रविवार, जुलाई 23, 2023

पीड़ा रहित मृत्यु की तलाश में समाज

 

पीड़ा रहित मृत्यु की तलाश में समाज

वीरेन्द्र जैन

जब यह खबर आयी कि गोष्ठी में बैठे एक साथी के मित्र के बड़े भाई की मृत्यु आज सुबह हो गयी है, और थोड़ी ही देर में उनकी शवयात्रा शमसान घाट पहुँच जायेगी तो सब लोग वहाँ जाने को तैयार हो गये। हम लोग जहाँ बैठे थे वह जगह शमसान घाट के निकट ही थी और मृतक के घर जाने की जगह सीधे पहुंचना सुविधाजनक था, सो वही किया गया।  वैसे मृतक के परिवार से मेरे बहुत गहरे रिश्ते नहीं थे किंतु ऐसी स्थिति में मना भी नहीं कर सकता था। एक मेरे जैसे ही दूसरे साथी ने कहा कि हम लोग केवल विचार ही कर रहे थे सो वह तो शमसान घाट में भी जारी रहता है।

ऐसे मौके पर आम तौर पर कुछ सामान्य सी बातचीत होती है। क्या हुआ था?, कहाँ इलाज चला? उम्र क्या थी? बच्चे कितने हैं? वे क्या करते हैं? घर , मकान आदि के बारे में भी पता होने पर भी लोग चर्चा कर लेते हैं, उनके जीवन की किसी यादगार घटना और मृतक की किसी प्रतिभा को भी याद कर लिया जाता है।

हम लोग शवयात्रा के पहुंचने से पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे। कुछ परिचित और कुछ अपरिचित लोग आ चुके थे जो सब एक ही काम के लिए एकत्रित हुये थे इसलिए उनमें एक रिश्ता बन रहा था। बातचीत में पता लगा कि मृतक 75 से 80 के बीच के रहे होंगे। सरकारी नौकरी से रिटायर्ड थे, और उम्र के अनुरूप होने वाली शिकायतों के वाबजूद स्वस्थ व नियमित दिनचर्या वाले सज्जन पुरुष थे। कल रात ठीक तरह से सोये किंतु रोज की तरह ही जब सुबह समय पर नहीं उठे तो घर के लोगों ने पाया कि वे हमेशा के लिए सो चुके थे। डाक्टर को बुलवाया गया जिसने रात में आये किसी साइलेंट अटैक की सम्भावना व्यक्त करते हुये उन्हॆं मृत घोषित कर दिया था।

इतना सुनते ही उनके एक हमउम्र व्यक्ति संतोष की साँस लेते हुए बोले, ऐसी मौत अच्छी है। उन्होंने किसी को कोई तकलीफ नहीं दी, किसी से कोई सेवा नहीं करायी, ना ही जाते जाते अस्पताल का कोई बड़ा बिल भुगतान के लिए छोड़ गये।

मैंने देखा कि उनकी इस बात पर उपस्थितों के बीच व्यापक सहमति थी जिसका मतलब था कि सब मृत्यु के पूर्व होने वाली बीमारियों की पीड़ाओं, रिश्तेदारों की उपेक्षा, और अस्पतालों के जायज नाजायज बिलों, के प्रति आशंकित थे और इनसे बचने के लिए मृतक जैसी मृत्यु को ईर्षा के भाव से देख रहे थे। भले ही कोई तुरंत नहीं मरना चाहता हो किंतु सोच रहा था कि मृत्यु हो तो ऐसी। 

आर्थिक स्थितियों और सामाजिक सम्बन्धों में आये बदलावों, कभी भगवान समझे जाने वाले डाक्टरों और उनके अस्पतालों की व्यावसायिकता ने व्यक्तिओं को मृत्यु के ढंग में चयन करने वाला अर्थात चूजी बना दिया है। वह मृत्यु पर दुखी होने की जगह ईर्षालु हो रहा था। गौर करने पर पाया कि आत्महत्याओं के प्रकरणों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, कभी आत्महत्या करने वालों में महिलाओं के संख्या अधिक होती थी किंतु अब पुरुष आगे निकल गये हैं। आत्महत्या के लिए जहर का प्रयोग अधिक होने लगा है जो शायद कम पीड़ा वाली मौत मानने के कारण चुना जाता हो।  

समाज शास्त्रियों को इसका अध्ययन करना चाहिए कि आखिर क्यों मृत्यु इतने लोगों को आकर्षित कर रही है।   

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

रविवार, जुलाई 02, 2023

मेरे गुरु – जिनसे जीवन में सीखा

 

मेरे गुरु – जिनसे जीवन में सीखा

वीरेन्द्र जैन

गुरु पूर्णिमा, अपने गुरुओं को याद करने के दिन के रूप में जाना जाता है। वर्षों से लोगों को ऐसा करते हुए देख रहा हूं, जिसे देख कर लगता रहा है कि मुझे भी उन सब को याद करना चाहिए जिनसे मैंने जीवन में कुछ सीखा है। अब तक मैं यह मानता रहा हूं कि ऐसा करने का अधिकार केवल उन लोगों को है जो गुरुओं से सीख कर कुछ उल्लेखनीय काम कर चुके हैं। बिना कुछ महवपूर्ण किये अपने गुरुओं को याद करना उनकी क्षमता को कम करके बताना ही होगा। इसलिए इस स्मरण को मैं निजी दस्तावेज में दर्ज करने के लिए ही लिख रहा हूं, इसका कोई सार्वजनिक महत्व नहीं है [शायद] ।

जैसा कि परम्परावादी लोगों का होता है, वैसा मेरा कोई एक गुरु नहीं रहा जिस पर अपनी अच्छी बुरी निर्मिति का सारा बोझ डाल दिया जाये। यह शायद गुरुकुलों के जमाने की परम्परा रही हो जहाँ एक बार कच्चा माल डाल देने के बाद ढला हुआ माल ही बाहर निकलता होगा। आज के समय में हिन्दी का अध्यापक अलग होता है, गणित का अलग, खेलकूद का अलग तो विज्ञान का अलग। और ये भी कक्षा दर कक्षा बदलते रहते हैं। हमारे समय में फिल्में, नाटक, धार्मिक कथाएं, साहित्य, राजनीतिक आम सभाएं, कवि सम्मेलन भी कुछ ना कुछ सिखाने लगे थे, वही काम बाद में सैकड़ों चैनलों वाला टीवी और थ्रीजी,फोरजी मोबाइल, कम्प्यूटर और लेपटाप आदि करने लगे। बिना गुरू की पहचान के आन लाइन क्लासेज चलने लगे हैं, अब किसी बच्चे से यह नहीं पूछा जा सकता कि ये गन्दी आदतें तुम्हें किसने सिखायी हैं, तुम्हारे मम्मी-पापा या टीचर से शिकायत करेंगे।

“जैक आफ आल, मास्टर आफ नन “ जैसे लोगों में से एक मैं उन सब लोगों को याद करना चाहता हूं, जिन से कुछ सीखा। माता पिता तो सबके ही पहले गुरु होते ही हैं जिनसे हम प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करते हैं और पहली शिक्षा यह पाते हैं कि बिस्तर में पेशाब कर देना बुरी बात होती है, दूसरी यह कि दूध को बोतल या कटोरी चम्मच से पीना सीखना चाहिए। नंगे रहना बुरी बात होती है, इसलिए जल्दी से चड्डी पहिन लेना चाहिए। फिर कुछ ऐसा सीखते हैं जो बाद में झूठ साबित होता है, जैसे कि पढोगे लिखोगे तो बनोगे नबाब।

स्कूल में अक्षर ज्ञान से लेकर अंक ज्ञान तक विभिन्न कक्षाओं के भिन्न टीचर या ट्यूटर पढाते रहे हैं जिन्हें सरकार या घर के लोग वेतन अदा करते हैं, शायद इसी लिए किसी भी गुरुभक्त को इनके प्रति आभार व्यक्त करते नहीं देखा, सो मैं भी नहीं करूंगा। करना भी चाहूं तो उनके नम और चेहरा याद नहीं। जूनियर कक्षाओं तक कक्षा में जो पढता था वही परीक्षा में लिख कर पास हो जाता था। सर्व प्रथम आने जैसा भाव कभी मेरे मन में नहीं भरा गया, सो मैं आया भी नहीं। नवीं कक्षा से विज्ञान का विद्यार्थी हो गया था इसलिए पढाई में मेहनत करनी पड़ रही थी, कक्षा की पढाई से काम नहीं चल रहा था। दसवीं तक आते आते एक सामूहिक ट्यूटर श्री राम स्वरूप गोस्वामी जी के यहाँ पढने जाने लगा। वे हर तरह से देशी व्यक्ति थे, विज्ञान को बुन्देली भाषा में समझाते थे जो आसानी से समझ में आ जाती थी जिससे पढना अच्छा लगता था। डिवीजन तब भी सेकिंड ही रही क्योंकि और भी विषय थे और स्कूल के टीचर भी ट्यूशन करते थे व उसी के अनुसार नम्बर देते थे। कभी कभी किसी खाली क्लास को भरने के लिए एक लाल साफे वाले सरदार जी कक्षा लेने आ जाते थे जो अन्धविश्वासों के खिलाफ वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करते थे जो बहुत अच्छी लगती थी। भूत प्रेतों और धार्मिक पाखंडों के खिलाफ उनके तर्क अच्छे लगते थे। उनका नाम तब भी पता नहीं था इसलिए अब याद न आना स्वाभाविक है। इसे दौरान हिन्दी के अध्यापक श्री राम रतन अवस्थी, श्री आर आर वैद्य और श्री घनश्याम कश्यप भी थे जो अध्यापन से इतर साहित्यिक सम्वाद से शिक्षित करते थे। चीन के साथ इसी दौर में सेमा विवाद हुआ और समारोहो में वीर रस की अनेक कविताओं से प्रेरित हुआ। इसी के प्रभाव में खुद भी लिखने की प्रेरणाएं मिलीं।

कालेज में आने के बाद फिजिक्स, कैमिस्ट्री, जूलौजी, बाटनी के विभिन्न प्रोफेसर्स रहे और सबने अपना कर्तव्य पूरा किया। मेडिकल में कुछ अंक कम होने के कारण प्रवेश न मिल पाने से निराश मैंने अपने सामान्य ज्ञान के आधार पर बीएससी किया और फिर अर्थशास्त्र में एम ए किया। इस पढाई में कोई गम्भीरता नहें थी। इसी दौरान आवारगी, बेरोजगारी, में राजनीतिक सम्वाद और सामाजिक विषयों पर बहस का चश्का लगा। एक बोहेमियन जिन्दगी जीने का इरादा पैदा हुआ। संयोग से इसी दौरान मैंने रजनीश को पढना शुरू कर दिया था जो बहुत भा रहे थे। चाय के होटल हमारे जैसे लोगों के अड्डे थे जिसमें एक वरिष्ठ अध्यापक श्री वंशीधर सक्सेना से मित्रता हुयी जो पहले से ही वैसा जीवन जी रहे थे जैसी प्रेरणा रजनीश साहित्य से मिल रही थी\ उम्र के अंतर के बाबजूद वे मित्र बन गये थे और रजनीश को पढने वाली पूरी मित्र मण्डली उन्हें गुरूजी मानने लगी थी। उनके परम्परा विरोधी विचार और आचरण हमें बहुत भाता था। वे अपने हम उम्रों और सहकर्मियों से अलग युवाओं के मण्डली के गुरु के रूप में जाने जाने लगे थे। उनके जीवन भर उन्हें हमारे गुरु के रूप में सम्मान मिला। वे अभी भी याद आते हैं क्योंकि उन्होंने हमारे प्रगतिशील विचारों को पुष्टि देकर बल दिया था। उन्होंने अपनी कोई बात हम पर नहीं थोपी।

1971 में मैं नौकरी में आ गया व शैक्षिणिक आवारगी के दिनों में जो आलोचनात्मक पढने का शौक लगा था वह और बढ गया। अब मैं ढेर सारी पत्रिकाएं और अखबार मंगाता था, नौकरी पूरी ईमानदारे किंतु बेमन से करता था। इस दौरान रजनीश साहित्य व साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ कर बहुत अध्ययन सम्पन्न हो गया क्योंकि दोनों ही जगह बहुत पढे हुए लोग सार संक्षेप प्रस्तुत कर देते थे। कई पत्रिकाओं के कमजोर लेखन के प्रकाशन से मुझे लगा कि ऐसा या इससे अच्छा तो मैं भी लिख सकता हूं और मेरी लेखनी चल पड़ी। इसी दौरान मेरी मित्रता दतिया के ही एक ऐसे मित्र शिवमोहन लाल श्रीवस्तव से हुयी जो खूब छपता था। पहले मुझे अपनी रचनाओं की वापिसी पर बहुत क्षोभ होता था किंतु जब मैंने देखा कि उसकी प्रकाशित रचनाओं से कई गुनी रचनाएं वापिस भी होती हैं तो यह सब एक खेल लगने लगा। पत्रिकाओं को पढते पढते मुझे समझ में आ गया कि किस पत्रिका के लिए कौन सी रचना उपयुक्त होगी, जिसके परिणाम स्वरूप मैं लोकप्रिय पत्रिकाओं में खूब छपा। शिवमोहन के जीते जी तो यह मानने में संकोच होता था किंतु अब यह कह सकता हूं कि प्रकाशन के मामले में मैं उसका एकलव्य था। नामी गिरामी लोगों से पत्र व्यवहार करने की प्रेरणा भी उसी से मिली।

मैं नौकरी नहीं करते रहना चाहता था और विकल्प के रूप में कवि सम्मेलन के मंचों पर रचना पाठ से जीवन यापन की सोचने लगा था क्योंकि पत्रिकाओं में प्रकाशन से मेरा नाम जाना जाने लगा था। एक सुधी श्रोता के रूप में कवि सम्मेलनों में जाने का जो अनुभव था, उससे मुझे यहाँ भी लगा कि अगर मौका मिले तो मैं यहाँ भी बहुत सारे स्थापित लोगों से अच्छा कर सकता हूं। अनेक मंचों पर मैं ठीक ढंग से सुना भी गया और प्रमुख कवियों की आँखों में प्रशंसा भाव भी देखा। मैंने कवि सम्मेलनों के कवियों से अपने प्रकाशन का सन्दर्भ देते हुए पत्र व्यवहार करना शुरू किया और बिना किसी सौदे के अनेक मंचों पर जाकर खुद को आजमाया। अपनी गा न पाने की अक्षमता और उच्चारण दोष के कारण मैं सफल तो नहीं हो सका किंतु मौलिक विचारों के कारण सराहा गया। इस बीच में इस क्षेत्र में प्रतियोगिता व स्तरहीनता बहुत बढ गई थी।  कवि सम्मेलनों के कवियों में मुझे मुकुट बिहारी सरोज के व्यंग्य गीत बहुत पसन्द आते थे। वे मेरे द्रोणाचार्य बनते गये। इस प्रभाव को अन्य लोगों ने भी महसूस किया। घोषित गुरु तो नहीं किंतु जब जहाँ वे मिल जाते मैं उनका गुरु तुल्य ही सम्मान करता था। कह सकता हूं कि वे मेरे काव्य गुरु थे।

मैं सोच में वामपंथी था, मेरे बैंक की ट्रेड  यूनियन सीपीआई से जुड़ी थी इसलिए मैं सीपीआई के नेताओं के सम्पर्क में रहा किंतु 1977 में जब मैं भरतपुर पदस्थ था तब इमरजैंसी में सीपीआई का इन्दिरा गाँधी को समर्थन देना हजम नहीं हुआ। इसी दौरान में पहले सीपीएम के कामरेड राम बाबू शुक्ल और फिर उनके माध्यम से सव्य साची के सम्पर्क में आया। रामबाबू जी ने मुझे मार्क्सवाद समझाया और वामपंथी पार्टियों की व्याख्या की। सच तो यह है कि मार्क्सवाद के मेरे पहले गुरु रामबाबू शुक्ल ही रहे जिसे बाद में कामरेड सव्यसाची की अनेक क्लासिज ने परिपक्व किया। मार्क्सवाद समझने के बाद ही दुनिया और दुनियादारी समझ में आयी। इस समझ ने चित्त को प्रसन्नता से भर दिया। सव्यसाची तो हजारों लोगों को मार्क्सवाद पढा चुके थे जिनमें इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर चमक रहे अनेक नाम हैं। उन्हें गुरु कह सकता हूं, वैसे भी वे मास्साब के रूप में जाने जाते रहे।

हरिशंकर परसाई के व्यंग्यों ने मुझे राजनीति पर प्रतिक्रिया देना सिखाया। परसाईजी को मैंने एक विद्यार्थी की तरह भरपूर पढा और सीखा। यहाँ तक की कि जब व्यंग्य लेखों की मेरी पहली किताब आयी तो उस पर एक टिप्पणी यह भी थी कि ये परसाई की गैलेक्सी के सितारे हैं। यह बात कुछ हद तक सही भी थी। मैंने उन्हें कल्पना से लेकर नई दुनिया, जनयुग से लेकर करंट तक निरंतर पढा, यहाँ तक कि करंट में तो परसाईजी, कमलेश्वर, डा. राही मासूम रजा आदि के स्तम्भों के साथ मुझे भी व्यंग्य कविताएं लिखने का अवसर मिला। मेरी किताबों को प्रकाशन तक लाने में सुप्रसिद्ध कहानीकार से.रा. यात्री ने बड़े भाई जैसे स्नेह के साथ मदद की। मुझे भोपाल में नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, प्रभाष जोशी, मैनेजर पांडे, डा. के बी एल पांडे आदि के विद्वतापूर्ण भाषणों से सैकड़ों पुस्तकों का ज्ञान मिला। प्रेमचन्द के सम्पादकीय लेखों के बाद कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव के सम्पादकीय लेखों ने मुझे भरपूर तर्क सम्पन्न किया। अमृता प्रीतम की कहानियों और नीरज के गीतों ने मेरे मर्म को छुआ।

सच तो यह है कि परम्परागत रूप से मेरा गुरु तो कोई नहीं रहा किंतु मैं अनेक लोगों का एकलव्य रहा और किसी को अंगूठा मांगने का मौका नहीं दिया। वैसे किसी ने कहा कि बादाम खाने से अकल नहीं आती, ठोकर खाने आती है, सो इसमें कोई कमी नहीं रही।

दुष्यंत के शब्दों में कह सकता हूं कि -

हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया

हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023