गुरुवार, जुलाई 29, 2010

मुख्य भूमिका में कामेडियन हो जैसे

मुख्य भूमिका में कामेडियन हो जैसे
वीरेन्द्र जैन

एक समय था जब हिन्दी फिल्मों में नायक नायिका अलग होते थे और कमेडियन अलग होते थे। इन कामेडियंस के लिए अलग से कहानी में जगह निकाली जाती थी और नायक नायिका की प्रेम कहानी के समांतर उनकी भी कहानी चलती रहती थी। धीरे धीरे वह जमाना आया कि नायक और कामेडियन का भेद मिट गया तथा अक्षय कुमार, परेश रावल ही नहीं, ओम पुरी, शाहरुख खान और आमिर खान तक कामेडियन-नायक की भूमिका निभाने लगे। हमारे देश की राजनीति भी कुछ ऐसे ही दौर से गुजर रही है।
किसी समय राजनीति में शीर्षस्थ नेता अध्ययंशील,शालीन, सुसभ्य और गुरु गम्भीर बने रहते थे किंतु कुछ राजनेता समानान्तर ढंग से अपनी बात कहने के लिए मनोरंजक और चुटीला और ग्राम्य, तरीका अपनाते रहते थे जिससे उनकी बात जनता तक पहुँच भी जाती थी और उन्हें याद भी बनी रहती थी। इनमें अनेक स्थानीय नेताओं के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर समाजवादी नेता राज नारायण सबसे अधिक चर्चित रहे थे। बाद में लालू प्रसाद यादव ने भी यही ढंग अपनाया और इसी की दम पर जनता दल से अलग होकर अपना अलग दल बनाया व उसके सर्वे सर्वा बन गये। समाजवादी पार्टी में रहने तक अमर सिंह भी इसी तरीके का स्तेमाल करते रहे हैं।
संघ के आदेश पर नियुक्त भाजपा के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी और कुछ अन्य नेता भी इसी दौर के हैं जो अधिकतर हास्यास्पद बयान ही देते हैं किंतु उनके ये बयान राज नारायण और लालू प्रसाद की तरह सोचे समझे ढंग से दिये गये बयान नहीं हैं अपितु अपनी अनुभवहीनता और गलत प्रतीकों के प्रयोग के कारण व्यंगात्मक न होकर हास्यास्पद हो जाते हैं। वे इन बयानों के द्वारा विषय वस्तु की गम्भीरता को नष्ट कर देते हैं। मँहगाई के सवाल पर नितिन गडकरी ने कहा कि सरकार गेंहूँ इसलिए सड़ा रही है ताकि उसे शराब बनाने वालों को बेच सके। यह बयान एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष की गरिमा के अनुकूल नहीं है, जबकि बढती मँहगाई और उचित संरक्षण के अभाव में सरकारी निगमों में गेंहूँ का सड़ना एक गम्भीर चिन्ता का विषय है जिस पर उनसे पूर्व सुप्रीम कोर्ट भी टिप्पणी कर चुका है।
गत दिनों भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने कहा कि सोहराबुद्दीन हत्याकण्ड के आरोपी अमित शाह को कांग्रेस इसलिए परेशान कर रही है ताकि बढती मँहगाई से ध्यान हटाया जा सके। ये बयान बेहद बचकाना और झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली औरतों की लड़ाई के दौरान दिये गये कुतर्कों की तरह है। सोहराबुद्दीन, उसके साथी तुलसी प्रजापति और उसकी पत्नी कौसर बी की हत्या हुयी है जिसे न केवल वरिष्ठ पुलिस अधिकारी स्वीकार कर चुके हैं अपितु उन आरोपियों में से एक सरकारी गवाह बनने को तैयार भी हो गया है। इतना ही नहीं स्तिथि का पूर्वाभास होने के कारण भाजपा ने उन राम जेठमलानी को राज्य सभा में भेजना मंजूर कर लिया जो भाजपा के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव में खड़े हुये थे और जिन्होंने इस पार्टी के प्रमुख मुद्दे “अफजल को फाँसी” के विपरीत अफजल की वकालत करना स्वीकार किया था। उनको वकील् बनाने के बाद भी भाजपा नेता का उक्त बयान कि मँहगाई के मुद्दे से ध्यान बँटाने के लिए अमित शाह को परेशान किया जा रहा है, बेहद हास्यास्पद है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आगामी दिनों में जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों या गुजरात में निर्दोष मुसलमानों की हत्याएं करने वालों पर शिकंजा कसेगा तब भी वे ऐसे ही बयान देंगे। भाजपा नेताओं के इन बयानों से उनके पक्ष में तो कोई वातावरण नहीं ही बनता, मँहगाई जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी होने वाली विपक्षी राजनीतिक लड़ाई कमजोर होती है। उनके ये बयान उमा भारती, ऋतम्भरा, आचार्य धर्मेन्द्र, अशोक सिंघल, आदि के बयानों की तरह लगते हैं जो गैर जिम्मेवारी से बिना किसी सोच के दिये जाते हैं, जैसे कि हरियाना में गौ हत्या के सन्देह में हिदू तत्ववादियों ने जब चार हरिजनों की हत्या कर दी थी तो अशोक सिंघल ने कहा था कि चार हरिजनों की जान की तुलना में एक गाय की जान ज्यादा महत्वपूर्ण है।
लोकतत्र में एक जिम्मेवार विपक्ष का होना बहुत जरूरी होता है, जो सतारूढ दल पर अंकुश बनाये रखता है और उसे मनमानी करने से रोकने का काम करता है। यह गलत नहीं होगा अगर यह कहा जाये कि विपक्ष को सत्ता पक्ष की तुलना में अधिक चेतन, सक्षम, और सक्रिय होना नितांत जरूरी है किंतु जब विपक्ष के प्रमुख नेता ही तरह तरह के अपराध कर्मों में आरोपी बन रहे हों और ऊल जलूल बयान देते हों तब सत्ता पक्ष की मनमानी पर अंकुश कौन रखेगा। खेद है कि आज देश के दो प्रमुख दलों को अपने अपने आरोपों में प्रतियोगी होकर यह बताने में अपनी ऊर्जा नष्ट करना पड़ रही है कि कौन बड़ा अपराधी है। दूसरे के अपराध को बड़ा बताने के रक्षात्मक उपायों द्वारा राजनीति करना बेहद बिडम्बनापूर्ण हैं, यह मुद्दों की लड़ाई को भटकाती है। यह लापरवाही पूर्ण राजनीति तब हो रही है जब देश के सामने आतंकवाद, अलगाववाद, और दिनों दिन फैलते जा रहे माओवाद का खतरा सामने है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

सोमवार, जुलाई 26, 2010

मुकुट बिहारी सरोज [जन्मदिन के अवसर पर विशेष]

मुकुट बिहारी सरोज
जिनके जीवन के डर से मौत मरती रही वीरेन्द्र जैन
26 जुलाई 1926 को जन्मे मुकुट बिहारी सरोज ने स्वतंत्रता के बाद ही गीत रचना के क्षेत्र में पदार्पण किया और शीघ्र ही लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच गये। सन 1959 में प्रकाशित उनके प्रथम काव्य संग्रह में उनके परिचय में लिखा हुआ है कि इकतीस वर्षीय सरोज दस बारह वर्षों से लिख रहे हैं और साथ के लोगों की लिखनेवाली पंक्ति में काफी दूर से दिखते हैं। यह वह दौर था जब नई कविता की घुसपैठ के बाबजूद भी गीत ही जनमानस की काव्य रुचि में प्रमुख स्थान बनाये हुये था। जगह जगह होने वाले कवि सम्मेलन ही रचना के परीक्षण व उसके खरी खोटी होने के निर्णय स्थल होते थे। यद्यपि इस परीक्षा में कुछ अंक मधुर गायन वाले ग्रेस में ले जाते थे पर रचना को उसके भावों, विचारों, शब्दों और सम्प्रेषणीयता की कसौटी पर कसा जाकर ही किसी कवि को परखा जाता था तथा दुबारा मिलने वाला आमंत्रण उसका प्रमाण पत्र होता था। सरोज जी को नीरज बलबीर सिंह रंग, शिशुपाल सिंह शिशु, गोपाल सिंह नेपाली, रमानाथ अवस्थी, आदि के साथ जनता की कसौटी पर खरा होने का प्रमाण पत्र मिला और वे हिन्दी कविसम्मेलनों में अनिवार्य हो गये थे।
सरोजजी के गीतों में अन्य श्रंगारिक कवियों के तरह लिजलिजा लुजलुजापन कभी नहीं रहा। उनके गीत सदैव ही खरे सिक्कों की तरह खनकदार रहे। वे आकार में भले ही छोटे रहे हों किंतु वे ट्यूबवैल की तरह गहराई में भेद कर जीवन जल से सम्पर्क करते रहे हैं। उन्हीं की पंक्तियों में कहा जाये तो-
प्रश्न बहुत लगते हैं, लेकिन थोड़े हैं
मैंने खूब हिसाब लगा कर जोड़े हैं
उत्तर तो कब के दे देता, शब्द मगर
अधरों के घर आना जाना छोड़े हैं
कल जब ये मौन भंग होगा
कोई गम तब न तंग होगा
इसलिए कि तन मरता है
मरती उसकी आवाज़ नहीं
सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा, लेकिन आज नहीं
सरोजजी अपनी कहन में, अन्दाज़ में, अपने समकालीनों से भिन्न रहे हैं इसलिए अलग से पहचाने जाते रहे हैं। अपने संग्रह की भूमिका में उन्होंने खुद ही व्यंजना में कहा है-
“ मेरे इस संग्रह की भाषा आपको अखरेगी या अज़ीब लगेगी या आपके मन में खुब जायेगी। इसे आप शायद भाषा वैचित्र्य की संज्ञा दें। बड़ी आसानी से इसे शैली की पृथकता भी माना जा सकता है। ....... बोल चाल में रात दिन जो आपने कहा सुना है उसी को जब आप पढेंगे तब मेरा विचार है कि आपको उसमें कुछ अपनेपन का अनुभव होना चाहिए।“

1962 में चीन के साथ सीमा विवाद में षड़यंत्र पूर्वक अपने देश को उलझा दिया गया था व तभी से अमरीका का हस्तक्षेप बढ गया था। अमरीकी फिल्मों के दुष्प्रभाव के साथ साथ साहित्य में भी वे बीमारियाँ प्रविष्ट हो गयी थीं, जिनका संघर्षरत आम आदमी से दूर का भी लेना देना नहीं था। 1965 में पाकिस्तान और फिर भुखमरी से लड़कर देश बुरी तरह कमजोर हो गया था व आम आदमी का तथाकथित आज़ादी से मोहभंग हो चुका था। इस दौर में सरोज जी के गीतों की धार दिन प्रति दिन पैनी होती गयी। उनके गीतों में व्यंग्य तेज होता गया।
क्योंजी, ये क्या बात हुयी
ज्यों ज्यों दिन की बात की गयी
त्यों त्यों रात हुयी
क्यों जी, ये क्या बात हुयी
उन्होंने कवि सम्मेलनों के मंचों पर ही कवियों की कतार में बैठे नेताओं की ओर इशारा करते हुये सीधे सीधे व्यंग्य का पात्र बनाते हुये कहा-
ये जो कहें प्रमाण, करें वो ही प्रतिमान बने
इनने जब जब चाहा तब तब नये विधान बने
कोई क्या सीमा नापे इनके अधिकारों की
ये खुद जनम पत्रियाँ लिखते हैं सरकारों की
होगे तुम सामान्य भले, ये पैदायशी प्रधान हैं
इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं
1969 के बाद दिन प्रतिदिन दुहरे होते जा रहे सत्ता के चरित्र को रेखांकित करते हुए उन्होंने “नाटकों के गीत” में साफ साफ लिखा है-
नामकरण कुछ और खेल का खेल रहे दूजा
प्रतिभा करती गयी दिखाई लक्ष्मी की पूजा
अकुशल असम्बद्ध निर्देशन, दृष्य सभी फीके
स्वयं कथानक कहता है अब क्या होगा जी के
या
है मुझको मालूम हवाएं ठीक नहीं हैं
क्योंकि दर्द के लिए दवाएं ठीक नहीं हैं
लगातार आचरण गलत होते जाते हैं
शायद युग की नई ऋचाएं ठीक नहीं हैं
जिसका आमुख ही क्षेपक की पैदाइश हो
वो किताब भी क्या कोई अच्छी किताब है?
मेरी कुछ आदत खराब है

कवि सम्मेलनों के पतनशील दौर में जब सारे मंच को चुटलेबाज़ों और भड़ैती करने वालों ने हथिया लिया हो तथा सारे गम्भीर कवि मंच त्याग कर भाग गये हों, तब अपने कथ्य तेवर और विचारों से बिना कोई समझौता किये सरोजजी मंचों के माध्यम से जनता के साथ सीधा सम्पर्क बनाये रहे। वे हिन्दी के पहले व्यंग्य गीतकार हैं। दुष्यंत कुमार ने बाद में यही काम गज़लों के माध्यम से किया और लोकप्रियता हासिल की।

सरोजजी सहज व्यवहार भी अपनी व्यंजनापूर्ण भाषा और व्यंगोक्तियों के माध्यम से हर उम्र के लोगों को अपना मित्र बना लेने की क्षमता रखते थे। उनके सम्पर्क में आने वाले ऐसे सैकड़ों लोगों से मैं स्वयं मिला हूं ज्न्होंने उनकी व्यंगोक्तियों के कारण अपनी कमजोरियों को पहचाना है और उससे मुक्ति पायी है।
भीड़ भाड़ में चलना क्या
कुछ हटके हटके चलो
वो भी क्या प्रस्थान
कि जिसकी अपनी जगह न हो
हो न ज़रूरत बेहद जिसकी,
कोई वजह न हो
एक दूसरे को धकेलते,
चले भीड़ में से
बेहतर था वे लोग
निकलते नहीं नीड़ में से
दूर चलो तो चलो
भले ही भटके भटके चलो
भीड़ भाड़ में चलना क्या कुछ हटके हटके चलो
इन पंक्तियों के रचियता मुकुट बिहारी सरोज सचमुच ही अपने रंग के अलग और अनूठे गीतकार हैं। उनके सारे गीत आम बोल चाल की भाषा में लिखे गये हैं। सामान्यजन के दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले मुहावरों की भाषा के शब्दों से वे वे ऐसा चित्र खींचते हैं जिसे संस्कृति के शिखर पर सजाया जा सकता है व जीवन के संघर्ष को गरिमा दी जा सकती है। जिस तरह विष्णु चिंचालकर कचरे से कालाकृतियां तैयार कर हमारी संस्कृति के शिखर पर पहुँचते हैं उसी तरह सरोजजी भी सामान्यजन के शब्दों को ऐसे गूंथते हैं कि कला जगत के शीर्ष पुरुषों को उसके आगे माथा झुकाना ही पड़ता है।
अब्बल मंच बनाया ऊंचा जनता नीची है
तिस पर वर्ग वर्ग में अंतर रेखा खींची है
बोलचाल की भाषा के ‘अब्बल’ का यह सटीक और मेरी जानकरी के अनुसार गीतों में इकलौता प्रयोग है।
कैसे कैसे लोग रह गये !
बनें अगर, तो पथ के रोड़ा
करके कोई एब न छोड़ा
दीख न जाये असली सूरत
इसीलिए हर दर्पन तोड़ा
फूलों को घायल कर डाला
काँटों की हर बात सह गये
कैसे कैसे लोग रह गये
उनका वाक्य विन्यास उनका बिल्कुल अपना है। न भूतो न भविष्यति वाला मामला। प्रेम गीतों में शामिल किये जाने वाले उनके इस गीत की बानगी देखिए-
तुमको क्या मालूम, कि कितना समझाया है मन
फिर भी बार बार करता है भूल, क्या करूं
कितनी बार कहा खुलकर मत बोल बाबरे
कानों के कच्चे हैं लोग ज़माने भर के
और कहीं भूले भटके सच बोल दिया तो
गली गली मारेंगे लोग निशाने कर के
लेकिन, ज़िद्दी मन को कोई क्या समझाये
खुद मुझ से ही रहता है प्रतिकूल क्या करूं
वैज्ञानिक चेतना के पक्षधर, अन्ध्विश्वासों और रूढियों के विरोधी सरोजजी की रचनाएं, आशा, उत्कर्ष आस्था, और भविष्य की ओर संकेत करती हैं। यही कारण है कि केंसर जैसा भयानक रोग भी इस जीवट के आगे हार मान गया, जिसकी पंक्तियाँ हैं-
जिसने चाहा पी डाले सागर के सागर
जिसने चाहा घर बुलवाये चाँद सितारे
कहने वाले तो कहते हैं, बात यहाँ तक
मौत मर गयी थी जीवन के डर के मारे
कोई गम्भीर स्वर में कहता कि आपको कैंसर हो गया है तो वे उसे लगभग डाँटते हुये से कहते कि यह कहो कि कैंसर को सरोज हो गया है। वे कैंसर से नहीं मरे अपितु ‘उसने कहा था’ के सरदार लहना सिंह की तरह मैदान के घावों से मरे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शनिवार, जुलाई 24, 2010

आमिर खान के शिखर पर पँहुचने का मतलब्


आमिर के शिखर पर पहुँचने का मतलब भी समझो
वीरेन्द्र जैन
अपनी फिल्मों को न केवल बाक्स आफिस पर सफलता दिलाने वाले अपितु फिल्म समीक्षकों से लेकर साहित्यकारों, राजनेताओं, और शिक्षाशास्त्रियों तक से प्रशंसा पाने वाले आमिर खान को फिल्म फेयर पावर लिस्ट ने टाप टेन में शीर्ष स्थान दिया है। वे इसी साल ही शीर्ष पर नहीं हैं अपितु लगातार शीर्ष पर बने रहने का उनका यह तीसरा साल है। यह स्थान उन्हें किन्हीं ज्यूरियों ने चुन कर नहीं दे दिया अपितु दुनिया भर के अखबारों, पत्रिकाओं, उनके हिसाब किताब और आयकर के आंकड़ों से लेकर फेसबुक और ट्वीटर पर उपस्तिथ उनके लाखों प्रशंसकों के आधार पर तय हुआ है। इस सूची में मोदी के गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर अमिताभ और उनके लाड़ले बेटे अभिषेक तो कहीं हैं ही नहीं तथा शाहरुख खान भी दूसरे नम्बर पर हैं।
आमिर द्वारा बनायी गयी उसकी अपनी अबकी फिल्में बेतरतीब बेहूदा कहानियों में गुंथी लम्पट प्रेम कथाओं या किसी सरकार और कानून बिहीन देश की अविश्वसनीय माफिया जगत से जुड़ी ठाँय ठाँय नुमा फिल्में नहीं होतीं। उनमें एक विचार होता है, एक सन्देश होता है, हमारा देश होता है हमारा परिवेश होता है, जिसमें मेट्रोपोलिटन नगर की पश्चिमी दुनिया भी होती है तो बीस रुपये रोज पर गुजर करने वाले सत्तर करोड़ लोगों की जूझती हुयी देशी ज़िन्दगी भी होती हैं। प्रेम की सार्वभौमिक भावनाओं के साथ भूख और रोटी रोजगार का अपना अपना नंगा यथार्थ भी होता है। उनकी फिल्में लाई मुरमुरे की तरह हल्की नहीं होती किंतु गरिष्ठ और बेस्वाद भी नहीं होतीं। वे गाजर मूली ककड़ी के साथ तरबूज खरबूज, आम अनार जामुन अंगूर सेव, नाक, चीकू की तरह स्वादिष्ट, शक्तिवर्धक और सुपाच्य होती हैं। न उनसे हाजमा खराब होता है और ना ही मुँह का स्वाद ही खराब होता है। वे ये फिल्में उन दर्शकों के बीच सफल कर रहे हैं जिनके बारे में यह मान लिया गया था कि दर्शक की रुचि बिगड़ चुकी है, वह चटोरा हो गया है, उसे केवल सतही सम्वेदनाएं जगाने और हल्के फुल्के फूहड़ मनोरंजन वाली धाँय धाँय की फिल्में ही चाहिए। उसे फिल्मों में सामाजिक यथार्थ नहीं चाहिए अपितु एक कल्पनालोक की यात्रा का नशा चाहिए। आमिर की फिल्मों ने निहित स्वार्थों और कलाविहीन लोगों द्वारा फैलाये इस भ्रम को तोड़ा है। लगान, रंग दे बसंती, मंगल पांडे, तारे जमीं पर, थ्री ईडियट्स आदि ने सफलता के सारे रिकार्ड तोड़े हैं। इस दौर में आमिर की उपरोक्त फिल्मों की सफलता एक अलग तरह के आम चुनाव का चुनाव परिणाम भी हैं जो बताता है देश क्या सोच रहा है, जनता किस के समर्थन में है और उसे क्या पसन्द है। स्मरणीय है नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने गुजरात में रंग दे बसंती को चलने नहीं दिया था किंतु पूरे देश ने जिस तरह उस फिल्म को प्यार दिया था और युवाओं ने उसके सन्देश को ग्रहण किया था तो नरेन्द्र मोदी का कलंक धोने के लिए लाल कृष्ण आडवाणी ने तारे जमीं पर देखने और देख कर अपने आँसू पौँछने के समाचार छपवाये थे। जब पूरा देश ही नहीं अपितु दुनिया में जहाँ जहाँ हिन्दी फिल्में देखी जाती हैं, वहाँ वहाँ थ्री ईडियट्स की भरपूर प्रशंसा हो रही थी तब भाजपा के लोग मुम्बई में अपना झंडा साथ में लेकर इस फिल्म के पोस्टर उतार रहे थे और जला रहे थे। आमिर की फिल्मों की सफलता साम्प्रदायिक विचार के कट्टरतावादियों की हार भी है। भाजपा जो मुख्यतयः समाज के खाते पीते मध्यम वर्ग की ही पार्टी है और वे मध्यमवर्गीय ही फिल्मों को सफल असफल करते हैं। देखा जा रहा है कि उनमें आमिर की फिल्में पसन्द की जा रही हैं, उनकी फिल्मों में गुँथे विचार को पसन्द किया जा रहा है। यह समाज का एक राजनीतिक रुझान प्रकट करता है।
आज जब इस देश में सत्तर करोड़ से अधिक लोग बीस रुपये रोज से कम पर जीवन यापन कर रहे हैं, 42 करोड़ परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं और इसमें भी एक बड़ी संख्या ऐसी है जिसकी आय प्रति दिन नौ रुपये रोज से अधिक नहीं है उन्हें फिल्में देखने, या देखने के लिए चुनाव करने का अवसर ही नहीं है। यही हाल उनका वोट देने के मामले में भी है। वे य तो जाति धर्म क्षेत्र आदि के प्रभाव में वोट देते हैं या वोट बेच देते हैं। पर विचार के बाद मतदान करने वालों का मत अन्ध साम्प्रदायिकों के मत से नही मिलता। अपनी फिल्मों के कारण आमिर खान के शिखर पर होने का ये मतलब भी निकल रहा है। जो लोग इस मतलब को नहीं समझेंगे वे यह भी नहीं समझ पायेंगे कि हमारे देश के प्रधान मंत्री जिसे सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं और बार बार जिसका बखान कर रहे हैं वह खतरा दिनों दिन ज्यादा से ज्यादा जिलों में क्यों फैलता जा रहा है। देश जिन साठ शहरों में फलता फूलता नजर आ रहा है उनमें भी अगर चेतना और विवेक जागने लगे तथा अच्छे बुरे की पहचान होने लगे तो समाज में परिवर्तन की सम्भावनाओं को पढा जाना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, जुलाई 23, 2010

भाजपा में मुख्यमंत्री चयन निष्कासन प्रणाली में धन की भूमिका


भाजपा में मुख्यमंत्री की चयन-निष्कासन प्रणाली में धन की भूमिका
वीरेन्द्र जैन
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विधान सभा में विपक्ष के हंगामे के बाद और दो दिन तक लगातार सदन स्थगन होते रहने के बाद अपने विवादास्पद बयान का भाष्य करना स्वीकार किया। समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों को गलत ठहराते हुए उन्होंने अपने कथन का आशय स्पष्ट करते हुये सन्दर्भित भाषण की सीडी भी जारी करवाई जिसके अनुसार वे उसमें कहते नजर आते हैं–
“प्रदेश में जिनके खिलाफ कार्यवाही होती है, वे परेशान होते हैं, वो बिलबिलाते हैं। यहाँ तक सोचते हैं कि यह मुख्यमंत्री न रहे। इसके लिए पैसे इकट्ठा करो, जोड़ तोड़ करो। इसको मत रहने दो। मैं सच बता रहा हूं, इस स्तर तक कोशिशें करते हैं। जो पैसे वाले लोग हैं, जो माफिया हैं वो इस स्तर तक जाने की कोशिश करते हैं। इन्दौर में हमने अभियान चलाया भू माफियाओं के खिलाफ। एक नहीं, , बड़े बड़े माफिया जेल में हैं, और हमने यही काम इस सीमा तक किया है कि आपको पता है कि अगर किसी ने गलत काम किया है तो चाहे भाजपा में ही क्यों न हो। एक उदाहरण मर्डर का सामने आया, एक बड़ा आदमी, जिसके बारे में आपको पता ही है कि वह् कहाँ है........यह कोई नहीं मानता था कि इन्दौर में भूमाफिया पर कार्यवाही होगी। कांग्रेस सरकार में ये सब फले फूले। आप सब जानते हैं कि ये किसी पार्टी के भी नहीं हैं। ये लोग तो सरकारी होते हैं। जिसकी आयी उसके संग। लोग सोचते थे कि हमारा कोई क्या करेगा। यह सोचते थे कि कि पैसे के प्रभाव से चीजें रोकी जा सकती हैं। लेकिन मैं आप सब लोगों को विश्वास दिलाता हूं कि जब तक मैं हूं, गलत काम नहीं होने दूंगा। जो गलत काम करेंगे, चाहे वे जितने बडे हों, उनके खिलाफ लड़ाई जारी रहेगी। ..................“ [सन्दर्भित अंश]
वैसे तो इस भाषण के आधार पर कोई भी समझ सकता है कि कि प्रदेश का भूमाफिया उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए प्रभाव बनाने हेतु पैसे एकत्रित कर रहे हैं, क्योंकि वे स्वयं ही कह रहे हैं कि भूमाफिया ऐसा करते हैं और उन पर कार्यवाही करके उन्होंने वैसा करने का आधार भी दिया है। वे जोर दे के कहते हैं कि – जब तक मैं हूं, मैं गलत काम नहीं होने दूंगा- अर्थात आसन हिलाया जा रहा है। उन्होंने अपने भाषण में जो इकलौता उदाहरण पेश किया वह इन्दौर के एक बड़े भूमाफिया पर हाथ डालने के दुस्साहस का था। इस भूमाफिया से सम्बन्धित गिरोह के बारे में पिछले महीने भर से अखबारों में यह छपता रहा है कि वह प्रदेश के एक सबसे दबंग और भ्रष्ट मंत्री का कृपा पात्र है तथा मुख्य मंत्रीजी उस मंत्री का बाल भी बांका नहीं कर पा रहे हैं। वह मंत्री और उसके गिरोह के अधिकारी अपने खिलाफ चल रही जाँचों में सहयोग ही नहीं कर रहे हैं और फाइलें गायब करा दे रहे हैं, बाद में जिनमें से कोई फाइल अगर मिलती है तो वो भी मुख्य मंत्री के दाहिने हाथ बने मंत्री के पास से मिलती है। मध्य प्रदेश के लोकायुक्त में भले ही संतोष हेगड़े जैसा साहस न हो, किंतु वे भी यदा कदा जाँच अधिकारियों को फटकार लगाने की औपचारिकता करते रहते हैं।
भू माफिया [या किसी भी दूसरे तरह के अपराधियों] पर कार्यवाही करना किसी भी मुख्यमंत्री के दायित्वों का हिस्सा है और ये काम करने के लिए भी अगर कोई मुख्य मंत्री जनता से श्रेय चाहता है, तो कल के दिन वो स्वतंत्रता दिवस के दिन झंडा फहराने के लिए भी ऐसी ही अपेक्षा करने लगेगा। अगर प्रदेश के पिछले मुख्य मंत्रियों की तुलना में पहल लेने का सवाल है तो पिछले सात साल से भाजपा का ही शासन रहा है और पिछले दो मुख्य मंत्री भी भाजपा के ही रहे हैं इसलिए इस दायित्व के बहुत मामूली से काम को पूरा करने के आधार पर वे अपनी पार्टी और पूर्व मुख्यमंत्रियों की तुलना में स्वयं को ही कर्मठ दिखाना चाह रहे हैं। जिस इन्दौर के भू माफिया को हवालात में भेजने के आधार पर वे अपनी पीठ थपथपा रहे हैं उसी इन्दौर में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी कई करोड़ का एक अवैध रूप से निर्मित मार्केट डायनामाइट से उड़वाने की कार्यवाही कर चुके हैं। किंतु मुख्य मंत्री को समझना चाहिए कि ऐसे इक्के दुक्के कार्यों से व्यवस्था नहीं बदलती जिसकी सच्चाई सामने दिख रही है, और पूरे प्रदेश की राजनीति में निर्भयता से माफिया ही छाये हुये हैं।
यदि मुख्यमंत्री की सूचना को विश्वसनीय मान कर चलें तो सवाल उठता है कि ये भूमाफिया मुख्यमंत्री को हटाने के लिए पैसा क्यों एकत्रित कर रहे हैं? विधि अनुसार मुख्यमंत्री चुने हुये विधायकों के बहुमत का समर्थन मिलने से बनता है, किंतु भाजपा द्वारा बहुमत प्राप्त राज्यों में मुख्य मंत्री हाई कमान चुन कर भेजता है जिस पर विधायकों को सहमति देना पड़ती है। शिवराज ऐसे ही मुख्यमंत्री हैं। 2003 के विधान सभा चुनावों में सांसद होते हुए भी हाईकमान के निर्देशानुसार उन्होंने दिग्विजय सिंह के खिलाफ विधान सभा चुनाव लड़ा था और उसमें वे पराजित हो गये थे। बाद में जब उमा भारती को स्तीफा देना पड़ा तब एक बार फिर दिल्ली से शिवराज सिंह को अरुण जैटली के साथ भेजा गया था ताकि उनकी ताजपोशी की जा सके, किंतु सचेत उमा भारती ने 97 विधायक अपने समर्थन में जोड़ रखे थे और इसी शर्त पर स्तीफा देने को तैयार थीं कि मुख्यमंत्री उनकी पसन्द का ही होगा। बाद में उन्होंने अपना राज पाट बाबू लाल गौर को सौंपा था जिन पर उन्हें ये भरोसा था कि समय आने पर वे उनके लिए कुर्सी छोड़ देंगे। वे तैयार भी थे किंतु पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व तो शिवराज को ही मुख्यमंत्री बनाना चाहता था, इसलिए उन्हें सख्ती से ऐसे किसी भी आचरण और बयान के लिए रोक दिया गया था। बाद में उन्हें हटा कर विधान सभा के लिए जनादेश न पाने वाले शिवराज को मुख्यमंत्री की तरह थोप दिया गया व सुश्री उमा भारती यह चिल्लाती ही रह गयीं कि विधायकों के बहुमत की राय ली जाना चाहिए। मजबूरी में उन्हें ही पार्टी को छोड़ देना पड़ा और विधायक भी भावी सम्भावनाओं को देखते हुए शिवराज की जय जय कार करने लगे।बाद में विधानसभा का उप चुनाव वे मुख्यमंत्री के रूप में जीते व उसके लिए भी निर्वाचन आयोग को चुनाव की तिथियां बदलना पड़ी थीं व जिलाधीश को हटाना पड़ा था।
जब भाजपा में मुख्यमंत्री चुने जाने का कोई लोकतांत्रिक ढंग नहीं है तो तय है कि भूमाफिया द्वारा भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को प्रभावित करने के लिए ही धन एकत्रित किया जा रहा होगा, क्योंकि मुख्यमंत्री का मनोनयन तो वही करते हैं।
इतना ही नहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री इतने आशंकित हैं कि गत दिनों उन्होंने उज्जैन की एक रैली को सम्बोधित करते हुए कहा कि जब तक जिऊंगा आपके [जनता के] लिए जिऊंगा और जरूरत पड़ी तो आपके लिए जान भी दे दूंगा। विडम्बना यह है कि मुख्यमंत्री मंत्रिमण्डल में मंत्री रखने के अपने विशेष अधिकार का उपयोग करते हुए वे भू माफिया को संरक्षण देने वाले मंत्री को तो हटा नहीं पा रहे हैं किंतु जीने मरने की बातें करके लोगों की सहानिभूति जरूर बटोर रहे हैं। एक सम्भावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि यह उमा भारती को पार्टी में प्रवेश देने से रोकने के लिए हाई कमान पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा है। रोचक यह है कि इस प्रकरण पर कैलाश विजयवर्गीय समेत मंत्रिपरिषद के अधिकांश सदस्य कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं और वेट एंड वाच की नीति पर अमल कर रहे हैं, क्योंकि पता नहीं कल के दिन कौन ज्यादा धन जोड़ ले और मुख्यमंत्री पद खरीद ले। विधायक तो थाना खरीदने के लिए मुख्यमंत्री के सामने खुले आम आफर दे ही रहे हैं।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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रविवार, जुलाई 18, 2010

राजनेताओं की गालियां और नारी विमर्श


राजनेताओं की गालियाँ और नारी विमर्श
वीरेन्द्र जैन
स्वयं को सांस्कृतिक संगठन बताने वाली राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा नियुक्त भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उत्तरांचल की एक आम सभा में भाषण करते हुए कहा कि अफज़ल गुरू क्या कांग्रेस का जमाई लगता है या कांग्रेस ने उसे अपनी बेटी दे रखी है जो उसको फाँसी नहीं दे रही। संघ परिवार किसी भी समस्या को हिन्दू मुस्लिम समस्या की तरह प्रस्तुत करने के खेल पर चलता है ताकि समाज का ध्रुवीकरण करा के स्वयं को बहुसंख्यकों का प्रतिनिधि बतला कर वोट बटोरे जा सकें। उनके इस इकलौते कार्यक्रम में पिछले दिनों ईसाइयों द्वारा धर्म परिवर्तन का मुद्दा भी गाहे वगाहे जोड़ दिया जाता है ताकि इस बहाने सोनिया गाँधी पर प्रहार किया जा सके, जो संयोग से राष्ट्रव्यापी इकलौती पार्टी के धुरी हैं और अपने पैतृक धर्म से ईसाई हैं।

समाज के ध्रुवीकरण पर राजनीति करने का यह तरीका उनका जनसंघ की स्थापना के समय से ही चला आ रहा है और उनका अस्तित्व ही इसी कौशल पर बना हुआ है। वे कभी गौ हत्या के नाम पर दिल्ली में प्रदर्शन करते हुये संसद पर हमला करा देते हैं तो कभी राम मन्दिर के नाम पर बाबरी मस्ज़िद ध्वंस करने के लिए रथ यात्राएं निकालते हैं। उनकी राजनीति के प्रमुख मुद्दों में समान आचार संहिता, धारा 370 की समाप्ति, बंगला देश से आये शरणार्थियों में से मुस्लिम शरणार्थियों को बाहर निकालने आदि कभी भी उठाये जाने वाले मुद्दों में से हैं। कभी कोई नये मन्दिर का निर्माण न कराने वाले और सूने पड़े धमस्थलों के बारे में न सोचने वाले इस संगठन को हमेशा वे ही धर्मस्थल याद आते हैं जो विवादित होते हैं और जिन के बहाने अल्पसंख्यकों से विवाद भड़काया जा सकता हो, इनमें चाहे काशी मथुरा की इमारतें हों या भोजशाला की हो। वैसे उनकी सूची में साढे तीन सौ इमारतों की सूची सुरक्षित है। अफज़ल को फाँसी देने के बारे में भी उनकी चिंताएं देश की अस्मिता के खिलाफ दुस्साहस करने वाले अपराधी को फाँसी देने की चिंताएं नहीं हैं क्योंकि फाँसी की सजा पाये तो बहुत सारे लोग पहले से ही सूची में हैं, अपितु उनका जोर इसे हिन्दू बनाम मुस्लिम बनाने पर है। एक बड़े राजनीतिक दल के अध्यक्ष के रूप में न केवल विषयों के चयन में ही दूरदर्शी होन पड़ता है अपितु भाषा के चयन में शालीन और संयमित होना पड़ता है, इतिहास बताता है जब राजीव गाँधी पर अचानक एक बड़ी ज़िम्मेवारी आ गयी थी और उन्होंने किसी दूसरे का लिखा “बड़े पेड़ के गिरने पर धरती हिलने वाला” वाक्य बोल दिया था तो वह वाक्य हमेशा ही उनके साथ चिपका रहा, और न केवल उनके जीवन काल में अपितु उसके बाद भी इस एक वाक्य को उनके खिलाफ उदाहरण की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा। गडकरी का वाक्यविन्यास तो न केवल एक राजनीतिक दल के अध्यक्ष की गरिमा को ही गिराते हैं अपितु शालीनता की भी सारी हदें तोड़ते रहते हैं। गडकरी के गाली प्रयोग से दो सवाल उठते हैं, पहला तो यह कि उनके पास अपनी बात कहने के लिए उचित राजनीतिक भाषा और प्रतीकों का अभाव है और दूसरा यह कि वे नारी को दोयम दर्जे का नागरिक मानने वाले पिछड़े लोगों में से हैं। यह इसलिए कि हमारे यहाँ जितनी भी अशालीन गालियाँ हैं वे सभी नारियों को केन्द्रित करके दी जाती हैं, इसके विपरीत जितने भी आशीर्वाद हैं वे पुरुषों के हित में दिये जाते हैं। यहाँ तक कि जब नारी को आशीर्वाद दिया जाता है कि सौभाग्यवती रहो, तो वह भी नारी को पुरुष हित के प्रतिफल के रूप में प्राप्त होने वाला आशीर्वाद है जो मूल रूप से उसके लिए नहीं है। इसलिए जब भी अशालीन गाली का प्रयोग किया जाता है तो वो परोक्ष में एक महिला विरोधी कदम भी होता है। पुरातन काल, जिसकी संघ परिवार प्रसस्ति गाता रहता है, में जब महिलाओं को समानता देने का विचार भी सामने नहीं आया था तब वे सम्पत्ति के रूप में मानी जाती थीं तथा उनके पति उनके स्वामी, मालिक आदि कहलाते थे। लोकतांत्रिक विकास ने इस अवधारणा को बदला है और नागरिकता में लिंग भेद न मानने वाला हमारा संविधान नारी और पुरुष को समान नागरिक मानता है। दो भिन्न धर्मों के बीच होने वाले विवाह में साम्प्रदायिक लोग हमेशा इस बात को आधार बनाते हैं कि अगर हमारी बेटी ने किसी दूसरे धर्म वाले से शादी की है तो हम पराजित हो गये और यदि हमारे किसी बेटे ने दूसरे धर्म की लड़की से शादी की है तो हम जीत गये। संघ परिवार ने विभिन्न धर्मों के बीच हुये विवाहों पर जो तनाव फैलाने की हजारों कोशिशें की हैं वे हिन्दू लड़कियों द्वारा मुस्लिम लड़कों से शादी करने पर ही की हैं, जबकि हिन्दू लड़कों द्वारा किसी मुस्लिम लड़की से शादी करने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुयी। संघ परिवारी परम्परावादियों के बीच इसी मनोविज्ञान का लाभ उठाना चाहते हैं। यह नारी और उसके अधिकारों को दोयम दर्जे का बनाये रखने की कोशिश भी है।
यदि गडकरी की गाली पर भाषा और समाज शास्त्र की दृष्टि से विचार करें तो हम पाते हैं कि कांग्रेस कोई व्यक्ति या परिवार नहीं है एक संस्था है। इसलिए बेटी या बेटा कांग्रेस का नहीं अपितु उसके सदस्यों का ही हो सकता है। [जैसे प्रज्ञा ठाकुर संघ की बेटी नहीं हो सकती] चूंकि कांग्रेस भाजपा के विपरीत एक धर्म निरपेक्ष संस्था है इसलिए उसमें समान अनुपात में सभी धर्मों के मानने वाले सदस्य होंगे, और कोई आरोपी किसी का दामाद भी हो सकता है या बहू भी हो सकती है, या कोई भी रिश्तेदार हो सकता है। किंतु क्या कानूनी और प्रशासनिक फैसले किसी रिश्तेदारी के आधार पर तय होते हैं! क्या किसी कांग्रेसी ने कभी अफजल को बेकसूर बताया है या फाँसी के फैसले को गलत बताया है? किंतु जब अटल बिहारी बाजपेयी ने राहुल महाजन की शर्मनाक हरकत को जवानी की भूल बता कर हल्का करने की कोशिश की थी और संघ समेत किसी ने भी उनकी निन्दा तक नहीं की थी। यह कैसी बिडम्बना है एक और तो अफजल को फाँसी से बचाने के लिए वकालत करने वाले राम जेठमलानी को पार्टी के एक बड़े वर्ग के विरोध के बाबजूद राज्य सभा का सदस्य चुनवा दिया जाता है और दूसरी ओर अफजल की फाँसी को एक प्रमुख दल का अध्यक्ष अपना प्रमुख मुद्दा बनाता है, जबकि अटल सरकार के समय ही तीन तीन दुर्दांत आतंकवादियों को विमान में बैठा कर छोड़ा गया था। ऐसा लगता है कि गडकरी जी जनता की राजनीतिक चेतना को और मीडिया की पहुँच को समझने में भूल कर रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, जुलाई 14, 2010

स्वयंसेवी और गैरसरकारी संगठनों में पारदर्शिता का अभाव

स्वयंसेवी और गैर सरकारी संगठनों में पारदर्शिता का अभाव
वीरेन्द्र जैन
स्वयंसेवी संगठन बहुत लम्बे काल से चले आ रहे हैं जो कभी रास्तों में प्याऊ लगवाते थे, धर्मशालाएं, अनाथाश्रम, विधवाश्रम, भंडारे, अस्पताल और स्कूल चलवाते थे। ऐसे स्वयंसेवी संगठन चलाने वालों के प्रति न केवल लाभान्वित लोगों द्वारा धन्यवाद का भाव उभरता था अपितु वे सब जिनके मन में दूसरों के लिए कुछ करने का भाव होता था किंतु जो अपनी सीमाओं के कारण कार्यांवित नहीं कर पाते थे, उनके मन में भी श्रद्धा का भाव पैदा होता था। ये सारा काम समाज का अपेक्षाकृत सम्पन्न वर्ग अपनी आवश्यकता से अधिक कमाई में से करता था व विपन्न वर्ग अपनी निःस्वार्थ सेवाएं देता था। छुट्पुट रूप से ये संस्थान अभी भी कार्यरत हैं पर इन से अलग दो तरह के संस्थान तेजी से उभरे हैं, एक, सन्युक्त राष्ट्र संघ आदि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से चलने वाले संगठन, दूसरे सरकार द्वारा जन कल्याण योजनाएं ठीक से नहीं चला पाने के कारण गैर सरकारी संगठनों को अनुदान देकर काम करवाने की योजना के अंतर्गत काम करने वाले गैर सरकारी संगठन। ये दोनों तरह के संगठन इतनी तेजी से उभरे हैं कि इनकी बाढ सी आ गयी है। वैसे तो बाढ में कचरा आता ही है किंतु यह बाढ ऐसी आयी है जिसने केवल कचरा ही कचरा कर दिया है और कीचड़ ही कीचड़ फैला दिया है।
गत दिनों एक मित्र ने जब कुछ अच्छे सुझाव रखे और मैंने उनके कार्यांवयन के लिए उन्हें एक गैर सरकारी संगठन बनाने की सलाह दी तो उन्होंने कानों से हाथ लगाते हुए कहा कि जब मैंने सारी उम्र पाक साफ तरीके से गुजार दी है तो क्यों जीवन के उत्तरार्ध में कलंकित होने के काम करूं। उन्होंने यह कह कर तो अपनी घृणा को और तीव्रता से प्रकट कर दिया कि जब भी जहाँ भी आप किसी ऐसी संस्था का बोर्ड देखें तो समझ लेना कि यहाँ कोई चोर रहता है। उनका यह कथन बहुत सारे मामलों में इतना कटु सत्य है कि जो अच्छे लोग समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं वे भी इस काजल की कोठरी में उतरने से डरने लगे हैं। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि इन संगठनों के लिए एक ओर तो पिछले कुछ वर्षों में अथाह पैसा उपलब्ध हुआ है पर उनकी कार्यप्रणाली, वित्तीय व्यवस्था और कार्य मूल्यांकन की कोई उचित प्रणाली विकसित नहीं हो सकी है। आज बहुतायत में ऐसे गैरसरकारी संगठन कार्यरत हैं जिनका काम केवल योजनाएं बनाना और धन स्वीकृति के बाद कार्य निष्पादन की झूठी रिपोर्ट तैयार करना है। उनके इस कार्य में प्रोजेक्ट स्वीकृत करने वाले अधिकारी और उसे स्वीकृत कराने वाली दलाल संस्थाएं भी पैदा हो गयी हैं, जो प्रोजेक्ट तैयार करने का प्रशिक्षण देने के नाम पर खुले आम दलाली कर रही हैं। जो लम्पट लोग आवश्यकता पढने पर सौ पचास लोग एकत्रित करने और किसी चर्चित व्यक्ति को मुख्य अतिथि की तरह बुला सकने में सक्षम हैं वे कोई न कोई फर्जी गैर सरकारी संस्था खोले बैठे हैं। बहुत सारे जाति समाज के संगठन और राजनीतिक दलों से जुड़े आनुषंगिक संगठन इस तरह की संस्थाएं खोले बैठे हैं जो किसी भी नाम से बुलायी गयी भीड़ को अपने बैनर के साथ जोड़ कर अपनी कार्य रिपोर्ट बना लेते हैं। छोटे समाचार पत्र जिनके पास अपना कोई फील्ड रिपोर्टेर नहीं होता वे ऐसे संगठनों द्वारा दिये गये समाचार जस के तस छाप कर उनकी रिपोर्ट का झूठा आधार तैयार कर देते हैं।
जो गोष्ठियाँ या सेमीनार आयोजित किये जाते हैं उनके प्रतिभागियों की योग्यता केवल आयोजकों से उनके सम्बन्ध होना भर होती है। किसी प्रतिभागी को यह पता नहीं होता कि इस सेमीनार के लिए कितनी राशि स्वीकृत हुयी थी और वह किस किस मद में कितनी कितनी खर्च होना थी और वास्तव में कितनी हुयी। इन सेमिनारों के निष्कर्षों के प्रयोग और प्रतिफल की जानकारी किसी प्रतिभागी को नहीं होती। उच्च श्रेणी में यात्रा, आरामदायक होटल में निवास और वातानुकूलित हाल में ऊंघते लोगों के बीच वर्षों से रौंदे जा रहे विचारों का पुनर्पाठ ही आयोजन को सम्पन्न कर देता है। भूलवश यदि कभी कोई अपने मौलिक विचारों के आधार पर यथार्थवादी असहमति प्रकट करता है तो वह उक्त संस्थाओं में ब्लेक लिस्टेड हो जाता है। नये विचारों और नई सम्भावनाओं में कोई हाथ नहीं डालना चाहता। ऐसे अनेक लोग हैं जो समाचार पत्र पत्रिकाओं में निरंतर अपने मौलिक विचारों से समाज को परिचित कराते रहते हैं किंतु उन्हें कोई सेमिनार आयोजक बुलाने का खतरा मोल लेकर अपना ‘शो’ नहीं बिगाड़ना चाहता। आकाशवाणी दूरदर्शन जैसी संस्थाएं भी अपने प्रयास से नई प्रतिभाओं की खोज नहीं करतीं। शायद उनके यहाँ चयन की कोई प्रणाली नहीं है और अगर होगी तो वह केवल उनकी फाइलों की शोभा बढाती होगी।
समाज में जब भी अनार्जित धन का प्रवेश होता है वह अनेक तरह की विकृत्तियां लेकर आता है। गैर सरकारी संगठनों में भी धन का यह प्रवाह बहुत सारे मामलों में न केवल विकृत्तियां ही पैदा कर रहा है अपितु देश और दुनिया को स्वास्थ और शिक्षा समेत अनएक समाज सुधार कार्यक्रमों के बारे में उस काम के किये जाने की गलत सूचना दे रहा है जो वास्तव में किया ही नहीं गया हैं। पिछले दिनों आर के लक्षमण ने चुनावों के दौरान एक कार्टून बनाया था जिसमें एक पेड़ के नीचे फटे कपड़ों और बिखरे बालों में बैठे ग्रामीणों के सामने एक नेताजी अपनी उपल्ब्धियाँ बता रहे हैं जिसे सुनकर वे ग्रामीण आपस में कहते हैं कि हमारे लिए इतना कुछ हो गया और हमें पता ही नहीं चला।
अगर सरकार चाहे तो इस त्रुटि को दूर कर सकती है यदि ऐसी संस्थाओं के काम काजों और वित्तीय प्रबन्धन में पारदर्शिता को सुनश्चित कर सके। जब कारपोरेट जगत को अपनी बैलेंस शीट और वार्षिक रिपोर्ट सार्वजनिक करना अनिवार्य है, जब राजनेताओं को अपनी सम्पत्ति घोषित करना जरूरी बना दिया गया है तो गैर सरकारी संगठनों और अनुदान प्राप्त करने वाली स्वयं सेवी संस्थाओं को अपने द्वारा किये गये कार्य और वित्तीय प्रबन्धन को सार्वजनिक करना क्यों जरूरी नहीं किया जा सकता। जब पंचायतें किये जाने वाले कामों को पंचायत भवन की दीवारों पर लिखवाती हैं तो गैर सरकारी संगठनों को अपने कार्य क्षेत्र किये गये कामों को दीवालों पर क्यों नहीं लिखवाना चाहिए। एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि अगर आजादी के बाद किये गये विकास कार्यों के आंकड़ों को क्षेत्रवार बाँट कर देखा जाये तो पूरा देश ही हरा भरा और सम्पन्नता से लबालब नजर आयेगा किंतु यथार्थ दुष्यंत के एक शेर में कहा गया है-
यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियां
हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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बुधवार, जुलाई 07, 2010

आरक्षित पद समानुपातिक प्रणाली से भरे जायें


आरक्षित पद समानुपातिक प्रणाली से भरे जायें
वीरेन्द्र जैन
हमारे संविधान ने सदियों से चले आ रहे भेदभाव को दूर करने के लिए समाज के उन वर्गों को समुचित प्रोत्साहन देने के प्रावधान किये हैं जो दबे कुचले रहे हैं तथा सामाजिक आर्थिक रूप से समाज के निचले पायदान पर स्थापित किये जाते रहे हैं। संसद और विधान सभाओं के पदों लिए संविधान निर्माताओं ने यह आरक्षण प्रारंभ में दस साल के लिए रखा था और ऐसा करते समय हमारे संविधान निर्माताओं को भ्रम था कि दस साल में ही समाज में ऐसी एकरूपता आ जायेगी जिससे सब सामाजिक रूप से समान हो जायेंगे और बाद में वे स्वतंत्र प्रतियोगिता के बाद योग्यता के आधार पर अपनी प्रतिभा के उपयुक्त स्थान पाने लगेंगे। बाद के हालात ने यह सिद्ध किया कि यह एक बेहद सुखद सपना था या कहें कि कि देने वालों ने किसी मजबूरी में बड़े बेमन से बिना सोचे विचारे यह भ्रम पाल लिया था।
सामाजिक व्यवहारों की जड़ें इतनी सतही नहीं होती हैं कि फूंक मारने से उखड़ जायें अपितु वे ऐसी हवाओं से और अधिक पुष्पित पल्लवित होती हैं। सामाजिक परिवर्तन हमेशा सामाजिक क्रान्तियों से ही आते हैं तथा वे तूफान ही इन बुराइयों के वटवृक्षों का उन्मूलन कर सकते हैं। यद्यपि आरक्षण व्यवस्था के द्वारा कुछ लोगों को रेवड़ियां अवशय मिली हैं किंतु उसका लाभ उन्हें व्यक्ति रूप में ही हुआ है जबकि आरक्षण का उद्देशय उनकी जातियों के उत्थान का था। जिन व्यक्तियों को इसका लाभ मिला उन्होंने इसे अपनी पूरी जाति के साथ बांट कर नहीं भोगना चाहा अपितु अपने जाति भाइयों से काट कर खुद को उन लोगों के साथ बैठा लेने की कोशिश की जो भेद भाव को मानते आ रहे थे और उसे दूर करने के पक्ष में नहीं थे।
परिवर्तन का यह प्रयास ही असल में उल्टा चला। कोई भी स्वयं को दलित पिछड़ा ओर शोषित नहीं बनाये रखना चाहेगा अपितु उन्हें दलित शोषित और पिछड़े वे लोग बनाते हैं जो उनकी इस दशा से आर्थिक सामाजिक और मानसिक रूप से लाभान्वित होते हैं। वे ही लोग इनकी दशा में सुधार के विरोधी भी होते हैं। इसलिए सुधार की आवश्यकता दोनों तरफ से ही थी। जहाँ एक ओर वंचित वर्गों को प्रोत्साहित किये जाने के प्रयास होने थे वहीं दूसरी ओर अपने को उच्च मानने वाले वर्गों की मानसिकता बदलने के लिए उनके अधिकारों और विशिष्ट स्थितियों में कठोरता पूर्वक कमी लाने के प्रयास होने चाहिये थे। अभी हुआ ये है कि वंचित वर्ग के चन्द लोगों को जो थोडे से अवसर दिये गये हैं उसकी तुलना में शोषकवर्ग की आर्थिक सामाजिक शौक्षणिक दशा में उससे भी अधिक तेजी के साथ विकास हुआ है। सवर्णों में कम योग्य लोगों के वंचित हो जाने का कारण भी आरक्षण बतला कर उनकी नफरतों में और भी वृद्धि कर दी गयी है जिसके फलस्वरूप शोषण और दमन के लिए वे और अधिक आक्रामक और संगठित हो गये हैं। आंकड़े बताते हैं कि जो गैर दलित लोग संविधान लागू होने के पूर्व जिस आर्थिक सामाजिक हैसियत में थे वे अब उससे भी बहुत अधिक अच्छी स्थिति में हैं किंतु दलितों व अन्य वंचित वर्गों की दशा में उस अनुपात में विकास नहीं हुआ है और ना ही उनकी मानसिकता में परिवर्तन ही हुआ है जिससे सामाजिक भेद भाव कम नहीं हो सका है।
गांवों और कस्बों में जहाँ पर आदमी की अपनी पहचान होती है वहाँ तो हालात में बहुत ही मामूली सा परिवर्तन ही आया है। दूसरी ओर आरक्षण के द्वारा जो पद सुरक्षित किये गये थे उन पर भले ही अनुसूचित श्रेणी के परिवार में जन्मे व्यक्तियों को ही अवसर मिला है किंतु वे लोग अपनी जाति के उत्थान के पक्षधर और प्रतिनिधि न होकर उन लोगों के कारिन्दे सिद्ध हुये जिन्होंने उन्हें उन पदों पर आने में मदद की थी। इससे कुछ व्यक्तियों को तो पद पर बैठने व उसकी सुख सुविधाओं को पाने का अवसर मिल गया पर आरक्षण का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। जिन चुनाव क्षेत्रों को अनुसूचित वर्ग के प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित किया गया था उनमें भी चुनाव का फैसला तो सवर्ण मतदाताओं के हाथ में ही रहा जिससे भी आरक्षण का लाभ अन्तत: व्यक्ति केन्द्रित ही रहा।
गत वर्षों से आरक्षण का लाभ लेने के लिए विभिन्न जातियाँ स्वयं को अनूसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ावर्ग या अल्पसंख्यकों में सम्मिलित कराने के लिए सक्रिय हुयी हैं तथा वोटों की राजनीति करने वाली पार्टियां उनकी इन मांगों को बिना सोचे समझे हवा ही नहीं दे रहीं अपितु अपनी ओर से भी उनको झूठे आश्वासन देने में जुट गयी हैं। यह घोर आशचर्य की वस्तु है कि जो जातियाँ संविधान के निर्माण के समय अनुसूचित जातियों जनजातियों पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों में नहीं मानी गयीं वे आजादी के साठ साल बाद धर्म जाति रंग भाषा और क्षेत्र के भेद न रखने वाले संविधान के लागू रहने के बाद, अपने को अनुसूचित जाति जनजाति में सम्मिलित करने के लिए हिंसक हो रही हैं। यह कितना शर्मनाक है कि दलितों वंचितों के उत्थान की बात तो पीछे छूट गयी और जो दलित वंचित नहीं समझे गये थे वे अब साठ साल बाद उनमें सम्मिलित होकर सरकारों से यह मनवा रहे हैं कि उनके राज में जिनके लिए कुछ करने का तय किया था उनके लिए तो कुछ भी नहीं हो सका अपितु कुछ गैर दलित आदि वर्ग उस श्रेणी में और आ गये हैं। इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह है कि सरकारें अपने राजनीतिक स्वार्थें में अंधी होकर इन मांगों को स्वीकार कर रही हैं।
आरक्षण के क्षेत्र में ताजा मामला संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण का है। राजनीतिक गठबंधनों के जो हालात हैं उन में वामपंथियों को छोड़ कर कोई भी बड़ा गठबंधन अभी तक अपने अनेक प्रमुख घटक दलों को आरक्षण के लिए नहीं मना सका है तथा उनके तुष्टीकरण के कारण ही यह बिल अभी तक लटक रहा है। अल्पमत सरकार के किन्हीं दबावों के कारण गत अधिवेशन में भले ही उसे प्रस्तुत कर दिया गया हो किंतु उस पर बहुमत का मौखिक समर्थन होते हुये भी यह संभव प्रतीत नहीं होता कि वह शांतिपूर्वक पास हो सके। मेरे विचार में उचित तो यह होगा कि सीधे चुनाव वाले सारे आरक्षण एक साथ ही समाप्त कर दिये जावें और आरक्षित पदों के लिए समानुपातिक प्रणाली द्वारा उन्हें भरा जाये। चुनाव का फार्म भरते समय ही प्रत्येक दल को प्रत्येक आरक्षित वर्ग में अपना पैनल घोषित करना अनिवार्य किया जावे। इससे उन वर्गों के वोट पाने के लिए दलों को मजबूर होकर यह प्रकट करना होगा कि वे क्या चाहते हैं और इसके साथ साथ जनता भी यह बता देगी कि वह क्या चाहती है। वैसे भी दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक मतदाताओं का बहुमत निर्मित करते हैं और वे पैनल के अनुसार अपने दल का चुनाव कर सकते हैं व उसके साथ ही साथ दूसरी सामाजिक आर्थिक राजनीतिक घोषणाओं के साथ उनका समन्वय भी बैठा सकते हैं। महिला के प्रतिनिधित्व के लिए जेडी(यू), राजद और समाजवादी पार्टी जैसे दल उनको मिले समस्त वोटों के आधार पर पिछड़े वर्ग की महिलाओं को सदन में भिजवा सकते हैं तो बहुजनसमाज पार्टी दलितवर्ग की महिलाओं को सदन में भेज सकती है। वामपंथी दल महिला श्रमिक नेताओं को भेज सकते हैं। गैर मान्यताप्राप्त दल अपने मतों को मान्यताप्राप्त दलों के शेष बचे मतों के साथ जोड़ कर किसी मान्य उम्मीदवार को चुनवा सकते हैं। इसी से मिलती जुलती प्रणाली अनुसूचित जाति जनजाति तथा पिछड़ों के लिए भी की जा सकती है।
इस प्रणाली का एक लाभ यह भी होगा कि देश और समाज में जातिवादी बुराई पर रोक लग सकेगी क्योंकि सीधे सीधे जाति आधारित चुनाव नहीं होगा तथा मतदाता को यह पता होगा कि किस पार्टी ने किस जाति के प्रतिनिधि को अपने पैनल में किस क्रम पर रखा है। जो लोग पैनल की जगह पार्टी के कार्यक्रम और घोषणा पत्र पर वोट देते हैं उन्हें भी किसी मजबूरी के आधार पर वोट देने के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा। जो लोग अपनी पार्टी में अपने को आवंटित क्रम से सन्तुष्ट नहीं हैं वे सीधे स्वतंत्र चुनाव भी लड़ सकते हैं।
उससे दोनों ही तरह की बुराइयों पर रोक लगेगी तथा विचार और कार्यक्रमों की राजनीति को बल मिलेगा क्योंकि तब प्रत्येक दल अपने उम्मीदवार की जगह अपनी पार्टी के लिए भी वोट मांगेगा और अपने कार्यक्रम को सामने रखेगा। दूसरी ओर वोट काट कर जीतने के लिए बोगस उम्मीदवार खड़ा कर देने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। सीधे चुनाव में एक भी सीट न पा सकने वाली पार्टी भी अपने कुछ आरक्षितवर्ग के प्रतिनिधि भेजने में सफल हो सकती है।

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