शनिवार, दिसंबर 18, 2021

संस्मरण मेरी गाय – चैरई और रिश्ते

 

संस्मरण

मेरी गाय – चैरई और रिश्ते

वीरेन्द्र जैन


बचपन की यादों में, मैं घर में पली गाय के बारे में नहीं भूल पाता। मैं ना तो कभी गाँव में रहा और ना ही मेरे यहाँ कोई खेत थे। हम लोग जिला मुख्यालय वाले एक कस्बे दतिया में रहते थे। आज़ादी से पहले यह स्टेट हुआ करती थी और कहा जाता है कि कभी एक दीवान एनुद्दीन ने इसे तबियत से संवारा था। कुछ सड़कें बनवायी थीं, नालियां बनवायी थीं, फुटपाथ बनवाये थे, पार्क, फव्वारे और दोनों ओर खजूर के पेड़ों से घिरी एक लम्बी सड़क भी बनवाई थी जिसके दोनों तरफ फव्वारे और गेट बने थे। ये सब कुछ अब नष्ट हो चुका है और इनमें से अधिक से अधिक पर अतिक्रमण हो चुका है। इन दिनों राजनीति में सक्रिय होने का एक ही मतलब रह गया है, सरकारी और जन उपयोगी जमीन पर कब्जा करना। कुछ लोगों के निजी घर तो सर्वसुविधा सम्पन्न व मार्बल, टाइल्स मंडित हो चुके हैं किंतु नगर का सौन्दर्य बिगड़ चुका है। पहले साधारण घर होते थे पर चारों ओर कुछ हवेलियां होती थीं जो राजपरिवारों के लोगों की होती थीं इसके साथ साथ दो हवेलियों की मुझे और याद है जिनमें से एक सुप्रसिद्ध राज गायिका शक्का की, और दूसरी पखावज वादक कुंदऊं सिंह की होती थी। इन्हीं दो हवेलियों के बीच हमारा किराये का मकान था जो नगर के बीच से गुजरने वाली इकलौती पक्की सरकुलर सड़क पर था। तब अतिक्रमण नहीं था इसलिए इसी सड़क से दतिया को सेंवड़ा जाने वाली बस भी गुजरती थी। मेरे किराये का मकान भी पन्नालाल खुशालीराम फर्म का था जिनके परिवार से विन्ध्य प्रदेश विधानसभा के लिए पहले विधायक चुने गये थे। सन्दर्भ के लिए बता दूं कि यह मकान भोपाल की मेयर रही विभा पटेल के चाचाओं का था, और बाद में उनके पिता डा. बलवंत सिंह के हिस्से में आया था।

इसी मकान में मेरा बचपन गुजरा जिसके बाहर पिताजी अपनी गाय बांधते थे जिसे चराने के लिए बरेदी सुबह सुबह ले जाता था और शाम को लौटा कर लाता था। पिताजी भले ही नगर के इकलौते बैंक में बाबू थे जब बैंक में केवल सम्पन्न लोगों का ही आना जाना होता था, इसलिए वे छोटे नगर में सबसे सुपरिचित व सम्मानित थे। किंतु उनके अन्दर बाबूगीरी कभी नहीं आयी और वे हर तरह से एक देशज नागरिक बने रहे। हमारे घर सिरौल गांव से दूध देने के लिए पहलू नाम का दूध वाला आता था जिसके सौजन्य से उन्होंने यह गाय खरीद ली थी। इतनी सीधी गाय मैंने दूसरी नहीं देखी। घर में मैं और मुझ से दो साल बड़ी बहिन थी व मुझ से दो साल छोटा भांजा रहा करता था अर्थात मिला कर तीन बच्चे थे। हम तीनों ही उस गाय के थन से सीधे दूध पीते थे। चूंकि दूध निकालने के हिसाब से हम लोग बहुत छोटे थे इसलिए पिताजी हमारे खुले मुँह में सीधी धार लगा देते थे जो कभी कभी चेहरे पर भी पड़ जाती थी। गाय का नाम उन्होंने चैरई रखा था और उसके नाम से पुकारने पर ही वह चैतन्य हो जाती थी। उसके पूरे शरीर पर हाथ फेर कर हम लोगों को ही नहीं शायद उसे भी वात्सल्य सुख मिलता हो  क्योंकि ऐसा करते समय उसने कभी सींग तो क्या पूंछ भी नही फटकारी। हमारे छोटे से परिवार की जरूरत के हिसाब से भरपूर दूध होता था।  उन दिनों फ्रिज और गैस नहीं होती थी इसलिए माँ चूल्हे की बची आँच मे एक नीचे से गोल बर्तन में रखे रहती थीं जिसे कांसिया कहा जाता था। दिन भर मद्धम आँच पर रखे उस दूध  में बहुत मोटी मलाई पड़ती रहती थी और ऊपर चिकनाई की बूंदे उतराने लगती थीं। उस दूध को हमें पिलाने की कोशिशें की जाती थीं किंतु वह दूध हमें कभी पसन्द नहीं आया, जो शायद पाचन कमजोर होने के कारण हो इसलिए हम लोग सीधे थन वाला दूध ही पीना पसन्द करते थे। पिताजी उसे धारोष्ण दूध कह कर उसकी तारीफों के पुल बांधते हुए कहते थे कि देखो इसी दूध को पीकर बछड़े कैसे उछलते हैं। कभी कभी माँ जिन्हें हम आई कहते थे, दूध को जमा देती थीं और फिर बाद में उससे मक्खन निकालती थीं, जिसे नैनू कहा जाता था। कई बार स्कूल जाने से पहले बासी रोटी पर नैनू चुपड़ कर और उस पर पिसी शक्कर भुरक पुंगी [रोल] बनाकर हमें नाश्ते में दी जाती थी जो इतनी  स्वादिष्ट लगती थी कि उसका स्वाद अभी  तक याद है। हमारे मन में गाय के पूज्य होने जैसा भाव कभी नहीं आया किंतु वह घर के सदस्य जैसी थी। कोई हरे चारे के पूरे दे जाता था जिसे हम लोग उसके सामने बैठ कर धीरे धीरे खिलाते थे।

कई साल बाद पिताजी ने एक पुराना मकान खरीद लिया जिसकी मालकिन दो बहिनें थीं जिसमें से एक संतान रहित विधवा थीं तो दूसरी का निधन हो चुका था और मृत्यु से पहले वे उस मकान का एक कमरा बेच गयीं थीं। उनके पति पिताजी के परिचित थे जिन्हें यह कह कर मना लिया गया था कि उन्होंने अपना हिस्सा ले लिया है। बहरहाल दो हजार के उस मकान में से उन्हें 500/- रुपये भी दिये गये थे और 1500/- रुपये जीवित बहिन को मिले थे। अपने पिता से मिले उस मकान के प्रति वे बहुत भावुक थीं, इसलिए पिताजी ने उन्हें जीवन भर बहिन मानने और इस घर को मायका मानने का आश्वासन दिया था। घर में गाय बांधने की जगह नहीं थी, इसलिए पिताजी ने इन मुँह बोली बहिन को गाय भी उपहार में दे दी थी। जब तक पिता जीवित रहे वे हर रक्षा बन्धन पर राखी बांधने व अन्य त्योहारों पर आती रहीं व उन्हें वैसा ही सम्मान भी मिलता रहा। जब भी वे बुआ आती थीं तब हम लोग भावुक होकर अपनी गाय के बारे में जरूर पूछते थे।

आज जब रिश्ते छीजते जा रहे हैं और सगे रिश्ते भी दूर के रिश्ते होते जा रहे हैं, तब इन रिश्तों की याद करके मन भावुक हो जाता है। मैं नौकरी में बाहर निकल आया, पिताजी नहीं रहे। बुआजी भी नहीं रहीं। इन रिश्तों को याद कर के मुनव्वर राना का शे’र कौंध जाता है-

अमीरे शहर को रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता

गरीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है 

पिताजी कुछ सपने भी देखते थे जिनमें से एक था कि कभी एक बैलगाड़ी में एक स्टोव और खाना बनाने का सामान रख कर गाड़ी के पीछे गाय को बाँध कर भारत भ्रमण के लिए निकला जाये। यह एक ऐसा सपना था जो सपना ही रहा, पर उन्होंने रिटायरमेंट के बाद मैथिली शरण गुप्त की पुस्तकों के विभिन्न विश्व विद्यालयों के कोर्स में लगवाने के एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में प्रकाशक की ओर से भारत के बहुत सारे हिस्से को देखने का सपना पूरा किया।

  वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

स्मरण – अंजनी चौहान

 

स्मरण – अंजनी चौहान

वीरेन्द्र जैन


अंजनी चौहान उन बिरले लेखकों में थे जो लिखने, प्रकाशित होने, सम्मानित होने, पुरस्कृत होने के लालच से मुक्त थे । वे सत्तर के दशक में जब रीवा मेडिकल कालेज में पढते थे, तब से धर्मयुग और कादम्बिनी आदि में छपने लगे थे। ज्ञान चतुर्वेदी जैसे प्रथम श्रेणी के पढाकू छात्र और लेखन के शौकीन जब मेडिकल कालेज में उनके साथ जुड़े तो उन्होंने उनकी ढाल बन कर उन्हें पढने में पूरा ध्यान लगाने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया। उन दिनों रीवा जैसे मेडिकल कालेज में पढने के लिए अनेक भव बाधाओं का सामना भी करना होता था। छात्र ज्ञान चतुर्वेदी के गोल्ड मेडलिस्ट होने में और निरंतर आगे बढने में अंजनी चौहान द्वारा दिये गये संरक्षण की भी महती भूमिका रही है, ऐसा अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत कुशल चिकित्सिक पद्मश्री डा. ज्ञान चतुर्वेदी ने स्वयं स्वीकारा है।

अंजनी दुस्साहसी, मुँहफट होने तक मुखर, और बहुत साफ साफ बोलने वाले रहे। व्यवहारिक समझौते उन्हें नहीं भाते थे। मुख्य मंत्री अर्जुन सिंह हों, दिग्विजय सिंह हों, गृहमंत्री चरण दास महंत हों, या उमा भारती हों, कमलेश्वर हों या कमला प्रसाद हों, वे जो कहना चाहते थे, उसे आमने सामने कहने से कभी नहीं चूके। स्वास्थ विभाग के एक अधिकारी जब उनसे अपने मेडिकल बिलों को वेरीफाई कराने आये तो उन्होंने उनकी जेब में हाथ डाल कर डाक्टरों के लिए पैसे निकाल लिये। अधिकारी के यह कहने पर कि यह आप क्या कर रहे है उन्होंने उन अधिकारी से कहा कि क्या आप हमारे डाक्टरों से उनके विधिवत काम के लिए पैसे नहीं लेते? यदि हमारे डाक्टर झूठ बोल रहे हों तो बताइए, मैं आपके पैसे वापिस करा दूंगा। वे अधिकारी इस मामले में बदनाम थे इसलिए चुपचाप चले गये।

डाक्टरों में से ही कुछ को चिकित्सा के अलावा कुछ प्रशासनिक काम भी देखने होते हैं। अंजनी की सक्रियता को देखते हुए स्वास्थ विभाग ने उनको ज्यादातर समय गैर चिकित्सकीय काम ही सौंपे, जिन्हें उन्होंने बड़े शौक से पूरे किये। जब वे जेपी अस्पताल भोपाल में कुल प्रबन्धन पर निगाह रखने का काम देख रहे थे, उन्हीं दिनों मैं किसी डाक्टर को दिखाने के लिए परचा बनवाने की लाइन में लगा। उन्होंने सीसीटीवी कैमरे पर देखा तो अन्दर से चल कर हाल तक आये और मेरा पर्चा बनवा कर विशेषज्ञ डाक्टर के पास ले गये दिखाया और छोड़ने के लिए बाहर तक आये। मुझे स्कूटर पर आया देख कर नाराजगी व्यक्त की और लगभग निर्देश देते हुए कहा कि आगे से आप स्कूटर से नहीं चलेंगे, अगर किसी ने टक्कर मार दी तो बुढापे में परेशान हो जायेंगे।  

उनके दुस्साहस पूर्ण किस्सों पर तो ज्ञान चतुर्वेदी पूरी किताब लिख चुके हैं। उन्हें दुहराना तो ठीक नहीं पर विषम पारिवारिक परिस्तिथियों में भी उन्होंने बेटे को इतना काबिल बनाया कि जुकरवर्ग तक ने उसके काम की सराहना की है। पिछले दिनों व्हाट्स एप्प पर उनके छड़ी लेकर चलने के वीडियो देखे तो लगा कि यह उनके मजाक का कोई नया अन्दाज होगा, फिर भी उनसे सीधे पूछने की जगह ज्ञानजी को फोन लगाया किंतु वह काल नहीं लग सकी। ज्ञानजी की बहुआयामी व्यस्तता को देखते हुए मैं उन्हें अनावश्यक परेशान करना ठीक नहीं समझता। सो बात आयी गयी हो गई। अंजनी की मृत्यु का समाचार मिलने के बाद जब ज्ञानजी को दो तीन काल किये तब पता लगा कि अंजनी जी सचमुच गम्भीर रूप से बीमार थे।

फिर मुनीर नियाजी की पंक्तियां याद आयीं- हमेशा देर कर देता हूं मैं। विनम्र श्रद्दांजलि  

 वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

   

शनिवार, दिसंबर 11, 2021

श्रद्धांजलि / संस्मरण दिनेश चन्द्र दुबे, उर्फ दिनेश भाई साहब

 

श्रद्धांजलि / संस्मरण

दिनेश चन्द्र दुबे, उर्फ दिनेश भाई साहब

वीरेन्द्र जैन


दिनेश चन्द्र दुबे का नाम पहली बार मैंने दिनेश भाई साहब के रूप में ही सुना था। उनके तीन छोटे भाई मेरे साथ पढे या रहे और वे उन्हें इसी नाम से सम्बोधित करते थे। सीएमओ पद से सेवानिवृत्त प्रेमचन्द दुबे व डा. प्रकाश चन्द दुबे तो बीएससी में मेरे साथ पढते थे और इसी रिश्ते से पब्लिक प्रसीक्यूटर रहे हरीश अपने साहित्यिक शौक में मेरे साथ जुड़े और सर्वाधिक आत्मीय मित्रों में से एक रहे। हरीश अपनी अधिकांश मन की बातों को मेरे साथ बांट लेने व विश्लेषित करना चाहता था। मैं भी किसी भी अन्य की तुलना में अपनी अनेक बातें उस से साझा कर सकता था क्योंकि हम दोनों ही यह मानते थे कि हम दोनों इसके लिए सुपात्र हैं। जब कभी मैं दुखी होता था तब वह कहता था कि हम मध्यमवर्गीय लोगों में पीढीगत तनाव स्वाभाविक है। अपनी बात के समर्थन में वह अपने घर की कुछ निजी बातें भी बताता था जिससे मुझे लगने लगता था कि – दुनिया में कितना गम है, अपना दुख कितना कम है।  

सात आठ बहिन भाई के उस कुनबे में सब कुछ अनियोजित था और अपनी शिक्षा के लिए हरीश को कभी सुरेश भाईसाहब [एडवोकेट ग्वालियर] , या दिनेश भाई साहब मजिस्ट्रेट के यहाँ रहना पड़ा। भाइयों के अपने अनुशासनात्मक नियमों और भाभियों के लिए अयाचित मेहमान से उपजे द्वन्द से निबटने में उसे कथा साहित्य से जो दृष्टि मिली उसने उसे दृष्टा बना दिया था और वह सारे संकटों को हँस कर सह सकता था। इसी क्रम में उसने अपने भाइयों के जीवन के बारे में जो बातें बतायीं, उसी से मैंने दिनेश भाई साहब को जाना।  उनके पास रहते हुए उसने मेरे बारे में भी शायद उन्हें कुछ अच्छा अच्छा बताया होगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे मेरे प्रति मित्रता का भाव रखने लगे थे। उन दिनों मैं देश भर की पत्रिकाओं में छोटी छोटी व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से खूब प्रकाशित हो रहा था। दिनेश जी में प्रकाशन के प्रति गहरा रुझान था और वह इस सीमा तक था कि 1976 के दौरान जब धर्मयुग में उपसम्पादक की जगह निकली तो उन्होंने उस के लिए आवेदन किया था। संयोग से मैं उन्हीं दिनों मुम्बई में धर्मयुग कार्यालय मे गया था तो मनमोहन सरल जी के साथ बातचीत में प्रसंग निकल आया। जब मैंने उनके आवेदन की चर्चा की तो सरल जी ने आश्चर्य से पूछा कि वे तो मजिस्ट्रेट के पद पर पदस्थ हैं। हरीश के माध्यम से मैं उन्हें जितना जान पाया था उसके आधार पर मैंने उन्हें बताया कि भले ही वे मजिस्ट्रेट के पद पर हैं, किंतु तोते की जान कहीं और बसती है। तब तक उनकी कहानियां धर्मयुग सारिका आदि में छप चुकी थीं और भी अनेक पत्रिकाओं में वे छप रहे थे। उनका पद भी इसमें मदद कर रहा था।

उन दिनों हिन्दी में ‘आज़ाद लोक’ और ‘अंगड़ाई’ नाम से दो पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं जिनमें प्रकाशित  कथाओं की कथावस्तु अश्लील मानी जाती थी। दिनेशजी इन पत्रिकाओं में कथात्मक स्तम्भ लिखते थे। पत्रिका का सम्पादक प्रकाशक लेखकों में सबसे ऊपर उनका नाम छापता था और साथ में प्रथमश्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट लिखना भी नहीं भूलता था। इस तरह वह अपनी पत्रिकाओं को थोड़ी वैधता और गरिमा प्रदान करने की कोशिश कर लेता था। अपने उक्त स्तम्भ के बारे में दिनेश जी का मुझसे कहना था कि वे तो केवल किसी बलात्कार, देह व्यापार के किसी मुकदमे की केस डायरी लिख देते हैं और उनमें अश्लीलता जैसी कोई चीज पिरोयी नहीं जाती। इसी निजी बातचीत में उन्होंने यह भी कहा था कि ये पत्रिका मुझे एक कहानी के चार सौ रुपये देती हैं जिनके सहारे मैं ईमानदार बना हुआ हूं। उल्लेखनीय है कि उनकी न्यायिक सेवाओं के प्रारम्भिक दौर में उनकी ईमानदारी और कठोर अनुशासन की बहुत ख्याति रही है। टीकमगढ जिले में कोई नामी गुंडा था जिसे पुलिस अदालत का सम्मन तामील नहीं कर पाती थी और बार बार आकर यह कह देती थी कि वह मिलता ही नहीं है। दिनेश जी ने पुलिस इंस्पेक्टर से कहा कि अपनी जीप बुलाओ और उस जीप में खुद बैठ कर आरोपी के घर पहुंचे और अन्दर घुसकर उसे गरेबान से पकड़ कर पीटते हुए ले आये। मजिस्ट्रेट के काम करने का यह तरीका बहुत चर्चा का विषय रहा।

उनकी कोर्ट कुछ दिनों के लिए टीकमगढ की जतारा तहसील में भी लगती थी। उन्होंने धर्मयुग में प्रकाशित अपने न्यायिक संस्मरणों में उसकी एक घटना की चर्चा की है जिसमें न्याय के लिए बार बार चक्कर लगाती एक बुढिया कहती है कि उसे हर बार फैसले की जगह ‘ जौ कागज कौ टूंका मिल जात है’ [अगली तारीख की कगज की पर्ची] । बाद में फिल्मी दुनिया का ऐसा ही डायलाग बहुत चर्चित हुआ था कि तारीख पै तारीख, तारीख पै तारीख... । हो सकता है कि डायलाग लेखक ने इसे इसी सच्चे संस्मरण में से लिया हो।  

जब उन्होंने मुझे आज़ादलोक और अंगड़ाई में लिखने की मजबूरी बतायी थी उन्हीं दिनों की बात है कि देश भर के प्रथमश्रेणी मजिस्ट्रेटों ने अपनी वेतंनवृद्धि की मांगों को लेकर दिल्ली में जलूस निकाला था और देश को बताया था कि उनकी तनख्वाहें बैंक के चपरासियों से भी कम हैं। तब तत्कालीन कानून मंत्री या वित्तमंत्री ने कह दिया था ‘ तो जाकर बैंक में चपरासी हो जाओ’। उसे याद करते हुए वे बहुत तल्खी के साथ कहते थे कि वीरेन्द्र तुम बैंक में बाबू हो और तुम्हारी तनख्वाह मुझ से भी ज्यादा है।

इसी से जुड़ा एक और किस्सा है कि एक जिले में एक महिला वकील जो सोशल एक्टविस्ट भी थीं उन से ऐसे बोलीं जैसे वे उनका बहुत बड़ा रहस्य जान गयी हों कि मजिस्ट्रेट साब आप तो बहुत पढे लिखे प्रतिष्ठित  साहित्यकार हो, पर ऐसी पत्रिकाओं में क्यों लिखते हो। उन्होंने उत्तर दिया कि यह तो मैं बाद में बताऊंगा, पहले तो आप यह बताओ कि ऐसी पत्रिकाएं आप तक कैसे पहुंच गयीं?  महिला वकील चुपचाप चली गयीं।

दिनेशजी दुस्साहसी, निर्भय और बेपरवाह थे। उन्होंने अपनी शर्तों पर जीवन जिया। वे अफसरों की दावतों में छुरी कांटे से खाने की जगह हाथ से खाना शुरू कर देते थे जिनकी देखादेखी दूसरे अनेक लोग भी उनका अनुशरण करते थे। वे रूढियों, परम्पराऑं के अन्धे गुलाम नहीं थे। जब वे सागर में पदस्थ थे तब उन्होंने अपनी एक बेटी की शादी वहाँ के एक बड़े वकील के बेटे से कर दी थी। शादी के दूसरे दिन मैं किसी काम से सागर गया तो एडवोकेट महेन्द्र फुसकेले बोले यार यह तुम्हारा दोस्त कैसा है, पूरी शादी में इसने अपने समधी से इस तरह का व्यवहार किया जैसे कोर्ट में कोई मजिस्ट्रेट अपने वकील से करता है। जब मैं उन से घर पर मिलने गया तब तक वे अपने सारे मेहमानों को विदा कर चुके थे। उन्होंने शादी के बारे में तो कोई बात नहीं की किंतु तुरंत वीसीआर खोल कर बैठ गये और बोले देखो मेरी कहानी पर एक फिल्म बनी है।

एक विधवा से दूसरा विवाह कर लिया, पहली पत्नी गाँव चली गयीं जहाँ उनकी पैतृक जमीन थी, किंतु कुछ वर्षों बाद वहाँ उनके नौकर ने उनकी हत्या कर दी। एक बेटा अविवाहित रहा, बेटी का तलाक हो गया किंतु वे सब सहन करते गये।  

पिछले वर्षों में उन्हें सुनायी देना कम हो गया था और अगर किसी समारोह में मिल जाते तो खुद जोर जोर से बोलते और सामने वाले को भी बाध्य करते। इससे समारोह के श्रोताओं और कार्यक्रम में व्यवधान पड़ता। किंतु वे निरपेक्ष रह कर अपनी बात करते रहते। हर बार उनकी किताबों की संख्या बढ जाती। एक फिल्म में भूमिका निर्वहन के लिए वे दण्डित भी किये गये और नौकरी छोड़ना पड़ी।

किसी की परवाह किये बिना, उन्होंने घटनाओं से भरा जीवन जिया। ऐसे लोग मुझे बहुत भाते रहे हैं, पर उनका प्रशंसक होते हुए भी कभी उनका अनुशरण नहीं कर सका। उनका मित्र होने पर गौरवान्वित महसूस करता रहा हूं । वे अनेक दंतकथाएं छोड़ गये हैं इसलिए याद आते रहेंगे।

दिनेश भाईसाहब को विनम्र श्रद्धांजलि।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023