मंगलवार, मार्च 30, 2010

लिव इन के फैसले पर फैलते फालतू लोग

लिवइन के फैसले पर फैलते फालतू लोग
वीरेन्द्र जैन
लिव इन सम्बन्धी एक रिट याचिका पर आये अदालती फैसले पर एक वर्ग बहुत नाक भों सिकोड़ रहा है। पर साथ ही उसे यह अहसास भी है कि एकल परिवारों में बँट चुके समाज में किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दखल देने की कोई अपील कारगर नहीं होगी इसलिए वे फैसले के साथ एक जन विश्वास की टिप्पणी को बतौर उदाहरण देने के बहाने धार्मिक भावनाएं उकसाने का प्रयास कर रहे हैं। भागवत कथाओं से लेकर हज़ारों लाखों की संख्या में राधा कृष्ण के प्रेम पर भक्ति साहित्य भरा पड़ा है और पूरे देश में राधा कृष्ण के ही मन्दिर पाये जाते हैं जिनकी विधिवत प्राण प्रतिष्ठा की गयी होती है। हाल की घटनाओं से आभास होता है कि भाजपा के दो प्रमुख सितारे कानून की पकड़ में आ सकते हैं इसलिए संघ परिवार इस या उस बहाने न्याय व्यवस्था पर हमला कर उसके प्रति नफरत फैलाने को उतावला होना चाहता है।
सच तो यह है कि नई अर्थ व्यवस्था में नये उत्पादक अपने उत्पादों की बिक्री के लिए समाज में ज़रूरतें पैदा करते हैं जिससे न केवल रहन सहन में परिवर्तन आता है अपितु सामाजिक सम्बन्ध भी बदलते हैं। किंतु प्रत्येक समाज में एक वर्ग ऐसा पैदा हो जाता है जो तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में लाभ की स्थिति में होता है इसलिये वह समाज के किसी भी बदलाव को रोकने का भरसक प्रयास करता रहता है। नये निर्मित होते जाते समाज से उसका टकराव होता है। यथास्थिति से लाभांवित होने वाला वर्ग जमा हुआ, संगठित और सुविधा सम्पन्न होता है इसलिए वह संघर्ष में बेहतर मोर्चे पर होत है जबकि परिवर्तन कामी लोगों को संगठन बनाने से लेकर साधन भी एकत्रित करने होते हैं इसलिए वे कमजोर स्तिथि में होते हैं। नये लोग भले ही तर्क में प्रबल हों किंतु यथास्थिति वाले लोग झूठ और पाखण्ड में माहिर होते हैं तथा कमजोर बुद्धि वालों को भावनाओं में बहा ले जाते हैं।
इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया था जिसमे लिव-इन के अंतर्गत साथ रह रही महिला को सम्पत्ति के अधिकार में विवाहित महिला के बराबर का हक दिया गया था। विवाह, केवल दो देहों के शारीरिक सम्बंधों की सामाजिक व कानूनी स्वीकृति भर नहीं होती अपितु यह पति की सम्पत्ति में पत्नी का अधिकार और संतानों को विरासत कानून के अनुसार सम्पत्ति का अधिकार भी देता है। विवाह से पति पत्नी के अलावा भी परिवार में कई दूसरे रिश्ते बनते हैं। इसके विपरीत लिव इन रिलेशन केवल दो देहों के शारीरिक सम्बंधों को ही स्वीकृति देता था जो कुछ दिनों बाद सामाजिक स्वीकृति तो नहीं बनी पर कानूनी स्वीकृति बन गयी। आज अपने देश में भी हजारों लोग लिव इन रिलेशन के अर्न्तगत साथ रहने लगे हैं
उक्त अधिकार को यदि एक महिला(निर्बल वर्ग) को दिये गये अधिकार की तरह देखा जाये तब तक तो ठीक है किंतु इस अधिकार ने इस रिश्ते का स्वरूप ही बदल दिया है। ये रिश्ता असल में नारी की स्वतंत्रता और समानता का प्रतीक था जबकि विवाह उसकी परतंत्रता और परनिर्भरता का प्रतीक होता है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने भले ही उसे धन का अधिकार दिया हो पर उसे फिर से उसी कैद की ओर जाने का रास्ता खोल दिया है।
सामाजिक स्वीकृति की परवाह किये बिना जो महिला लिव इन रिलेशन में रहने का फैसला करती है वह अपनी मर्जी की मालिक होती है तथा उस पर इस रिश्ते को स्वीकार करने या बनाये रखने के लिए कोई दबाव नहीं होता। वह जब तक चाहे इस रिश्ते को परस्पर सहमति से बनाये रख सकती है और जब चाहे तब इसे तोड़ सकती है। यह रिश्ता समाज में निरंतर चल रहे उन अवैध संबंधों से भिन्न होता है जो पुरूष की सम्पन्नता या सबलता के आधार पर कोई महिला किसी लालच वासना या सुरक्षा की चाह में बनाती आयी है। लिव इन रिश्ते कमजोर महिलाओं द्वारा बनाये रिश्ते नहीं होते अपितु वे स्वतंत्रचेता आत्मनिर्भर महिलाओं द्वारा नारी को पुरूष की तुलना में दोयम न मानने की भावना को प्रतिध्वनित करने वाले रिश्ते हैं। ये रिश्ते अपढ अशिक्षित और कमजोर बुद्धि महिलाओं के रिश्ते नहीं हैं अपितु पढी लिखी बौद्धिक तथा अपना रोजगार स्वयं करने वाली महिलाओं के रिश्ते होते हैं। मेरी दृष्टि में सम्पत्ति के अधिकार सम्बन्धी सुप्रीमकोर्ट का फैसला लिव इन रिश्ते की मूल भावना पर आधात करता है क्योंकि लिव इन रिश्तों को यदि किसी समाज या कानून के आधार पर संचालित किया जाने लगेगा तो फिर वह अंतत: विवाह(बंधन) में ही बदल जायेगा जहाँ असहमति के कई खतरे होते हैं इसलिए सहमति को ऊपर से ओढ कर रहा जाता है। लिव इन रिश्ते को अपनानेवाली महिला को उस निर्बल महिला की तरह नहीं देखा जाता था जैसा कि अवैध संबधों में जीने वाली अपराधबोध से ग्रस्त महिला को देखा जाता रहा है क्योंकि लिव इन वाली महिला किसी संबंध को छुपा नहीं रही होती है, अपितु रूढियों से ग्रस्त समाज के प्रति विद्रोह का झंडा लेकर उनसे टकराने को तैयार खड़ी दिखती है।
कानून के अनुसार धनसम्पत्ति पर अधिकार केवल विवाहित महिलाओं को ही मिलना चाहिये क्योंकि वे मूलतय: कमजोर महिलायें हैं जबकि लिव इन रिलेशन वाली महिला कमजोर महिला नहीं होती। यदि हम अपने पुराणों की ओर देखें तो लिव इन रिश्ते की कुछ झलक दुष्यंत शकुंतला की कहानी में मिलती है जहाँ शकुन्तला न केवल दुष्यंत से अपने दौर का लिव इन (गंदर्भ विवाह) ही करती है अपितु अपने पुत्र को भी पैदा करती है व पालती है। वह दुष्यंत के पास भी पत्नी का अधिकार मांगने नहीं जाती है अपितु एक परिचित के पास मानवीय सहायता की दृष्टि से जाती है। दूसरी ओर दुष्यंत भी इस रिश्ते को दूर तक नहीं ले जाते इसलिए शकुतंला को लगभग भूल ही गये हैं। माना जाता है कि इसी रिश्ते से जन्मे पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा है।
यदि हम दुनियां में लिव इन रिश्तों के जन्म के समय को जाँचने की कोशिश करें तो हम पाते हैं कि ये रिश्ते उस समय विकसित हुये जब परिवार नियोजन की जरूरत ने नारी को माँ बनने या न बनने का अधिकार दे दिया। पशुओं के विपरीत मनुष्यों के बच्चों को अपना भोजन स्वयं अर्जित करने की दशा तक आने के लिए लम्बे समय तक पालना पड़ता है व इस दौर में नारी को अति व्यस्त व कमजोर भी रहना पड़ता है जो उसकी परनिर्भरता को बढाता रहा है, पर जैसे ही वह मातृत्व से स्वतंत्र हुयी वैसे ही उसने नारी स्वातंत्र का झंडा थाम लिया। नारी स्वतंत्रता और नारी अधिकार के सारे आंदोलन इसी दौर में परवान चढे हैं। पुरूषों ने भी इन रिश्तों में विरासत के अधिकार से मुक्त दैहिक संबंधों के कारण स्वयं को स्वतंत्र महसूस किया इसलिए इसे अपनाने में किसी तरह की हिचक नहीं दिखायी। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूसरी ओर उस कमजोर विवाहित महिला के हितों पर भी आघात करता है जो केवल पति की धन सम्पत्ति के कारण कई बार अनचाहे भी वैवाहिक बंधन में बंधी रहती है। जब लिव इन रिश्तों वाली स्वतंत्र महिला उस परतंत्र महिला के सम्पत्ति के अधिकारों पर भी हक बनाने लगी तो वह महिला तो दो़नों ओर से लुटी महसूस करेगी। इसलिए इस अधिकार से उन महिलाओं को तो वंचित रखा ही जाना चाहिये जो शादीशुदा पुरूषों से लिव इन रिश्ता बनाती हैं। यदि लिव इन रिश्तों में भी उसी परंपरागत विवाह के मापदण्ड लागू रहे तो फिर लिव इन रिश्तों में भिन्नता कहाँ रही? यदि इस दशा में सुधार नहीं हुआ तो आपसी विश्वास को ही नहीं अपितु समानता की ओर बढ रहे नारी आदोलन का भी बहुत नुकसान पहुँचेगा।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

रविवार, मार्च 28, 2010

रोमन में हिन्दी और प्याले में तूफ़ान

रोमन में हिन्दी और वासुदेव गोस्वामी। वीरेन्द्र जैन
असगर वज़ाहत जैसे वरिष्ठ हिन्दी लेखक ने हिन्दी को बचाने के लिए जनसत्तामें दो लेख लिख कर ऐसी बहस छेड़ दी है कि बहुत सारे लोग उत्तेजित हुये घूम रहे हैं। उनका सुझाव था कि इस वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी को रोमन लिपि में लिखे जाने पर विचार किया जाना चाहिए जिससे कि हिन्दी की बहुत सारी समस्याएं सुलझ सकती हैं। आज एस एम एस से लेकर ज्यादातर हिन्दी अखबारों में अंग्रेज़ी और रोमन का प्रयोग होने लगा है तथा विज्ञापनों में तो हालात और भी बुरी है। इससे हिन्दी उर्दू के बीच की दूरियाँ भी घटेंगीं
असगर भाई का यह सुझाव नया नहीं है अपितु संविधान के गठन के समय राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से सी राजगोपालाचारी का भी यही सुझाव था । स्मरणीय है कि हिन्दी को सरकारी काम काज़ की भाषा बनाने के लिए संविधानसभा ने सर्व सम्मति से स्वीकृत दी थी किंतु विरोध में केवल एक व्यक्ति ने बहिष्कार किया था और वे थे हिन्दी के सबसे प्रबल पक्षधर राजऋषि पुरुषोत्तम दास टंडन। उन्होंने इसलिए बहिष्कार किया था क्योंकि वे चाहते थे कि अंकों को भी देव नागरी में ही स्वीकार किया जाये जबकि संविधान सभा उन्हें रोमन में प्रयुक्त किये जाने की पक्षधर थी। बहरहाल जब हिन्दी को रोमन में लिखने का विचार आया था तो दतिया के एक हास्य-व्यंग के कवि वासुदेव गोस्वामी ने एक कविता लिखी थी जिसमें बताया गया था कि अगर हिन्दी को रोमन में लिखा गया तो क्या दशा होगी-
पढन लागे मोहन इंगलिश छापा मैय्या जशोदा सें मम्मी बोलें बाबा नंद सें पापा
पढन लागे मोहन इंगलिश छापा पत्नी [patani] को पटनी कर वांच्यो पतिजूpati] हो गए पाटी[paaTee]
बुद्धी[buddhi] उनकी बुड्ढी हो गई मति[maaTi] भी हो गई माटी पढन लागे मोहन इंगलिश छापा ........................... इसी कविता में एक पंक्ति आती है ‘चुटिया’ [चुटिया] कहवे में सकुचावें,............. आदि| यदि कभी कहीं पूरी कविता मिल गई तो ज़रूर ही पुनर्प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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शुक्रवार, मार्च 26, 2010

नेता विज्ञापन माडल क्यों बनते हैं

नेता विज्ञापन माडल क्यों बनते हैं
वीरेन्द्र जैन
आप कोई सा भी अखबार उठा कर देख लीजिए इनमें प्रति दिन कोई ना कोई नेताजी किसी शो रूम, होटल, हास्टल, स्कूल, नर्सिंग होम, सड़क, फुट्पाथ, मेला, यहाँ तक कि पेशाब घर तक के हिन्दू रीति रिवाज़ से भूमि पूजन या फीता काट कर उद्घाटन करते हुये मिल जायेंगे। नेताजी को इस कार्यक्रम में आमंत्रित करने वालों का उद्देश्य होता है, उनके कद और पद का अपने व्यावसायिक हितों में लाभ उठाना। सरकारी भवन निर्माण में घटिया सामग्री लगा कर भी नेताजी का भय दिखा कर अधिकारियों से बिल पास करा लेना या मुफ्त में अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठान को चर्चित करा लेना। ये नेता लोग भी इन कार्यक्रमों में निःस्वार्थ भाव से नहीं जाते हैं अपितु वे ऐसा करके उक्त व्यावसायिक प्रतिष्ठान को अपना पक्षधर, चुनावी समर्थक या फंड लगाने वाला बना लेते हैं। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का निरीक्षण करने वाले निरीक्षकों को भी सन्देश दे दिया जाता है कि उनके संस्थान को किसका संरक्षण प्राप्त है।
सरकार में शामिल नेताजी की पार्टी के सम्मेलनों, या आम सभाओं की व्यवस्थाएं भी, पुलिस द्वारा वांछित अपराधी इसलिए करते हैं ताकि स्थानीय पुलिस अधिकारियों को अपना मुँह बन्द रखने का सन्देश दिया जा सके। इसके परिणाम स्वरूप जिन आरोपियों को वर्षों से अदालती सम्मन नहीं पहुँच पाते वे मंत्रियों की सभाओं में मंच पर बैठे पाये जाते हैं, भले ही पुलिस रिकार्ड में वे भगोड़े के रूप में दर्ज़ रहते हों।
नेताजी को पद मिलने पर या सत्ता में बने रहने तक उनके जन्म दिन पर बधाई के बड़े बड़े विज्ञापन प्रकाशित कराने वाले नेताजी के साथ साथ अपना फोटो, प्रतिष्ठान का नाम, फोन नम्बर आदि भी इसीलिए देते हैं ताकि सम्बन्धित अधिकारियों तक नेताजी से उनकी निकटता की सूचना पहुँच जाये। यही कारण है कि ऐसे विज्ञापन देने वालों में अधिकांश, सरकारी ठेकेदार, सरकारी सप्लायर्स, या मंत्रियों की दलाली करने वाले लोग होते हैं, जो ऐसा करके मुख्यतयः अपना विज्ञापन कर रहे होते हैं। अभी हाल ही में मध्य प्रदेश में भाजपा का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ जिसके दौरान पार्टी के नव नियुक्त अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कार्यकर्ताओं से चापलूसी की संस्कृति छोड़ने, नेताओं के पैर न छूने, दिखावे से बचने, सादगी पूर्ण आचरण करने, होर्डिंग न लगाने, तथा विज्ञापन न छपवाने की सलाह दी थी। किंतु इसी मध्य प्रदेश में प्रदेश के अध्यक्ष पद पर पदारूढ नरेन्द्र सिंह तोमर को राष्ट्रीय महासचिव बनाये जाने पर न केवल उनके चुनाव क्षेत्र मुरेना में अपितु प्रदेश की राजधानी भोपाल में हज़ारों की संख्या में होर्डिंग लगवाये गये व अखबारों को विज्ञापनों से पाट दिया गया। सत्ता से निकटता दर्शाने के उन्माद में मुरेना में सैकड़ों बन्दूकों के साथ न केवल प्रदर्शन ही हुये अपितु अपना राजनीतिक दबदबा दिखा कर आतंक फैलाने के लिये अधाधुन्ध गोलियाँ भी चलायी गयीं। रक्षा के लिये दिये दिये गये लाइसेंस का इस तरह का स्तेमाल गैर कानूनी है किंतु ‘’सैंया के कोतवाल’’ होने की खुशी में कानून का सारा डर भुला कर ऐसी बेतरतीब ढंग से गोली चालन किया गया कि प्रदर्शन में आया एक युवक गम्भीर रूप से घायल हो गया। इससे पहले भी प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास में विजय दशमी के अवसर पर चापलूस पुलिस अधिकारियों ने मुख्यमंत्री, उनकी पत्नी, उनके नाबालिग बेटे से एल एम जी बन्दूक से हवा में गोलियाँ चलवा कर गैर कानूनी काम किया गया था। इसी दौरान आर एस एस के शस्त्र पूजन कार्यक्रम में एक गैर लाइसेंसी बन्दूक से गोली चला कर एक संघ के स्वयं- सेवक को मार डाला गया था। श्री तोमर को पद पर चुने जाने के अवसर पर ऐसे ही गोली चालन के कार्यक्रम ग्वालियर, शिवपुरी, आदि स्थानों सरे आम पुलिस अधिकारियों के देखते हुये हुये, तथा सब्बरवाल हत्याकांड के बाद मनोबल हीन हो चुके पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी निरीह से देखते रहे।
होर्डिंग, विज्ञापन और स्वागत द्वार सजाने वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्यवाही कौन कर सकता है जबकि स्वयं प्रदेश अध्यक्ष के ही स्वागत में राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्देशों का खुला उल्लंघन हो रहा हो और प्रदेश का मुख्य मंत्री खुद स्वागत द्वारों से गुजरता हुआ स्वागत के लिए स्टेशन गया हो। पिछले दिनों से भाजपा स्वाभिमान बिहीन अध्यक्षों की परम्परा ढो रहा है इसीलिए बंगारू लक्षमण, वैंक्य्या नाइडू, और राजनाथ सिंह के बाद गडकरी तक केवल नमूने के अध्यक्ष हैं, उनकी कोई नई बात सुनी नहीं जाती। यदि भाजपा के पूर्व थिंक टैंक गोबिन्दाचार्य की सलाह मान कर गडकरी ने कम बोलना शुरू कर दिया होता तो आज ऐसी किरकरी तो न होती।
खेद की बात है कि सहित्यिक पुस्तकॉ का लोकार्पण भी नेताजी के हाथों से ही होने लगा है। ऐसा काम हीनता बोध से ग्रस्त लेखक, या ज़ेबी संगठन ही कराते हैं। जिन लोगों ने पुस्तक पढी ही नहीं है वे भी साधिकार उस पर बोलते देखे जा सकते हैं। लेखन में कमजोर लेखक सोचते हैं कि नेताजी से विमोचन कराके वे अपनी पुस्तक को चर्चा में ले आयेंगे, और वह आती भी है तो केवल एक दिन के लिये, जब अखबारों में नेताजी को केन्द्र में रखते हुये फोटो छपता है और लेखक की देह और पुस्तक का कोई कोना किसी तरह दिख रहा होता है। असल में ये सारी ही घटनाएं एक तरह की चोरियाँ हैं। चोरी का आशय ही यह होता है कि जिस वस्तु पर आपका ह्क़ नहीं है उसके स्तेमाल करने के लिए किये गये कारनामे। ये चोरियाँ तब ही बन्द होंगीं जब किसी भी व्यावसायिक संस्थान में पकड़ी गई अनियमतताओं की सज़ा उसके उद्घाटनकर्ता को भी मिले और पुस्तक खराब निकलने पर उस पर बोलने वाले विमोचनकर्ता को भी निन्दा सहना पड़े। मंत्री के यहाँ छापा पड़ने पर उसके पक्ष में विज्ञापन देने वाले, स्वागत द्वार सज़ाने वाले, और उसके इर्द गिर्द घूमने वालों के घरों की भी सर्चिंग होनी चाहिए। जिस व्यावसायिक प्रतिष्ठान का उद्घाटन जिस नेता ने किया हो उसकी टैक्स चोरियाँ, उत्पादन में घटियापन या श्रमिक अधिकारों के उल्लंघन का मुकदमा सम्बन्धित नेताजी पर भी चलना चाहिए। जब वे किसी तरह की लोकप्रियता का परोक्ष लाभ लेते हैं तो नुकसान भी उन्हें ही उठाना होगा। अभी हाल ही में शत्रुघन सिन्हा के पुत्र लव की फिल्म के प्रमोशन पर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी उपस्थित थीं और उनकी उपस्थिति के कारण पार्टी के कार्यकर्ता उक्त फिल्म को देखने भी जा सकते हैं, पर अगर फिल्म कमजोर निकली तो ये कार्यकर्ताओं के साथ धोखा होगा।
क्या इन नेताओं के पास राजनीतिक /प्रशासनिक काम का अभाव है जो ये माडल बनते रहते हैं?
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

सोमवार, मार्च 22, 2010

धर्म के बारे में खुले विचार का समय

धर्म के बारे में खुले विचार का समय
वीरेन्द्र जैन्
अभी हाल ही में अयोध्या के राम जन्म भूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास ने महिलाओं को सलाह दी है कि महिलाओं को मन्दिरों और मठों में अकेले जाने की इज़ाज़त नहीं होनी चाहिए। उनके समर्थन में राम जन्म भूमि के मुख्य पुजारी सत्येन्द्र दास और राम जन्म भूमि न्यास के सदस्य राम विलास दास वेदांती ने भी किया है। संत कह रहे हैं उन्हें मठों मन्दिरों में अपने भाई पिता या पति के साथ जाना चाहिए। इन महानुभावों का कहना है कि हाल ही में कुछ बाबाओं से जुड़े जो प्रसंग सामने आये हैं उनमें उन माता पिताओं का भी दोष है, जो अपनी लड़कियों पर ध्यान नहीं देते और उन्हें मनमानी करने की छूट देते हैं। रोचक यह है कि उपरोक्त तथाकथित संत महंतों ने जिनमें भाजपा के पूर्व सांसद राम विलास दास वेदांती भी सम्मलित हैं, ने ना तो बाबाओं के खिलाफ कुछ कहने का साहस दिखाया है और ना ही बाबाओं के लिये कोई आचार संहिता ही बतायी है। ये महान विचार तब सामने आये हैं जब इस इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में राज्य सभा देश की संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिये 33% स्थान आरक्षित करने का विधेयक पास कर चुकी है, और जिसके लिये पक्ष और विपक्ष की महिला नेत्रियाँ पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर सार्वजनिक रूप से खुशी जता चुकी हैं। इन तथाकथित स्वघोषित संत महात्माओं का पीड़ित परिवार के लोगों को ही दोषी ठहराना स्वयं में ही अपराध और अमानवीय कृत्य है।
स्मरणीय है कि पिछले दिनों स्वामी नित्यानन्द, इच्छाधारी बाबा, कृपालु महाराज, आशाराम बापू, केरल के चर्चों के पादरी से लेकर बाबा राम देव, और हरिद्वार के कुम्भ मेले में असली-नकली शंकराचार्यों के सवाल पर दिये गये उग्र बयानों के बाद इन बाबाओं की भूमिगत दुनिया की सच्चाइयों की झलक लोगों को मिलने लगी है जिससे धर्म में अन्ध आस्था रखने वाले लोगों के भरोसे को गहरा धक्का लगा है, तथा इन आस्थाओं से धन्धा करने वाले लोग बौखला कर ऊल ज़लूल प्रतिक्रियाएं देने लगे हैं।
गहराई में जाने पर हम पाते हैं कि प्रत्येक धर्म अपने समय की ज्वलंत समस्याओं से पीड़ित मानवता को उबारने के लिये अपनी तत्कालीन समझ का सर्वश्रेष्ठ लेकर अस्तित्व में आया, तथा उसने अपने कार्य क्षेत्र के बड़े वर्ग का विश्वास अर्जित किया। कालांतर में सम्बन्धित धर्म के संस्थापकों की विरासत के लोगों ने जन मानस की आस्था से लाभ लेते हुये उस समय दिये गये नीति नियमों को जड़ बना दिया जबकि सामाजिक परिस्तिथियाँ निरंतर बदलती गयीं। बदलती स्तिथियों से उनके विश्वासों में आ सकने वाले भावी परिवर्तनों से अपने लाभदायी अनुयायियों को बचाने के लिये धर्म से सन्देह, विचार और तर्क को रोक दिया गया व अन्ध आस्था को बढावा दिया गया। इसी अन्ध आस्था के चलते धर्मानुयायियों के शोषण का रास्ता खुला। जिस किसी ने भी धर्म के बारे में सवाल किया उसे धर्म विरोधी करार दे दिया गया और उसके खिलाफ सामाजिक बहिष्कार से लेकर प्राण हर लेने तक के दण्ड दिये गये। धर्म से अवैध लाभ उठाने वाले इन लोगों ने बदलती परिस्तिथि में धर्म स्थापना की मूल भावनाओं की रक्षा करने वाले बचे खुचे सच्चे धर्म प्रचारकों का भी खात्मा कर दिया। धर्म से सम्बन्धित जितने भी संस्थान थे वे धीरे धीरे नये अर्थतंत्र के अनुसार लोगों की जेबों से धन निकालने के गिरोहों में बदलते गये। इन संस्थानों ने आधुनिक तक़नीक का भरपूर स्तेमाल किया और एसी आश्रमों, एसी कारों, से लेकर मोबाइल सी डी, डीवीडी और लेपटाप तक के भरपूर उपयोग कर रहे हैं। उनके पास बिना किसी प्रोजेक्ट के करोड़ों अरबों रुपयों की सम्पत्तियाँ जमा हैं जिनसे सम्बन्धित गबन और हत्या तक के मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं। बहुत सारे आश्रमों में फरार अपराधी बाबा का रूप रख कर रह रहे हैं। जहाँ सरकारी अर्जुन देव समिति की रिपोर्ट के अनुसार सत्तर प्रतिशत से अधिक आबादी बीस रुपये रोज़ पर गुजर कर रही है वहीं इन आश्रमों के बाबाओं और उनके धार्मिक संस्थानों की मूर्तियों के पास टनों सोना है। प्रति वर्ष हज़ारों लोग शीत लहर, लू, और बाढ से मर जाते हैं, भूख से मर जाते हैं, कुपोषण से मर जाते हैं, तथा रोकी जा सकने वाली बीमारियों से मर जाते हैं किंतु इन धार्मिक संस्थानों में जमा धन से केवल ब्याज़ उगाया जाता है और कई तो शेयर बाज़ार में विनियोजित करते हैं। जो सरकार इन धार्मिक संस्थानों को टेक्स में पूरी छूट देती है तथा इन आश्रमों में आने वाले काले धन को सफेद में बदलने का अघोषित लाइसेंस दिये हुये है वह इस बात का ध्यान नहीं रखती कि वे जिन आदर्शों के आधार पर लोगों की कमाइयाँ हड़प रहे हैं, उन पर कितना टिके हुये हैं? साम्प्रदायिकता के खिलाफ रहने वाली सरकार इस आशंका के बारे में बिल्कुल उदासीन है कि आर्थिक भ्रष्टाचार में घिरने वाले संस्थान अपने स्वार्थ में कभी भी साम्प्रदायिक गढों में बदल सकते हैं। एक बड़े साम्प्रदायिक राजनीतिक दल ने एक शंकराचार्य के हत्या और यौन शोषण के आरोपों में घिर जाने पर दिल्ली में विरोध प्रदर्शन और अनशन तक किया था। ज़रूरी यह है कि इन आश्रमों के कार्यकलापों में पूरी पारदर्शिता अनिवार्य हो, तथा उनके घोषित आदर्शों से विचलन पर उनकी सारी सुविधायें समाप्त कर जनता को सन्देश दिया जाये। इन धार्मिक संस्थानों को बिना किसी योजना के धन संग्रह पर प्रतिबन्ध हो तथा एक निश्चित समय तक व्यय न किया जा सकने वाला सारा धन प्रधानमंत्री राहत कोष के लिये प्राप्त कर लिया जाये।
आज के वैज्ञानिक युग में पहली ज़रूरत तो यह है कि धार्मिक संस्थानों समेत किसी भी जाति धर्म समाज में अन्धविश्वास को बढने न दिया जाये और हर स्तर पर अपना सन्देह व्यक्त करने और सवाल पूछने की आज़ादी हो। यदि सम्बन्धित संस्थान से संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता हो तो धर्म परिवर्तन की स्वतंत्रता को बाधित करने वालों को कठोर दण्ड मिलना सुनिश्चित हो। धर्म परिवर्तन जितना सहज होगा उतना ही अधिक धार्मिक मंथन होगा तथा धर्म के मूल में निहित मानवीय पक्ष तथा उसमें पल रहे दोष सामने आते रहेंगे। इसलिये धर्म परिवर्तन धर्म की मूल भावना के हित में है। जो लोग संविधान प्रदत्त धर्म परिवर्तन के अधिकार पर सिर काटने के फतवे देते हैं उन पर हत्या के लिये उकसाने का मुक़दमा चलाया जाना चाहिये।
धर्म मनुष्य के लिये है, मनुष्य धर्म के लिये नहीं है। यह किसी एक धर्म स्कूल या धर्म संस्थान का सवाल नहीं है। प्रत्येक धर्म में विकृति आने की संभावना रहती है, इसलिये देश के संविधान और कानून को सदैव ही धर्म के मठाधीशों से ऊपर होने की सच्चाई समय समय पर बताते रहना चाहिये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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बुधवार, मार्च 17, 2010

न्यायिक सुधारों की दिशा में जड़ों से सुधार की ज़रुरत

न्यायिक सुधारों की दिशा मे जड़ से ही सुधार हो
वीरेन्द्र जैन
अभी सरकारी अधिकारियों, चुनाव लड़ने वालों, मंत्रियों, सांसदों विधायकों आदि जन प्रतिनिधियों के साथ न्यायधीशों की सम्पत्ति की घोषणा से सम्बन्धित बहस शांत ही नहीं हुयी थी कि न्यायिक सुधारों से सम्बन्धित नये विधेयक की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी है। इस सम्भावित विधेयक के अनुसार न केवल न्यायधीशों के आचरणों को ही नियंत्रित करने का ही प्रयास होगा अपितु किसी प्रकरण में फैसला भी अनावश्यक समय के लिये टाला नहीं जा सकेगा। इतना ही नहीं उक्त निर्देशों का पालन सुनिश्चित करने के लिये जाँच समिति और निगरानी समिति भी स्थापित किये जाने की व्यवस्था की गई है। उक्त विधेयक के प्रस्तावों की जिस व्यापक स्तर पर सराहना की जा रही है उससे पता चलता है कि न्याय व्यवस्था में सुधारों के लिये लोग कितने बेचैन थे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि देश में तेजी से फैल रहे अपराध और हिंसा के पीछे अपराधियों में न्याय का भय समाप्त हो जाने और आम नागरिकों द्वारा शीघ्र, स्वच्छ, तथा निष्पक्ष न्याय की उम्मीद खत्म हो जाने की प्रमुख भूमिका रही है। सम्पन्न अपराधियों को प्राप्त सुविधाओं की तुलना में राज्य सरकारों के अधीन काम कर रहे अभियोजन विभाग् के पास ज़रूरी कानूनी लाइब्रेरी से लेकर उपयुक्त चेम्बर तक उपलब्ध नहीं होते। इनमें से बहुत सारे अपने आप को जनता का नहीं अपितु राज्य सरकार की सत्तारूढ पार्टी का वकील समझते हैं [ सन्दर्भ मध्य प्रदेश के सव्वरवाल प्रकरण में न्यायाधीश की टिप्पणी, और गुजरात नर संहार के आरोपियों का छूटना],। जिन प्रकरणों में सज़ा की सम्भावना होती है, उनमें भी अपराधियों के वकील न्याय को विलम्बित कराने और बाद में उच्च न्यायालय आदि में अपील के सहारे अपराधियों की सजाओं को टालते रहने के बाद मुज़रिम की उम्र की दुहाई देकर उसकी सज़ा कम करने की मांग करते हैं। इस बीच अपराध करने वाले समाज में अपने पूरे आतंक के साथ घूम कर राजनीति में भाग लेते हुये मंत्रियों के पद तक पहुँच, न्याय में अनास्था पैदा करते रहते हैं। यदि सचमुच ही सरकार का इरादा न्याय में सुधार करने का है तो उसे सबसे पहले कानून बनाने वाली विधायिका के सदस्यों को न्याय मिलना सुनिश्चित करना चाहिये। 2009 में हुये लोकसभा चुनाव में 50% से अधिक उम्मीदवार, और चुने गये सदस्य ऐसे हैं जिन पर आपराधिक प्रकरण दर्ज़ हैं जिनमें हत्या, हत्या का प्रयास, बलात्कार, चोरी, डकैती, बलवा, सरकारी काम में दखलन्दाज़ी, आदि आरोप हैं। यही हाल विधान सभाओं का भी है। एक सांसद को ही प्रतिमाह वेतन के रूप में बारह हजार रूपये संसदीय क्षेत्र भत्ते के रूप में दस हजार रूपये कार्यालय भत्ते के रूप में चौदह हजार रूपये, यात्रा भत्ते के रूप में अड़तालीस हजार रूपये(तक) तथा संसद चलने वाले दिनों में प्रति दिन पाँच सौ रूपये का भत्ता नकद मिलता है। उन्हें देश में कहीं भी कभी भी किसी भी ट्रेन में प्राथमिकता के आधार पर पत्नी या पीए क़े साथ प्रथमश्रेणी वातानुकूलित दर्जे में मुफ्त यात्रा की सुविधा दी गयी है। वे साल में चालीस हवाई यात्राएं भी मुफ्त कर सकते हैं। उन्हें सालाना पचास हजार यूनिट तक बिजली मुफ्त मिलती है व एक लाख सत्तर हजार टेलीफोन काल्स मुफ्त करने की सुविधा प्राप्त है तथा एमटीएनएल की मोबाइल सुविधा भी उपलब्ध है। विधायकों को भी लगभग ऐसी ही सुविधाएं उनके क्षेत्र के अनुपात में उपलब्ध हैं। दिल्ली में सोलह वीआईपी एक सौ बावन एकड़ जमीन में रहते हैं जबकि गैर वीआईपी क्षेत्र में इतनी जमीन पर दस लाख लोग रहते हैं। इस पर भी [वामपंथियों को छोड़कर] सांसद इन सुविधाओं को कम समझते हैं और इन्हें और बढाने के लिए लगातार इस आधार पर प्रस्ताव लाते रहते हैं कि यह राशि कम है और उनकी हालत दयनीय है। वैसे चुनाव आयोग द्वारा संपत्ति की घोषणा करने का कानून बना दिये जाने के बाद देश वासी यह जान गये हैं कि हमारे कुल सांसदों में पचास प्रतिशत से अधिक की सम्पत्ति पचास लाख रूपयों से अधिक की है और तीन सौ से अधिक लोकसभा सदस्य तो स्वयं की घोषणा के अनुसार ही करोड़पति हैं। इसके बाद भी उन्हें पेंशन, सस्ती दरों पर प्लाट मुफ्त स्वास्थसेवा आदि जीवन भर लगी रहने वाली अन्य सुविधाएं भी हैं भले ही उस सांसद ने कुल एक दिन ही सदन में भाग लिया हो।
जब इन सदस्यों को इतनी सुविधायें देना ज़रूरी समझा गया है तो कम से कम इतना तो और किया ही जा सकता है कि इन्हें त्वरित न्याय दिलाये जाने की व्यवस्था की जाय। किसी भी सदन का सदस्य चुने जाते ही उसके सारे प्रकरण एक विशेष न्यायालय को सौंप दिये जायें जो दैनिक आधार पर उन पर लगाये आरोपों की सुनवाई करे तथा तय समय में अपना फैसला देकर जनता के प्रतिनिधियों को उचित न्याय दे। बीच में अवकाश का समय आने के कारण जो कार्य व्यवधान आता है उसे भी विशेष कार्यक्रमों के द्वारा पूरा किया जा सकता है ताकि सांसद निर्भय होकर अपना कार्य सम्पादन करें।
न्याय व्यवस्था में एक बड़ा व्यवधान गवाहों के खरीदे जाने और उनके बयान पलटने के कारण आता है। इसे रोकने के लिये भी सख्त कानून बनाना ज़रूरी है। अदालतों को पलटे हुये गवाहों के प्रति कठोरता का व्यवहार करना चाहिये। गवाह लालच या भय के कारण ठीक गवाही के दिन पलट जाते हैं आउर कहते हैं कि पुलिस ने उनका गलत बयान दर्ज़ कर लिया, जिससे पुलिस हतप्रभ रह जाती है। सारे पलटे गवाहों से कठोरतापूर्वक पूछा जाना चाहिये कि आखिर उन्हें कब पता चला कि पुलिस ने षड़यंत्र करके उसके बयानों को गलत तरीके से न्याय के आगे प्रस्तुत किया है। उस गवाह से यह भी पूछा जाना चाहिये कि क्या वह व्यक्ति घटनास्थल पर सचमुच उपस्तिथ था?, उसने गवाही दी या नहीं, यदि दी तो उसका बयान क्या था? यदि वह सिरे से ही उपस्थित नहीं था तो सम्बन्धित पुलिस अधिकारी से उसकी ऐसी क्या दुश्मनी है कि वह गलत गवाही के मामले में फँसाने के लिये उसी का चयन करे। यदि अदालत सचमुच पलटे हुये गवाह के बयान से संतुष्ट है तो उसे उस पुलिस अधिकारी के खिलाफ उचित दण्ड देना चाहिये जिसने किसी मासूम को गलत गवाही का शिकार बनाया और अदालत का समय नष्ट किया। यदि अपराध घटित हुआ है और प्रकरण अदालत तक पहुँचा है तो तय है कि किसी न किसी स्तर पर गलत बयानी तो की ही जा रही है, इसलिये अदालतों को सरकार से लेकर जाँच अधिकारी तक किसी न किसी की कमी पर तो दण्ड देना ही चाहिये भले ही वह दण्ड प्रतीकात्मक ही क्यों न हो। जब ऐसा होने लगेगा तब प्रकरण भी लम्बित नहीं होंगे और अपराधी से लेकर पुलिस और अभियोजन तक सब में चुस्ती आयेगी।
आर्थिक अपराधियों को सामाजिक अपराधियों की तुलना में कम अपराधी माने जाने की परम्परा है जबकि आर्थिक अपराधी पूरे देश का नुकसान करता है, और उसी के साये में सामाजिक अपराधी पनपते हैं। इसलिये आर्थिक अपराधियों को न केवल त्वरित दण्ड दिया जाना चाहिये अपितु उन्हें निगरानी में रखा जाना चाहिये व अपराध के दुहराव पर उसके दण्ड को कई गुना बढा देना चाहिये क्योंकि वे अपने अवैध पैसे की दम पर न्याय व्यवस्था को भ्रष्ट करने का प्रयास भी करते हैं, जिससे पूरा न्याय तंत्र प्रभावित होता है।
जिस दिन जड़ से सुधार प्रारम्भ हो जायेगा उस दिन न केवल लम्बित मामले ही घटने लगेंगे अपितु झूठे मुकदमे दायर करने से भी लोग डरेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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फोन 9425674629

शुक्रवार, मार्च 12, 2010

वारेन एंडर्सन की गिरफ्तारी की मांग पर असर्

कृपालु महाराज को गिरफ्तार न किये जाने से
वारेन एंडेर्सन को गिरफ्तार करने की मांग पर असर
वीरेन्द्र जैन
प्रतापगढ में कृपालु महाराज के आश्रम में निरीह निर्धन लोगों की जो मौतें हुयी हैं वे आश्रम प्रबन्धन की लापरवाही का ही परिणाम थीं। आज तथाकथित धार्मिक संस्थानों और आश्रमों के पास अटूट दौलत के भंडार हैं तथा वे इस दौलत के नशे में जो खेल खेल रहे हैं उनकी झलक कभी कभी मीडिया के स्टिंग आपरेशनों में देखने को मिल जाती है। ऐसे स्टिंग आपरेशन हमेशा सम्भव नहीं हो पाते। इससे केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है कि इन आश्रमों के बारे में लोगों के जो विश्वास हैं उससे अलग अनैतिक आचरण चल रहा है। यह किसी एक धर्म, एक आश्रम या एक बाबा का सवाल नहीं है अपितु ऐसे आचरणों में ‘सर्व धर्म समभाव’ देखने को मिलता रहा है। ऐसी घटनाएं आये दिन देखने को मिलती रहती हैं और इनमें सदैव ही गरीब, महिलाएं और बच्चे ही अधिक संख्या में शिकार होते हैं।
जो सरकारें दलित, आदिवासी, पिछड़े, महिलाएं, बच्चे, अल्प्संख्यक, आदि निःशक्त जनों के लिये विभिन्न तरह की योजनायें बनाकर उनके लिये कुछ करने के दावे किया करती है वह इन तथाकथित धर्मस्थलों पर सर्वाधिक इन्हीं वर्गों के लोगों की मौतों पर उनके लिये ज़िम्मेवार लोगों को बचाने में लग जाती है। जब छोटी छोटी दुर्घटनाओं पर किसी ज़िले के ज़िलाधीश और पुलिस अधीक्षक आदि का ट्रांस्फर कर दिया जाता है तथा उन्हें इस रूप में दंडित किया जा सकता है तो लालच देकर एक बड़ी भीड़ जुटाने और उसके उचित प्रबन्धन की व्यवस्था न करने के लिये धर्म स्थलों के प्रमुखों को क्यों दण्डित नहीं किया जा सकता। इतनी सारी दुर्घटनाओं में प्रति वर्ष हज़ारों जानें जाने के बाद भी ना तो सरकार स्वयं कोई व्यवस्था करती है और ना ही सम्पत्ति और वैभवशाली इन स्थल के प्रमुखों को अपनी दौलत से सम्भावित भीड़ की उचित व्यवस्था के लिये कहती है। प्रश्न यह है कि इन धर्मस्थलों की यह दौलत अगर नर नारायण के हित में व्यय नहीं हो सकती तो फिर इन धर्मस्थलों पर इस दौलत के जमा होने का अर्थ क्या है? देश में इस वर्ष सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही 500 से अधिक लोगों की मौतें सर्दी के कारण हो गयीं और ऐसी ही मौतें लू या अतिवृष्टि में भी होती रहती हैं तथा उस क्षेत्र के धर्म स्थल न केवल फलते फूलते रहते हैं अपितु उनमें इच्छाधारी और नित्यानन्द जैसे लोग वीआईपियों को अतिथि बनाते रहते हैं। किसी भी घटना के दूरगामी परिणाम होते हैं। भोपाल में आज से 25 साल पहले युनियन कार्बाइड की फैक्ट्री में जो गैस रिसी थी उससे 15000 लोग मौत का शिकार हुये एवम 475000 लोग विभिन्न रोगों से पीड़ित हुये। उस का मालिक अमेरिका में रहता है पर फिर भी न केवल उसे अरबों खरबों का मुआवज़ा ही देना पड़ा अपितु उसके खिलाफ मुकदमा चला और भोपाल की गलियों में अभी भी लगातार उसको फांसी देने की मांग के नारे गूंजते रहते हैं। यदि हम धार्मिक तुष्टीकरण में कार्यवाहियों से बचते रहे तो इससे वारेन एंडेर्सन और उपहार सिनेमा के मालिकों के पक्ष ही मज़बूत होंगे। हमारा देश वह साहस कब जुटा पायेगा जब वह कह सके कि इंडियन पीनल कोड के अंतर्गत आने वाले सभी आरोपियों के साथ एक जैसा व्यवहार होगा, और संस्थानों में एकत्रित धन का उपयोग निश्चित समय में उस संस्थान के घोषित उद्देश्यों के लिये ही होगा।
सरकार चाहे तो यह भी कर सकती है कि चुनावों में पराजित होने वाले प्रमुख उम्मीदवारों को अपने अपने क्षेत्र के किसी एक सार्वजनिक संस्थान के कार्यों की गहन निरीक्षण और रिपोर्टिंग की ज़िम्मेवारी दे ताकि वे समाज सेवा का कार्य करते रहें।
वीरेन्द्र जैन
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अयोध्या में मस्ज़िद निर्माण का गडकरी प्रस्ताव्

अयोध्या में मस्ज़िद निर्माण का गडकरी प्रस्ताव
वीरेन्द्र जैन

नये भाजपा अध्यक्ष ने अपने एक बयान से हिन्दुत्व की राजनीति में हलचल सी मचा दी है। अयोध्या में मस्ज़िद निर्माण में मुसलमानों से सहयोग मांगने की नई बात किसी को भी हज़म नहीं हो रही है।
भाजपा के थिंक टैंक रहे गोबिन्दाचार्य अब भाजपा में नहीं हैं किंतु वे अभी भी उसी की परिक्रमा करते रहते हैं। उन्होंने नये भाजपा अध्यक्ष को बिन मांगी सलाह दी है कि उन्हें कम बोलना चाहिये। उनकी यह सलाह उनके इस विश्वास का संकेत देती है कि भले ही श्री गडकरी को संघ ने अध्यक्ष के रूप में पदस्थ करवा दिया हो किंतु उन्हें अभी तक भाजपा की रीतिनीति के अनुरूप गोलमोल बातें और द्विअर्थी सम्वाद करना नहीं आया है। आखिर भाजपा के शुभचिंतक की यह सलाह इसके सिवा और क्या अर्थ रखती है कि उसका सर्वोच्च पदाधिकारी अपने विचार भी खुल कर नहीं रखे और दिन प्रति दिन के सम्वाद के लिये भी संघ की ओर देखे। वैसे तो लोकसभा में भाजपा की ओर से विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज समेत सारे प्रमुख लोगों ने कहा है कि गडकरी को संघ ने नहीं थोपा और वे भाजपा के लोगों की ही पसन्द रहे हैं किंतु उनकी यह बात किसी को भी हज़म नहीं हो रही है क्योंकि इस पसन्दगी के इससे पहले किसी को भी कोई संकेत नहीं मिले थे, और यह रहस्य पूर्ण लगता है कि अचानक सभी सदस्यों को एकमत से यह इल्हाम हो गया कि इतने चर्चित नेताओं के बीच् उनका नेतृत्व, वे गडकरीजी ही ठीक से कर सकते हैं, जिनको गोबिन्दाचार्य कम बोलने की सलाह दे रहे हैं। हो सकता है कि गोबिन्दाचार्य जी गडकरीजी को अपना अनुभव समझाने की कोशिश कर रहे हों कि ज्यादा बोलने से उन्हें क्या क्या नुकसान हुये हैं। इधर आडवाणी जी ने भी राष्ट्रीय अधिवेशन के बाद यह कह कर कि गडकरी को लेकर जो भी सन्देह था वह धुल गया है और इसकी जगह आशावाद और अत्मविश्वास ने ले ली है, इस बात को पुष्ट किया है कि अधिवेशन होने तक ग़डकरी के लिये उन जैसे महत्वपूर्ण नेता के मन में भी सन्देह था। राम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण के लिये मुसलमानों से सहयोग माँगने से सम्बन्धित् गडकरीजी के कथन के दूसरे आयाम भी हैं। भाजपा को उसके वर्तमान स्वरूप तक पहुँचाने में राम जन्म- भूमि मंदिर को मिले भावनात्मक समर्थन को वोटों की ओर मोड़ लेने की बड़ी भूमिका रही है। पिछले चुनावों में निरंतर मिलती पराजयों और गठबन्धन के सहयोगियों द्वारा साथ छोड़ते चले जाने के दौर में दबा दिये गये इस प्रकरण को पुनः चर्चा के केन्द्र में लाना ज़रूरी था। उनका यह बयान परोक्ष रूप से मन्दिर को चर्चा में लाने का एक चतुर तरीका भी हो सकता है।
राजनीति में शतरंज के खेल की तरह दूरदर्शित्त ज़रूरी होती है। अगर उक्त बयान किसी से सलाह लिये बिना विशुद्ध व्यक्तिगत था तो यह भी लगभग तय था कि उनके इस बयान को पार्टी के भीतर और बाहर दोनों ही जगहों से नकारा जाये। भीतर से इसलिये क्योंकि अपने रक्षात्मक बयानों में पार्टी बार बार यह कहती रही है कि वह उक्त स्थल पर मन्दिर के समर्थन में तो है किंतु मन्दिर निर्माण का काम और कार्यक्रम विश्व हिन्दू परिषद का है। पर इस बयान से यह साबित हो गया कि राम जन्म भूमि मन्दिर से भाजपा अलग नहीं है। उपरोक्त किस्म का बयान उन्हें [अर्थात संघ परिवार को] उन मुसलमानों की स्वेच्छा पर छोड़ता है जिनके बीच तनाव पैदा करके ही वे अभी तक अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकते रहे हैं। उनका काम मन्दिर बनाना नहीं है पर राजनीतिक लाभ उठाना तो है। किसी भी किस्म की साम्प्रदायिकता को पनपने के लिये कोई झूठा या सच्चा दुश्मन चाहिये होता है पर यदि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ही समाप्त हो जायेगा तो बिना राजनीतिक कार्य किये जो थोक में हिन्दू साम्प्रदायिकता से प्रभावित वोट उन्हें मिल जाते हैं, वे बन्द हो जायेंगे और सीटें घटेंगीं। इस स्थिति को शासन के माध्यम से दौलत के अम्बार खड़े करने वाले नेता कैसे सहन कर सकते हैं!
विहिप को यह आशंका पहले ही से थी कि बरसों से बीरान पड़ी मस्ज़िद टूट जाने के बाद जब मुसलमान अंततःवहाँ मन्दिर बनवाने के लिये तैयार हो जायेंगे तब ध्रुवीकरण का क्या होगा! इसलिये विहिप के पदाधिकारियों ने कहा था कि वे पूरे अयोध्या के परिक्रमा क्षेत्र में मस्ज़िद नहीं बनने देंगे तथा काशी और मथुरा के अलावा अभी साढे तीन सौ इमारतें और भी विवादास्पद हैं जिन्हें समय पर उठाया जायेगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने जब दुबारा मस्ज़िद बनाने का आश्वासन दे दिया था जिसके प्रतिरोध में भाजपा समेत सभी हिन्दूवादी संगठनों ने तीव्र प्रतिवाद किया था। किंतु अब राम जन्म भूमि मन्दिर के पास खाली पड़ी जगह में मस्ज़िद बनाने की अनुमति गडकरी जी ऐसे दे रहे थे गोया वह उनके हिस्से में आयी पैतृक सम्पत्ति हो और भाजपा जिसे चाहे उसे दे सकने के लिये अधिकृत हो।
विहिप के अशोक सिंघल कह रहे हैं कि यह राजनीति का सवाल नहीं है अपितु धर्म का मामला है इसलिये भाजपा को कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं है किंतु इसी तर्क से यह भी कहा जा सकता है कि इस मामले का धर्म से भी कुछ लेना देना नहीं है अपितु यह विशुद्ध ज़मीनी विवाद है और सक्षम कोर्ट का फैसला ही अंतिम माना जा सकता है। पर जैसे कि पाकिस्तान के साथ वार्ता के मामले में भाजपा बार बार यह कह रही है कि आतंकवादियों के खिलाफ कार्यवाही करने के बाद ही वार्ता होनी चाहिये, उसी तरह मुस्लिम नेतृत्व भी उक्त मामले में कह सकता है कि अदालत के आदेश से पहले आक्रामक तरीके से मस्ज़िद तोड़ने वालों को सज़ा का फैसला हो जाये तब बाद में मन्दिर मस्ज़िद का स्थान तय किया जा सकता है क्योंकि चर्चित मस्ज़िद भी बीरान मस्ज़िद थी और उसमें वर्षों से नमाज अता नहीं की गयी थी इसलिये ध्वस्त कर दी गयी मस्ज़िद के बदले में थोड़ी सी दूरी पर यदि नई मस्ज़िद मिल जाये तो भी स्वीकार किया जा सकता है बशर्ते भाजपा की नीयत ठीक हो।
सवाल है कि क्या सचमुच ऐसा है? विभिन्न संविद सरकारों में निरंतर सम्मलित तथा जनता पार्टी के समय केन्द्र की सरकार के समय में केन्द्रीय मंत्रिमंडल की महत्वपूर्ण विभागों में मंत्री रहे नेताओं को एक बार भी राम जन्म भूमि मन्दिर की याद नहीं आयी थी किंतु जब लोकसभा में वे कुल दो सीटों पर सिमिट कर रह गये तब उन्हें अचानक चार सौ साल पुराने ऐतिहासिक अपमान की चोट कचोटने लगी। जब वे केन्द्र की सरकार में आ गये तो राम जन्म भूमि मन्दिर को फिर भूल गये पर जैसे ही सत्ता से बाहर हुये तो फिर से राम जन्म भूमि मन्दिर को चर्चा में लाने के नये नये तरीके तलाशने लगे। फिर भी यदि आशंकाओं और सन्देहों को छोड़ कर देखें तो ऊपरी तौर पर गडकरी का प्रस्ताव बुरा नहीं है बशर्ते कि
• संघ परिवार विभाजनकारी राजनीति को छोड़ने और अपनी पिछली भूलों के लिये क्षमा माँगने के लिये तैयार हो।
• विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, और शिव सेना भी उनके विचार से सहमत हों या वे उनका साथ छोड़ने के लिये तैयार हों।
• वे मुसलमानों समेत दूसरे सभी अल्पसंख्यकों को दोयम दर्ज़े का नागरिक समझने की मानसिकता से मुक्त हो गये हों और उनकी समझ में आ गया हो कि भारत एक बहुलतावादी देश है और इसके विभिन्न धर्म, जातियां क्षेत्र, और भाषाभाषी हमेशा एक साथ रहेंगे और अपने मतभेद लोकतांत्रिक तरीके से ही दूर करेंगे।
• वे इतिहास को साम्प्रदायिक चश्मे से देखना बन्द कर दें, और इतिहास की गलतियों की सज़ा उन इतिहास पुरुषों के सम्प्रदायों के लोगों को देने का प्रचार बन्द कर दें।
• लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग करने दें और समाज तथा धर्मों में व्याप्त उन बुराइयाँ और कुरीतियों के खिलाफ सामाजिक कार्य को आगे बढायें जिनके कारण धर्म परिवर्तन का माहौल बनता है।
पिछले दिनों संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने का जो आवाहन किया था वह एक बेहद अच्छा प्रस्ताव था किंतु ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया है उसे आगे बढाया जाना चाहिये। मध्य प्रदेश समेत अन्य राज्यों में भ्रष्टाचार के घेरे में घिरे मंत्रियों को हटाने के लिये संगठन को निर्देश देने चाहिये तथा शिबू सोरेन की सरकार से समर्थन वापिस लेना चाहिये तभी ऐसा लगेगा कि ‘भाजपा में एक नई जान आयी है’ [बकौल शिवराज सिंह, मुख्य मंत्री म.प्र.] अन्यथा तो ऐसा लगेगा कि भाजपा में वही पुरानी जान है और वह भी धीरे धीरे निकल रही है।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, मार्च 09, 2010

नई नैतिकताओं पर विमर्श की ज़रूरतें

[यह लेख ‘अस्वीकृति में उठा हाथ’ श्रंखला में कुछ समय पूर्व लिखा गया था। महिला आरक्षण विधेयक पास हो जाने के बाद जो सामाजिक अंगड़ाई सम्भावित है उस सन्दर्भ में यह पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है।]


नई नैतिकताओं पर विमर्श की जरूरतें
----------------- वीरेन्द्र जैन
अंग्रेजी में कहा गया है कि -मोरलिटी डिर्फस फ्रोम प्लेस टु प्लेस एन्ड एज टु एज- अर्थात स्थान से स्थान और युग से युग तक नैतिकता बदलती रहती है।सच भी है कि हमारे दो पौराणिक युग त्रेता और द्वापर भी अपनी नैतिकताओं में कितने विविध हैं। त्रेतायुग द्वापर से पहले माना जाता रहा है पर आज हमारी नैतिकता द्वापर के स्थान पर त्रेता युग की नैतिकता को आदर्श मानती है।
नैतिकताएं दैवीय आदेश नहीं होती हैं भले ही कुछ क्षेत्रों में प्रभावी अनुशासन बनाये रखने के लिए इन्हें दैवीय आदेशों की तरह प्रस्तुत कर दिया गया हो। ये हमारी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्तिथियों के अनुसार बनती बिगड़ती रहती हैं। जब शहर के छोटे से फ्लैट में पूरा परिवार एक साथ रहता है तो पर्दा प्रथा बची नहीं रह सकती है। मिनी बसों और टैम्पो में सफर करने वाली महिलायें अगर किसी दबाव में बुर्का पहिने भी हों तो भी वे जानती हैं कि उनकी इस पर्दादारी का क्या मतलब शेष रह गया है। इसलिये दबाव से मुक्त होते ही पहला काम वे बुर्का फेंकने का ही करती हैं।
हमारे आज के बहुत सारे संकटों के पीछे नैतिकताओं की वे जड़ताऐं हैं जिन्हें पहले कौन ,पहले कौन के चक्कर में हम तोड़ नहीं पाते और ढोते रहते हैं। हमारी सैक्स सम्बन्धी नैतिकताएं भी कुछ कुछ ऐसी ही जकड़नें हैं क्योंकि आज चिकित्साविज्ञान ने उन नैतिकताओं के निर्माण के आधार ही बदल दिये हैं। सैक्स का गर्भ धारण से सीधा सम्बन्ध है, या कहना चाहिये कि रहा है, और किसी मानव शिशु को आत्मनिर्भर होने के लिये लम्बे समय तक पाले जाने की जरूरत रहती है। लम्बे गर्भ काल में गर्भ धारण करने वाली महिला को कम से कम कुछ माह तक विशेष देख रेख की जरूरत भी रहती रही है। इसलिये किसी भी महिला के लिये सैक्स सम्बन्ध बनाने से पूर्व सम्भावित संतति के पालन और सामाजिक आर्थिक पक्ष पर घ्यान देने की जरूरत होती थी। इसी जरूरत ने उसे परावलम्बी बनाया और सैक्स सम्बन्धों की स्वाभाविकता पर कठोर नियंत्रण और अनुशासन के लिये विवश किया। वहीं पुरूष उससे मुक्त रहा व उसके लिये नैतिकता की परिभाषाएं भिन्न रहीं।
बढती आबादी ने दुनिया को जनसंख्या नियंत्रण के लिये उपाय खोजने को प्रेरित किया और उसने सैकड़ों ऐसी विधियां खोज निकालीं जिससे गर्भधारण की आशंका से मुक्त सैक्स सम्भव हो सका। इस खोज ने जहां एक ओर अनचाहे गर्भधारण को रोका वहीं नारी के सैकड़ों बन्धन भी खोल डाले।यह वही समय था जब नारी स्वातंत्र की आवाज सर्वाधिक ओज के साथ बुलन्द हो सकी। गर्भधारण से मुक्ति,नारी को पुरूष के साथ बराबरी पर खड़ा कर देती है। समानता का नारा इसी स्थान पर खड़े होकर ही लगाया जा सका। जो समाज जिस तीव्रता से परिवार नियंत्रण की ओर बढा है, नारी स्वातंत्र की ओर भी उसी अनुपात से बढा है। संसद और दूसरी विधायी संस्थाओं में महिलाओं के आरक्षण की मांग तथा अन्य संस्थाओं में इस अघिकार की प्राप्ति इन्हीं कारणों से सम्भव हो सकी है।
अब आवश्यकता इस बात की है कि पुरानी वर्जनाओं का नये सिरे से मूल्यांकन हो। हम जिन्हें सामाजिक नैतिकताओं से विचलन मानते रहे आये थे उन नैतिकताओं के आधार बदल चुके हैं किंतु हमारी रूढिवादी आदतें हमें नये मानदण्डों की स्थापना से रोकती हैं । हमारे सोच और व्यवहार का यही भेद सामाजिक संकटों की जननी बन रहा है। समाचार माध्यमों में यौन वर्जनाओं के उल्लंघनों के समाचारों की बाढ सी आयी हुयी है। आये दिन प्रेमी प्रेमिकाओं के परिवार वालों में झगड़े, आत्महत्याएं या हत्याएं हो रही हैं,। प्रतिदिन अवैध माने जाने वाले सम्बन्धों या अवैध ढंग से चल रहे सैक्स कारोबारों के समाचार आते रहते हैं। दूसरी सामाजिक गतिविघियों में भी इनका प्रभाव देखा जा सकता है। बाजारवाद में जिसके पास जो होता है वह उसे बेचता है। स्वतंत्र हुयी नारियों में जिसके पास जिस्म के अलावा कुछ और बेचने के लिये नहीं है, वे उसे ही बेचने लगी हैं क्यों कि अब वे उसकी मालिक हो गयी हैं। जो पुराने ढंग से मूल्यांकन करते हैं उन्हें यह बुरा लगता है और अपनी नासमझी में वे ना जाने किस किस को दोष देते रहते हैं। समाज एक संतुलन का नाम है और किसी भी एक ओर होने वाले परिर्वतन का असर दूसरी ओर होना अवश्यंभावी है जबकि हम अपनी सुविधा के सारे परिवर्तन कर लेने के बाद शेष वस्तुओं को अपरिवर्तित रखना चाहते हैं जो सम्भव नहीं है। जब दुनिया का बाजार आयेगा तो आपके सत्त्त्तू और बिरचुन को लेकर नहीं आयेगा वह केंटुकी चिकिन, पिज्जा और बर्गर को लेकर भी आयेगा और उसके लिये आपकी नैतिकताओं को नूडल्स की तरह मुलायम चिकनी और हड़पनीय बना कर निगलेगा भी। जो लोग कम्यूटर ओर इन्टर नैट में नहीं घुसे हैं उन्हें शायद पता भी नहीं होगा कि वहां अश्लीलता उनकी कल्पना शक्ति से भी सैकड़ों गुना आगे है व समस्त मध्यमवर्ग के घरों व दफतरों में झलकती रहती है। यदि उनके आंकड़ों को विश्वसनीय मानें तो आज हमारे देश में भी लाखों महिलायें अपने स्वतंत्र मित्रों की तलाश खुलेआम कर रही हैं जो अनुमानित न्यूनतम बासठ लाख सैक्स वर्कर के अलावा है। समाज के सामने आने वाले अवैध सम्बन्धों के अलावा हजारों गुना सम्बन्ध ऐसे भी निरन्तर चल रहे हैं जो समाज के सामने नहीं आ पाते। हममें से प्रत्येक ऐसी दस-बीस घटनाओं की जानकारियां रखता है।
पर इन घटनाओं के नायकों को हम नई नैतिकता के अग्रदूत नहीं कह सकते जब तक कि वे अपना पक्ष खुलकर रखने और अपना एक समाज बनाने का साहस नहीं जुटा लेते व पुरानी नैतिकताओं के ठेकेदारों से लोहा नहीं ले लेते। बिहार में एक प्रोफेसर की प्रेमप्रसंग में पिटायी ,मुंह काला किया जाना और फिर उसके समर्थन में जलूस निकालने से लेकर राजनीतिक नेताओं के सामने आने तक की घटनाएं कुछ संकेत दे रही हैं जिन्हें समाजशास्त्रियों द्वारा नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिये।

वीरेन्द्र जैन
2-1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल म.प्र.
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सोमवार, मार्च 08, 2010

महिला दिवस पर विशेष : सशक्तिकरण की कमज़ोरियां

महिला दिवस पर विशेष्
सशक्तिकरण की कमजोरियाँ
वीरेन्द्र जैन
किसी भी कल्याणकारी राज्य की यह जिम्मेवारी होती है कि वह अपने नागरिकों के बीच परम्परा से चले आ रहे या अचानक आ गयी विपदा के कारण उत्पन्न भेदभावों को मिटाने के लिए कुछ ऐसे उपाय करें ताकि उन कमजोर वर्ग के लोगों को भी दूसरों के समान जीवन जीने और विकास करने के अवसर उपलब्ध हो सकें। हमारे देश में भी नागरिकों के बीच विभिन्न तरह के भेद भाव सदियों से चले आ रहे थे व कुछ उत्तरोत्तर विकसित हो गये हैं जिन्हें मिटाने के लिए अनेक तरह के सशक्तिकरण कार्यक्रम शासकीय स्तर पर घोषित हैं व सरकारी मशीनरी द्वारा संचालित किये जा रहे हैं। वैसे तो सरकारों द्वारा जारी की गयी प्रगति रिपोर्टों और जन सम्पर्क विभागों के विज्ञापनों में इन सशक्तिकरण कार्यक्रमों की सफलता की रंगीन कहानियाँ प्रचारित की जाती हैं किंतु सच्चाई कुछ और ही होती है,ै जिसे कमजोर वर्ग की बस्तियों में जाकर या उनके चेहरों को पढ कर जाना जा सकता है। यदि आंकड़े एकत्रित किये जायें तो हम पायेंगे कि हमारे बजट की बड़ी बड़ी राशियाँ इन्हीं सशक्तिकरण कार्यक्रमों के लिए आवंटित की गयी होती हैं पर वे अपने घोषित लक्ष्यों तक नहीं पहुँच पाती हैं। इस स्थिति पर दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आता है-
यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
जहाँ आर्थिक सशक्तिकरण के कार्यक्रमों में पिचासी प्रतिशत हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाता है वहीं सामाजिक सशक्तिकरण में शोषक वर्ग अपनी चतुराई और प्रमुख स्थानों पर पकड़ रखने के कारण उन कानूनों का उन्ही के विरूद्ध स्तेमाल करता रहता है जिनके हित में वे लाये गये होते हैं।
हाल ही में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार मुंबई की एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री जब अपने बच्चे को टयूटोरियल क्लास के लिए छोड़ने गयी तो उसने अपनी गाड़ी गलत जगह पर पार्क कर दी पर जब चौकीदार ने उसे वहाँ गाड़ी पार्क करने से रोका तो उस अभिनेत्री ने कहा कि वह उसके खिलाफ यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट लिखा कर बन्द करा देगी। उक्त अभिनेत्री इतनी प्रतिष्ठित और बोल्ड है कि यौन उत्पीड़न तो दूर की बात रही, कोई साधारण सा चौकीदार उससे कठोर शब्दों में बोलने का दुस्साहस तक नहीं कर सकता। यह धमकी न केवल यौन उत्पीड़न कानून का दुरूपयोग है अपितु यह कानून बनाने वालों की पवित्र भावना और इस कानून से सुरक्षा पाने के सही पात्रों के अधिकारों को भी खण्डित करने वाली हरकत है। मुझे गाँवों के कुछ मित्रों ने बताया है कि दलित स्त्रियों की इज्जत की सुरक्षा में जो कानून बने हैं उनके अंर्तगत दर्ज मामलों में ज्यादातर गलत और झूठे हैं। गाँवों की पार्टीबन्दी में एक पार्टी द्वारा दूसरे से बदला लेने के लिए अपने पक्ष की दलित महिला से गलत रिपोर्ट लिखवायी जाती है ताकि अपने दुश्मन को परेशान कराया जा सके और कानूनों के प्रावधानों के अनुसार उसे जमानत भी न मिल सके। ऐसा नहीं कि गाँवों में यौन उत्पीड़न नहीं होता पर जो सचमुच के उत्पीड़ित होते हैं वे आर्थिक सामाजिक रूप से इतने अशक्त होते हैं कि वे गाँव के बलशाली लोगों के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने गवाह जुटाने और प्रतिशोध का सामना करने की हैसियत नहीं रखते। ऐसे लोग ज्यादातर मामलों में गाँव छोड़ कर शहर की ओर रूख कर लेते हैं। ( ये बात दूसरी है कि शहर में भी उन की झुग्गियाँ उजाड़ दी जाती हैं या मुंबई वालों की तरह उन्हें वहाँ से भी भगाने के आन्दोलन प्रारंभ हो जाते हैं जहाँ से अंतत: उन्हें किसी नई जगह भागना पड़ता है।) जो मुकाबला करने का साहस और संगठन रखते हैं वे आम तौर पर इस तरह की घटनाओं के शिकार नहीं होते।

एक लतीफा है जिसमें एक व्यक्ति अपने मित्र को बतलाता है कि रात में स्टेशन से लौटते समय कुछ लोगों ने उसे लूट लिया।
यह सुन कर उसका मित्र पूछता है- पर तुम्हारे पास तो पिस्तौल थी?
''हाँ!, वो तो ठीक रहा कि उस पर उनकी निगाह नहीं गयी नही ंतो वे उसे भी लूट लेते'' उसने एक संतोष के साथ उत्तर दिया।
आम तौर पर सशक्तीकरण के कार्यक्रमों में भी कुछ कुछ ऐसी ही स्थिति है। जब तक सशक्तीकरण कानून के स्तेमाल की ताकत और हिम्मत न हो तो वह सशक्तीकरण दूसरे और भी खतरों को आमंत्रण देता है। दूसरी बात यह है कि उसे देने वालों ने भी उसे पूरे मन से नहीं दिया है अपितु केवल अपनी छवि सुधारने या वोट जुगाड़ने भर के लिए देने का दिखावा भर किया है। आम तौर पर देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता अपनी पार्टी के कार्यक्रम और घोषणा पत्रों से अनभिज्ञ होते हैं और यदि कुछ उन्हें जानते हैं तो भी वे उनके दैनिंदिन जीवन का हिस्सा न होकर केवल किताबी आर्दश होते हैं। अपनी पार्टी द्वारा बनाये गये कानूनों को लागू करने के लिए कृतसंकल्प पार्टी कार्यकर्ताओं की उपलब्धता अभी शेष है। जब कभी कोई पीड़ित कानून के स्तेमाल का प्रयास भी करता है तो यही लोग उस पर समझौता करने के लिए दबाव डालने लगते हैं। कई मामलों में जब कमजोर वर्ग के लोगों ने अपने कानूनी अधिकारों के लिए संघर्ष करने के प्रयास किये हैं तो गाँव के ताकतवर लोगों ने या तो उनका निर्मम दमन किया या अपने प्रभाव वाले दलितों से उनका झगड़ा करा दिया और उसे आपस की बात बतला कर दलित उत्पीड़न कानून नहीं लगने दिया।
सशक्तिकरण के जो भी कानून लाये गये हैं उनका आज की सामाजिक व्यवस्था में लाये लाने की जरूरत से इन्कार नहीं किया जा सकता। किंतु जिस कारण वे लाये गये हैं उस पर उनका प्रभाव भी पड़ रहा है या नहीं इसका उचित मूल्यांकन और आवश्यक कानूनी सुधार नहीं किये जाते। चुनाव से पहले हर बार आरक्षित कोटे के बैकलॉग को भरने की बड़ी बड़ी बातें होती हैं किंतु उस बैकलॉग को निर्मित करने वालों के खिलाफ दण्डात्मक कार्यवाही होने के कोई उदाहरण नहीं मिलते। कानून होने के बहाने सामान्यजन को उसकी भरती से वंचित कर दिया जाता है व अपने लोगों को उपकृत कर दिया जाता है।
आरक्षण को ढाल बना कर सरकारें बेरोजगारी जनित असंतोष को सवर्ण-दलित संघर्ष की ओर मोड़ देने में सफल हो जाती हैं व इस तरह अपनी सुरक्षा कर लेतीं हैं। अभी हाल ही में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर हो हल्ला के दौर में न्यायाधीश सच्चर साहब ने बयान दिया था कि उन्होंने केवल अपनी अध्ययन रिपोर्ट जारी की है व किसी तरह के आरक्षण आदि की कोई सिफारिश नहीं की है क्योंकि यह हमारे काम का हिस्सा भी नहीं था। रोचक यह है कि इस रिपोर्ट के आधार पर मनमाने निष्कर्ष निकाल कर भाजपा अपना राजनीतिक खेल खेल रही है और कॉग्रेस अपने मुस्लिम वोट पक्के करने का काम निकाल रही है। जबकि अभी तक अल्पसंख्यकों के पक्ष में कुछ भी नहीं हुआ पर दोनों वर्गों के बीच तनाव पैदा कर दिया गया है। सच तो यह है कि रिपोर्ट बताती है कि अल्पसंख्यकों के हितैषी होने का दावा करने वाली पार्टियों के कार्यकाल में भी बड़े बड़े दावे करने के बाबजूद वास्तविक हालात में कोई सुधार नहीं हुये। दलितों को शाही समारोहों में पट्टे तो बाँट दिये गये पर कब्जे नहीं दिलवाये गये जिससे कब्जा प्राप्त करने के प्रयास में उन्होंने कब्जाधारी बाहुबलियों का दमन अलग से झेला।

असल में हमारे यहाँ आजकल जो सशक्तीकरण कानून लागू हैं वे किसी कमजोर व्यक्ति पर ऊपर से रूई लपेट कर उसे तन्दुरूस्त दिखाने की प्रचारात्मक हरकतें भर हैं जबकि अच्छे स्वास्थ के लिए एक अच्छी भूख में संतुलित भोजन की उपलब्धता और उसके पाचनतंत्र के सही होने की भी आवश्यकता होती है। हमारे यहाँ अनेक बीमारियों से ग्रसित कमजोर लोग भूख का अहसास तक भूल गये हैं और नियतवाद ने उनकी दृष्टि को धुंधला दिया है।कभी कभी उनके अशक्त हाथों पर रख दिये गये खाद्य पदार्थों को उनके खाने से पहले कुत्ते बिल्ली कौवे चील या बाज झपट लेते हैं। । जब तक वे अपने हक को मॉग कर लड़ कर नहीं पाते तब तक सारे सशक्तीकरण के प्रयास केवल उन्हें देने वालों के दरबारियों तक सिमिट कर रह जाने वाले हैं। यदि हमें सचमुच सशक्तीकरण की चिंता है तो हमें कमजोर लोगों को अपना हक पाने के लिए तत्पर संघर्षशील सिपाही के रूप में तैयार करना पड़ेगा और तब वे अपने पक्ष के कानूनों पर अमल करा सकेंगे व नये कानून बनवा सकेंगे।

वीरेन्द्र जैन
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