बुधवार, नवंबर 30, 2011

संविधान कानून और अनियंत्रित बयान



संविधान कानून और अनियंत्रित बयान  
                                                               वीरेन्द्र जैन
      संसद और विधानसभाओं के लिए चुने जाने के बाद नेता लोग संविधान की शपथ खाते हैं और उसमें विश्वास व्यक्त करते हैं किंतु इन्हीं नेताओं के आचरण बताते हैं कि या तो वे संविधान में भरोसा नहीं करते या उसकी परवाह नहीं करते। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति देने के बारे में राजनीतिक दलों में मतभेद हो सकते हैं और वे लोकतांत्रिक तरीके से संसद और उसके बाहर अपनी असहमति दिखाने को स्वतंत्र हैं, किंतु एक राजनीतिक दल की एक कद्दावर नेता जो एक प्रदेश की मुख्यमंत्री भी रह चुकी हों, का यह कहना कि वे विदेशी निवेश वाली खुदरा दुकानों में आग लगा देंगीं, कहाँ तक उचित है! उनकी पार्टी ने भी उनके इस बयान पर कोई असंतोष व्यक्त नहीं किया है। क्या किसी नेता को यह अधिकार है कि वह इस तरह से खुले आम इस तरह की आपराधिक गतिविधि की धमकी देकर भी पूर्व मुख्यमंत्री और सांसद को प्राप्त विशेष अधिकारों और सुविधाओं को प्राप्त कर सके। ये वही मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने पार्टी छोड़ने के बाद अपनी त्यागी हुयी पार्टी के मुख्यमंत्री पर अपनी हत्या का षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया था, बाद में वे फिर से उसी पार्टी में सम्मलित हो गयीं।
      किसी भी दल के नेता को विरोध करने का अधिकार कानून की सीमा तक ही होता है। जो सरकार को सीधी चुनौती देते हुये कानून का उल्लंघन करते हैं वे उग्रवादियों की श्रेणी में आते हैं जिनके साथ सुरक्षा एजेंसियां वैसा ही व्यवहार करती रही हैं जैसा कि उन्होंने अभी किशनजी के साथ किया है या इससे पहले कई हजार नक्सलियों, खालिस्तानियों, या लश्कर के लोगों के साथ करती रही है। क्या हमारी सरकार चुनाव लड़ने वाले उग्रवादियों और चुनाव न लड़ने वाले उग्रवादियों में फर्क करती है? क्या उक्त नेता के दल के प्रमुख लोगों, जिनमें देश के नामी गिरामी वकील शामिल हैं, को भी यह ज्ञान नहीं है कि ऐसा बयान देना आपराधिक है और उसके खिलाफ कोई कानून भी है। इसी दल के एक प्रदेश अध्यक्ष जो अपने आप को एक बड़ा पत्रकार मानते आये हैं और इसी आधार पर बाहरी होते हुए भी एक प्रदेश का अध्यक्ष पद व राज्यसभा की सदस्यता प्राप्त किये हुये हैं, अपनी मांगें न माने जाने की दशा में राष्ट्रपति से प्राण त्यागने का अनुरोध करते हैं। यह अनुरोध भले ही हास्यास्पद और छद्म हो किंतु आपराधिक तो है।
 यही काम अगर किसी आम आदमी ने किया होता तो उसको तरह तरह से कानूनी संकट झेलना पड़ता किंतु सरकारी वेतन और पेंशन के साथ ढेर सारी सरकारी सुविधाएं पाने वाले ये लोग वोटरों को बरगलाने के लिए इसी तरह के शगूफे छोड़ते रहते हैं। शायद इन्हें ये भरोसा होगा कि कानून इनके लिए नहीं है।
      उत्तर प्रदेश के एक मंत्री जिनके कार्यकाल में दो अधिकारियों की हत्या हो गयी और तीसरे की जेल में सन्दिग्ध मृत्यु हुयी जिसे आत्महत्या बताया गया। उस मंत्री ने मंत्रिमण्डल से निकाले जाने के बाद अपनी ही पार्टी और एक मुख्य सचिव से अपने जीवन को खतरा बताया। माना जाता है कि उनके पास विभाग में व्याप्त अकूत भ्रष्टाचार के अलावा पार्टी द्वारा एकत्रित दौलत के भी भंडार रहे हैं और उन्हें पार्टी से निकाले जाने के बाद इस दौलत के लिए खूनी संघर्ष छिड़ सकता है।
      मध्य प्रदेश की एक मुँहफट महिला विधायक ने तो अभी हाल के अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए ही कहा कि इस विधानसभा पर ताला लगा दिया जाना चाहिए। ऐसा कहते हुए वे यह भूल गयीं कि उन्हें विधायक होते हुए ही अभिव्यक्ति के ये सारे अधिकार प्राप्त हैं और बैठने वाली डाल को काटने वालों को समझदार नहीं कहा जाता। संसद और विधानसभाएं लोकतंत्र के मन्दिर हैं जो देश को बड़े संघर्ष के बाद प्राप्त हुए हैं, इन पर ताला लगा देने के बाद तो तानाशाही या मिलेट्री शासन ही विकल्प बनते हैं।
      मुम्बई में गत 26/11/2008 को हुये हमले के दौरान पकड़े गये एक मात्र आतंकी कसाब की सुरक्षा पर होने वाले खर्च के अतिरंजित आंकड़ों के आधार पर कुछ संगठन यह प्रकट करते रहते हैं जैसे कि सरकार अपने वोट बैंक के लिए उसे दामादों की तरह पाल रही है, जबकि सच यह है कि प्रज्ञा सिंह समेत किसी भी विचाराधीन कैदी को जेल के मैन्यूल के अनुसार ही सुविधाएं मिलती हैं और किसी भी विचाराधीन कैदी की सुरक्षा सरकार की जिम्मेवारी होती है जो सम्भावित खतरों के अनुसार मिलती है। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि कसाब और उसको मदद करने के आरोपियों का मुकदमा लड़ने वाले वकील की हत्या कर दी गयी है जिसकी वकालत पर उसको मदद करने के आरोपी बरी हो गये थे। कसाब को कानून के अनुसार दण्ड दिलाना देश में कानून के शासन का प्रमाण है जिसके कारण ही यही सुविधा महात्मा गान्धी और इन्दिरा गान्धी के हत्यारों को भी मिली थी। सरकार पर वोट बैंक के लिए कसाब को सुविधाएं देने के आरोप लगाने वाले बहुत ही गन्दी राजनीति कर रहे हैं क्योंकि इस तरह वे परोक्ष में इस देश के मुस्लिम वोटरों पर भी पाकिस्तान के आतंकवादियों के प्रति सहानिभूति रखने का आरोप भी लगा रहे होते हैं।
      इस समय देश कुछ गम्भीर परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है और राजनेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने बयानों में न केवल गम्भीर और तथ्यात्मक हों अपितु उनकी भाषा भी संयमित हो। राज्य सभा का एक संसद सदस्य जो अभी जेल में रह चुका है इतना गैर गम्भीर रहा है कि एक रुपये में परमानन्दा दिलाने या झंडू बाम बेचने वाले फिल्मी अभिनेता को देश का राष्ट्रपति बनाने का प्रस्ताव देने लगता है। देश के सर्वोच्च पद को इतने सस्ते में लेना देश के लोकतंत्र का अपमान है। राजनीतिक दलों को भी अपने सदस्यों के बयानों पर अनुशासन बनाना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

सोमवार, नवंबर 21, 2011

ब्रांड में बदल गये बच्चन परिवार में बेबी बच्चन की आमद


          ब्रांड में बदल गये बच्चन परिवार में बेबी बच्चन की आमद

                                                               वीरेन्द्र जैन
      पिछले दिनों फिल्मी अभिनेता अभिषेक- एश्वर्या दम्पत्ति के यहाँ एक पुत्री ने जन्म लिया है। यह परिवार चकाचौंध वाली फिल्मी दुनिया में हिन्दी भाषी क्षेत्र का सबसे बड़ा स्टार परिवार है, जिसकी लोकप्रियता का प्रारम्भ हिन्दी के सुपरिचित कवि डा. हरिवंश राय बच्चन से होता है। किसी समय इलाहाबाद न केवल संयुक्त प्रांत की राजधानी ही थी अपितु लम्बे समय तक वह हिन्दी साहित्य की राजधानी भी मानी जाती रही। वहाँ स्वतंत्रता संग्राम के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से जवाहरलाल नेहरू और मोती लाल नेहरू ही नहीं रहे अपितु अन्य सैकड़ों लोकप्रिय राष्ट्रीय नेताओं का कार्यक्षेत्र भी इलाहाबाद रहा है। गंगा यमुना का संगम होने के कारण यह एक तीर्थ क्षेत्र है तो अपने विश्वविद्यालय और हाई कोर्ट के कारण भी लाखों लोगों का जुड़ाव उस नगर से रहा है। फिराक, निराला, पंत, महादेवी, उपेन्द्र नाथ अश्क से लेकर बाद की साहित्यिक दुनिया को संचालित करने वाले, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, कन्हैयालाल नन्दन, रवीन्द्र कालिया जैसे सम्पादकों का क्रीड़ांगन भी इलाहाबाद ही रहा है। इसी क्षेत्र से निकले हरिवंशराय बच्चन ने उमर खैय्याम की रुबाइयों की तरह मधुशाला रच कर न केवल नया इतिहास रच डाला अपितु हिन्दी कवि सम्मेलनों की नींव भी डाली। इससे पूर्व हिन्दी में केवल गोष्ठियां ही हुआ करती थीं जबकि उर्दू वाले मुशायरे करते थे जो व्यापक श्रोता समुदाय को आकर्षित करते थे। बच्चन की मधुशाला ने अपनी विषय वस्तु से ही एक नया इतिहास रच डाला और खुले आम एक वर्जित वस्तु को विषय बनाकर अपनी बात कही जिसे हिन्दीभाषी समाज में एक सामाजिक विद्रोह भी कह सकते हैं। उर्दू ने यह काम बहुत पहले ही कर दिया था और वे इससे कठमुल्लों को खिजाते रहते थे। उसी तर्ज पर बच्चन की मधुशाला लोकप्रिय हुयी और उसके सहारे कवि सम्मेलनों को भी लोकप्रियता मिलने लगी। उस दौरान लन्दन में पढे अंग्रेजी के प्रोफेसर डा. बच्चन, तेजी जी से प्रेम विवाह करके भी चर्चित हो चुके थे। यह वह दौर था जब प्रेम विवाह को समाज में एक बड़ी घटना की तरह लिया जाता था।
      तेजी बच्चन इन्दिरा गान्धी की मित्र थीं और इसी तरह बच्चन जी के पुत्र अमिताभ को भी इन्दिरा गान्धी के पुत्र राजीव गान्धी से मित्रता का अवसर मिला। इन्हीं सम्पर्कों के अतिरिक्त बल के कारण डा. बच्चन राज्य सभा के लिए बिना किसी निजी प्रयास के नामित हुये थे और इस तरह वे देश के सबसे महत्वपूर्ण परिवार के सबसे निकट थे। जब राजीव गान्धी की शादी हुयी थी तब लड़की वालों अर्थात सोनिया के परिवार का निवास बच्चन जी का घर बना था व तेजी बच्चन ने दुल्हिन सोनिया गान्धी के हाथों पर मेंहदी लगाने की रस्म निभायी थी। कुछ समय कलकत्ते में नौकरी करने के बाद अमिताभ लोकप्रियता से दौलत कमाने के लिए मह्शूर फिल्मी दुनिया में आ गये तथा प्रारम्भिक फिल्में व्यावसायिक रूप से सफल न होने के बाद भी जमे रहे, क्योंकि उनके पास लोकप्रियता की पृष्ठभूमि थी। इसी के भरोसे वे न केवल अभिनय कला में निरंतर निखार लाने के प्रयोग कर सके जिसमें वे सफल भी हुए। इन्दिरा गान्धी और राजीव गान्धी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान उनके मार्ग की बाधाएं स्वयं ही हट जाती थीं भले ही उन्होंने कभी कोई आग्रह न किया हो। पुराने कलाकारों के परिदृष्य से बाहर होने और समकालीनों के पिछड़ने के कारण वे उद्योग के बेताज बादशाह बन गये। रंगीन टीवी और नई आर्थिक नीति से बाजारवाद आने के बाद उनकी लोकप्रियता के लिए अनेक अवसर खुल गये और वे अपनी लोकप्रियता के सहारे तेल से लेकर ट्रैक्टर तक सब कुछ बिकवाने लगे। यहाँ तक कि एक समय राजीव गान्धी ने भी अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने में उनकी लोकप्रियता को भुनाया था। जब राजीव गान्धी परिवार से उनका मनमुटाव हुआ तो उन्हें अमर सिंह मिल गये जिन्होंने एक दूसरे राजनीतिक पक्ष से उनका सौदा करा दिया। इससे कभी कांग्रेस के सांसद रहे परिवार में न केवल उनकी अभिनेत्री पत्नी जया भादुड़ी को समाजवादी सांसद बनने का मौका मिला अपितु उन पर इनकम टैक्स का नोटिस निकालने पर इनकम टैक्स दफ्तर में तोड़फोड़ करने वाली टोली भी मिल गयी। बाद में उन्होंने 2002 में मुसलमानों के नरसंहार के लिए कुख्यात नरेन्द्र मोदी की भाजपा सरकार का ब्रांड एम्बेसडर बनना भी स्वीकार कर लिया।
      इसी लोकप्रियता के बीच उनके पुत्र को अपेक्षाकृत कम योग्यता के बाद भी फिल्मों में स्थान मिला जिसके लिए बच्चन परिवार ने अपने समय की एक प्रतिभाशालिनी सुन्दर नायिका और विज्ञापनों की मँहगी माडल का चुनाव किया जो न केवल उनके पुत्र से अधिक लोकप्रय थी अपितु उम्र में भी दो साल बड़ी थी। इस प्रकार यह परिवार देश में सबसे अधिक विज्ञापन फिल्में करके धन अर्जित करने वाला परिवार भी बन गया। हमारे देश में फिल्में खूब देखी जाती हैं और यह एक बड़ा उद्योग है। फिल्मी पत्रकारिता के स्वतंत्र अस्तित्व के साथ साथ सभी अखबारों में फिल्मों के लिए स्थान निश्चित रहता है और इस जगह को खबरों की भी जरूरत रहती है। जब खबरें नहीं मिलतीं तो खबरें पैदा की जाती हैं। मीडिया के बाहुल्य ने उनके अन्दर प्रतियोगिता पैदा की है और इस प्रतियोगिता ने खबरों को और और चटखारेदार बना कर पेश करने की अनैतिकता को जन्म दिया है। कई बार तो कम चर्चित फिल्मी अभिनेता भी चर्चा में बने रहने के लिए ऐसी खबरों को हवा देते हैं। अभिषेक की शादी से लेकर उसके घर में शिशु जन्म तक इन मीडियावालों ने कई बार अपनी कल्पनाशीलता से खबरें गढी भी हैं। व्यावसायिक हित में खबरों का गढा जाना एक बड़ी सामाजिक बीमारी का ही हिस्सा है जिसमें नई आर्थिक नीति से लेकर लोकप्रियतावाद तक जिम्मेवार है। इस बार शिशु जन्म के समय न केवल अमिताभ को ही मीडिया से अपने ऊपर लगाम लगाने को कहना पड़ा अपितु मीडिया की संस्थाओं ने भी आलोचनाओं से घबरा कर आत्म नियंत्रण की अपील की।
      लड़कियों की घटती संख्या को देखते हुए देश में उनके अनुपात को बनाये रखने के लिए विश्व स्वास्थ संगठन के सहयोग से अनेक कार्यक्रम संचालित हो रहे हैं जिनके द्वारा बेटी बचाओ की इतनी सारी अपीलें की जा रही हैं कि बेटी के जन्म को प्रीतिकर दर्शाना पड़ता है। बच्चन परिवार ने भी यही किया किंतु दूसरे संकेत कुछ अलग ही कहानी कहते हैं। उल्लेखनीय है कि अमिताभ-जया ने अपनी बेटी को फिल्मों से दूर रखा है और उसे फिल्मी जगत से अलग एक उच्च औद्योगिक घराने में पारम्परिक ढंग से व्याहा है। पिछले दिनों हमारे समाज में वंशवृक्ष की जगह वंश को अधिक महत्व दिया जाने लगा जबकि वंशवृक्ष तो लड़कियों और उनकी संतानों से भी बढता है। अमिताभ की लड़की के जब बच्चे हुए तब न तो उनके द्वारा अपने पूज्य पिता को याद किये जाने की खबरें आयी थीं और न ही माँ को याद करने की। पर जब उनके पुत्र के घर शिशु जन्म हुआ तो वे खुशी खुशी सबको याद करने लगे। अभिषेक की नानी ने भी कहा कि हमने तो पहले ही कहा था कि लक्ष्मी आयेगी। उन्हें भी आम आदमी की तरह पुत्री के जन्म के हीनता बोध को लक्ष्मी के आने से से पूरी करने का विचार आया, सरस्वती आने का विचार नहीं आया जबकि कलाकारों के परिवारों को तो सरस्वती की कल्पना करना चाहिए थी। एक लोकप्रिय फिल्मी परिवार में किसी को बहुत दिनों तक छुपा कर नहीं रखा जा सकता किंतु जिज्ञासाएं बढा कर महत्व बढाया जा सकता है। ब्रांड बन गये परिवार में इसका भी महत्व होता है।
 वीरेन्द्र जैन
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रविवार, नवंबर 20, 2011

यह फासिज्म की भाषा नहीं तो और क्या है?



यह फासिज्म की भाषा नहीं तो और क्या है                                                             
वीरेन्द्र जैन
      आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने संघ का प्रांतीय स्तर शिविर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री और कांग्रेस के सर्वाधिक मुखर महासचिव दिग्विजय सिंह के मूल निवास क्षेत्र राजगढ में आयोजित किया। अपने मन और वचन में भेद रखने के लिए जाने जाने वाले इस संगठन के प्रमुख ने राजगढ में शिविर रखने के पीछे कारण बताया कि वहाँ पूरे प्रांत में सबसे अधिक शाखाएं हैं, इस कारण से इस स्थान का चुनाव किया गया। इस आंकड़े की सत्यता तो वे ही जानें किंतु यदि यह सच भी है तो भी प्रांतीय स्तर का शिविर आयोजित करने के लिए हमेशा यही कारण नहीं होता रहा है, और न ही वहाँ भी है। उल्लेखनीय है कि इस समय दिग्विजय सिंह के बयान न केवल सर्वाधिक सुर्खियां बटोर रहे हैं अपितु वे अफवाहों से निर्मित माहौल के गुब्बारे में सुई का काम भी करते हैं जिससे संघ परिवार द्वारा रचे गये झूठ का पर्दाफाश हो जाता है। धार्मिक आस्थाओं वाले समाज में भाजपा जिस तरह से धार्मिक भावनाओं का अपने पक्ष में विदोहन करती है, वह भी दिग्विजय सिंह के सामने नहीं चल पाता क्योंकि उनके द्वारा भी समान रूप से धार्मिक संस्थाओं और धार्मिक नेताओं से निकट सम्बन्ध रखा रखा जाता है। यहाँ तक कि बामपंथी उन पर सौफ्ट हिन्दुत्व अपनाने तक का आरोप लगाते रहे हैं। परिणाम यह निकला है कि मँहगाई, भ्रष्टाचार आदि के कारण अलोकप्रिय हो रहे यूपीए गठबन्धन में वे कूल-कूल कांग्रेस की गर्म धड़कन बने हुए हैं। कांग्रेस के विरोधी तो यह भी आरोप लगाते हैं कि राहुल गान्धी उन्हीं की सलाह पर चलते हैं। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद उन्होंने दस साल तक कोई पद न लेने की घोषणा की हुयी थी जिस पर उन्होंने तब से पूरी ईमानदारी से अमल किया व अब इसकी अवधि समाप्त होने के करीब है। इससे प्रदेश में सत्तारूढ भाजपा में घबराहट है। नव गठित प्रदेश कांग्रेस कमेटी में भी जिन लोगों को पद दिये गये हैं वे भी उन्हें अपेक्षाकृत अपना प्रिय और सक्षम नेता मानते हैं, व इसी कारण अपनी निष्क्रियता छोड़ चुके हैं। ऐसी दशा में संघ प्रमुख द्वारा बताया गया राजगढ में ही संघ द्वारा प्रांतीय शिविर आयोजित करने का कारण हजम नहीं होता। इसकी पृष्ठ्भूमि में अगले आम चुनावों में दिग्विजय सिंह के खिलाफ काम करने की आधारभूमि तैय्यार करने की योजना ही नजर आती है।  
      इस अवसर पर संघ प्रमुख ने कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि वे दिग्विजय जैसे नेताओं के बयानों से विचलित न हों और न उनके विरोध में भाषणबाजी करें। अपने काम को आगे बढाएं। यह बयान फासिज्म का संकेत देता है। लोकतंत्र में सारे हल बातचीत से निकाले जाते हैं और बहुमत का निर्णय स्वीकार किया जाता है। राराजनीतिक दलों के नेताओं के बयान से अगर असहमति है तो उसका विनम्र प्रतिवाद किया जा सकता है, आम सभाएं की जा सकती हैं, समाचार पत्रों में लेख लिखे जा सकते हैं किंतु किसी बात का जबाब ही न देना किस बात का संकेत है। फासिज्म में दल प्रमुख का कथन ही अंतिम होता है और वहाँ बात करने या बहस करने की अनुमति नहीं होती। असहमति की दशा में बात का जबाब लाठी से दिया जाता है या दमन के दूसरे दूसरे साधनों का उपयोग किया जाता है। आखिर क्या कारण है कि संघ के लोग दिग्विजय सिंह की बात के उत्तर में या तो अनाप शनाप गालियां बकने लगते हैं, फेसबुक या ट्वीटर पर छद्म नामों से गन्दी गन्दी भाषा में कमेंट्स करने लगते हैं, या काले झंडे दिखाने के नाम पर हिंसा करने लगते हैं। पिछले दिनों से लगातार यह फैलाया जा रहा है कि दिग्विजय सिंह के बयानों से कांग्रेस का वोट बैंक घट रहा है, या उन्हें पागलखाने भेजने की बात की जा रही है, पर उनके किसी बयान का जबाब नहीं दिया जा रहा है। यह अपराध बोध का परिणाम है क्योंकि वे जानते हैं कि दिग्विजय सिंह के बयान तथ्यात्मक रूप से गलत नहीं होते और अगर बहस में उतरे तो कहीं टिक नहीं पायेंगे। दूसरी ओर उनके बयानों का जबाब काम से देने को कहा गया है। ऊपर से देखने पर यह एक शांत बयान लगता है किंतु वैसा है नहीं। आखिर आरएसएस काम क्या करता है? घोषित रूप से यह एक सांस्कृतिक संगठन है किंतु उनके सदस्य किसी भी कला विधा के लिए वे नहीं जाने जाते। उनके संगठन में कोई भी बड़ा कलाकार या बुद्धिजीवी नहीं है। वे शाखाओं में खेल कूद के बहाने अपरिपक्व बुद्धि के बच्चों को एकत्रित करते हैं और बौद्धिक के नाम पर उनमें साम्प्रदायिकता का जहर भरने के लिए जाने जाते हैं। उनके संविधान से लेकर उनकी ड्रैस और कार्यप्रणाली सभी हिटलर की पुस्तक मीन कैम्फ और उसके संगठन से प्रभावित है। वे शाखाओं में लाठी और दूसरे अस्त्र चलाना सिखाते हैं, तलवारें लेकर पथ संचालन करवाते हैं। परिणाम यह निकलता है कि साम्प्रदायिक दंगों के दौरान इन्हीं शाखाओं से निकले लोगों को ही हिंसा में लिप्त देखा जाता है। विहिप और बजरंग दल आदि इन्हीं के अनुषांगिक संगठन हैं जिनके कारनामे आये दिन समाचार पत्रों में देखे जा सकते हैं। अगर वे किसी आपदा में काम भी करते हैं तो उसमें भी उनकी साम्प्रदायिक दृष्टि ही काम करती है, और अपने धार्मिक समुदाय के लोगों को प्राथमिकता के आधार पर सहयोग करना व दूसरों की उपेक्षा करना भी देखने में आया है। ऐसी दशा में किसी बात का जबाब अपने काम से देने के निर्देश का आशय स्वयं में ही स्पष्ट है।
      पिछले दिनों से संघ की सारी गतिविधियों का केन्द्र मध्यप्रदेश होता जा रहा है जहाँ न केवल संघ से निकला व्यक्ति मुख्यमंत्री है अपितु वह संघ के आदेशों के प्रति इतना समर्पित है कि अपने व अधिकारियों के विवेक से बाहर भी संघ के आदेशों और आशयों पर अमल करता है। जहाँ गुजरात, उत्तराखण्ड, हिमाचल आदि भाजपा शासित क्षेत्रों में मुख्यमंत्री संघ के आदेशों का पालन करते समय जन भावनाओं की उपेक्षा नहीं करते वहीं मध्यप्रदेश में आँख मून्द कर संघ के आदेशों पर अमल किया जाता है। यही कारण है कि संघ के पूर्व प्रमुख को कार्यमुक्ति के बाद पूरा हिन्दुस्तान छोड़ कर मध्यप्रदेश ही पसन्द आया। ऐसे में अगर एक क्षेत्र विशेष में शिविर करते हुए संघ के प्रमुख अपने स्वयं सेवकों को बातचीत की जगह काम से जबाब देने की बात कहते हैं तो उसमें कहीं न कहीं फासिस्ट ध्वनियां सुनायी देती हैं।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, नवंबर 08, 2011

मीडिया पर जस्टिस मार्कण्डेय के विचार और घालमेल का संकट

मीडिया पर जस्टिस मार्कण्डेय के विचार और घालमेल का संकट 
वीरेन्द्र जैन
      एक बार फिर से आम पढा लिखा व्यक्ति दुविधा में है। वह जब जिस कोण से बात सुनता है उसे उसी की बात सही लगती है और वह समझ नहीं पाता कि सच किस तरफ है। दर असल दोष उसका नहीं है अपितु एक ही नाम से दो भिन्न प्रवृत्तियों को पुकारे जाने से यह भ्रम पैदा होता है।
      जैसे हमने किसान और कुलक[बड़ा किसान] को एक साथ किसान के नाम से पुकारा इसलिए किसानों की आत्महत्याओं से उपजी चिंताओं का लाभ ये कुलक उठा रहे हैं और किसान लगातार आत्महत्या किये जा रहे हैं। यही कुलक किसान नेता के नाम पर पंचायती राज व्यवस्था में पंच, सरपंच, जनपद अध्यक्ष, तथा विधायक, सांसद मंत्री आदि बन कर देश की लूट में हिस्सेदारी करते हैं और कृषि के नाम पर आयकर से लेकर अन्य बड़ी बड़ी छूटें, अनुदान आदि लेते रहते हैं। जब अतिरिक्त बड़ी आमदनी पर टैक्स लगाने का सवाल आता है तो ये जमींदार खेतों में पसीना बहाने वाले किसान का मुखौटा लगा कर प्रकट होते हैं व सरकार को कोसने लगते हैं जिससे सरकार दबाव में आ जाती है। दूसरी ओर मेहनत करने वाला किसान और खेत मजदूर कोई लाभ नहीं उठा पाता, व कर्ज के बोझ तले दबा दबा आत्महत्या की स्थिति तक पहुँच जाता है।
      प्रैस काउंसिल आफ इंडिया का अध्यक्ष बनने के बाद उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय ने मीडिया के बारे में जो कुछ भी कहा उसकी भाषा बहुत कठोर है और वह एक ओर से सही होते हुए भी पूरे मीडिया पर लागू नहीं होती, क्योंकि मीडिया का एक वर्ग मुनाफा कमाने वाला उद्योग बन गया है। यही कारण है कि जिस आशंका पर मीडिया की जुबान पर नियंत्रण लगाने और एमरजैंसी जैसे हालात की बात की जा रही है वह मीडिया के माफिया गिरोहों के भय को अधिकप्रकट अकर रही है। सच तो यह है कि जिस मीडिया को एक पवित्र गाय समझा जाता रहा था उसके एक हिस्से ने भेड़िये का रूप ग्रहण कर लिया है और जब उसको नियंत्रण में लाने की बात की जाती है तो पवित्र गाय को आगे कर दिया जाता है। जब से मीडिया बड़ी पूंजी पर आश्रित हो गया है तबसे उसका स्वरूप ही बदल गया है और वह समाचार व विचार देने की जगह प्रचार एजेंसी में बदल गया है, और समाचार भी सच्चाइयों से दूर होकर विज्ञापनों की ही दूसरी किस्म में बदल गये हैं जो भुगतान पर वस्तुओं के अतिरंजित प्रचार की तरह ही व्यक्तियों, दलों, संस्थाओं के साथ अपराधियों और दूसरे समाज विरोधी तत्वों की वैसी छवि प्रस्तुत करने लगते हैं जैसी वे चाहते हैं। इतना ही नहीं कि वे अपने पास आये व्यक्तियों को ही उपकृत करते हैं अपितु वे स्वयं ही उनके पास जाकर सौदा करने लगे हैं। टूजी स्पैक्ट्रम वाले मामले में नीरा राडिया के टेपों से जो खुलासे हुये हैं उनसे तो मीडिया को मीडियेटर कहा जाने लगा है।
      गत लोकसभा चुनाव में भाजपा के लालजी टंडन ने उत्तर प्रदेश के एक बड़े अखबार द्वारा सौदे की पेशकश करने का खुलासा किया था तो मध्य प्रदेश में भाजपा की ही सुषमा स्वराज ने एक अखबार द्वारा दो करोड़ रुपये मांगने का खुलासा किया था, पर दोनों नेताओं ने चुनाव निबत जाने के बाद अखबार पर किसी कार्यवाही की जरूरत नहीं समझी और न ही इसे राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाना चाहा। भाजपा के ये दोनों उम्मीदवार तो उनके शिखर के नेता हैं इसलिए वे बड़ी राशि माँगे जाने पर इंकार कर सके पर जिन कम चर्चित नेताओं के गुणगान करते हुए उनके जीतने की सम्भावनाओं की अतिरंजित खबरें ये अखबार छापते रहे हैं उन्होंने अवश्य ही इन अखबारों समेत दूसरे कई मीडिया संस्थानों के साथ सौदे किये होंगे। दूसरे दलों के नेताओं ने भी ऐसा ही कुछ किया होगा।
      सवाल यह है कि इस सच्चाई के बाद भी क्या इन आधारों पर पूरे मीडिया को एक ही लाठी से हांका जा सकता है? पूंजीपतियों द्वारा नियंत्रित मीडिया के अलावा मीडिया का एक हिस्सा ऐसा भी है जो निष्पक्ष होकर सच को सच कहते हुए पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहा है और समय समय पर सत्त्ता में प्रवेश कर गयी विकृत्तियों को भी अपने स्टिन्ग आपरेशंस आदि से देश हित में उजागर करता है। इससे सत्ता से जुड़े निहित स्वार्थ उनके दुश्मन हो जाते हैं और उन्हें नुकसान पहुँचाना चाहते हैं। यदि मीडिया के खिलाफ कोई कड़ा कानून लाया जाता है तो वो इन निहित स्वार्थों द्वारा ईमानदार मीडिया को प्रताड़ित करने का साधन भी बन सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि रास्ता इनके बीच में से निकाला जाये जिससे साँप भी मर जाये और लाठी भी टूटने से बच जाये। जस्टिस मार्कण्डेय एक खरे व्यक्ति हैं और उनके कार्यकाल के फैसले बताते हैं कि वे हमेशा ही व्यवस्था में घर कर गयी विकृत्तियों के प्रति चिंतित रहे हैं। सामने नजर आ रहे दोषों और उन दोषों के लिए जिम्मेवार लोगों के प्रति वे नरम नहीं रह पाते, व कटु सत्य बोलते हैं। उन्होंने न्याय व्यवस्था और न्यायधीषों के खिलाफ भी कटु टिप्पणियाँ की हैं।
      आईबीएन-सीएनएन पर करण थापर को दिये साक्षात्कार के विवादास्पद मुद्दों को लें तो उससे स्पष्ट होता है कि उनकी सारी आपत्तियां सेठाश्रित मीडिया और सेठाश्रित व्यवस्था के प्रति हैं। वे कहते हैं कि
 मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक समस्याओं से हटा देता है जो कि आर्थिक हैं। देश के अस्सी फीसदी लोग मुफलिसी में जी रहे हैं। वे बेरोजगारी, मँहगाई और स्वास्थ सम्बन्धी समस्याओं से जूझ रहे हैं जिससे ध्यान हटाकर फिल्मी सितारों, फैशन परेडों और क्रिकेट का मुजाहिरा करते हैं।
मीडिया अक्सर लोगों को बाँटने का काम करता है। उदाहरण के लिए जब भी मुम्बई, दिल्ली, बंगलौर आदि में बम विस्फोट होता है तो कुछ ही घंटों में तकरीबन हर चैनल दिखाने लगता है कि एक ई-मेल या एसएमएस आया है कि इंडियन मुजाहिदीन ने वारदात की जिम्मेवारी ली है, या जैशे मोहम्मद या हरकत उल जिहाद का नाम लिया जाता है। कुछ मुसलमान नाम आते हैं। देखने वाली बात यह है कि इस तरह के ई-मेल और एसएमएस कोई भी शरारती आदमी भेज सकता है। लेकिन टीवी चैनलों में यह दिखा कर और अगले महीने अखबारों में छाप कर आप महीन ढंग से यह सन्देश देते हैं कि सभी मुसलमान दहशतगर्द और बम फेंकने वाले हैं। इस तरह आप एक समुदाय को बुरा बना रहे हैं जबकि हकीकत यह है कि सभी समुदायों में निन्यानवे प्रतिशत लोग चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान अच्छे हैं।
मुझे यह कहने में अफसोस है कि मीडिया के ज्यादातर लोगों के विवेक का स्तर कफी निम्न है। मुझे इस बात पर शुबहा है कि उन्हें आर्थिक सिद्धांतों, राजनीति शास्त्र, दर्शन या साहित्य के बारे में कुछ पता होगा। मुझे शक है कि उन्होंने ये सारी चीजें पढी होंगी, जो उन्हें पढना चाहिए।
कई चैनल ज्योतिष दिखा रहे हैं, यह राशि है वह रशि, अखिर यह सब है क्या?
हर कोई लोकतंत्र में जबाबदेह है। कोई भी आजादी पूर्ण नहीं है। हर आजादी के लिए तर्कसंगत पाबन्दियां जरूरी हैं

जस्टिस मार्कण्डेय के उक्त विचारों से लगता है कि देश में कोई ऐसी ताकतवर लाबी है जो यह नहीं चाहती जनता की मुफलिसी, बेरोजगारी, मँहगाई,और स्वास्थ सम्बन्धी सवाल सामने आयें वही लोग मीडिया में क्रिकेट फैला दे रहे हैं, जो अफीम की तरह है। मीडिया जो जानबूझ कर एक खास अल्पसंख्यक समुदाय को आतंकी घटनाओं के प्रति जिम्मेवार ठहराने की कोशिश करता है वह यह विभाजन पैदा करके किस को लाभ पहुँचाना चाहता है और ऐसा करने के लिए उसे निश्चित रूप से बहुसंख्यकों की राजनीति करने वाली पार्टी ही प्रोत्साहित कर रही होगी। स्मरणीय है कि अभी हाल ही में अडवाणी की यात्रा के दौरान सतना में पत्रकारों को एक एक हजार रुपयों के लिफाफे देने वाला पकड़ा गया था ।
      इसी मीडिया का चरित्र चित्रण करती हुयी एक फिल्म पीपली लाइव कुछ समय पहले दिखायी गयी थी। इसे देख कर भी मीडिया को बिल्कुल भी शर्म नहीं आयी तथा उसकी घटिया हरकतें जारी रहीं, पर जनता ने जिस उत्साह के साथ उसका स्वागत किया उससे लगता है जनता को मीडिया की ऊटपटांग हरकतें पसन्द नहीं आ रहीं। भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह जनता ने अन्ना हजारे ही नहीं अपितु रामदेव तक का स्वागत किया उससे उसके मूड का पता चलता है। मीडिया घरानों की सम्पत्तियां जिस ढंग से उत्तरोत्तर बढ रही हैं और वे आईपीओ तक लाने लगे हैं, दूसरी ओर नये पत्रकारों की बेरोजगारी का लाभ लेते हुए उसे छोटी छोटी राशि का लाली-पाप पकड़ा कर मन चाहा लिखने को मजबूर कर रहे हैं। इससे लगता है कि जस्टिस मार्कण्डेय के विचार को जनता का समर्थन मिलेगा। यदि हम अच्छे और बुरे मीडिया के बीच के अंतर को उजागर कर नियम बनवा सकें तो गेंहू के साथ घुन पिसने से बच सकता है।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, नवंबर 03, 2011

आरोपियों के छूट जाने पर खुश होने वाली मध्य प्रदेश सरकार

आरोपियों के छूट जाने पर खुश होने वाली म.प्र. सरकार
                                                              वीरेन्द्र जैन
     कानून व्यवस्था का मामला राज्य सरकार के अंतर्गत आता है इसलिए उसकी जिम्मेवारी बनती है कि घटित अपराध के अपराधियों को पकड़ा जाये और उन पर सही ढंग से विवेचना करके सजा दिलवायी जाये। सजा दिलवाने का मतलब केवल अपराधियों को दण्डित करना ही नहीं होता अपितु समाज के सामने ऐसा उदाहरण रखना भी होता है जिससे कि दूसरे लोग वैसा दुस्साहस न करें। यह दुखद है कि मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार अपने इस कार्य को भी राजनीतिक चश्मे से देखती है। संघ परिवार से जुड़े लोगों की न केवल जाँच में ही लीपीपोती की जाती है अपितु पीड़ित पर दबाव डालकर समझौते के लिए मजबूर करने से लेकर अभियोजन को कमजोर करने तक से अपराधियों को लाभ पहुँचाया जाता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि सारे अपराधी भाजपा नेताओं के शरणागत होकर काम करने में ही अपनी सुरक्षा देखने लगे हैं। प्रदेश की राजधानी तक में आये दिन बैंक और एटीएम लूटे जा रहे हैं और सक्रिय लोगों की हत्याएं हो रही हैं। इन घटनाओं की निरंतरता यह बताती है कि अपराधियों को कानून का कोई भय नहीं है। जब अपराधी दबंग होता है और न्याय दिलाने के लिए जिम्मेवार संस्था आरोपी से मिली हुयी नजर आती है तो पीड़ित स्वयं ही अपने आरोप वापिस ले लेने में ही अपनी भलाई समझता है। जब अभियोजन कमजोर होता है और भय या लालच में गवाह पलटने को विवश हो जाते हैं तो अपनी पूरी ईमानदारी के बाबजूद न्याय भी मजबूर हो जाता है।
     स्मरणीय है कि उज्जैन के एक प्रोफेसर की टीवी कैमरा के सामने धमकाने के बाद हत्या कर दी जाती है व सत्तारूढ दल से जुड़े छात्र संगठन के सदस्य धमकाते हुए न्यूज चैनल पर देखे जाते हैं। लोक लिहाज वश उन्हें गिरफ्तार भी करना पड़ता है तो वे कारागार की जगह अस्पताल में मेहमाननवाजी करते हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री काजू किशमिश लेकर उनसे मिलने जाते हैं। सच्चाई बहु प्रचारित होने के कारण उसकी सुनवाई प्रदेश से बाहर करवाने की व्यवस्था की जाती है किंतु भयभीत गवाह और अभियोजन जिनके आधार पर न्यायालय फैसले देते हैं वे तो प्रदेश सरकार के नेतओं के प्रभाव में ही रहते हैं इसलिए आरोपियों को मुक्त करते हुए भी न्यायालय को लिखना पड़ता है कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में विफल रहा। दूसरी ओर अभियोजन पक्ष की पैरवी करने वाले वकील का कहना था कि अभियोजन नहीं जाँच एजेंसी हारी है जिसने साक्ष्य एकत्रित करने में सावधानी नहीं बरती और सभी गवाहों को पलट जाने दिया। यह मामला भी आम आपराधिक मामलों जैसा ही हो जाता जिनमें आरोपी मुक्त हो जाते हैं किंतु इसकी भिन्नता यह थी कि मुक्त हुये आरोपियों को बीमारी के बहाने अस्पताल में रखा गया था जो स्वतंत्र रूप से घूमते फिरते थे और एक प्रैस फोटोग्राफर द्वारा उनकी फोटो खींचने का प्रयास करने पर वे दौड़ कर सीड़ियां चढते हुए तीसरी मंजिल तक पहुँच जाते हैं। मुख्यमंत्री उनको आश्वस्त करने के लिए पहुँचते हैं और जब वे छूट कर आते हैं तो नगर में उनका विजय जलूस निकलता है जिसमें प्रदेश सरकार का खुशी से नाचता हुआ एक मंत्री कहता है कि आज वह इतना खुश है जितना मंत्री बनने पर भी नहीं हुआ था। आरोपियों पर मुकदमा प्रदेश शासन ने चलाया था और उनके छूट जाने से प्रदेश सरकार की कमजोरी ही प्रकट हुयी थी फिर भी उसी सरकार का एक मंत्री नाचता हुआ विजय जलूस में चल रहा था। मारा गया प्रोफेसर उच्च शिक्षा से जुड़ा हुआ शिक्षक थ और अपनी ड्यूटी करता हुआ मारा गया था इसलिए सरकार की अतिरिक्त जिम्मेवारी थी कि वह अपराधियों का पता लगाये और अपराधियों को सजा मिलना सुनिश्चित करे किंतु कोर्ट के फैसले की ओट में सरकार भी चुप होकर बैठ गयी जिससे उसकी संलिप्तता का पता चलता है।
     इसी तरह राजधानी में शीतल ठाकुर गोला काण्ड है जिसमें आज से तीन साल पहले चिकित्सा विज्ञान की एक छात्रा को गोली मारी गयी थी और आरोप में एक वरिष्ठ  पुलिस अधिकारी व एक डाक्टर का नाम आया था। पुलिस अधिकारी ने अपनी सफाई में कहा था कि उसका प्रमोशन रुकवाने के लिए उसे झूठा फँसाया जा रहा है। उसके बाद यह छात्रा राजधानी से बाहर चली गयी और पुलिस मामले को दबाये हुए बैठी रही। पिछले दिनों बहुत दबाओं के बाद यह छात्रा राज्य मानवाधिकार आयोग के दो सदस्यीय जाँच दल के सामने उपस्थित हुयी और उसने अपना बयान दिया कि 11 अप्रैल को रात्रि आठ बजे वह हबीबगंज रेलवे स्टएशन पर अपने मित्र शांतुन से मिलने जा रही थी तब बिट्टन मार्केट स्वीमिंग पूल के पास उसे गोली लगी। उसी समय चार पाँच गाड़ियां भी गुजर रही थीं और संयोग से ठीक उसी समय उसके परिचित डाक्टर देवानी भी वहीं से निकले जो [सरकारी अस्पताल ले जाने के बजाय] उसे प्राइवेट अस्पताल ले गये और पट्टी करने के बाद एक्सरे निकाले जिसमें लीवर और किडनी के बीच गोली फँसी मिली जो अभी तक उसके शरीर में है।  उसने यह भी बताया कि किसी अज्ञात व्यक्ति ने उसके नाम से मुख्यमंत्री को अठारह शिकायतें भिजवायीं हैं। पुलिस इस मामले में सदैव निष्क्रिय रही। उसे यह भी चिंता नहीं हुयी कि उसके एक वरिष्ठ अधिकारी का प्रमोशन रोकने के लिए यदि ऐसा षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया गया है तो वो उस षड़यंत्रकारी का पता लगाये जो शासन के काम में बाधा पैदा कर रहा है। पुलिस में सही स्थान पर सही आदमी का पहुँचना ही प्रदेश के हित में है। क्या ऐसे गम्भीर मामले में पीड़ित के बयान के बाद, जो दबाव और लालच में दिया गया मालूम देता है, फाइल को बन्द कर देना उचित होगा? वस्तुगत सवाल मामले की जाँच का है। पुलिस ने इस मामले में उदासीनता दिखाते हुए छात्रा को शहर से बाहर क्यों नहीं तलाशा और बयान क्यों नहीं लिये। ठीक घटना स्थल पर ही एक सुपरिचित डाक्टर की उपस्थिति और प्राइवेट अस्पताल में ट्रीटमेंट क्या एक संयोग भर है। पीड़िता और आगे कार्यावाही क्यों नहीं चाहती। ये ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तर जानने बहुत जरूरी है, ताकि सतह के नीचे चल रही हलचलों को टटोला जा सके।
     ये तो कुछ नमूने हैं अन्यथा रूसिया प्रकरण जिसमें एक विधायक पर उठे कई सवाल अनुत्तरित रह गये हैं जो शासन और प्रशासन की सोनोग्राफी कर सकते हैं, उन्हें अनुत्तरित ही छोड़ दिया गया। एक विधायक और उनके पति भी एक छात्रा और नौकरानी की हत्या के मामले में अभियुक्त हैं और जब विधायक के पति जेल से कोर्ट में आते हैं तो पुलिस अधिकारी अपनी वर्दी में उनके पैर छूते देखे जाते हैं और सरकार चुपचाप देखती रहती है। शहला मसूद आदि की घटनाएं तो अब अखबार वाले तक भूलते जा रहे हैं। नगर में ट्रैफिक नियंत्रण के लिए पुलिस सत्तारूढ दल के नेताओं से कुछ नहीं कह सकती है और कार्यावाही करने पर उन पर हमले कर दिये जाते हैं।
     सवाल यह ही नहीं है कि अदालत के सामने किस प्रकरण को किस तरह से प्रस्तुत किया गया और क्या फैसला मिला, सवाल यह भी है कि क्या सरकार लोगों को न्याय दिलाना चाहती है या नहीं और वह जनता के साथ है या अपराधियों के साथ है।
वीरेन्द्र जैन
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