श्रद्धांजलि
हिन्दुस्तानी के सबसे बड़े हास्य लेखक थे मुस्ताक अहमद यूसिफी
वीरेन्द्र जैन
यूसिफी जी का जन्म 4 सितम्बर 1923 को राजस्थान के
टोंक में हुआ था। उनके पिता पठान थे और यूसुफजई जनजाति से आते थे। उनकी वंश
परम्परा उन लोगों से जुड़ती है जो महमूद गज़नवी के साथ इस क्षेत्र में आये थे और
लम्बे समय तक शासक वर्ग से सम्बन्धित रहे। उनके पिता जो जयपुर के पहले पढे लिखे मुसलमान थे
पहले जयपुर नगर निगम के चेयरमैन और बाद में जयपुर विधानसभा के अध्यक्ष रहे। उनकी
प्रारम्भिक शिक्षा राजपूताने में हुयी तथा बाद में उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से
बीए किया। आगे उन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से फिलोस्फी में एमए और एलएलबी
किया। विभाजन के बाद उनका परिवार कराची में रहने लगा था। 1950 में उन्होंने
मुस्लिम कामर्सियल बैंक में सेवायें प्रारम्भ की और डिप्टी जनरल मैनेजर हो गये। 1965
में वे एलाइड बैंक लिमिटेड में मैनेजिंग डायरेक्टर नियुक्त हुये। 1974 में वे
यूनाइटिड बैंक लि. के प्रैसीडेंट बने, व 1977 में पाकिस्तान बैंकिंग काउंसिल के
चेयरमैन चुने गये। अपनी श्रेष्ठ बैंकिंग सेवाओं के लिए उन्हें कायदे आज़म मैमोरियल
मैडल प्रदान किया गया।
एक बार में मुम्बई गया तो रामावतार चेतन ने कहा
कि शरद जोशी से मिल कर अपनी किताब दे आना। मैंने यही किया तो शरद जी ने पूछा कि
मुम्बई कैसे आये थे। मैंने कहा कि यूं ही बिना किसी काम के आया था। वे बोले कि आते
रहना चाहिए। क्योंकि जीवन शैली का जो कंट्रास्ट सामने आता है वह व्यंग्य को बल
देता है। उन्होंने मुम्बई और भोपाल के आदमी की गति के अंतर का रोचक चित्रण कर के
समझाया। जिसके जीवन में जितनी विविधता होगी उसका व्यंग्य भी उतना ही तेज होगा।
यूसिफी जी ने अध्य्यन, और नौकरी में जितनी विविधिता
का सामना किया उन्हें उतने ज्यादा चरित्र मिले। कानपुर की ग्वालिन से लेकर अमृतसर
के सिखों, व वलूची पठानों से लेकर मुहाजिरों तक के वर्णन बताते हैं कि उन्होंने
कितनी निरपेक्षता के साथ सूक्ष्म निरीक्षण किया हुआ है। हास्य व्यंग्य के लेखक को
जनक जैसे सन्यासी की तरह समस्त रागों से असम्पृक्त होकर देखना होता है। उनके छोटे
छोटे वाक्यों में जो चुटीले जुमले होते हैं, वे मुस्कराने और खिलखिलाने के लिए
विवश कर देते हैं। मजहबियों पर कुछ उदाहरण देखिए-
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जो
मुल्क जितना गरीब होगा, उतना ही आलू और मजहब का चलन ज्यादा होगा
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मुसलमान किसी ऐसे जानवर को मुहब्बत से नहीं पालते जिसे जिबह करके खा
न सकें।
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नाई की जरूरत सारी दुनिया को रहेगी जब तक कि सारी दुनिया सिक्ख धर्म
ना अपना ले और सिक्ख ऐसा कभी होने नहीं देंगे।
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इस्लाम
के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानी बकरों ने दी है।
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इस्लाम
की दुनिया में आज तक कोई बकरा स्वाभाविक मौत नहीं मरा
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कुछ लोग
इतने मजहबी होते हैं कि जूता पसन्द करने के लिए भी मस्जिद का रुख करते हैं
वैवाहिक सम्बन्धों और प्रेम से सम्बन्धित कुछ जुमले देखिए –
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हमारे
जमाने में तरबूज इस तरह खरीदा जाता था जैसे आजकल शादी होती है, सिर्फ सूरत देख कर।
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जो ज़हर
देकर मारती तो दुनिया की नजर में आ जाती, अन्दाज-ए-कातिल तो देखो, हमसे शादी कर
ली.
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मर्द की
आंख और औरत की जबान का दम सबसे आखिर में निकलता है
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उस शहर
की गलियां इतना तंग थीं कि अगर मुख्तलिफ जिंस आमने-सामने आ जायें तो निकाह के
अलावा कोई गुंजाइश नहीं रहती.
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मुहब्बत अंधी होती है, लिहाजा औरत के लिए खूबसूरत
होना जरूरी नहीं, बस मर्द का अंधा होना काफी होता है।
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बुढ़ापे की शादी और बैंक की चौकीदारी में जरा भी फर्क नहीं, सोते में भी एक आंख खुली रखनी पड़ती है।
कुछ अन्य उदाहरण देखिए-
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लफ्जों की जंग में फतह किसी भी फरीक की हो, शहीद हमेशा सच्चाई होती है।
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दुश्मनों के तीन दर्जे हैः दुश्मन, जानी दुश्मन और रिश्तेदार।
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आदमी एक बार प्रोफेसर हो जाए तो उम्र भर प्रोफेसर ही रहता है, चाहे बाद में समझदारी की बातें ही क्यों ना करने लगे।
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सिर्फ 99% पुलिस वालों की वजह से बाकी एक प्रतिशत भी बदनाम हैं।
हिन्दी में लफ्ज़ सम्पादक तुफैल चतुर्वेदी ने न केवल उनकी पुस्तकों के
अनुवाद ही किये हैं अपितु उन्हें प्रकाशित भी किया है। ये किताबें हाथों हाथ बिक
भी गयीं। उनकी 1961 में किताब ‘चिराग तले’ आयी तो 1969 में ‘खाकम बा दहन’ 1976 में
‘जर्गुरस्त’ तो 1990 में ‘आब-ए-गुम’ , 2014 में ‘शामे-ए- सैरे यारां’ आयी।अनेक
पुस्तकों के अनुवाद अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में हुये हैं। स्वस्थ होने और समय रहते
वे सेमिनारों और विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों में भागीदारी करते रहे।
गत 20 जून 2018 को वे नहीं रहे और उर्दू व हिन्दी का या कहें कि
हिन्दुस्तानी भाषा और संस्कृति का बहुत बड़ा लेखक विदा हो गया।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार
स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास
भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629