गुरुवार, मार्च 29, 2012

राष्ट्रीय मान्य दल का मुकुट और ज्वलंत मुद्दे पर मौन


राष्ट्रीय मान्य दल का मुकुट और ज्वलंत मुद्दे पर मौन
वीरेन्द्र जैन
      सरकार ने बलवंत सिंह राजोआना की सजा स्थगित कर दी है।
      इस सजा के स्थगन के लिए पंजाब की  भाजपा- अकालीदल गठबन्धन सरकार के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने राष्ट्रपति प्रतिभादेवीसिंह पाटिल से अपील की थी।
      ऐसी अपील करने के लिए उन्हें शिरोमणि गुरुद्वारा समिति ने आदेश दिया था।
      पंजाब सरकार भारत देश का ही एक राज्य है, और भारत देश अपने संविधान के अनुसार एक धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है। पंजाब में एक चुनी हुयी गठबन्धन सरकार है जिसमें भाजपा नामक एक राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल है और अकाली दल नामक एक राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दल है। राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए या राजग नामक गठबन्धन है जिसमें ये दोनों दल सम्मलित हैं। पंजाब राज्य में राज्य स्तरीय अकाली दल के विधायक संख्या में अधिक हैं इसलिए सरकार बनाने में उसका नेतृत्व रहता है किंतु राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा बड़ा राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल है और नेतृत्व उसका रहता आया है। भाजपा एक हिन्दूवादी दल है और अकालीदल सिखों की पार्टी है। आज से पच्चीस साल पहले सिखों के एक आतंकवादी गुट ने अलग खालिस्तान बनाने के लक्ष्य को लेकर अनेक आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया था। ध्रुवीकरण के लिए उन्होंने पंजाब के गैर सिखों पर भी अन्धाधुँध हमले किये थे, राष्ट्रीय नेताओं और फौज के अधिकारियों की हत्याएं की थीं फौज की एक टुकड़ी से विद्रोह भी करवा दिया था। पंजाब के राज्यपाल और मुख्यमंत्री भी मारे गये थे। धर्मस्थलों को अड्डा बना लेने के कारण केंन्द्रीय सरकार को आपरेशन ब्ल्यू स्टार करना पड़ा था जिसके प्रतिशोध में देश की लोकप्रिय प्रधानमंत्री की हत्या हुयी थी व जिसके प्रतिशोध के नाम पर देश भर में हजारों बेकसूर सिखों की निर्मम हत्याएं हुयी थीं। अटूट सम्पत्ति और राष्ट्रीय हितों की बरबादी के साथ साथ दोनों तरफ से लगभग पचास हजार लोगों के मारे जाने का अनुमान लगाया गया है। इस दौरान हिन्दूवादी भाजपा को भी कुछ नुकसान उठाना पड़ा था तथा अकाली दल ने दोहरी भूमिका निभा कर अपने को सुरक्षित रखा था।
       हाल ही में हुए चुनावों में जीत कर आने के बाद भाजपा-अकालीदल गठबन्धन ने उस संविधान की शपथ खाने के बाद सरकार चलाना शुरू की है जिसमें लिखा है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है। सरकार का कोई भी फैसला पूरे मंत्रिमण्डल का फैसला होता है, इसलिए यह तय है कि पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंतसिंह की हत्या करने वाले आतंकी बलवंत सिंह को फाँसी की सजा से बचाने के लिए अपील करने वालों में भारतीय जनता पार्टी भी सम्मलित है। उल्लेखनीय यह भी है कि यह फैसला सिख धर्म की सर्वोच्च संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा समिति के आदेश पर लिया ग्या है अर्थात यह धर्मनिरपेक्ष राज्य की रक्षा करने की शपथ का भी उल्लंघन है। रोचक यह है कि भाजपा की तीन प्रमुख माँगों में सभी नागरिकों के लिए एक समान आचार संहिता की माँग भी है जो मुख्य रूप से मुसलमानों को शरीयत के कानून के अनुसार चलने की विशेष छूट के विरोध में है। क्या शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धन समिति के आदेशों के अनुसार चलने वाली सरकार में शामिल होकर और उसके आदेशों पर सहमति व्यक्त करने के बाद उसे समान नागरिक आचार संहिता का सवाल उठाने का हक है?
      कुछ ही महीनों पहले सरकार के खिलाफ भाजपा का प्रमुख मुद्दा आतंकवाद हुआ करता था और इस बहाने से वह सरकार को कटघरे में खड़ा किया करती थी। पर बाद में यह रहस्य खुला कि जिन घटनाओं को अलगाववादी व मुस्लिम आतंकियों के नाम मढ दिया जाता था वे दर असल हिन्दू आतंकियों का कारनामा था। उसके बाद से आतंकवाद, भाजपा का प्रमुख मुद्दा नहीं रहा। बाद में अफजल और कसाब की फाँसी को टालने के नाम पर भाजपा सरकार को कटघरे में खड़ा करती रही और इसे तुष्टीकरण का सस्ता हथकण्डा बतलाती रही। पर अब यही पार्टी न केवल एक ऐसे आतंकी की फाँसी को माफ करने के लिए की गयी अपील में सम्मलित है जिसने अपना अपराध स्वीकार किया है अपितु उसे इसके लिए कोई खेद नहीं है। देशभक्ति का त्रिपुण्ड पोते फिरने वाली भाजपा यह काम पंजाब की सरकार में थोड़ी सी जगह बचाने के लिए कर रही है। एक ओर कश्मीर के अलगाववादियों के खिलाफ कठोर हिंसा का तर्क देने वाली यह पार्टी खालिस्तान आन्दोलन के आतंकियों के लिए फाँसी न दिये जाने की अपील में सम्मलित है। दूसरी पार्टियों के भ्रष्टाचार का विरोध और अपनी सरकारों को न केवल कुतर्कों से बचाने की कोशिश करना अपितु संरक्षण देना भी उसकी प्रकृति में शामिल है।
      जरूरी है कि देशहित के मसलों पर टुच्ची राजनीति न करके सारे दल एक जुट हों और सरकार को कठोर कदम उठाने के प्रोत्साहित करें। जो लोग दूसरों के बच्चों को देश के नाम पर जान देने को भड़काते रहते हैं वे ही अपनी छोटीमोटी सीट के लिए बेपेन्दी के लोटे की तरह लुड़कते रहते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि राष्ट्रीय मान्यता के लिए यह जरूरी शर्त हो कि वह ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे पर अपने दल की प्रतिक्रिया तुरंत दे । जो ऐसा नहीं करें, उनकी मान्यता को समाप्त किये जाने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, मार्च 25, 2012

जेल अधिकारियों के पास दौलत के खजाने - एक विचारणीय प्रश्न


जेल अधिकारी के पास दौलत के खजाने – एक विचारणीय प्रश्न  
वीरेन्द्र जैन
                मध्य प्रदेश में शायद ही कोई सप्ताह ऐसा जाता हो जब किसी अफसर, इंस्पेक्टर, क्लर्क, चपरासी, ठेकेदार, व्यापारी, नेताओं के दलाल आदि के यहाँ आयकर या लोकायुक्त का छापा न पड़ता हो या और उस छापे में अकूत धन सम्पत्ति आदि न बरामद होती हो। बरामद की गयी ये अनुपातहीन सम्पत्ति रिश्वत, कमीशन, आदि के द्वारा अर्जित की जाती है जो या तो अदालत दर अदालत लम्बे चले मुकदमों के बाद वापिस उसी व्यक्ति के पास पहुँच जाती है, या मामूली जुर्माने आदि लगा कर मामले को रफा दफा कर दिया जाता है। प्रदेश की जेलें अभी तक दण्डित भ्रष्टाचारियों को कैद रखने के लिए तरस रही हैं। वह सम्पत्ति कैसे कैसे और किस किस के गलत काम कर कर के अर्जित की गयी होती है उसकी कोई पूछ परख नहीं की जाती ताकि भविष्य में उसके रोकने की व्यवस्थाएं की जा सकें। दण्ड देने के पीछे एक दृष्टिकोण यह भी होता है कि दूसरा कोई व्यक्ति वैसी ही गलती करने से डरे, किंतु रोचक यह है कि पकड़े गये व्यक्ति के बाद आने वाला उसका उत्तराधिकारी भी वैसे ही कामों में संलग्न हो जाता है और यदा कदा कुछ समय बाद उनमें से कुछ ऐसे ही पकड़े भी जाते हैं, जिसे वे खेल भावना की तरह लेते हुए कानून के छिद्रों से बच निकलने के रास्ते तलाशने कोई बड़ा वकील करने लगते हैं। स्मरणीय है कि देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त ने सेवा निवृत्ति के अगले दिन ही कहा था कि देश का हर तीसरा आदमी [सरकारी कर्मचारी] भ्रष्ट है। उन्होंने यह भी कहा था कि कुल तीन प्रतिशत भ्रष्टाचारी ही जाँच के दायरे में आ पाते हैं और उनमें से भी कुल चार प्रतिशत पर कानूनी कार्यवाही होती है।
      पिछले दिनों जिन आईएएस आफीसर्स, डिप्टी कलेक्टर्स्, इंजीनियर्स, रजिस्ट्रार, आरटीओ, निरीक्षक, आडीटर्स, स्टोरकीपर्स, एकाउंटेंट, पटवारी, चपरासी, आदि के यहाँ से छापों में जो करोड़ों की रकमें और सम्पत्तियाँ मिली हैं उनके बारे में तो एक अनुमान सा रहता है कि ये सम्पत्तियां कैसे भुगतान की फाइलें रोकने, काम में अड़ंगा लगाने, गलत फैसले लेने, झूठे बिल बनाने आदि के द्वारा बनायी जाती हैं। अगर कोई सरकार चाहे तो पूरा हिसाब करके सारे लेने और देने वालों को एक घेरे में ला सकती है पर ये काम सरकार के कामों की प्राथमिकताओं में नहीं आता जिसका कारण भी मंत्रियों की अनुपात हीन सम्पत्ति वृद्धि को देख कर अनुमानित किया जा सकता है।
       पिछले दिनों इन्दौर की सेन्ट्रल जेल अधीक्षक के यहाँ छापे में जितनी बड़ी मात्रा में सम्पत्तियां मिली हैं वे चौंकाने वाली हैं। इस छापे में पकड़ में आयी सम्पत्ति की कुल कीमत लगभग पन्द्रह करोड़ है। इनमें भोपाल की पाश कालोनी में तीन आलीशान मकान, एक गर्ल्स हास्टल, चार दुकानें पाँच प्लाट, 14 एकड़ कृषि भूमि व इन्दौर के विकास प्राधिकरण की योजनाओं में दो प्लाट सम्मलित हैं। छापे के दौरान ही सम्बन्धित अधीक्षक के लड़के ने दो लाख रुपयों की पोटली बना कर खिड़की से सड़क पर फेंक दिये जिसे दो पुलिस कानिस्टबलों द्वारा देख लिये जाने से वे बरामद हो गये। अगले दिन जब उनका लाकर खोला गया तो उसमें ग्यारह लाख रुपये बरामद हुये। सवाल उठता है कि जिस जेल अधीक्षक द्वारा कुल अर्जित वेतन 39 लाख के आस पास ही बैठता हो उसके पास 15 करोड़ कीमत की सम्पत्तियां सरकार और कानून को किस तरह से चूना लगा कर एकत्रित हो गयीं!
      जेल जाने के अनुभवों से सम्पन्न विभिन्न व्यक्तियों से जानकारी करने पर ज्ञात हुआ है कि अदालतों द्वारा बमुश्किल दी गयी सजा को धता बता कर ही ये सम्पत्तियां अर्जित की जाती हैं। मुकदमों को लम्बे समय तक टालने के बाद जो भी व्यक्ति जेल पहुँचता है वह अगर पैसे वाला या प्रभावशील हुआ तो जेल में जाते ही बीमार बन जाता है जिससे उसे सिक यूनिट में भेज दिया जाता है जहाँ उसे लेटने के लिए पलंग, कूलर, तथा डाक्टरों द्वारा बताया गया खाना मिलने लगता है, जो जेल में मिलने वाले पशुओं के भोजन के समतुल्य भोजन की तुलना में बहुत शानदार होता है। इस सुविधा की कीमत चुकायी जाती है जो किसी भी पाँच सितारा होटल के कमरे व भोजन से कई कई गुना होती है। पद और पैसे वाले व्यक्ति को जेल के कैदियों से अपनी सुरक्षा भी करना पड़ती है क्योंकि जेल अधिकारियों की मिली भगत से ऐसी परिस्तिथियां बना दी जाती हैं जिस कारण वे ऐसी सुरक्षा लेने के लिए विवश हो जाते हैं। बताया गया है कि जब पुराने खूंखार कैदी गालियां बकते हैं या उन पर हमला कर देते हैं तो जेलर की भाषा में इसे कैदियों की आपसी लड़ाई माना जाता है। अपने खूंखार तरीके से आतंक पैदा करने वाले कुछ कैदी हर जेल में जेलर द्वारा पाले जाते हैं जिनके साथ समझौता करा के जेलर उचित सुविधा शुल्क लेकर अमीर कैदी को, सुरुचिपूर्ण भोजन घर या होटल से मँगवाने की सुविधा दे कर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है। पैसा मिलने पर आदतन अपराधी कैदियों को मोबाइल भी उपलब्ध करा दिया जाता है जिससे वे जेल में बैठे हुए ही जेल से बाहर के दौलतवानों को डराते धमकाते रहते हैं और धर्मस्थल बनवाने आदि के नाम पर पैसे वसूल करते रहते हैं। जाहिर है कि इस वसूली के लिए अपराधी का एजेंट जेलर साहब के लिए भी उचित व्यवस्था करता है। कुछ जिलों में तो अपराधियों को रहजनी करने के लिए रात में छोड़ा भी जाता है ताकि वे कमाई करके ला सकें और पुलिस उन्हें गिरफ्तार भी नहीं कर सके। गाँव के कई लाइसेंसधारी तो अपनी बन्दूक भी इस काम के लिए किराये पर चलवाते हैं। जब जेलर अपराधी के जेल के अन्दर होने की पुष्टि कर रहा हो तब उसके खिलाफ रिपोर्ट कैसे हो सकती है। सर्वसुविधा सम्पन्न जेल उनकी सुरक्षागाह बनी रहती है।
      कैदियों के भोजन से खूब कमाई की जाती है क्योंकि उन्हें जेल के नियामानुसार भोजन नहीं दिया जाता। बहुत सारे न्यायाधीश तो जेल में गये बिना ही सब ठीक होने की निरीक्षण रिपोर्ट दे देते हैं, जो कैदियों द्वारा बतायी गयी दशा से मेल नहीं खाती।  कैदियों द्वारा किये गये काम का पूरा भुगतान उनके जेल से छूटने पर दिया गया बताया जाता है पर जो आम तौर पर कैदी से दस्तखत लेने के बाद जेल अधिकारियों के पास ही रह जाता है। प्रभावशाली कैदियों को सुविधा शुल्क चुका कर बिना अदालती अनुमति के छुट्टियां मिलती रहती हैं। जो जितना खूंखार अपराधी होता है उसकी छुट्टी उतनी ही मँहगी होती है। देश विरोधी आतंकी घटनाओं के सम्बन्ध में कैद लोगों की उनके लोगों से मुलाकात करा देने की कीमत भी बहुत होती है।       
      एक जेलर का भ्रष्टाचार इसलिए अधिक गम्भीर है क्योंकि इससे समाज में जेल जाने के प्रति भय कम हो जाता है। जब पैसे से जेल में सारी असुविधाओं को निर्मूल किया जा सकता है तो व्यक्ति नैतिक होने की जगह सारा ध्यान किसी भी वैध अवैध तरीके से धन कमाने में लगा देता है। आंकड़े गवाह हैं कि सवर्ण जातियों और आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों को कम से कम सजाएं मिल सकी हैं तथा जिन्हें कभी भूले भटके मिलती भी हैं उन्हें उनके घर जैसी सुविधाएं मिलती रही हैं। कभी किसी ने मजाक में जेल को ससुराल कहा था किंतु उपरोक्त घटना बताती है कि पैसा होने पर यह सचमुच ससुराल जैसी बन सकती है। बताया गया है कि कतिपय कारागारों में तो सतत जुआ चलता रहता है और सट्टे के नम्बर भी लगते रहते हैं।
      जिस जेल के जेलर के यहाँ छापा मारकर इतनी बड़ी रकम पकड़ी जाती है उसमें ही कुछ खूंखार आतंकी भी बन्द रहते आये हैं। यदि पैसे की दम पर कोई आतंकी जेल से भागने में सफल हो जायेगा तो हमारे जाँबाज सुरक्षा बलों के सदप्रयासों को ठेस लग सकती है । इसलिए जरूरी है कि इस तरह के भ्रष्टाचार के अपराध में पकड़े गये आरोपियों से कठोर तरीके पूछताछ हो ताकि लोकतंत्र के तल में बैठ रही गन्ध से मुक्ति पायी जा सके। 
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शनिवार, मार्च 17, 2012

राजनीति को लम्पट युवाओं से बचाना जरूरी


राजनीति को लम्पट युवाओं से बचाना जरूरी

वीरेन्द्र जैन   
                पिछले दिनों हुए पाँच विधानसभा चुनावों में से उत्तर प्रदेश के चुनावों का अपना एक अलग महत्व है।  यह महत्व केवल इसलिए ही नहीं है कि वह देश का सबसे बड़ा राज्य है, अपितु इसलिए भी है कि इसमें चुनाव परिणामों के प्रति जो भी कयास लगाये जा रहे थे, या प्रीपोल सर्वेक्षण थे जिसमें गठबन्धन को अवश्यम्भावी बताया जा रहा था, उन सब को झुठलाते हुए मतदाताओं ने एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिया जिसका नेतृत्व एक युवा के हाथों में दिया गया है। उल्लेखनीय है कि इन चुनावों में दो करोड़ युवा मतदाता नये जुड़े थे और राज्य के चतुष्कोणीय चुनाव में पुराने मूल्यों में विश्वास रखने वाली भाजपा को छोड़ कर शेष तीन पार्टियों का नेतृत्व भी युवा नेताओं के पास था। यही कारण है कि मतदान में हुयी तीव्र बढोत्तरी के बाबजूद भाजपा के मतों में दो प्रतिशत की कमी आयी है और उसकी सीटें ग्यारह प्रतिशत घट गयी हैं।
      इस नये दौर में यह तय लग रहा है कि भारतीय राजनीति में अगला युग युवाओं का ही होगा, किंतु मुख्यधारा की राजनीति में जो युवा आ रहा है क्या वह इतना विश्वसनीय है कि उसके हाथों में लोकतंत्र की बागडोर सौंपी जा सके? उत्तर प्रदेश के नये युवा मुख्यमंत्री अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह में जो दृष्य उपस्थित हुआ वह बहुत आशाएं नहीं जगाता। मुख्यमंत्री के समर्थन में आये युवाओं ने न केवल शपथ ग्रहण के मंच पर ही कब्जा कर लिया, शपथ ग्रहण की मेज को तोड़ दिया, डायस को गिरा दिया अपितु सजावट के लिए लगाये गये फूल पत्तियों को नोंच कर फेंक दिया। वे चयनित मंत्रियों की कुर्सियों पर बैठ गये और बार बार अपीलें करने के बाद भी नहीं उठे। नई सरकार को उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की घोषणा करनी पड़ी है। चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद इस प्रदेश के विभिन्न नगरों में निकाले गये विजय जलूसों में जिस तरह की उद्दंडताका प्रदर्शन हुआ उसमें गोली लगने से एक बच्चे की मौत तक हो गयी, और पूरे प्रदेश में गुण्डागिर्दी का भय व्याप्त हो गया। इन जलूसों में ऐसा लग रहा था जैसे लोकतांत्रिक चुनाव न जीता हो अपितु किसी राजा के सैनिकों ने युद्ध जीता हो और वे विजित देश को लूटने के लिए निकल पड़े हों। असल में यह उस पूरी राजनीतिक संस्कृति में विकसित हो गया दोष है जो कुछ अपवादों को छोड़ कर समस्त मुख्य धारा के दलों में व्याप्त हो गयी है।
      इन दिनों सक्रिय राजनीति में जो युवा जुड़ रहे हैं उनमें से अधिकांश उस आर्थिक वर्ग से आ रहे हैं जो अपनी विरासत के कारण बिना कुछ परिश्रम के समस्त सुविधाओं वाला जीवन जीने के प्रति आश्वस्त हैं और शौकिया राजनीति उनके लिए अपनी पहचान स्थापित करने, सत्ता हथियाने, अपने अहं को तुष्ट करने, विरोधियों को नीचा दिखाने, ऐयाशी से भरा जीवन जीने, सरकारी मशीनरी को गुलाम बनाने, व अपने परिवार के व्यापारिक औद्योगिक हितों को सुरक्षित रखते हुए सरकारी अनुदानों व दूसरे लाभों को अपने हित में हस्तगत करने के लिए है। इस युवा की दृष्टि न तो व्यापक है और न ही सब जन सुखाय वाली है। वह जनता का, जनता के द्वारा जनता के लिए सिद्धांत वाले शासन को अपने निजी हितों में उपयोग करना चाहता है। पिछड़े वर्ग की जो जातियां कभी अपने सवर्ण आकाओं के लिए लठैती करती रही थीं वही मण्डल कमीशन के बाद सत्ता के स्वाद और सुखों से परिचित हुयीं और उन्होंने दूसरों को सत्ता दिलाने के लिए अपना खून पसीना बहाने की जगह अपनी ऊर्जा का स्तेमाल खुद की  सत्ता पाने के लिए लगाना शुरू कर दिया। आज इन युवाओं के पास बड़े बड़े क्रैशर हैं, ट्रक हैं, डम्पर हैं, गाड़ियां हैं, ताकत से हथियाये ठेके हैं और भ्रष्ट अधिकारियों से अपने पक्ष में काम कराने के लिए धन है व राजनेताओं के लिए समर्थकों की भीड़ है। कुल मिला कर युवाओं का एक बड़ा लम्पट वर्ग राजनीतिक दलों में प्रवेश कर चुका है जो मूल्य विहीन समर्थन के लिए लालायित नेताओं पर दबाव बना सकने में सक्षम है। राजनीतिक सोच विहीन यह वर्ग सत्ता से जुड़ी किसी भी पार्टी या नेता के पास जा सकता है क्योंकि इसकी न तो कोई विचारधारा है और न ही कोई प्रतिबद्धता ही है। भाजपा जैसी कभी अनुशासित रही पार्टी में भी विभिन्न आर्थिक सामाजिक  अपराधों व अनैतिकताओं से जुड़े युवा  अपराधी आये दिन पकड़े जा रहे हैं।  
      इस लम्पट युवा वर्ग के उदय के पीछे राजनेताओं की मूल्यहीनता का भी बड़ा हाथ है। जो राजनेता किसी भी तरह चुनाव जीत कर सत्ता सुखों के लालच में वोटों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं वे ही इनके सारे सही गलत कामों में पक्ष लेकर उन्हें भी मूल्यहीन बनाते रहते हैं। दूसरा दोष हमारी न्याय प्रणाली का है जो सामाजिक आर्थिक अपराधों में दण्ड नहीं दे पाती व समाज में विचरण करते रहने वाले अपराधी युवाओं को गलत रास्ता चुनने को विवश कर देते हैं। लम्पट युवाओं की दिन प्रति दिन बढती फौज किसी न किसी राजनेता के संरक्षण में उसकी अनुगामिनी होती है। लम्पटों का यह गिरोह लोकतंत्र की मूल भावनओं से जुड़े युवाओं और दलों को नुकसान पहुँचा रहे हैं इसलिए इन पर अंकुश लगाना या रोकना बहुत जरूरी है। यह काम उनकी ऊर्जा के सार्थक स्तेमाल के द्वारा किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश के ऊर्जा और संकल्प से भरे युवा मुख्य मंत्री इस काम को हाथ में लेकर एक नई पहल कर सकते हैं। वे समाजवादी युवजन सभा जैसे युवा संगठन का गठन करके उसके प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं और युवाओं को कोई राजनीतिक कार्यक्रम सौंप सकते हैं। प्रशासनिक भ्रष्टाचार से घिरे समाज में एक आन्दोलन छेड़ सकते हैं और अन्ध विश्वास व साम्प्रदायिकता के खिलाफ वैज्ञानिक दृष्टि विकसित कराने का काम कर सकते हैं। यदि लम्पट युवाओं के चरित्र परिवर्तन के लिए काम नहीं किया गया तो वे किसी भी दिन युवा नेतृत्व को संकट में डाल सकते हैं।
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मंगलवार, मार्च 13, 2012

उत्तर प्रदेश- मुख्यमंत्री चयन में अमर सिंह की भूमिका


उत्तर प्रदेश – मुख्यमंत्री चयन में अमर सिंह की भूमिका  
वीरेन्द्र जैन    
      उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम आ चुके हैं तथा सपा बसपा, भाजपा, कांग्रेस को प्राप्त सीटें, मत, आदि के बारे में विस्तार से चर्चाएं हो चुकी हैं व हो रही हैं। प्रदेश में अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाये जाने के नेपथ्य में किसी समय के सब से महत्वपूर्ण व्यक्ति और उसकी नई पार्टी के बारे में चर्चा जरूरी है। मेरा आशय, श्री अमर सिंह और उनकी पार्टी लोकमंच से है जिसे लोकसभा और राज्य सभा में प्रतिनिधित्व करने वाले दो सांसदों के भरपूर प्रचार के बाद भी कहीं कोई सफलता नहीं मिली। कहने की जरूरत नहीं कि कभी समाजवादी पार्टी के सहारे देश की राजनीति में सक्रिय दखल रखने वाले अमर सिंह को लोकतंत्र में अपनी हैसियत का अहसास हो गया होगा। पूर्वांचल का नारा उछालने और समुचित मात्रा में धन व्यय करने के बाद भी फिलहाल उनका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं दिखता। अपने धन के बल पर वे किसी पिछड़े राज्य से एक राज्यसभा की सीट खरीद सकते थे या अपने पुराने मित्र अरुण जैटली के सहारे भाजपा में सम्मलित होकर राज्य सभा में पहुँचने का प्रयास कर सकते थे, किंतु उत्तर प्रदेश में बाबूलाल कुशवाहा को सम्मलित करने के बाद भाजपा  के अन्दर जितना तीव्र विरोध उभरा था उसे देखते हुए अब अरुण जैटली भी यह साहस नहीं जुटा पायेंगे। स्मरणीय है कि समाजवादी पार्टी को छोड़ने के बाद जब वे इंगलेंड गये थे तब वहाँ पर उनके कभी के ‘बड़े भाई’ अमिताभ बच्चन भी प्रवास पर थे किंतु उन्होंने बहाँ प्रवास पर गये हुए अरुण जैटली से लम्बी बात करना ज्यादा जरूरी समझा था। उन्होंने ही कभी जैटली के सहारे भाजपा से परोक्ष मदद लेकर मुलायम की सरकार बनवायी थी और तभी से मुलायम सिंह भाजपा के प्रति मुलायम हो गये थे। भाजपा के अन्य लोग उन्हें इसलिए भी पसन्द नहीं करेंगे क्योंकि न्यूक्लियर डील के मसले पर आये अविश्वास प्रस्ताव पर भाजपा के सांसदों को खरीदने का काम करने का आरोप अमर सिंह पर ही लगा था जिसके लिए उन्हें जेल तक की हवा खानी पड़ी। यह मामला अभी तक लम्बित है और सुप्रीम कोर्ट के रुख को देखते हुए इसमें दोषी पाये गये लोगों को दण्ड मिलना तय है। स्मरणीय है कि संसद में नोटों की गिड्डियां उछाले जाने के दृष्य को देश के चालीस लाख लोग देख रहे थे, यदि फिर भी किसी को सजा नहीं मिली तो देश की जनता का न्याय पर से रहा सहा विश्वास भी उठ जायेगा और सदन एक तमाशा बन कर रह जायेगा। इसलिए दोनों पक्षों में से किसी एक पक्ष को सजा मिलना तय होने के कारण यह गठजोड़ सम्भव नहीं हो सकता।
      सम्भावना यह भी हो सकती है कि वे सारे गिले शिकवे भुला कर मुलायम सिंह से आजम खान की तरह गले मिल जायें क्योंकि मुलायम सिंह अंतिम समय तक उन्हें पार्टी से निकालने से डरते रहे थे, पर मुलायम सिंह का परिवार उन्हें फूटी आँख भी नहीं देखना चाहता जिनमें अखिलेश भी शामिल हैं। पार्टी से अलग होने के बाद वे कहते भी रहे हैं कि समाजवादी पार्टी एक परिवार की पार्टी होकर रह गयी है। पिछले दिनों वे मुलायम सिंह के खिलाफ इतना विषवमन कर चुके हैं कि उन्हें वापिस लेने से समाजवादी पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ भाजपा की तरह एकदम नीचे चला जायेगा। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर कहा है-
उनके जीने से ज्यादा जरूरी है मुलायम सिंह यादव का मरना। मुलायम सिंह ने मुसलमानों को हमेशा धोखा दिया है।  [दैनिक भास्कर 10 अगस्त 2010]
            “चौदह साल तक जिनकी जबान को कुरान की आयत और गीता का श्लोक समझा उन्हीं ने हमें रुसवा किया। मुलायम सिंह ने ही कल्याण सिंह को सपा में शामिल किया। व्यक्तिगत रूप से में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह से बेहतर व्यक्ति मानता हूं क्योंकि वे साफ बात करते हैं और अपने कार्यों को स्वीकार करते हैं। कभी हमारे बगलगीर रहे मुलायम वर्ष 2003 में जनादेश की वजह से नहीं बल्कि मेरी कलाकारी से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रह सके थे। राज बब्बर को समाजवादी पार्टी में लाने और विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ विष्णु हरि डाल्मियाँ के बेटे संजय डाल्मियाँ को पार्टी का कोषाध्यक्ष और सांसद बनाने वाले मुलायम सिंह ही हैं।जनसत्ता 19 अक्टूबर 2010]
      मुलायम सिंह मेरे घर पर कब्जा किये हुये हैं और खाली नहीं कर रहे हैं। महारानी बाग का यह घर मैंने ही मुलायम सिंह को दिया था जिसका किरायानामा राम गोपाल के नाम से बना हुआ है जो मुलायम सिंह के निकट के रिश्तेदार हैं [डीबी स्टार नवम्बर 2010]
      आजम खान यह समझ लें कि अगर मैंने मुँह खोल दिया तो मुलायम सिंह यादव मुश्किल में पड़ जायेंगे, उनको जेल जाना पड़ सकता है, जो आजम खान मुझे दलाल कह रहे हैं, पहले वे जरा यह बताएं कि मैंने उन्हें क्या क्या दिया है। मुझे सप्लायर कहने वाले समाजवादी पार्टी के अन्य नेता भी आगे आकर बताएं कि मैंने उन्हें या मुलायम सिंह को क्या सप्लाई किया है,
अखिलेश को मैंने ही आस्ट्रेलिया भिजवाया था तथा मेरी ही राजनीति के सहारे यह चुनाव जीत सके हैं
अमर सिंह दाँवपेंच की जिस राजनीति के सहारे मुलायम के जनसमर्थन का सौदा उद्योगपतियों और व्यापार की राजनीति करने वालों से करते रहे हैं उसमें बहुत कुछ काला सफेद करना पड़ता है जिसे उन्होंने मुलायम सिंह की ओट में किया होगा। यही कारण है कि वे बार बार यह कहते रहते हैं कि अगर मैंने मुँह खोल दिया तो वे मुश्किल में पड़ जायेंगे। बहुत सम्भव है कि मुलायम सिंह द्वारा मुख्यमंत्री का पद ग्रहण न करने और सत्त्ता से दूर रहने के साथ साफ सुथरे जीवन वाले युवा अखिलेश को मुख्य मंत्री बना कर दूरदर्शिता से काम लिया हो। देखना होगा कि उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण प्रदेश में अनुभव हीन युवा मुख्यमंत्री कैसी कैसी चुनौतियों का सामना करता है!
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, मार्च 07, 2012


2012 के विधानसभा चुनाव परिणामों में अन्ना हजारे फेक्टर
वीरेन्द्र जैन                                     
                पिछले दिनों जब अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन किया था तब पूरे मीडिया ने उन्हें राष्ट्रीय नायक बना दिया था और ऐसा लगता था कि पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ एक साथ उठ खड़ा हुआ है। उस दौर में यह भ्रम भी होने लगा था कि गरीबी, बेरोजगारी, मँहगाई, असमानता, सामाजिक भेदभाव, विस्थापन, पानी, सड़क, बिजली आदि न होकर देश के पास इकलौता मुद्दा भ्रष्टाचार का ही है और आगामी अनेक चुनाव इसी मुद्दे के इर्दगिर्द लड़े जायेंगे। भ्रम होने लगा था कि इन चुनावों में जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा, लिंगभेद, के आधार पर होने वाले मतदान से मुक्ति मिलेगी और देश को समय पर  राज्य व केन्द्र के लिए भ्रष्टाचार से मुक्त स्वस्थ सरकारें मिलेंगीं। खेद की बात है कि 2012 के विधानसभा चुनाव परिणाम इस दिशा में एक कदम भी बढते नजर नहीं आये हैं। अन्ना हजारे का आंदोलन टायँ टाय़ँ फिस्स हो चुका है, और जाने माने भ्रष्टाचारी नेता व दल उन्हीं पुराने हथकण्डों से उसी  पुराने अन्दाज में वोट बटोरने का काम कर चुके हैं और वैसे ही परिणाम भी आ चुके हैं।
      पंजाब में प्रकाश सिंह बादल से लेकर उनके पुत्र सुखवीर सिंह बादल भी चुनाव जीते हैं जिन पर लम्बे समय से आरोप लगते रहे हैं। उनके ही भतीजे ने जो उनके मंत्रिमण्डल में महत्वपूर्ण मंत्री रहे थे अनेक आरोप लगाते हुए मंत्रिमण्डल से त्याग पत्र दिया था और अपनी अलग पार्टी बनायी थी। उनकी पार्टी द्वारा चुनाव लड़ने के कारण ही अकाली दल विरोधी वोट बँट गये और हर बार सत्ता बदलने की परम्परा का निर्वाह नहीं हुआ जिससे कई सीटों पर पहले से भी कम वोट पाकर भी अकाली उम्मीदवारों की जीत हो गयी है। उल्लेखनीय है कि जब स्विस बैंकों में जमा धन के बारे में आरोप प्रत्यारोप चरम पर थे उन्हीं दिनों सुखबीर सिंह बादल गोपनीय गैर सरकारी यात्रा पर विदेश गये थे, जिनके बारे में तरह तरह के कयास लगाये गये थे, पर उनके गठबन्धन की पार्टी भाजपा ने कोई सवाल नहीं उठाया था। उत्तर प्रदेश में भी ज्यादा सीटें जीतने वाले दोनों बड़े दल भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहे हैं। एनआरएचएम के साढे आठ हजार करोड़ के घोटाले और उसे दबाने के लिए उसमें हुयी नौ हत्याओं सहित मायावती को अठारह मंत्रियों को चुनाव से पहले निकालना पड़ा था तथा सौ से अधिक विधायकों का टिकिट भी काटना पड़ा था, पर फिर भी उनकी पार्टी अच्छी खासी संख्या में वोट ले गयी। उत्तर प्रदेश के सहोदर उत्तराखण्ड में भी उसने सरकार बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सीटें जीती हैं और वोट प्रतिशत भी बढाया है। उत्तराखण्ड में भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में हटाया था और दूसरा ईमानदार मुखौटा मुख्यमंत्री नियुक्त किया था जो हार गया। कहा जा रहा है कि पिछले मुख्यमंत्री ने उसे हरवा दिया।  इतना होने पर भी भाजपा के मतों के प्रतिशत में बह्त ज्यादा कमी नहीं आयी।समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह पर भी सीबीआई की जाँच लम्बित है और उनके पुराने सहयोगी अमर सिंह बार बार तरह तरह के आरोप लगाते रहते हैं।
      उल्लेखनीय है कि पाँच राज्यों के लिए हुए विधानसभा चुनाव परिणामों में भ्रष्टाचार का मुद्दा केन्द्र में नहीं रहा। न तो पार्टियों ने टिकिट देते समय इस को आधार बनाया और न ही जनता ने वोट देते समय ही ऐसे लोगों को ही मत दिया जो आरोपों से मुक्त हों। अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाने वाले बामपंथी दल इन चुनावों में सफल नहीं हो सके। इससे यह सन्देश मिलता है कि देश की जनता समाज में वांछित बदलावों को चुनावों से जोड़ कर नहीं देखती है। अन्ना के बहु चर्चित, और भीड़ जुटाऊ आन्दोलन के बाद भी  चुनाव उन्हीं पुराने हथकण्डों से लड़े और जीते जा रहे हैं। लोकप्रियता, जातिवाद, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, सामंती प्रभाव, साधु साध्वियों के भेषभूषा में रहने वाले राजनेताओं का भावनात्मक प्रभाव, आदि अब भी चुनाव में भूमिका निभा रहे हैं।  
      इन चुनावों में की गयी व्यवस्था के लिए चुनाव आयोग की भरपूर तारीफ की जानी चाहिए जिसकी व्यवस्था ने न केवल उत्तर प्रदेश और मणिपुर जैसे संवेदनशील राज्यों में पूरी तरह शांतिपूर्वक और हिंसा मुक्त चुनाव करवाये अपितु नये मतदाता जोड़कर कुल मतदान के प्रतिशत में जबरदस्त वृद्धि  के लिए अनुकूल अवसर पैदा किया। इन चुनावों में न तो चुनावी धाँधली के आरोप लगे और न ही वोट खरीदे जाने की शिकायतें ही मिलीं। चुनाव के प्रारम्भ में ही जो करोड़ों की नकदी पकड़ी गयी उससे पैसे की दम पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार सतर्क हो गये और चुनावों में बड़े पैमाने पर धन और शराब की नदी बहने की खबरें नहीं आयीं।
       अन्ना हजारे की जिस टीम ने हिसार के उपचुनाव में अपना एक पक्षीय हस्तक्षेप दिखा कर जो भूल की थी उसके परिणाम स्वरूप उनकी अपनी टीम के ही कई सदस्य बिखर गये थे इसलिए उन्होंने घोषणा करने के बाद भी इन चुनावों में हस्तक्षेप नहीं किया, यह उनका प्रायश्चित था या असमंजस इसका मूल्यांकन होना बाकी है किंतु चुनाव परिणामों के बाद उनका बयान आया है कि जनलोकपाल बिल पास न करने के कारण ही कांग्रेस को सफलता नहीं मिली है, वह हास्यास्पद अवश्य है। उल्लेखनीय है कि हिसार चुनाव की तरह ही इन चुनावों में जीतने वाले ना तो बेदाग हैं और न ही वे उनके जनलोकपाल बिल के समर्थक ही हैं।  
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, मार्च 05, 2012

पान सिंह तोमर - बैंडिट क्वीन का पुरुष संस्करण


फिल्म समीक्षा
पान सिंह तोमर- बैंडिट क्वीन का पुरुष संस्करण
वीरेन्द्र जैन

       पान सिंह तोमर की कहानी देश के लिए मेडल जीतने वाले एक जाँबाज़ धावक के बागी हो जाने की वैसी ही सच्ची कहानी है जैसी कि फूलन देवी के जीवन के पूर्वार्ध की कहानी थी और जिस पर उसके जीवन काल में ही ‘बेंडिट क्वीन’ के नाम से एक सफल फिल्म बनी थी भले ही उसके बाद का जीवन भी घटनाओं से भरा रहा था और उसका अंत बहुत दुखद हुआ| उसके असली हत्यारे  भी आज तक  पकड़े नहीं जा सके। सांसद चुने जाने के कुछ वर्ष बाद उसको उसके बंगले के बाहर ही गोली मार दी गयी थी। फिल्म पर बेंडिट क्वीन का प्रभाव होना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि दोनों ही फिल्में सच्ची जीवन कथाओं पर आधारित हैं, जिनमें देश की पुलिस, प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर विश्वास खो देने के बाद ही कथा नायक/ नायिका ने बन्दूक उठा कर अपनी दम पर अपने लिए अपना न्याय स्वयं अर्जित करने की कोशिश की। उन्होंने अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए ही कानून को अपने हाथों में लिया और अपने साथ अत्याचार करने वालों को प्रतिशोध के गहरे आवेश में निर्ममता से मौत के घाट उतारा। चूंकि व्यवस्था की निगाह में उन पर हो रहा अन्याय अत्याचार गैरकानूनी नहीं था पर उनके द्वारा की गयी हिंसा कानून का उल्लंघन थी इसलिए अत्याचारियों को दण्ड देने के बाद उन्हें प्रशासन की पकड़ और उसकी पुलिस की हिंसा से बचने के लिए फरार रहना पड़ा। इस फरारी के दौरान अपना व अपने साथियो का पेट भरने, सुरक्षा के लिए हथियार व गोला बारूद खरीदने, तथा मुखबरी से बचने के लिए धन चाहिए होता था इसलिए उन्होंने लूट और अपहरण करके धन संग्रह किया। बैंडिट क्वीन फिल्म से एकरूपता होने का कारण यह भी है कि दोनों ही फिल्मों में तिग्मांशु धूलिया का योगदान है। बैंडिट क्वीन में वे शेखर कपूर के सहयोगी थे तो पानसिंह तोमर में वे स्वयं निर्देशक के रूप में उपस्थित हैं।
       अपने बीहड़ों और डाकुओं के लिए जाने जाने वाले भिंड-मुरैना क्षेत्र में अपनी आन के लिए जान पर खेल जाना बहुत आम बात है। गाँव छोड़ बीहड़ों में उतर जाने वाले अपने आप को डाकू नहीं अपितु बागी कहलवाना पसन्द करते हैं। पानसिंह तोमर की कहानी एक ऐसे फौजी की कहानी है जिसे भरपेट भोजन के शौक व उफनते जोश के कारण फौजी अधिकारी स्पोर्ट विंग में भेज देते हैं और जो देश और विदेश से मेडल जीतता है। उधर दूसरी ओर उसके खेत उसके ही रिश्तेदारों द्वारा दबा लिये जाते हैं, फसल काट ली जाती है, व सामंती वृत्तिवश अकारण ही उन्हें नीचा बनाये रखने का प्रयास किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पुलिस तक अपनी फरियाद पहुँचना आसान नहीं होती और पुलिस हमेशा उसकी मदद करती है जो या तो प्रभावशाली होता है या उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे भेंट कर सके। अपने खेतों और परिवार के स्वाभिमान की रक्षा के लिए पानसिंह फौज की नौकरी छोड़ कर आ जाता है पर अत्याचार कर रहे अपने लाइसेंसी बन्दूकधारी रिश्तेदारों को रोक नहीं पाता। वह कलेक्टर, के पास जाता है, पुलिस के पास जाता है, पर कहीं भी उसकी सुनवाई नहीं होती। एक ऐसी ही असहनीय हिंसा से क्रोधित होकर वह अपना गिरोह बना लेता है और अपने दुश्मनों को ठिकाने लगाता है। उसके मन में कहीं अपना पक्ष रखने की छटपटाहट है जिससे वह एक पत्रकार को साक्षात्कार देना स्वीकार करता है इसी साक्षात्कार के सहारे कहानी कही जाती है, जिसमें स्पोर्ट्स से सम्बन्धित अपनी उपलब्धियां गिनाते हुए वह अपने बागी बनने के कारणों पर प्रकाश डालता है। इस साक्षात्कार से लोगों को पता चलता है अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फौजी खिलाडी से गैर जिम्मेवार व्यवस्था कैसा व्यहवार करती है और उसे बागी बनने को मजबूर करती है। इशारों इशारों में फिल्म बहुत सारी बातें करती है। स्पोर्ट्स का कोच अपने रिश्तेदार को मेडल दिलवाने के लिए सुपात्रों को पीछे कर देते हैं। कलैक्टर अपना फैसला देने की जगह आपस में समझौता कर लेने  की सलाह देकर अपनी जान छुड़ाने की कोशिश करता है। पुलिस इंस्पेक्टर का ज्ञान और रुचि में देश के लिए जीता जाने वाले मेडल का कोई महत्व नहीं। पैसे की दम पर अत्याचारी अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस गार्ड लगवा सकता है और उससे नौकरों की तरह शराब लाने का काम ले सकता है। पटवारी ले दे कर किसी के खेत किसी के नाम दिखा सकता है, जो आम तौर पर हिंसा का कारण बनता है। पर डाइरेक्टर ने अपनी व्यावसायिक दूरदृष्टिता से राजनीतिक पक्ष को दूर रखा है, जबकि आजकल राजनीतिक दल के नाम से काम करने वाले गिरोह भी शोषण के तंत्र में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।[केवल एक संवाद में नाय़क कहता है कि मैं फौज में इसलिए आया क्योंकि बाकी सब जगह चोर बैठे हैं।]
       फिल्म में कसावट है, यथार्थ है, और कुछ भी अनावश्यक नहीं ठूंसा गया है, न संगीत, न नृत्य, न संवाद, न संवाद के नकली स्वर। इस पर भी फिल्म लगातार दर्शक को बाँधे रखती है। फिल्म में इरफान ने अपनी भूमिका बहुत स्वाभाविक ढंग से निभायी है पर निर्देशक उसके डकैत बनने और बीहड़ में रहने के बाद भी उसे चिकना चुपड़ा दिखाने का मोह नहीं त्याग सका। यही भूल उसने नायक की पत्नी की भूमिका निभाने वाली माही गिल के मेकअप के साथ भी की है, ये दोनों ही स्थानीय और गिरोह के लोगों से अलग दिख कर अस्वाभाविकता पैदा करते हैं। क्षेत्र विशेष के लोगों को उच्चारण भी खटक सकता है।  
       कुल मिला कर यह फिल्म बैंडिट क्वीन परम्परा की एक आफबीट अच्छी फिल्म कही जा सकती है, जिसमें व्यवस्था की समीक्षा निहित है। इसकी सराहना की जानी चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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