी तुरही बजवायी गयी जिससे ऐसा लगने लगे कि जैसे मोदी प्रधानमंत्री बन ही चुके हों और केवल शपथ ग्रहण भर शेष रह गयी है। दूसरे दलों के नेताओं और प्रमुख सेलिब्रिटीज को पार्टी में लाने के लिए हर सम्भव सौदा किया जिससे यह लगे कि उनके विपक्षियों का जहाज डूब रहा है और लोग उसे छोड छोड़ कर भाग रहे हैं। 
       आधुनिकतम तकनीक से विश्लेषित टिकिटार्थियों की सूची को अंतिम रूप भी मोदी ने ही दिया, और 543 सदस्यों के सदन के लिए चारसौ सोलह स्थानों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये। इसमें उन्होंने उनके साथ प्रतियोगिता कर सकने वाले पुराने खूसटों को सबसे कठिन संघर्ष में उलझा दिया। दलबदलुओं को उनकी सुरक्षितसीटें देने के लिए उन्होंने अपने दल के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की। सवर्णों की पार्टी के रूप में मशहूर रही इस पार्टी ने उदित राज, भागीरथ प्रसाद जैसे दलित अधिकारी रहे राजनेताओं पर विशेष ध्यान दिया। पूर्व सेना प्रमुख, पुलिस के पूर्व डेजीपी, और दूसरे सेवानिवृत्त अधिकारियों को टिकिट देकर एक साथ कई निशाने साधे। परेश रावल, किरण खेर, शत्रुघ्न सिन्हा, हेमा मालिनी, विनोद खन्ना, बप्पी लहरी, ज़ाय बनर्जी, मनोज तिवारी आदि की लोकप्रियता को भुनाने के लिए भी उचित सौदा किया जबकि अभिनेत्री से नेत्री बनी स्मृति ईरानी तो पहले ही भाजपा की राजनीति में सक्रिय हैं, पर राज्यसभा सदस्य होते हुए भी उन्हें भी अरुण जैटली की तरह प्रतीकात्मक चुनाव लड़वाया गया। साधु वेषधारियों को भी मैदान में उतारा गया जिनमें सुमेधानन्द, चाँदनाथ, साक्षीमहाराज, योगी आदित्यनाथ, उमाभारती, निरंजन ज्योति आदि तो चुनाव लड़ ही रहे हैं, दूसरी ओर मोदी ने अयोध्या में अपने मंच के पीछे राम का विशाल चित्र लगा कर अंतिम दौर में सन्देश दे दिया कि वे राम मन्दिर को केवल छुपाये हुये हैं।
       मोदी द्वारा चयनित 416 प्रत्याशियों में से 126 ऐसे हैं जिन पर आपराधिक प्रकरण दर्ज़ हैं और जिनमें से 78 के खिलाफ तो गम्भीर प्रकृति के प्रकरण दर्ज हैं। इन उम्मीदवारों में ला ग्रेजुएट्स की समुचित संख्या होना स्वाभाविक है। इन सब लोगों को जानसमझ कर टिकिट दिया गया है। मोदी के प्रत्याशियों में 74प्रतिशत करोड़पति हैं और उनकी औसत सम्पत्ति ग्यारह करोड़ है।        
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, मई 07, 2014

रामदेव का बचाव पक्ष



रामदेव का बचाव पक्ष

वीरेन्द्र जैन
       भाजपा और कांग्रेस में एक बड़ा फर्क यह भी है कि भाजपा अपने नेताओं, व सहयोगियों पर किसी भी तरह की अनैतिकता, अपराध, अशालीनता और अनियमतता के आरोप लगने पर उसके बचाव में उतर आती है जिससे पूरी पार्टी ही दोषी हो जाती है जबकि कांग्रेस अपने बड़े से बड़े सदस्य के ऊपर लगे आरोप से दल की दूरी बना लेती है और उसकी गलतियों की सफाई व दण्ड उसे खुद ही वहन करना होता है। जब भी कोई किसी ऐसी बात की पक्षधरता करता है जो न केवल सार्वजनिक रूप से ही गलत हो अपितु वह खुद भी उसे गलत मान रहा हो तो उसे अपनी बात को जोर के शोर से ठेलना पड़ता है, असंगत कुतर्क करने पड़ते हैं, और विषय को भटकाना पड़ता है। 2014 के आम चुनावों के दौरान विभिन्न टीवी चैनलों पर चली बहसों में इस प्रवृत्ति को साफ साफ देखा और पहचाना गया है। पिछले दिनों राजनीतिक बहसों में न्यूनतम रुचि रखने वाले मेरे एक मेहमान ने ऐसी बहस देखते हुए बहुत सरलता से पूछ लिया था कि सबसे अधिक चीखने वाला यह नेता क्या मोदी की पार्टी का है? इस प्रवृत्ति से एक बात प्रकट होती है कि भाजपा किसी दल की जगह गिरोह की तरह काम करती है। उनकी एकजुटता प्रशंसनीय हो सकती है किंतु उस एकजुटता के घोषित लक्ष्य और वास्तविक आचरण में बहुत अंतर है। वे अपनी भूल को कभी स्वीकार नहीं करते और उसका किसी भी तरह बचाव करने में जुट जाते हैं। यही कारण है कि उनके नेतृत्व में वकीलों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है और प्रसिद्ध वकीलों को राज्यसभा की सदस्यता का दरवाजा सदैव खुला रखते हैं। उनका लक्ष्य किसी भी तरह से मुकदमा जीतने का रहता है जिसके लिए सत्य, असत्य, अर्धसत्य, सत्याभास, किसी भी विधि का सहारा क्यों न लेना पड़े।
       आतंकवाद के नाम पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को सर्वाधिक हवा देने वाले इन्हीं के परिवार के सदस्य उन लोगों से सम्बन्धित रहे हैं जिन पर हिन्दू आतंकवाद फैलाने का आरोप लगा था। स्वयं तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह जो फिर से उसी पद पर पहुँचा दिये गये हैं, प्रज्ञासिंह ठाकुर आदि से मिलने मुम्बई जेल गये थे और उमा भारती व आसाराम भी प्रज्ञा सिंह से मिलने गये थे। स्पष्ट संकेतों और पूछ्ताछ के बाद गिरफ्तार किये गये इन लोगों की गिरफ्तारी के खिलाफ संघ परिवार के लोगों ने एक स्वर से सीबीआई और दूसरी जाँच एजेंसियों के खिलाफ ऐसी बयानबाजी की बाढ ला दी थी कि इन महत्वपूर्ण संस्थाओं पर से सामान्यजन का विश्वास घट सकता था जिसका सीधा सीधा लाभ अपराधी तत्वों को मिल सकता था। वैसे भूल किसी भी संस्था के पदाधिकारियों से सम्भव है और तथ्यों के आधार पर ध्यान आकर्षित करना राजनीतिकों का कर्तव्य है किन्तु किसी संस्था के गठन और गलत आधार पर उसकी सम्पूर्ण विश्वसनीयता को ही कटघरे में खड़ा कर देना एक समाज विरोधी काम है। अकालियों के साथ सत्ता में बने रहने के लिए ये विधानसभा में आतंकियों के महिमा मंडन में उनका साथ देते हैं और चर्चित हत्यारों की फाँसी की सजा माफ करने के उनके प्रस्तावों का मुखर विरोध नहीं करते।
       काँची कामकोठि के शंकराचार्य पर लगे गम्भीरतम आरोपों के विरोध में अटलबिहारी वाजपेयी समेत भाजपा के सभी नेता दिल्ली में धरने पर बैठ जाते हैं और समर्थक न जुटने पर आसाराम से मदद लेते हैं। आसाराम द्वारा इतने अधिक स्थानों पर अतिक्रमण करने और आश्रम के नाम पर ज़मीनों पर कब्जा करने के पीछे भी भाजपा और संघ परिवार का परोक्ष बल रहा है जिसने बदले में इन्हें एक बड़ा वोट बैंक देने का सौदा किया हुआ था। आसाराम और उसके सपूत की हाल की गिरफ्तारी के समय भी भाजपा के लोग एक साथ उसके पक्ष में ढेर सारे कुतर्कों के साथ कूद पड़े थे किंतु सम्भावित पीएम पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के साथ उनके कुछ मतभेदों के कारण उक्त समर्थन सफल नहीं हो सका। किंतु संघ परिवार खेमे से कभी भी न तो उस पर लगे अनैतिक आचरणों के मामले में गिरफ्तारी और न ही जमीनों, मकानों पर किये गये अतिक्रमणों के बारे में कोई स्वर मुखर हुआ। इसके विपरीत  अपने राजनीतिक विरोधियों पर इन्हीं अपराधों से सम्बन्धित किसी भी आरोप पर पूरा संघ परिवार एक स्वर से शोर करने लगता है। यह ज्वलंत सत्य है कि धर्म की ओट में किये जाने वाले सर्वाधिक अतिक्रमणों के संरक्षण में धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले दल रहते हैं। ऐसे ज़मीन चोर अतिक्रमणकारी धर्म, समाज, और राजनीति सब को भटकाते हैं।
       ताज़ा घटनाक्रम में इस समय के सर्वाधिक विवादास्पद योगप्रशिक्षक और आयुर्वेदिक दवाओं का उद्योग चलाने वाले राम किशन यादव उर्फ बाबा रामदेव की पक्षधरता का विवाद है। रामदेव एक कम शिक्षित और विराट महात्वाकांक्षा पालने वाले योग प्रशिक्षक हैं। रंगीन टीवी के सैकड़ों चैनल प्रारम्भ होने और उनके सातों दिन चौबीसों घंटे प्रसारण के दौर में रामदेव ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी। जब केवल दूरदर्शन के चैनल ही चलते थे तब भी धीरेन्द्र ब्रम्हचारी द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला योग प्रशिक्षण बहुत लोकप्रिय कार्यक्रम हुआ करता था पर भाजपा परिवार उनका और उनके राजनीतिक सम्बन्धों का सबसे बड़ा आलोचक हुआ करता था क्योंकि उनका जुड़ाव तत्कालीन सत्तारूढ कांग्रेस के नेताओं से था। बाद में जनता पार्टी के कार्यकाल में उन पर कार्यवाही भी हुयी थी। संयोग से रामदेव को राजीव दीक्षित जैसे विवेकवान और समाजसेवी का साथ मिल गया जिन्होंने स्वयं को पीछे रखते हुए रामदेव को एक ब्रांड नेम देने और उनके अभियान को विस्तारित करने में असीम योगदान दिया। पिछले वर्षों में रामदेव के योग गुरु गायब हो गये और राजीव दीक्षित का अचानक असामयिक निधन हो गया। रामदेव के योगगुरु के गायब होने की जाँच तो सीबीआई कर रही है। इसी दौरान रामदेव को राजनीति में पदार्पण करने की जरूरत महसूस हुयी और उन्होंने विदेशों में जमा काले धन, बड़े नोटों को बन्द करने, राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी बनाने, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आन्दोलन से भगा दिये जाने के बाद अपना आन्दोलन करने, और असफल होने पर भाजपा के शरणागत होकर नरेन्द्र मोदी का प्रचार करने के नाम पर अपने लोगों को टिकिट दिलवाने आदि तरह तरह के काम किये। कुछ ही दिनों में ग्यारह सौ करोड़ से अधिक की सम्पत्ति अर्जित कर लेने वाले रामदेव के खिलाफ व्यापार उद्योग में की गयी आर्थिक अनियमतताओं के कई प्रकरण दर्ज हैं। इस सम्पत्ति और व्यापार के कारण उन्हें राजनीतिक संरक्षण की जरूरत है। पिछले चुनावों में उनके उद्योग द्वारा भाजपा को दी गयी बड़ी चुनावी राशि की चेक समाचारों में आयी थी।
       रामदेव के अशिष्ट भाषा और प्रतीकों के द्वारा दलित विरोधी बयान की गलत व्याख्या और रक्षा में पूरी भाजपा और संघ परिवार उतर आया है, यहाँ तक कि स्वयं को दलितों का मसीहा बताने वाले हाल ही में भाजपा में सम्मलित होकर चुनाव लड़ने वाले उदित राज को भी उनका बचाव करने हेतु उतारा गया है, जबकि देश भर से विरोध के स्वर फूट रहे हैं। जिस दिन उक्त बयान सामने आया था उसी दिन एक न्यूज चैनल पर रामदेव ने साक्षात्कार भी दिया था जिससे उनकी जानकारी और समझदारी की सारी कलई खुल गयी थी। उस साक्षात्कार के दौरान उत्तर देने में असमर्थ होने पर वे एक वकील से बोले थे कि कुश्ती लड़ ले। उन्होंने यह भी कहा था कि अन्ना हजारे और भाजपा ने स्वयं ही उनसे सहयोग मांगा था। ऐसे व्यक्ति का सहयोग लेना और उसकी गलत पक्षधरता में उतरने से देश के सबसे बड़े विपक्षी दल और उसके प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी पर प्रश्न चिन्ह लगता है। जिस देश में इस तरह के लोग प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के साथ हों उस देश की छवि दुनिया के सामने क्या बनेगी!
वीरेन्द्र जैन
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