सोमवार, फ़रवरी 24, 2020

वारिस पठान के नाम खुला खत


वारिस पठान के नाम खुला खत
वीरेन्द्र जैन
प्रिय वारिस पठान
तुम अपने एक बयान से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बने हो। इस बयान में तुमने भाजपा और संघ परिवार का वह काम करने की कोशिश की है जिसमें उक्त संगठन खुद से असफल हो गये थे। तुम अच्छी तरह जानते थे कि हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है और इसमें सत्ता की शक्ति बहुमत के आधार पर अर्जित होती है। अगर देश में समाज हिन्दू मुस्लिम के आधार पर विभाजित हो जायेगा तो जो दल बहुसंख्यक अर्थात हिन्दू पक्ष का नेतृत्व प्राप्त कर लेगा वह सत्ता और उसकी शक्ति प्राप्त कर लेगा। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में जब हिन्दू मुस्लिम दोनों ही अंग्रेजों के खिलाफ साथ साथ मिल कर लड़े तो मुट्ठी भर अंग्रेजों ने अपनी बन्दूकों की ताकत के साथ साथ हिन्दू मुसलमानों की एकता को तोड़ने की कूटनीति भी स्तेमाल की। जनसंघ से लेकर भाजपा के रूप में उसके मुखौटा बदलने तक इस दल और उसके पितृ संगठन का एक ही लक्ष्य रहा है कि इस एकता को तोड़ा जाये व स्वयं को हिन्दुओं का इकलौता खैरख्वाह घोषित किया जाये। यही कारण रहा कि इन्होंने पहले हिन्दू महासभा का सफाया किया, और दूसरे लगातार मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाते हुए साम्प्रदायिक तनाव बढाने के लिए काम करते रहे। आज की उनकी हैसियत इसी कूटनीति का परिणाम है। वे तनाव बढाने के लिए निरंतर काम करते रहते हैं, गलत इतिहास पढाते हैं, अफवाहें फैलाते हैं और उनके समर्पित भोले भाले लोग उसे सच मानने लगते हैं। डिजिटल मीडिया आने के बाद तो इनका काम और आसान हो गया है. पिछले दिनों बेहूदा आर्थिक नीतियों, और गलत कदमों ने अर्थ व्यवस्था को चौपट कर दिया है, मंहगाई आकाश छूने लगी है और बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी है, जिससे सरकार का संकट और बड़ा हो गया है।  इससे बचने के लिए सरकार ने साम्प्रदायिक विभाजन के प्रयास तेज कर दिये हैं। नागरिकता कानून संशोधन तो इन प्रयासों का चरम है जिसे संख्या बल के आधार पर स्वीकृत करा लिया गया है।
इस कानून के विरोध में सभी धर्मनिरपेक्ष संगठन उतरे और उन्होंने लड़ाई को हिन्दू-मुसलमानों की जगह साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का रूप दे दिया जिससे भाजपा की कूटनीति को करारा तमाचा लगा। इसकी काट के लिए ही उन्होंने इस आन्दोलन को हिन्दू बनाम मुसलमान बनाने की  पूरी पूरी कोशिश की, प्रधानमंत्री ने स्वयं ही आन्दोलन कारियों को उनके कपड़ों से पहचानने का बयान दिया, आन्दोलनकारी महिलाओं को 500\- रुपये की दैनिक मजदूर बताया व भीषण सर्दी में रात बिताने वाली महिलाओं को मुफ्त बिरियानी खाने वाली बताया। इस आन्दोलन का पूरा इतिहास तो जगजाहिर है इसलिए इसकी शांति भंग करने और इसे हिन्दू बनाम मुसलमान के रूप में बदलने के प्रयास किये जाने लगे।
वारिस पठान जी, तुम्हारा बयान भी इसी का हिस्सा लगा क्योंकि कोई भी स्वस्थ मस्तिष्क तो इसे हजम नहीं कर पा रहा है। तुमने उक्त बयान सार्वजनिक मंच से यह प्रभाव बनाते हुए दिया जैसे यह लड़ाई सौ करोड़ हिन्दुओं और 15 करोड़ मुसलमानों के बीच हो रही हो जिसका फैसला किसी पानीपत के मैदान में सैनिकों की बहादुरी के आधार पर होना हो। मित्र, मनुष्य मनुष्य सब बराबर हैं व इतिहास में वीरता के किस्से हर तरफ मौजूद हैं, तुम्हारे बयान के पक्ष में कोई हिन्दू मुसलमान सामने नहीं आया अपितु ज्यादातर मुसलमानों ने तुम्हारे नेतृत्व और बयान को अस्वीकृत करते हुए खुद को 135 करोड़ हिन्दुस्तानियों का हिस्सा बताया जिन्हें आम नागरिकों की तरह लोकतांत्रिक अधिकार प्राप्त हैं, व इन्हीं का उपयोग करते हुए वे अपनी सरकार के फैसलों के विरोध में देश भर में आन्दोलनरत हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वे यह अहिंसक लोकतांत्रिक लड़ाई मुसलमान के रूप में नहीं लड़ रहे हैं अपितु धर्म निरपेक्षता में भरोसा करने वाले वामपंथियों, दलितों, छात्रों व मध्यममार्गी दलों के साथ मिल कर लड़ रहे हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ना तो एक तरफ कुल 15 करोड़ हैं और ना ही दूसरी तरफ सौ करोड़ हैं। इसी कमजोरी को समझते हुए ही आर एस एस प्रमुख को आदिवासियों को हिन्दू बनाने के प्रयास तेज करने का आवाहन करना पड़ा। राष्ट्रवाद को हिटलरशाही बताना पड़ा।
वारिस भाई, तुम्हारे बयान से ना तो देश भर में चल रहे शाहीन बाग जैसे तीनसौ धरनों को कोई बल मिला है और ना ही उनके आन्दोलनों की कोई मदद हुयी है। इसके उलट इसे हिन्दू मुस्लिम बनाने की कोशिश करने वालों को अपनी बात सही साबित करने का एक तर्क मिला है। जोर शोर से यह साबित हो जाने के बाद भी कि तुम्हारे साथ कोई मुसलमान संगठन या समुदाय नहीं है, भाजपा के सम्बित पात्रा जैसे लोग तुम्हारी आवाज को पूरे मुसलमानों की आवाज बताने में जुट गये हैं व उनके अन्धभक्त उस पर भरोसा भी कर रहे हैं। जब यह सिद्ध हो चुका है कि तुम उनका प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हो, और भाजपा नेताओं के साथ गलबहियां करते हुए तुम्हारे फोटो वायरल हो रहे हैं तब तुम किसकी मदद कर रहे हो? जब भाजपा उत्तराखण्ड से गोआ और कर्नाटक तक विधायकों की खरीद फरोख्त के लिए जानी जाने लगी है, तब तुम्हारी उपरोक्त हरकत को अगर लोग सौदेबाजी भी कह रहे हैं, तो क्या गलत कह रहे हैं! अगर सौदेबाजी नहीं भी हो तो कम से कम मूर्खतापूर्ण काम तो है ही!
क्या तुम आत्मनिरीक्षण करके कुछ कहोगे और अपनी भूल के लिए क्षमा मांगोगे? नहीं मांगोगे तो पिछले सत्तर दिनों से धरने पर बैठी महिलाएं तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी। 
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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राजनेताओं के बयानों और आचरण में गम्भीरता का अभाव

राजनेताओं के बयानों और आचरण में गम्भीरता का अभाव
वीरेन्द्र जैन

भारत एक बड़ा व महान देश है जिसे इन दिनों ओछे और निचले स्तर के नेता चला रहे हैं।
पिछले दिनों जब पुलवामा कांड को एक साल पूरी हुआ तब राहुल गाँधी ने एक सवाल पूछा कि उक्त घटना की जाँच रिपोर्ट में क्या निकला, व हमारे 40 जवानों को शिकार बना देने वाली घटना की खामियों के लिए किसको उत्तरदायी ठहराया गया। देश की सबसे बड़ी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष की इस बात पर मोदीशाह की भाजपा के सभी महत्वपूर्ण नेता बौखला गये| इस स्वाभाविक सवाल का सीधा जबाब देने की जगह सम्बित पात्रा टीवी की बहसों की तरह विषय को भटका कर उन्हें लश्करे-ए तैयाबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ सहानिभूति रखने वाला बताने लगे। उल्लेखनीय है कि घटना के ठीक बाद जम्मू कश्मीर के राज्यपाल ने सुरक्षा में खामियों की चर्चा की थी। उनके ही एक और बड़बोले प्रवक्ता जीवीएल नरसिंहाराव ने तो इसे सुरक्षा बलों पर निशाना बता दिया व राहुल गाँधी को शर्म करने की सलाह देते हुए टिप्पणी की कि वे पाकिस्तान से सवाल नहीं करेंगे, अर्थात उनकी सहानिभूति दुश्मन देश पाकिस्तान से है। ।
मैं और जिन लोगों से भी मैंने चर्चा की, वे भी यह नहीं समझ पाये कि इस उचित सवाल को करने वाले को परोक्ष में गद्दार और देशद्रोही बताना कहाँ तक उचित है? यह सही है कि पहले से संकेत मिल जाने के बाद भी हमारी सुरक्षा सम्बन्धी खामियों के कारण ही हमारे इतने जवान एक साथ मारे गये, इसलिए जरूरी था कि उन खामियों को पहचाना जाये व संकेत मिलने के बाद भी चूक करने वाले को नियमानुसार दण्डित किया जाये। इसके विपरीत जाँच रिपोर्ट को छुपाया जा रहा है जिससे लग सकता है कि दोषियों को बचाया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि इस घटना के बाद सीमा पर युद्ध का वातावरण बनाते हुए जो चुनाव सम्पन्न हुये उनके प्रचार में इस घटना का भरपूर चुनावी उपयोग किया गया। जनता की निगाह में गद्दार और देशद्रोही ठहराये जाने के खतरे से बचने के लिए देशहित में विपक्ष ने सरकार के साथ खड़े होने की घोषणा की। इसका भी सत्तारूढ दल ने चुनावी लाभ उठाया। यहाँ सवाल राहुल या किसी अन्य नेता के चरित्र चित्रण का नहीं है अपितु देश की सुरक्षा की खामियों और उसके सहारे राजनीति करने का है। सच तो यह है कि राहुल गाँधी से पहले इस सवाल को तो देशभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा के ही किसी सदस्य को पूछना चाहिए था। खेदजनक है कि मोदीशाह का नेतृत्व आने के बाद भाजपा में ऐसे नेता सक्रिय नहीं हैं जो खुद सोच सकें, और सोच कर सवाल पूछने का साहस कर सकें। केवल पूर्व सांसद उदित राज ही यह सवाल उठा सके, पर वे भाजपा छोड़ चुके हैं।
केजरीवाल ने अपने चुनाव प्रचार में किसी पत्रकार के पूछने पर पूरा हनुमान चालीसा सुना दिया। पता नहीं यह घटना स्वाभाविक रूप से घटी या आपकी अदालत की तरह प्रायोजित थी, किंतु उसके बाद केजरीवाल हनुमान मन्दिर में पूजा करने गये। चुनाव परिणाम में जीतने की सूचना आने के बाद उन्होंने अपने समर्थकों को याद दिलाया कि आज मंगल है, हनुमान जी का दिन है और उनके आशीर्वाद से विजय मिली है। वे बाद में भी सपरिवार हनुमान मन्दिर गये। कहा जाता है कि इस बार चुनावों के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने उनके लिए काम किया था और बहुत सम्भव है कि चुनाव में मुख्य प्रतियोगी भाजपा के धार्मिक, राम मन्दिर, कार्ड की काट के लिए उन्हें हनुमान भक्त बनने की सलाह दी गयी हो। उल्लेखनीय है कि दो-ढाई वर्ष पूर्व केजरीवाल ने जैनमुनि तरुण सागर को अपने निवास पर आमंत्रित किया था और उसके बाद ही अरुण जैटली प्रकरण में क्षमा मांग ली थी। वैसे तो यह उनका निजी ममला है किंतु यह सब कुछ सार्वजनिक हुआ था, जिससे इसका राजनीतिक महत्व भी हो जाता है।
केजरीवाल ने जब अन्ना आदि के साथ मिल कर लोकपाल के लिए आन्दोलन किया था तब उस आन्दोलन को शुद्ध रूप से गैरराजनीतिक आन्दोलन बताया था तथा इसे हड़पने की कोशिश करने वाले राजनीतिक दलों के लोगों को जिनमें उमा भारती, और स्वभिमान दल के रामदेव आदि को धरना स्थल से बाहर करवा दिया था। बाद में जब आन्दोलन बिखर गया तब उन्होंने खुद राजनीतिक दल बनाया और भिन्न तरह की ईमानदार राजनीति का वादा किया। रामलीला मैदान में पहली बार शपथ ग्रहण करते समय जो गीत गाया, उसके बोल थे-
इंसान का इंसान से हो भाईचारा / यही पैगाम हमारा
यह गीत धरमनिरपेक्षता का पैगाम देता था। इस बार उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय शांति गीत ‘ हम होंगे कामयाब, एक दिन’ का समूह पाठ किया। उन्होंने अपना लोकसभा का चुनाव भी सीधे प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लड़ कर भी ऐसा ही सन्देश देने की कोशिश की थी। अपनी जीत को हनुमानजी की कृपा से जोड़ने के बाद उनके राजनीतिक सन्देश का सुर बदला हुआ लगता है। या तो वे भाजपा की कूटनीति की तरह आस्थावानों को बहलाने की कोशिश कर रहे हैं या वे स्वयं अपनी समाजसेवा की राजनीति से देवकृपा की चुनावी कूटनीति की ओर बढ रहे हैं। जो भी हो वे कहीं न कहीं अपने आन्दोलनकारी समर्थकों व मतदाताओं के एक हिस्से के साथ छल कर रहे हैं। केवल आर्थिक ईमानदारी ही ईमानदारी नहीं होती। अपनी चुनावी जीत के लिए चुनावी प्रबन्धकों की सलाह पर धार्मिक व्यवहार का विज्ञापन करते हुए सरकार बना लेने से आपकी राजनीति के भिन्न होने प्रचार फुस्स हो गया है। काँग्रेस से मिल कर तो सरकार बना ही चुके हैं और तीन तलाक से लेकर 370 व सीएए तक भाजपा का साथ दे ही चुके हैं, किसी दिन उसके साथ सरकार भी बना लेंगे। वे ना तो खुल कर जे एन यू और ज़ामिया के छात्रों के साथ आये ना ही शाहीन बाग के आन्दोलनकारियों का साथ देते नजर आये।
काँग्रेस के सिकुड़ जाने व भाजपा के दो लोगों की मनमानी में सिमिट कर असफल सरकार चलाने से राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनीतिक शून्यता छा गयी है जिसे कब कौन सी उत्तेजना पर सवार कोई व्यक्ति या संगठन भर ले कहा नहीं जा सकता। साहस की कमी व नियंत्रित विवेक वाले सदस्यों के संख्या बल वाली मोदी सरकार अपनी गलत नीतियों के कारण खोखली हो चुकी है, तो काँग्रेस के सूबेदार अंतिम सांसें गिन रहे हैं। जातिवादी क्षेत्रीय दल अपने अपने कोने सम्हाल कर राष्ट्रीय एकता को भूल चुके हैं, व भाजपा की नीतियों ने हिन्दू मुस्लिम विभाजन को तेज कर दिया है। तीसरे पक्ष के पास केवल थ्योरी और बयानबाजी बची रह गयी है।
क्या हम भारत को उसके पुराने युग में धकेले दे रहे हैं जहाँ अलग अलग राज्य थे और राजे रजवाड़े थे, जिन्हें केवल अपनी चिंता थी।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, फ़रवरी 15, 2020

दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम, जीत के गुलदस्ते में कांटे


दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम, जीत के गुलदस्ते में कांटे  

वीरेन्द्र जैन
दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों ने देश भर में एक उत्साह का संचार किया है। ये चुनाव असाधारण परिस्तिथियों में हुये थे जब तानाशाही प्रवृत्ति के साम्प्रदायिक दकियानूसी संगठन संचालित दल से देश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील लोग असंगठित रूप से मुकाबला कर रहे थे। केन्द्र में सत्तारूढ होने के कारण सुरक्षा बलों का नियंत्रण भी इसी दल के पास था जिसका प्रयोग हो रहा था, व इनका पितृ संगठन हजारों हिन्दू युवाओं को खुद भी शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण नियमित रूप से देता है। इसी क्रम में देश भर में एक बड़ा जन आन्दोलन चल रहा था जो नागरिकता संशोधन कानून की ओट में एक साम्प्रदायिक एजेंडा लादने के खिलाफ था। इस आन्दोलन को छात्रों, युवाओं, बुद्धिजीवियों, अल्पसंख्यकों, दलितों, और विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त था, और विरोध में सत्तारूढ दल दुष्प्रचार, झूठ, और दमन का सहारा ले रहा था। जिस विषय पर आन्दोलन था, उससे सत्तारूढ दल के गठबन्धन-सहयोगी दलों के बीच भी सहमति नहीं थी।
इस दौर में दिल्ली राज्य पर एक विचारधाराहीन दल का शासन था जो प्रशासनिक सुधार की राहत देने के नारे पर सत्तारूढ हुआ था और उससे अर्जित लोकप्रियता पर ही वोट मांग रहा था। यह दल ना तो अपनी राजनीति प्रकट करता है और ना ही सक्रिय राजनीति से जुड़े जन आन्दोलनों में भागीदारी करता है। उसके पास ऐसा कोई संगठन भी नहीं है जो देश की राजधानी जैसे संवेदनशील स्थल पर त्वरित कार्यवाही के लिए लोगों को एकजुट कर सके। यही कारण रहा कि राजधानी के विश्वविद्यालयों में छात्रों के खिलाफ लगातार हुये दमन के विरोध में यह दल सक्रिय नहीं दिखा। स्वयं इस दल के प्रमुख अरविन्द केजरीवाल पर भी कई बार हमले हुये और अभी हाल ही में एक जीते हुए विधायक के साथी पर गोली चला कर मार डाला गया, किंतु इस हिंसा का मुकाबला कहीं नजर नहीं आया।  
दिल्ली एक आधा अधूरा राज्य है जिसके पास ना तो अपनी पुलिस है, ना ही नगर निगम उसके अंतर्गत आते हैं, किसी भी काम के लिए भूमि आवंटन का अधिकार भी उसके पास नहीं है। ऐसी स्थिति में पराजय से फनफनाते केन्द्र में सत्तारूढ दल के खिलाफ एक संगठन विहीन दल द्वारा सरकार चलाना चुनौती भरा काम रहा है और आगे भी रहेगा। न केवल लेफ्टीनेंट गवर्नर अपितु आईएएस अधिकारियों के संगठन भी दिल्ली की आप सरकार के खिलाफ रहे हैं। अतिरिक्त कमाई की आदी प्रशासनिक मशीनरी का एक हिस्सा भी कमाई बन्द या कम हो जाने से असंतुष्ट चलती है। सच तो यह है कि देश में चल रहे जन आन्दोलनों और अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा महसूस किये गये खतरे के कारण ही दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणाम भिन्न आये हैं। कुटिल उपायों से बचने के लिए केजरीवाल को धार्मिक प्रतीकों के स्तेमाल में भी प्रतियोगिता करना पड़ी। इन परिणामों में एक सीमा से अधिक उम्मीद करना ठीक नहीं होगा। जो इसमें राष्ट्रीय दल की सम्भावनाएं देखने लगे हैं, वे या तो भ्रमित हैं, या भ्रमित कर रहे हैं।
इस जीत के बीच यह महत्वपूर्ण सवाल ही विलोपित हो गया कि उच्च स्तरीय संचार के इस युग में कुल सत्तर विधानसभा क्षेत्र में हुये चुनावों के वोटिंग प्रतिशत की जानकारी मिलने में इतनी देर क्यों लगी, और प्रारम्भिक सूचनाओं से अचानक पाँच प्रतिशत की वृद्धि क्यों नजर आने लगी। चुनावों के दौरान जो धन और शराब आदि पकड़ी गयी उसमें किस दल से जुड़े व्यक्ति शामिल थे यह बात गोपनीय क्यों रखी जाती है। विजेता और पराजित दोनों ही दलों का चरित्र प्रकट क्यों नहीं होने दिया जाता है ताकि विभिन्न चुनावों के बाद बार बार किये जाने वाले बहुमत के दावे की असलियत को जनता जान सके। उल्लेखनीय है कि दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा की सीटें दोगुना हो गयी हैं और उसे पिछले विधानसभा चुनावों से पाँच प्रतिशत वोट अधिक मिले हैं। ये वोट भले ही उसे लोकसभा चुनावों में मिले वोटों से बहुत कम हैं तो सवाल यह भी उठता है कि यह विचलन क्यों और कैसे हुआ। क्या लोकसभा चुनावों के दौरान ईवीएम मशीनों में छेड़छाड़ के जो आरोप लगे थे वे सही थे या दिल्ली की जनता इतनी चेतन हो गयी है जो लोकसभा के लिए एक तरह के लोगों को जिता दे और विधानसभा के लिए बिल्कुल ही भिन्न तरह के लोगों को चुन ले। चुनाव प्रणाली अधिक पारदर्शी होने की जगह क्यों अधिक रहस्यमयी होती जा रही है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में जीते हुए विधायकों में 74% के करोड़पति होने व दागी विधायकों की संख्या का दोगुना होना क्या चिंता का विषय नहीं है! ईमानदारी केवल सरकार में ही नहीं अपितु सरकार में पहुँचने के चुनावी तरीकों में भी दिखना चाहिए।
एक सच यह भी है कि विजेता दल का नाम और सरकार में आने वाले सदस्यों का नाम कुछ भी हो किंतु जनता ने जिस भावना पर अपना मत दिया है उसमें संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता की रक्षा भी प्रमुख है और चुनावों से अलग जो पत्रकार, लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी साम्प्रदायिकता के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ते रहते हैं, उनकी भी जीत है। जो गलत आर्थिक नीतियों के खिलाफ केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं वे अर्थशास्त्री भी इस जीत के हिस्सेदार हैं। जिन छात्रों ने शिक्षा जगत पर हो रहे हमलों के खिलाफ संघर्ष कर के केन्द्र सरकार का चरित्र उजागर किया वे भी इस जीत के पीछे हैं। ये उनकी भी जीत है।
मेरे पिता बताते थे कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद देश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एक गीत गाते थे-
ओ विप्लव के थके साथियो, विजय मिली विश्राम न समझो !
इन पंक्तियों को दुहराने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 05, 2020

बयानों में झलकता नेताओं की नजर में जनता का स्तर


बयानों में झलकता नेताओं की नजर में जनता का स्तर Image result for भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा"
वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों भाजपा के कुछ प्रतिष्ठित नेताओं के बयानों की चतुर्दिक निन्दा हो चुकी है और चुनाव आयोग द्वारा उन स्टार प्रचारकों पर 48 घंटे प्रचार पर रोक का हास्यास्पद प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है जिसकी परवाह या शर्मिन्दगी कहीं नहीं दिखी। सवाल यह है कि उन्होंने जो उत्तेजक बयान दिये वह उनकी सोच को दर्शाता है या कूटनीति को? जाहिर है कि इतने बड़े बड़े पदों तक पहुंचे नेता ऐसा नहीं सोच सकते कि अगर उनकी पार्टी नहीं जीती तो विजेता पार्टी लोगों के घरों में जाकर उनकी बहू बेटियों के साथ बलात्कार करेगी, और उन्हें मोदी शाह के अलावा कोई नहीं बचा सकता।
डा. राही मासूम रजा ने किसी फिल्म को सत्ता विरोधी ठहरा कर प्रतिबन्ध लगाये जाने के सवाल पर लिखा था कि ऐसे तो शोले फिल्म सबसे बड़ी सत्ता विरोधी फिल्म है, जिसमें एक पूर्व पुलिस अधिकारी क्षेत्र के डाकुओं से मुक्ति के लिए व्यवस्था पर भरोसा खो चुका है और दो नामी बदमाशों को उनके जेल से छूटने के बाद अपने गाँव में बुला लेता है। फिल्म बताती है कि यही एक तरीका उस पूर्व पुलिस अधिकारी को समझ में आया था। क्या यह फिल्म व्यवस्था पर विश्वास न होने का प्रचार करती नजर नहीं आती! जब देश का एक सांसद और केन्द्रीय मंत्री जनता को अराजक तत्वों से डराता है तो क्या वह व्यवस्था के खिलाफ नहीं बोल रहा होता है? यदि चुनावों में दुरुपयोग की जाने वाली सन्दिग्ध सर्जीकल स्ट्राइक का सबूत मांगना देशद्रोह बतलाया जाता है तो क्या यह देशद्रोह के अंतर्गत नहीं आता?
उल्लेखनीय है कि जब रजाकारों के नेता कासिम रिजवी ने सरदार पटेल से कहा था कि अगर आप हैदराबाद रियासत को भारत में शामिल करने का कदम उठायेंगे तो हम लाखों लोगों को काट डालेंगे। इस पर सरदार पटेल ने कहा था कि आप ऐसा करेंगे तो क्या हम देखते रह जायेंगे! हुआ भी यही था कि उस के हैदराबाद पहुंचने से पहले ही भारत की सेना ने पुलिस एक्शन के नाम पर हैदराबाद को हजारों रजाकारों से मुक्त करा लिया था, जिसमें काफी जनहानि हुयी थी। स्वयं को सरदार पटेल का वंशज बताने वाले आज के नेता वोटों की खातिर निराधार आशंकाएं फैला कर खुद ही जनता को डरा रहे हैं। केन्द्र में भाजपा का शासन है, दिल्ली की पुलिस उनके पास है, एनसीआर क्षेत्र में भी भाजपा शासित राज्य हैं फिर भी जनता को डराने का एक मतलब यह भी निकलता है कि वे स्वयं को कानून व्यवस्था लागू करने में अक्षम मान रहे हैं।   
यह भी स्मरणीय है कि जब प्रारम्भ में पंचवर्षीय योजनाओं में हाइड्रो इलेक्ट्रिक आयी थी तो जनसंघ के नेता किसानों से कहते थे कि ये कांग्रेस पानी में से बिजली निकाल लेती है तो वह सिंचाई के लायक नहीं बचता, या दो बैलों की जोड़ी पर क्रास की मुहर लगाने का मतलब होता है गौवंश को कटने के लिए भेजना। किंतु आज़ादी के सत्तर साल बाद सत्तारूढ पार्टी बन जाने तक भी नेताओं द्वारा इस तरह के बयान दिये जाना व प्रमुख नेताओं द्वारा किसी तरह की असहमति न व्यक्त करना लोकतंत्र को गम्भीरता से न लेने की तरह है। पिछले ही दिनों एक भाजपा नेता ने कहा था कि दिल्ली का चुनाव तो हम कैसे भी जीत ही जायेंगे। ऐसी ही बातों से लोग ईवीएम पर सन्देह करने लगते हैं क्योंकि जब लोकतांत्रिक तरीके से किये जा रहे शाहीन बाग जैसे जन आन्दोलन को चुनावों के लिए साम्प्रदायिक और विदेशी आन्दोलन बताया जाने लगता है तो यह लोकतंत्रिक तरीकों पर भी बड़ा हमला होता है। सत्तारूढ दल के लोग भले ही किसी आन्दोलन से कितना भी असहमत हों किंतु उसके चरित्र का गलत चित्रण लोकतंत्र के खिलाफ अपराध है। इस तरह के विरोध से यह भी प्रकट होता है कि सरकार अपने पक्ष को कमजोर पा रही है और अपना पक्ष रख कर उसका विरोध नहीं कर पा रही है। शाहीन बाग का आन्दोलन न केवल लोकतांत्रिक है, देशव्यापी है, अपितु चरित्र में सेक्युलर भी है। यह साम्प्रदायिक या जातिवादी भावनाएं उभार कर किये जाने वाले आन्दोलनों से भिन्न है। खेद यह है कि वोटों के लिए इसे पाकिस्तानी कहा जा रहा है क्योंकि आम जन मानस के मन में पाकिस्तान के प्रति दुश्मनी का भाव है।
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार तो है, किंतु झूठ बोलने और झूठ गढने की आज़ादी का अधिकार नहीं है। दुर्भाग्य से हो यह रहा है कि इस नाम पर झूठ गढे जा रहे हैं. चरित्र हत्याएं की जा रही हैं और नंगे झूठ बोले जा रहे हैं। यह नासमझी में नहीं अपितु जानबूझ कर किया जा रहा है। गोधरा में निजी दुश्मनी में साबरमती एक्सप्रैस की एक बोगी संख्या 6 में निजी बदले में लगायी गयी आग को रामभक्तों से भरी पूरी ट्रेन में लगायी गयी आग प्रचारित कर दी जाती है व उस नाम पर पूरे गुजरात में निरपराध मुसलमानों के खिलाफ नृशंस अपराध किये जाते हैं और अटूट सम्पत्ति लूट ली जाती है या बरबाद कर दी जाती है। नरेन्द्र मोदी के स्थापित होने का इतिहास इसी ध्रुवीकरण से शुरू होता है। बाद में तो राजनीतिक हत्याओं की श्रंखला शुरू हो जाती है, व सभी मृतक बड़े नेताओं को मारने के इरादों से आये बताये जाते हैं।
इस इंटरनैट व डिजीटल मीडिया के दौर में भी वे झूठ बोलने से नहीं हिचकते और झूठ पकड़े जाने पर शर्मिन्दगी भी महसूस नहीं करते, क्योंकि जनता के विवेक और याद्दाश्त को वे कमजोर समझते हैं। स्टिंग आपरेशन में कैद हो जाने वाला बाबू बजरंगी कहता है कि मेरा कथन तो मेरे द्वारा खेले जाने नाटक का एक हिस्सा था। मोदी को विकास पुरुष नहीं विनाश पुरुष बताने वाली उमाभारती अहमादाबाद से बड़ौदा आने तक अपना विचार बदल लेती हैं और कहती हैं कि यह रास्ते में दिखे विकास के कारण उनके विचारों में परिवर्तन आया।
जनता को धोखा देने के लिए झूठ बोलने पर जब तक सजा नहीं होती तब तक लोकतंत्र मजाक ही बना रहेगा।  
    वीरेन्द्र जैन
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