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पश्चिम बंगाल की जनता का द्वन्द
वीरेन्द्र जैन
यदि पिछले लोकसभा, ग्राम पंचायतों, और नगर निगमों के चुनाव परिणामों के आधार पर मूल्यांकन करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिम बंगाल राज्य में गत तेतीस साल से सत्तारूढ बाम मोर्चा का पुनः सत्ता में लौटना कठिन हो सकता है। पिछला लोकसभा का चुनाव कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने एक साथ मिल कर लड़ा था और बाम मोर्चा इसके पहले वाले चुनावों से कुल दो प्रतिशत मत कम पाने के बाद भी अपने खिलाफ संयुक्त विरोध के कारण अनेक सीटों से हाथ धो बैठा था। वैसे तृणमूल कांग्रेस के गठन के बाद आम चुनावों में त्रिकोणीय संघर्ष होता था जिससे बाम मोर्चे की जीत सुनिश्चित रहती थी। किंतु परमाणु ऊर्जा के सवाल पर मनमोहन सरकार से समर्थन वापिस लेने के बाद हुये चुनावों में कांग्रेस ने चालीस में से कुल चौथाई सीटों पर खुद चुनाव लड़ा था और बाकी की सीटें तृणमूल कांग्रेस के लिये छोड़ दी थीं। इस रणनीति ने उन्हें ऎतिहासिक सफलता दिला दी। स्मरणीय है कि इस अवसर पर भी तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने अपना अहंकार नहीं छोड़ा था और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गान्धी के साथ कुल एक आम सभा सम्बोधित की थी। इस आमसभा से पहले और आमसभा में भी ममता बनर्जी ने सोनिया गान्धी से तब तक कोई बात नहीं की थी, जब तक कि सोनिया गांधी स्वयं चल कर मंच पर उन के पास नहीं गयी थीं।
1977 से पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी राजनीति की केन्द्रीय भूमिका में है और दूसरी गैरबामपंथी पार्टियाँ या तो उसकी विरोधी होती हैं या उसकी प्रतियोगी होती हैं। कांग्रेस पार्टी सीपीएम विरोधी पार्टी थी जबकि उससे टूट कर बनी तृणमूल कांग्रेस ने उसकी प्रतियोगी होने का प्रयास किया। यही कारण रहा कि इतने लम्बे समय तक सत्ता में बने रहने के बाद सीपीएम से खिसका हुआ मामूली समर्थन कांग्रेस की ओर जाने की जगह तृणमूल कांग्रेस की ओर गया। ममता बनर्जी की राजनीति को भले ही दिशाहीन माना जाता हो किंतु, वे कम्युनिष्टों की ही तरह सादगीपूर्ण, ईमानदार, और संघर्षशील नेता के रूप में प्रचारित हैं। पिछले दिनों उन्होंने किसानों की जमीनों पर उद्योग लगाये जाने के सम्बन्ध में नन्दीग्राम और सिंगूर में जिन मुद्दों पर संघर्ष कर के अपना जनाधार बढाया और उस संघर्ष में हिंसा से भी परहेज नहीं किया वह कभी बामपंथी तरीका ही रहा था। अपने इन्हीं तरीकों के कारण वे बंगाल में बामपंथियों की प्रतियोगी बनकर उभरीं और सत्ता विरोधी वोटों की वृद्धि को कांग्रेस की ओर जाने की जगह अपनी ओर मोड़ लिया। वहीं दूसरी ओर बामपंथ में से एक अतिबामपंथी धड़ा निकला था जो सीपीएम की रणनीति से असहमत था और उन्हें संसदवाद का शिकार मानता था। वे पहले नक्सलवाद के नाम से पहचाने गये और बाद में माओवादियों के रूप में जाने गये। सीपीएम का विरोध करने के लिए उन्होंने सीपीएम विरोधी शक्तियों के साथ मदद का आदान प्रदान किया जिसका चुनावी लाभ ममता बनर्जी ने भी उठाया। पिछले दिनों उनकी आतंकित करने वाली हिंसक गतिविधियाँ बहुत ही बढ गयीं जिसमें ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस का वह हादसा भी शामिल है जिसमें 150 से भी अधिक निर्दोष नागरिक मारे गये। पहले तो ममता बनर्जी ने इसे माओवादियों का कारनामा ही मानने से इंकार कर दिया पर बाद में जब सारे सूत्र उन्हीं से जुड़ने लगे तो उन्होंने चुप्पी साध ली। जबकि संसद में गृहमंत्री चिदम्बरम ने भी पुष्ट कर दिया कि जाँच से मिले सबूतों के आधार पर यह पता चलता है कि इसमें माओवादियों का हाथ है। आरोपियों में से कुछ की गिरफ्तारी भी हुयी।
अब ममता बनर्जी द्वारा बंगाल में सरकार बनाने का सपना तीन आयामों से मिल कर बनता है, पहला तो वह कुलीन, सम्पन्न और जमींदार रहा वर्ग जो कम्युनिष्टों के कारण अपनी जमीन और सम्मान सहित बहुत कुछ खो चुके हैं, दूसरे लम्बे समय से चली आ रही राज्य की सत्ता के विरोधी मतों [एंटी इंकम्बेंसी वोट] के प्रवाह का कांग्रेस से उनकी ओर खिसकना, तथा तीसरे माओवादी। उन्हें बाममोर्चा की लगातार खिलाफत करते रहने के कारण सत्ता विरोधी मानसिकता का नकारात्मक समर्थन पहले भी मिलता रहा है, जिसमें अब वृद्धि हुयी है। बिडम्बना यह है कि जो सम्पन्न वर्ग अपने हितों पर कुठाराघात के कारण सीपीएम सरकार का विरोधी है वे माओवादियों के सहयोगियों का साथ कैसे दे सकेंगे जिनसे उन्हें सदैव हिंसक खतरा है! माओवादी भी जानते हैं कि ममता बनर्जी का साथ तात्कालिक मदद के रूप में भले ही मिल जाये पर ममता की पार्टी का आधार उनके शत्रु वर्ग से ही आता है, इसलिए ये साथ लम्बा नहीं चल सकता।
सीपीएम का पिछला समर्थन कांग्रेस को बहुत मँहगा साबित हुआ था जिन्होंने न केवल सूचना का अधिकार, मनरेगा, और शिक्षा का अधिकार जैसी योजनाएं लागू करने के लिए निरंतर दबाव बनाया अपितु पेट्रोल डीजल और गैस की कीमतें भी बढने नहीं दीं जबकि विश्व समुदाय का दबाव सभी तरह की सब्सिडी खत्म कर देने के लिए लगातार पड़ रहा था। चुनाव के एक साल पहले वे परमाणु ऊर्जा का समझौता लागू करने के लिए साहस जुटा सके थे। इसलिए बामपंथ को कमजोर करने के लिए उन्होंने झुक कर उन ममता बनर्जी से समझौता करना मंजूर कर लिया था जो भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार में भी मंत्री रही थीं। लालगढ में माओवादियों के सहयोगी संगठन पीसीपीए [पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस एट्रोसिटीज] के साथ रैली करने और पूरी संसद द्वारा एक स्वर से उस पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करने के बाद कांग्रेस के सामने मुश्किल यह है कि वह किस मुँह से ममता के आगे झुक कर खड़ी हो सकेगी जबकि प्रधानमंत्री माओवादियों को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बतलाते रहते हैं।
एक द्वन्द यह है कि धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े पक्षधर होने के कारण बंगाल के मुस्लिम वोट अब तक बाम मोर्चे को मिलते रहे हैं, तथा इसीलिए भाजपा अपने समर्थन को बंगाल में बाम पंथियों की सबसे बड़ी शत्रु तृणमूल कांग्रेस की ओर खिसकाती रही है। किंतु पिछले दिनों नन्दीग्राम और तस्लीमा नसरीन आदि प्रकरणों के बाद यह कहा जा रहा है कि बामपंथियों का कुछ मुस्लिम वोट तृणमूल की ओर खिसका है। यदि यह सच है तो भाजपा का जो परोक्ष समर्थन उन्हें मिलता रहा था वह अब नहीं मिलेगा। दशा यह है कि ममता बनर्जी जिन तीन/चार खम्भों पर खड़े होकर बाम मोर्चे से सत्ता छीन लेने का सपना पाल रही हैं वे आपस में एक दूसरे के स्वाभाविक विरोधी हैं और स्वयं को अपनी राष्ट्रीय छवि के रूप में उनसे बड़ा मानते हैं। अपना समर्थन देने के लिए उन्हें कोई घोषित कार्यक्रम या नीति तो जनता को बतानी ही पड़ेगी, जो विरोधाभासों के कारण सम्भव नहीं दिख रही है। इसके उलट बाम मोर्चे में सम्मलित दलों की नीतियां और कार्यक्रम स्पष्ट हैं और उनका समर्थन कुछ प्रतिशत घट जाने के बाद भी 45% से ऊपर बना हुआ है।
दूसरी ओर, ममता बनर्जी की एक जुझारू विरोधी नेता के रूप में छवि तो आकर्षक है किंतु जब जब उन्हें केन्द्र में मंत्री पद मिला वे उसमें न केवल असफल हुयी हैं अपितु वे उस पर अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। उनकी ईमानदारी और सादगी की जो छवि है वैसी छवि उनंकी पार्टी के दूसरे लोगों की नहीं है जबकि बंगाल की राजनीतिक चेतना से सम्पन्न जनता पिछले तेतीस सालों से जिस तरह के शासन की अभ्यस्त हो चुकी है उससे भी बेहतर की अपेक्षा रखती है जो तृणमूल के सिद्धांतहीन शासन में सम्भव नहीं हो सकती। यह साफ हो चुका है कि राजनीतिक चेतना और सिद्धांत विहीन नेता राजनीति में केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जुटते हैं जो तीन सौ करोड़पतियों वाली संसद में सांसद निधि बेचने वालों, सवाल पूछने के लिए पैसे उगाहने वालों, और कबूतरबाजी से लेकर दलबदल तक करने में रुचि लेते हैं। इस समूह में से चन्द नमूने कैमरे की पकड़ में आ जाने के बाद बात साफ हो चुकी है। दूसरी ओर इतने लम्बे समय एक ही गठबन्धन का शासन देखते देखते ऊबी हुयी जनता कुछ हलचल मचाने को उतावली दिखती है। स्वाद परिवर्तन की इस इच्छा से बंगाल में निरंतर द्वन्द पैदा हो रहा है और प्रदेश अस्थिर सरकारों के युग की ओर बढ रहा है। जो माओवादी एक सौ चालीस जिलों में अपने पाँव पसार चुके हैं उनका शासन के सहयोगी दल होने की कल्पना ही भयावह है।
वीरेन्द्र जैन
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