गुरुवार, मार्च 27, 2014

अनैतिकिता और अवसरवाद की अति तंत्र में अनास्था उपजाती है

अनैतिकिता और अवसरवाद की अति तंत्र में अनास्था उपजाती है
वीरेन्द्र जैन

                भाजपा केम्प से प्रतिदिन जो खबरें आ रही हैं वे भीड़ के नाम पर अवसरवादी भिखमंगे एकत्रित करने की खबरें हैं। उल्लेखनीय है कि एक प्रदेश की राजधानी में नगर के बीचों बीच एक पार्क है और उसके किनारे रैन बसेरा है। इस पार्क के आसपास सैकड़ों की संख्या में भिखारी रहते हैं जो अपने काम पर निकलने के अलावा अपना पूरा समय इसी पार्क में बिताते हैं और बहुत अधिक प्रतिकूल मौसम में रैन बसेरे का सहारा ले लेते हैं। यह पार्क राजनीतिक दलों और स्वयंसेवी गैर सरकारी संगठनों की रैलियों धरनों अनशन आदि के काम में भी आता है। उक्त भिखारियों का एक ठेकेदार है जो तय दर पर राजनीतिक दलों या गैर सरकारी संगठनों के लिए भीड़ सप्लाई करने का काम करता है। उस दिन ये सारे भिखारी चन्द रुपयों और भरपेट भोजन के लिए उस दल या संगठन के कार्यकर्ता बन जाते हैं। भाजपा आदि दलों में इस चुनाव के दौर में सम्मलित होने वाले राजनेता भी इन्हीं भिखमंगों का दूसरा रूप हैं।  
       नगर पालिका के स्तर पर होने वाली राजनीति का यही काम आज राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है और अपने लालच की पूर्ति के लिए चन्द नेता अचानक इतने विपरीत विचार के दलों या गठबन्धनों में एकत्रित हो रहे हैं कि उनकी बेशर्मी पर घृणा पैदा हो रही है। विचार परिवर्तन या दल परिवर्तन तो स्वाभाविक और स्वस्थ संकेत है बशर्ते कि यह सचमुच विचार परिवर्तन हो। किंतु जब ठीक चुनाव के समय अपने मूल दल के साथ सौदेबाजी में असफल हो जाने पर दूसरे दल में टिकिट मिलने की शर्त पर यह काम किया जाता है तो जुगुप्सा जगाता है।
       हर मोबाइल में उपलब्ध वीडियो कैमरे, सीसी कैमरे, हिडिन कैमरे और टेप रिकार्डर, मीडिया की प्रतियोगिता में हो रहे स्टिंग आपरेशन, नेट के माध्यम से तीव्र गति की सम्प्रेषण क्षमता, मोबाइल फोन से लोकेशन की जानकारी, आदि ने दुनिया को बेहद पारदर्शी बना दिया है। ऐसी दशा में नकली आचरण वाली राजनीति की उम्र लम्बी नहीं हो सकती। इन दिनों जो कुछ भी परदे के पीछे घटित होता है वह क्षणों में सामने आ जाता है। अमेरिका के राष्ट्रपति भवन के कारनामों से लेकर विकीलीक्स द्वारा एकत्रित किये गये बातचीत के टेप और इंतरनेट सन्देशों की चोरी से गोपनीयता दुर्लभ चीज हो गयी है। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों एनसीपी नेता शरद पवार पहले नकार के बाद भी मोदी से अपनी गुप्त भेंट को छुपा नहीं सके थे।  
       इस सच के बाद भी अवसरवादी अनैतिक आचरणों की भरमार जनता के विवेक को सीधी चुनौती देते लगते हैं। इससे भी अधिक चुनौतीपूर्ण उस दल का आचरण लगता है जो ऐसे लोगों को सार्वजनिक रूप से गले लगाते हुए उन्हें वे सर्वोच्च पद दे देता है जिनके लिए उनके कर्मठ कार्यकर्ता वर्षों से उम्मीद कर रहे होते हैं। ये कार्यकर्ता भले ही तुरंत अपने दल के नेताओं के प्रति विद्रोह करते नज़र न आते हों किंतु वे जिन आदर्शों के लिए उससे जुड़े होते हैं वह विश्वास डगमगा जाता है, व राजनीति का उद्देश्य स्वार्थ की येन केन प्रकारेण पूर्ति में बदल  जाता है। अपने नेताओं के पीछे पीछे क्षणों में दल बदल लेने वाले लोग कार्यकर्ता से गिरोह में बदल जाते हैं और उनका लक्ष्य भी सामाजिक परिवर्तन और विकास का न हो कर व्यक्तिगत हित साधन हो जाता है।
       ऐसी गतिविधियां लोकतंत्र में अनास्था पैदा करती हैं क्योंकि सच्चे वोटर ने जिस घोषणा पत्र से आकर्षित होकर अपना समर्थन दिया होता है वह ठगा हुआ महसूस करता है। शिक्षित क्षेत्र में कम मतदान और पहली बार पाँच विधानसभा चुनावों में नोटा की सुविधा मिलने पर अच्छी संख्या में उसका उपयोग होना इसका संकेत है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए अब प्रत्येक दल में सदस्यता नियमों और टिकिट वितरण की आचार संहिता को अनिवार्य किया जाना चाहिए। मान्यता प्राप्त दलों द्वारा संसद और विधानसभा में टिकिट की पात्रता के लिए न्यूनतम दो साल की वरिष्ठता को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।         
       मीडिया के सामने आँखें पौंछते हुए जसवंत सिंह हों, या बार बार रूठ कर अपना असंतोष व्यक्त करते अडवाणी हों, मुरली मनोहर जोशी हों, वरिष्ठ समर्पित नेता हरेन पाठक हों, लालमुनि चौबे हों, लालजी टण्डन हों, सिद्धू हों, अपने स्वय़ं सेवकों से नमो नमो का जाप न करने की सलाह देते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत हों, सभी मोदी की आक्रमकता से आहत और असमर्थ से प्रतीत हो रहे हैं। दूसरी ओर जिस कांग्रेस मुक्त भारत का आवाहन किया जा रहा हो उसी कांग्रेस के नेताओं को बिना सदस्यता फार्म भराये भर्ती वाले दिन ही टिकिट भी दे दिया जा रहा है। सुषमा स्वराज जैसी वरिष्ठ नेता और शैडो मंत्रिमण्डल के माडल के अनुरूप प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदार को दुख व्यक्त करते हुए कहना पड़ रहा है कि जसवंत सिंह को टिकिट न देने का फैसला असाधारण है और संसदीय बोर्ड की बैठक से बाहर लिया गया है। देश भर में अपनी लहर का दावा करने वाले का डर इतना ज्यादा है कि दो जगहों से उम्मीदवारी घोषित कर देने के बाद भी न तो गुजरात विधानसभा की विधायकी छोड़ने को तैयार है और न ही मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार है।
       दुर्भाग्य से हमारी न्याय व्यवस्था में आस्था कमजोर होते जाने से समाज में हिंसा और जंगली न्याय जगह बनाते जा रहे हैं। संसद में कामकाज निरंतर बाधित किया जा रहा है। भ्रष्टाचार ने कार्यपालिका को नाकारा बना दिया है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि जब जनता की आस्था लोकतंत्र से टूटती है तो अराजकता आती है या उसका स्थान तानाशाही या फौजी शासन ही लेता है। इसलिए लोकतंत्र का मखौल बनाना खतरनाक हो सकता है।    
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मंगलवार, मार्च 18, 2014

फिल्म समीक्षा बेवकूफियां- एक समझदारी भरी लघुकथा

फिल्म समीक्षा
बेवकूफियां- एक समझदारी भरी लघुकथा
वीरेन्द्र जैन
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       निर्देशक नुपुर अस्थाना की नई फिल्म ‘बेबकूफियां’ को हम ‘थ्री ईडियट’ की कथा का दूसरा आयाम कह सकते हैं। नब्बे के दशक से नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद देश और समाज के एक हिस्से में व्यापक बदलाव देखने को मिले हैं और उन्हीं बदलावों के अनुरूप  प्रभावित होते जीवन के ढंग और सुख दुख में परिवर्तन आये हैं। इन बदलावों का एक परिणाम फिल्म थ्री ईडियट में हमने शिक्षा व्यवस्था में आये दुष्परिणामों के रूप में देखा था तो ‘बेबकूफियां’ में उच्च वेतन किंतु नौकरी के अस्थायित्व के रूप में देखने को मिला है। मल्टी नैशनल कम्पनियों या कार्पोरेट घरानों के उच्च पदनाम और आकर्षक वेतन वाले लोग दिहाड़ी मजदूर की तरह प्रबन्धन के एक आदेश से अर्श से फर्श पर आ जाते हैं। अधिकतर निम्न मध्यम वर्ग से आये ये लोग तब तक अपने रहन सहन को लुभावने और चमकदार बाज़ार के प्रचार में फँसा कर बदल चुके होते हैं। उनके वेतन के अनुरूप ही उनके पास लाखों रुपयों की लिमिट वाले क्रेडिट कार्ड होते हैं और मासिक किश्तों के आधार पर खरीदे गये घर और कारों के नशे उन्हें समाज की सच्चाइयों से असम्पृक्त कर देते हैं। ग्लेमर से भरे नये आकर्षक और सुविधा भरे उपकरणों के सहारे वे  जीवन को एक निरंतर चलने वाले उत्सव में बदलने की कोशिश करते हैं। मँहगे मालों में खरीददारी उनकी जरूरत के लिए नहीं अपितु मार्केटिंग के शौक और स्टेटस सिम्बल के लिए की जाती है।
       जब दुनिया में अचानक मन्दी छा जाती है तो हजारों लोग नौकरी से बाहर कर दिये जाते हैं और अपनी बँधी हुयी किश्तों, क्रेडिट कार्ड से लिए उधार और मँहगी जीवन शैली के अभ्यस्त ये लोग कटी हुयी पतंग की तरह हो जाते हैं जिसका लुटेरे हाथों में पड़ कर नुचना फटना तय रहता है क्योंकि दूरदर्शिता के अभाव में ये भविष्य की सुरक्षा नहीं रखते। उक्त फिल्म की कहानी भी इसी थीम पर आधारित है। फिल्म में एक ईमानदार सनकी आईएएस अधिकारी है जो अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपनी इकलौती बेटी को माँ और बाप दोनों का प्यार देते हुए पालता है। वह लड़की पढ कर एक आईटी प्रोफेशनल बन जाती है जिसका प्राम्भिक पैकेज ही उनके आखिरी वेतन से टक्कर लेता है। इसी क्षेत्र में कार्यरत उस लड़की का प्रेमी है जिसका पैकेज प्रमोशनों के बेतरतीब उतार चढाव में उससे कम रह जाता है। अपनी ईमानदारी के कारण कुण्ठित पर अपने पद के अभिजात्य से भरा पिता लड़की को उसकी वंचित खुशियां देने के लिए उसकी शादी बहुत अधिक कमाने वाले से करने की तमन्ना रखता है, जिस कारण उन्हें प्रभावित करने के लिए बेरोजगार हो गये प्रेमी को एक ओर तो रोजगार में बने होने का झूठ बोलते रहना पड़ता है तो दूसरी ओर पिछले पदनाम और पैकेज से कम पर दूसरा काम न स्वीकारने के लिए मजबूर करता है।
       प्रेमिका और दोस्तों से उधार लेकर अपनी पुरानी जीवन शैली को अधिक नहीं खींच पाने के कारण तनाव पैदा होते हैं जो दोस्ती और प्रेम दोनों को ही प्रभावित कर दरार डाल देते हैं, जिसे आज के युवाओं के समाज में ब्रेक के नाम से जाना जाता है। उसे अपनी कार बेच देनी पड़ती है और घर खाली करना पड़ता है। प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ के लिए ठुकराया हुआ दुबई का प्रमोशन स्वीकार कर लेती है तो प्रेमिका के पिता के दबाव से मुक्त होते ही नायक एक रेस्त्राँ में प्रबन्धक की उपलब्ध नौकरी स्वीकार कर लेता है। बाद के घटनाक्रम में शेष बचे हुए प्रेम की जड़ें उन्हें फिर से मिला कर कथा को सुखांत बना देते हैं।        
       चमचमाते कार्पोरेट आफिस, हाईवे पर दौड़ती कारें, मैट्रो, माल, आदि से बदले परिवेश, पश्चिमी समाज की तरह सार्वजनिक स्थलों पर लिये जा रहे चुम्बनों और आलिंगनों को बिना घूरे गये सम्पन्न होते नये सामाजिक सम्बन्ध, नई आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप आये वैश्वीकरण के प्रभाव से उठते गिरते बाज़ार और चुटकियों में नौकरियॉ से निकाले जाते उच्च वेतन वाले लोगों के बीच पनपते और सिकुड़ते प्रेम और दोस्ती की छोटी सी कहानी कहती है यह फिल्म। मार्क्सवाद कहता है कि हमारा सांस्कृतिक ढाँचा [सुपर स्ट्रक्चर] हमारे आर्थिक ढाँचे का खोल [फेब्रिकेशन] होता है। इस फिल्म की कथा भी इस कथन को प्रमाणित करती है। पता नहीं कि पात्रों की  समझधारियों से भरी इस फिल्म का नाम बेवकूफियाँ क्यों रखा गया। पात्रों का चुनाव बहुत ही समझदारी से किया गया है। छरहरे बदन के आयुष्मान खुराना और सोनम कपूर अपनी भूमिकाओं के लिए जितने उपयुक्त हैं उतने ही उपयुक्त एक सेवानिवृत्त होने जा रहे आईएएस अधिकारी के रूप में ऋषि कपूर भी उपयुक्त हैं। यह एक अच्छी फिल्म है किंतु कहानी को जिस तेजी से पूरा कर दिया गया है वह खटकता है।          
       इस फिल्म की कथा बहुत छोटी है और विषय पुराना है पर नये परिवेश में उसके अलग आयाम हैं। इसे देखते हुए मुझे चित्रा मुद्गल की एक कहानी याद आयी जिसमें मुम्बई में ही जब एक प्रेमी जोड़े में से प्रेमिका को नौकरी मिल जाती है और प्रेमी बेरोजगार रह जाता है तो प्रेमी की ऊष्मा के ठंडे पड़ जाने का बहुत स्वाभाविक चित्रण है। इसी विषय पर स्वयं प्रकाश का एक बेहतरीन उपन्यास ईँधन के नाम से भी है।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, मार्च 13, 2014

1984 और 2002, कुछ विचारणीय तथ्य

1984 और 2002, कुछ विचारणीय तथ्य  
वीरेन्द्र जैन
       1984 में देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी की उनके ही दो सिख सुरक्षा गार्डों द्वारा धोखे से की गयी हत्या के बाद उत्तेजित लोगों द्वारा सिखों का नरसंहार हुआ था जिसमें लगभग तीन हजार सिखों की हत्या हुयी थी। एक सूचना के अनुसार अभी भी दिल्ली गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी 2200 विधवाओं को पैंसन दे रही है। यह घटना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद थी। स्वतंत्र देश के इतिहास में श्रीमती गान्धी सर्वाधिक लोकप्रिय और विवादस्पद प्रधानमंत्री रही हैं जिनके कार्यकाल में एक ओर देश खाद्य उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुआ, हमारे सबसे सक्रिय शत्रु देश के विभाजित होने से सुरक्षा व्यवस्था में कूटनीतिक लाभ मिला, पब्लिक सेक्टर का विकास हुआ, बैंकों व बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण हुआ, राजाओं के प्रिवी पर्स व विशेष अधिकारों की समाप्ति हुयी। दूसरी ओर उन्हीं के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ पैदा हुये आन्दोलन के बाद जयप्रकाश नारायण जी ने सम्पूर्ण क्रंति का नारा दिया, इमरजैंसी लगायी गयी, कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र कमजोर पड़ा व पूरा संगठन अस्थायी समितियों के द्वारा संचालित होने लगा। उन्हीं के कार्यकाल में इंगलेंड व अमेरिका में रह रहे प्रवासियों की शह पर पंजाब में अलगाववादी आन्दोलन प्रारम्भ हुआ जिससे कश्मीर के अलगाववादियों को पनपने का मौका मिला। वे अपने अंतिम दिनों में विश्व के प्रमुख देशों के नेताओं में सबसे वरिष्ठ नेता थीं तथा अमेरिका इंगलेंड समेत कई साम्राज्यवादी देश उन्हें अपदस्थ किये जाने की राह तक रहे थे। उनकी मृत्यु ने देश में एक बड़ा शून्य पैदा किया था क्योंकि उस समय कोई दूसरा नेता उनके समतुल्य लोकप्रिय नहीं था। ऐसे नेता की मृत्यु पर देशव्यापी अशांति और इस अशांति का लाभ उठाने के लिए असामाजिक अवसरवादी तत्वों के सक्रिय हो जाने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता था, इसलिए सुरक्षा बलों को भी तुरंत दूर दूर तक पदस्थ कर दिया गया था।
       उल्लेखनीय है कि देश तोड़क खालिस्तानी आन्दोलन को रोकने के प्रयास में किये गये आपरेशन ब्लूस्टार के बाद पंजाब में खालिस्तान समर्थकों द्वारा सिखों और हिन्दुओं के बीच गहरी खाई पैदा करने व सैकड़ों बेकसूर हिन्दुओं को मार कर तनाव बढाने की कोशिश की गयी थी। इसका परिणाम यह हुआ था कि हिन्दुओं की राजनीति करने वाले जो संगठन सदैव कांग्रेस का विरोध करते थे वे भी आपरेशन ब्लू स्टार के बाद कांग्रेस के पक्ष में खड़े हो गये थे। यही कारण था कि श्रीमती गान्धी की हत्या के बाद हुये 1984-85 के आम चुनाव में कांग्रेस ने दिल्ली की सातों सीटों समेत देश भर में रिकार्ड विजय प्राप्त की थी व हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा को पूरे देश में कुल दो सीटों तक सिमिट जाना पड़ा था। कहा जाता है संघ से सहानिभूति रखने वाले लोगों ने भी कांग्रेस का समर्थन किया था।  
       2002 में गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में आगजनी की घटना हुयी थी जिसमें अयोध्या से लौट रहे दो कारसेवकों समेत 59 यात्री जल गये थे। बाद में इस घटना की प्रतिक्रिया के बहाने  पूरे गुजरात राज्य में मुसलमानों का नरसंहार हुआ था और तीन हजार लोग नहीं मिले जिसमें से लगभग नौ सौ लाशों के पोस्टमार्टम का रिकार्ड है व शेष को लापता बता कर उनके बारे में सरकारी आंकड़े कुछ नहीं बोलते। इस घटनाक्रम में भी करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति लूटी व जलायी गयी थी। इस नरसंहार की भी पूरी दुनिया में व्यापक निन्दा हुयी थी और भारत को एक जंगली राज्य होने के आरोप भी सहने पड़े थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तक को कहना पड़ा था कि अब मैं कौन सा मुँह लेकर विदेश जाऊंगा। उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह देना पड़ी थी। अगर जसवंत सिंह के कथन को सही माना जाये तो घटना से व्यथित वाजपेयी अपना स्तीफा देने जा रहे थे जिससे श्री सिंह ने ही रोका था। इसी हिंसा के कारण अमेरिका और इंगलेंड ने बाद में गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को वीसा देने लायक नहीं समझा था।
       राजनीतिक रूप से जब भी कांग्रेस द्वारा गुजरात के नरसंहार की निन्दा की जाती रही है तो संघ परिवार के लोग अपनी सफाई देने के बजाय 1984 में दिल्ली की सिख विरोधी हिंसा से प्रतियोगिता दर्शाने लगते हैं। यद्यपि यह सच है कि प्रधानमंत्री इन्दिरा गान्धी की हत्या के बाद दिल्ली में हुयी सिख विरोधी हिंसा भी भयानक थी किंतु दोनों हिंसक घटनाओं का चरित्र एक जैसा नहीं है। 1984 की सिख विरोधी हिंसा देश के शिखरतम नेतृत्व पर धोखे से किये गये हमले की प्रतिक्रिया थी जिसे परोक्ष में देश पर किया गया हमला माना गया। इस मान्यता का कारण यह था क्योंकि यह हत्या राष्ट्रीय एकता की रक्षा करने के लिए किये गये आपरेशन ब्लूस्टार के विरोध में की गयी कार्यवाही की प्रतिक्रिया में योजना बना कर की गयी थी। भले ही दिल्ली में इस हिंसा में मरने वालों की संख्या सबसे अधिक थी किंतु यह हिंसा कानपुर मुरैना समेत देश के दूसरे अनेक हिस्सों में भी घटी थी, जो इस बात का प्रमाण थी कि यह हिंसा असंगठित और सहजस्फूर्त थी। इस पर शीघ्र ही काबू पा लिया गया था। उल्लेखनीय है कि उस समय देश के राष्ट्रपति के रूप में एक सिख ज्ञानी जैल सिंह पदस्थ थे व गृहमंत्री के रूप में सरदार बूटा सिंह पदस्थ थे। खालिस्तानी आन्दोलन का दुष्प्रचार रोकने के लिए उन दिनों कांग्रेस ने अपनी सभी राज्य सरकारों और कांग्रेस समितियों में यथा सम्भव सिख समुदाय को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया था। दूसरी ओर 2002 में गुजरात में हुये नरसंहार पर सबसे बड़ा आरोप यह लगता है कि उसे तत्कालीन भाजपा सरकार के मंत्रियों ने न केवल प्रोत्साहित किया था अपितु अपराधियों की मदद करते हुए उनको संरक्षण भी दिया था। भले ही दिल्ली की हिंसा में कांग्रेस के कुछ नेता सीधे तौर पर ज़िम्मेवार माने गये हैं किंतु इसे कांग्रेस संगठन की ओर से न तो कोई प्रोत्साहन दिया गया था और न ही संरक्षण दिया गया था। इसके विपरीत गुजरात में तो जानबूझ कर न केवल आरोपियों को संरक्षण दिया गया अपितु उन्हें मंत्री पद देकर बल भी प्रदान किया गया। एक स्टिंग आपरेशन में खुलासा हुआ कि किस तरह से सरकारी वकील ने आरोपियों की मदद करके उन्हें सम्भावित दण्ड से बचाने में मदद की। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अब भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी ने इस घटना के बाद लगातार पीड़ितों के साथ भेदभाव किया। गोधरा में मारे गये लोगों अर्थात गैर मुस्लिमों को दो लाख का मुआवजा घोषित करते हुए शेष गुजरात में मारे गये लोगों को जिनमें शतप्रतिशत मुसलमान थे को एक लाख मुआवजा घोषित किया। आज बारह साल बाद भी हजारों की संख्या में पीड़ित मुसलमान सुविधाविहीन कैम्पों में रह रहे हैं और सरकार यथावत उदासीन है, जबकि दिल्ली में समुचित मुआवजा ही नहीं दिया गया अपितु पुनर्वास की अनेक योजनाएं लागू की गयीं। कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं ने क्षमा मांगी और उसके बाद सिखों और गैर सिखों के बीच कोई तनाव नहीं देखा गया।  
       1984 की सिख विरोधी हिंसा की गम्भीरता को स्वीकारते हुये यह देखना जरूरी है संघ परिवार से जन्मी भाजपा का चरित्र ही साम्प्रदायिक है और देश भर में शाखाएं लगाकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का पाठ निरंतर पढाया जाता है। धर्म के नाम पर उनके आनुषांगिक संगठन केवल विवादास्पद धर्मस्थलों पर विवाद भड़काने का धर्म निबाहते हैं। गुजरात से पहले बाबरी मस्ज़िद राम जन्मभूमि मन्दिर के नाम पर देश भर में रथ घुमा कर दंगे भड़काये गये थे। सोनिया गान्धी के राजनीति में सक्रिय होते ही धर्म परिवर्तन रोकने के बहाने चर्चों और पादरियों पर हमले करवाये जाने लगे थे ताकि सोनिया गान्धी को ईसाई प्रचारित कर नया राजनीतिक ध्रुवीकरण किया जा सके। उल्लेखनीय है कि गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या6 में हुयी जिस आगजनी को अयोध्या से लौटने वाले कारसेवकों पर हमला बता साम्प्रदायिक आधार पर बहुसंख्यक लोगों की सहानिभूति जुटाने की कोशिश की गयी थी उसमें 59 मृतकों में कारसेवकों की संख्या कुल दो थी। यद्यपि किसी भी निर्दोष व्यक्ति की हत्या गम्भीर दुख और क्रोध का विषय होता है किंतु सच सामने आने से घटना के मूल चरित्र में बदलाव हो जाता है। उससे साफ हो जाता है कि बोगी संख्या6 में हुयी आगजनी का चरित्र साम्प्रदायिक नहीं था और आँख बन्द करके पूरे गुजरात में मुसलमानों पर हमला कर देने वाले दुष्प्रचार से भ्रमित थे व सरकार में बैठ कर उनकी मदद करने वाले अपनी राजनीतिक कुटिलिता से यह सब करवा रहे थे। पिछले दिनों नकली वीडियो अपलोड करके मुज़फ्फरनगर में दंगा भड़काने वाले विधायकों का नरेन्द्र मोदी द्वारा किया गया सार्वजनिक अभिनन्दन इनके चरित्र का याज़ा उदाहरण है।
       यह सच है कि भाजपा 1984 अलगाववादी खालिस्तानी आन्दोलन के साथ नहीं थी और सिखों को हिन्दू मानने वाली यह पार्टी हिन्दूजाति में बिखराव की आशंका में सिख उग्रवादियों के खिलाफ थी। परिणाम स्वरूप भाजपा का समर्थक वर्ग भी श्रीमती गान्धी की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ हुयी हिंसा में सिखों की रक्षा में सक्रिय नहीं हुआ। उल्लेखनीय है कि इतनी व्यापक हिंसा और आगजनी के बाद भी किसी भाजपा समर्थक की हिंसा और आग रोकने की कोशिश में उंगलियां भी नहीं झुलसीं। जब दिल्ली में भाजपा की राज्य सरकारें रहीं तब भी उन्होंने 1984 की हिंसा की जाँच के कोई सार्थक कदम नहीं उठाये।
       स्मरणीय है कि भगत सिंह ने अदालत में कहा था कि हिंसा के पीछे का उद्देश्य महत्वपूर्ण है अन्यथा मौत की सजा देने वाला न्यायाधीश भी हत्या के लिए जिम्मेदार होगा। दिल्ली और गुजरात की हिंसा को देखते समय भी हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों का चरित्र और उनका इतिहास ध्यान में रखना होगा।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, मार्च 10, 2014

फिल्म समीक्षा गुलाबी गैंग, यथार्थवादी विषयवस्तु पर व्यावसायिक फिल्म

फिल्म समीक्षा
गुलाबी गैंग, यथार्थवादी विषयवस्तु पर व्यावसायिक फिल्म
वीरेन्द्र जैन

       गुलाबी गैंग सोलहवीं लोकसभा के लिए चुनावी प्रचार के दौर में रिलीज हुयी एक ऐसी फिल्म है जिसमें एक डाकूमेंटरी फिल्म से विषयवस्तु ले लोकप्रिय और मँहगे सितारों के साथ एक व्यावसायिक फिल्म बना डाली गयी है। फिल्म की पब्लिसिटी के लिए उसे अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन पूर्व ही रिलीज किया गया और उससे कुछ दिन पूर्व दिल्ली हाईकोर्ट से स्थगन लेने और उससे मुक्त होने का खेल भी चला जिसकी खबर के प्रसारण ने फिल्म को ज्यादा बड़े क्षेत्र तक पहुँचाया।
       फिल्म बड़ी लागत का उद्योग है और इसमें निवेश करने वाले अपना धन डुबाने के लिए पैसा नहीं लगाते हैं अपितु उस निवेश से अधिकतम धन कमाना उनका लक्ष्य होता है। इसके लिए वे यथार्थ के साथ ऐसे प्रयोग करते हैं जिससे दर्शक या कहें कि ग्राहक उनके पास तक पहुँचे। ये समझौते भले ही कलात्मक सिनेमा के दर्शक वर्ग को निराश करते हों किंतु मनोरंजन उद्योग की भी अपनी मजबूरियां होती हैं। इससे भी संतोष किया जा सकता है कि निर्माता ने अपने धन का उपयोग चालू बम्बैया फिल्म बनाने में न करके एक उद्देश्यपरक आन्दोलन पर फिल्म बनायी।   
       2006 में गुलाबी गैंग नामक महिलाओं की एक संस्था बाँदा जिले में गठित हुयी थी जिसने बिजली कटौती के विरुद्ध एक सफल आक्रामक आन्दोलन से शुरुआत की थी और फिर पुरुषवादी समाज में महिलाओं के खिलाफ होने वाली घरेलू हिंसा का मुकाबला संगठित महिलाओं की लाठियों से करने में सफलता अर्जित की। उन्होंने राशन की दुकानों में होने वाली हेराफेरी और् गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वालों के राशन को ब्लेक करने वालों के खिलाफ प्रभावी आन्दोलन चलाया था और उनकी चोरियों पर छापामारी की थी। आज उसके सदस्यों की संख्या पचास हजार के आसपास बतायी जाती है। यथार्थ में ये महिलाएं अपने संघर्ष के अनुरूप ही रफ एंड टफ हैं किंतु फिल्म में एक सुन्दर सुडौल कोमलांगी रोमांटिक अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को यह भूमिका दी है जिनका स्टंट दर्शकों के मन में बनी उनकी छवि और छरहरी देहयष्टि भूमिका के साथ न्याय नहीं करती। कठोर जीवन जीने वालों की खुरदरी भाषावली के कुछ संवाद बोल देने से बात नहीं बनती। कोई भी व्यवस्था या दुर्व्यवस्था समकालीन राजनीति से प्रभाव लिये बिना न तो बनती है और न ही बनी रह सकती है इसलिए उस पर बनी फिल्म में भी तत्कालीन राजनीति के प्रसंग आना स्वाभाविक है। इन प्रसंगों में भी जिस सत्तारूढ महिला राजनीतिज्ञ को चित्रित किया गया है उसमें भी उस राजनीतिज्ञ की छवि नहीं उभर पायी है जिसकी ओर इंगित किया गया है। उल्लेखनीय है कि जब इस संस्था का गठन हुआ था तब उत्तर प्रदेश में मायावती का शासन था, और गुलाबी गैंग फिल्म की खलनायिका उनके राजनीतिक आचरण की किवदंतियों से झलक लेती सी दिखती है। मुख्य रूप से ग्रामेण परिवेश पर बनी फिल्म की भाषा में स्थानीयता की बहुत हल्की सी ध्वनि दो चार संवादों में ही सुनाई देती है जिससे कुल मिला कर फिल्म की भाषा खड़ी बोली के साथ बुन्देली, अवधी, और भोजपुरी के साथ मिलकर एक खिचड़ी सी बन कर रह गयी है। नायिका के एक प्रसिद्ध नृत्यांगना होने के कारण फिल्म में नृत्य भी ठूंसे गये हैं जिनका कथास्थल के लोक नृत्यों और लोक धुनों से कहीं कोई जुड़ाव प्रकट नहीं होता। सारी लोककलाएं जीवन जीने के अन्दाज़ से ही विकसित होती हैं किंतु फिल्म में पात्रों की भूमिका जीवन जीने के ढंग और उनके गीत संगीत में कोई तालमेल नहीं है। दुखद यह है कि यह फिल्म उस कालखण्ड में बनी है जब कि यथार्थवादी कलात्मक और लीक से हटकर बनने वाली फिल्में भी अच्छी संख्या में बन रही हैं। अगर इसी विषय पर श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक फिल्म बनाते तो फिल्म कुछ दूसरी ही बनती। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे ही विषय और पृष्ठभूमि के आसपास बैंडिट क्वीन, गैंग आफ वासेपुर, पानसिंह तोमर, पीपली लाइव आदि फिल्में बनी हैं जिनके सामने यह फिल्म बहुत कमजोर लगती है। व्यावसायिक रूप से भले ही यह फिल्म अपने निर्माताओं का नुकसान न होने दे किंतु इस फिल्म ने इसी विषय पर बन सकने वाली एक अच्छी और दीर्घजीवी फिल्म की सम्भावनाओं को नष्ट कर दिया है।
       फिल्म में घरेलू हिंसा और दहेज के अभिशाप, ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था की कमजोरियों, जनवितरण प्रणाली के दोषों, पुलिस की सत्तारूढ शक्तियों के पक्ष में दमनकारी ताकत में बदल जाने, हत्यारी राजनीति के कुटिल और अमानवीय समझौते, सुरक्षा के बिना सूचना के अधिकारों की दुर्गति, के चलताऊ संकेत मिलते हैं, किंतु उसी क्षेत्र में चल रहे विषाक्त जातिवाद, खराब स्वास्थ व्यवस्था, प्रशासकीय भ्रष्टाचार, अन्ध आस्थाएं, बढते अपराधीकरण और खराब न्यायव्यवस्था से आँखें मूँद ली गयी हैं, जिनका आपस में गहरा सम्बन्ध है। यह कहीं प्रकट नहीं है कि एक संगठन बनाने में जातिवादी जहर, ऊंच नीच की भावना, और छुआछूत से कैसे मुक्ति पायी गयी।
       भ्रष्टाचार, पक्षपात, दिशाहीनता से ग्रसित आज का समाज बदलाव के लिए छटपटा रहा है किंतु उसे सही दिशा नहीं मिल रही। वह आसारामों और निर्मल बाबाओं से लेकर अन्ना हजारे और आम आदमी पार्टी तक जगह जगह भटक रहा है। जहाँ से भी उसे झूठी सच्ची किरण नज़र आती है वह दरवाज़ा खोल देता है। गुलाबी गैंग से लेकर नक्सलवादियों तक मेघापाटकर से लेकर मोदियों तक में वह सम्भावनाएं तलाशता दिखता है।
       कभी राजेन्द्र यादव ने हंस के एक सम्पादकीय में लिखा था कि आजकल कहानी से ज्यादा संस्मरण और आत्मकथाएं पाठकों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। हम देखते हैं कि टीवी के दूसरे सीरियलों की तुलना में क्राइम पैट्रोल जैसे सीरियल या स्टिंग आपरेशन के समाचार अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं क्योंकि लोग प्रामाणिक सच जानना चाहते हैं और कथाओं की जगह घटनाओं से सम्वेदना ग्रहण करना चाहते हैं। गुलाबी गैंग जैसी फिल्में यथार्थ का प्रचार करके कहानी दिखा रही हैं जो विशिष्ट दर्शक वर्ग के साथ इमोशनल अत्याचार है। बहरहाल मात्र मनोरंजन के लिए फिल्में देखने वालों के लिए यह एक विकल्प हो सकती है जिनके लिए नृत्य, गीत, फाइट के साथ कहानी भी है।   
वीरेन्द्र जैन
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