गुरुवार, सितंबर 07, 2023

श्रद्धांजलि ; संस्मरण हसीब सोज़ एक बार फिर मैंने देर कर दी

 

श्रद्धांजलि ; संस्मरण हसीब सोज़

एक बार फिर मैंने देर कर दी


वीरेन्द्र जैन

मुझे एक बार फिर मुनीर नियाज़ी की उस नज़्म का मिसरा दुहराना पड़ रहा है – “ हमेशा देर कर देता हूं मैं “

इस बार शायर हसीब सोज की मृत्यु का समाचार सुनने के बाद अफसोस के साथ यही मिसरा याद आ गया। सोज़ साहब से मेरी कोई मुलाकात नहीं थी किंतु लगभग बीस साल पहले से मैं इस प्रतीक्षा में था कि कभी संयोग वश उनसे भेंट हो जायेगी और मैं उन्हें यह घटना सुनाऊंगा।

प्रदीप चौबे मेरे साहित्यिक बचपने के दोस्त थे, अर्थात जब उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया था, लगभग उसी समय मैंने भी लिखना छपना प्रारम्भ किया था। 1976-77 के दौरान जबलपुर से व्यंग्य की एक पत्रिका ‘व्यंग्यम’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ और उसके किसी अंक में हम दोनों की रचना प्रकाशित हुयी तो रचनाएं पढ कर दोनों ने ही एक ही समय में एक दूसरे को पहले पत्र लिखे जो क्रास हो गये। इस संयोग ने दोनों को ही आनन्द दिया जिससे मित्रता को बल मिला। जब परिचय में पता चला कि हम दोनों ही बैंक में काम करते हैं तो और बल मिला। कुछ वर्ष भटक कर मैं गृह नगर दतिया लौट आया और उन्होंने कवि सम्मेलनों में अपना लंगोटा फहरा दिया था इसलिए ट्रान्सफर से बचने के लिए प्रमोशन नहीं लिया और ग्वालियर में ही स्थायी होकर रह गये थे। फिर तो सायास अनायास मुलाकातों का सिलसिला बढता गया। हिन्दी कविता के मंच पर स्टेंड अप कामेडी को प्रस्तुत करने वाले वे पहले व्यक्ति थे भले ही उन्होंने इसे यह नाम नहीं दिया था। वे मूलतयः गज़लगो थे और जब उन्होंने गज़ल में व्यंग्य का प्रयोग किया तो उसे व्यंग्यजल का नाम दिया जो चल निकला । मंच पर उनका बड़ा नाम हो गया था किंतु उन्होंने कभी इसका अहंकार नहीं किया और हमेशा पुराने अन्दाज़ में ही मिलते रहे। प्रदीप का एक गुण और था कि वे अपने समकक्षों से ईर्षा नहीं करते थे अपितु प्रत्येक को उसका पूरा श्रेय देते थे, सम्मान करते थे। उनके समकालीनों में यह गुण दुर्लभ हो गया था और हम लोग कई बार इस विषय पर बात कर चुके थे। वे गुण ग्राहक थे।

जब मैं भरतपुर में थ तो एक योजना कौंधी थी कि मंच के लोकप्रिय कवियों से पत्र व्यवहार कर उन्हें इस बात के लिए तैयार कर लिया जाये कि वे जब भी आसपास के कवि सम्मेलनों में जा रहे हों तो थोड़ा सा समय निकाल कर हमारे नगर में भी चुनिन्दा सहित्य रसिक श्रोताओं के समक्ष अपनी सुविधानुसार एक दो घंटे का रचना पाठ न्यूनतम भेंट स्वीकार करके करें। मैं इस योजना को कार्यरूप नहीं दे सका था किंतु इस योजना को बहुत बाद में प्रदीप ने ग्वालियर में सफलतापूर्वक कार्यरूप दिया। वे पूरा पारिश्रमिक देकर किसी एक रचनाकार को एकल पाठ के लिए पूरे सम्मान के साथ बुलाते थे और उस कार्यक्रम में ग्वालियर नगर के सभी श्रेष्ठ रसिक श्रोता और विशिष्टजन पधारते थे। मुझे भी कार्ड भेजते थे और दतिया से मैं भी सुनने के लिए आता था। कार्यक्रम का नाम ‘आरम्भ’ था। बाद में उन्होंने इसी नाम से एक वार्षिक पत्रिका भी निकाली थी जिसमें देश विदेश के चुनिन्दा शायरों की चुनिन्दा रचनाएं छापते थे। उनका चयन बेहतरीन होत था।

एक बार हम लोग कहीं होटल के एक ही कमरे में रुके हुये थे और साहित्य पर बेतरतीब बातचीत चल रही थी। मैंने इसी क्रम में एक शे’र सुनाया-

तुम्हारा घर बहुत संवरा सजा है

तुम्हारे घर में क्या बच्चे नहीं हैं

उन्हें यह शे’र बहुत पसन्द आया और कहा कि पूरी गज़ल सुनाइए। मैंने कहा कि गज़ल नहीं यह तन्हा शे’र है और वह भी एक तरह से चोरी का शेर है। इतना ही नहीं ये आपकी पत्रिका आरम्भ की एक रचना से प्रभावित है। इस पर वे बोले कि आरम्भ में तो ऐसा कोई शेर नहीं छपा, मुझे तो सब अच्छे शेर याद रहते हैं।

इस पर मैंने कहा कि यह सीधी चोरी का मामला नहीं है अपितु प्रभाव ग्रहण करने का मामला है। आरम्भ -1 में ही किसी गज़ल का शे’र है –

कपड़ों की सलवटों पै बहुत नाज़ है हमें

घर से निकल रहे थे कि बच्चा लिपट गया

प्रदीप बोले यह हसीब सोज़ की गज़ल का शे’र है किंतु अगर इस प्रभाव के आधार पर चोरी का शे’र कहोगे तो पूरे साहित्य के बड़े हिस्से को चोरी का बताना पड़ेगा।

इसके बाद जब मिलते जुलते प्रभाव के शेरों, कविताओं का सिलसिला शुरू हुआ तो इसमें घंटों गुजर गये और नये नये अन्वेषण होते गये।

मैं उसी दिन से हसीब सोज़ को खोज खोज कर पढने लगा और सोचने लगा कि जब कभी उनसे भेंट होगी तो उन्हें यह घटना सुनाते हुए उनकी रचनाओं के प्रति अपनी पसन्दगी व्यक्त करूंगा। जब से उन्हें फेसबुक पर पढता था तो अपने आप लाइक के बटन पर उंगली दब जाती थी। मैं उन्हें मुनव्वर राना की परम्परा का शायर मानता था और उसी क्रम में पसन्द करता था। उनकी सादगी के कारण उन्हें वह स्थान नहीं मिल सका जिसके वे हकदार थे, किंतु उन्होंने साहित्य प्रेमी पाठकों के दिलो दिमाग में बड़ी जगह बनायी हुयी थी। उन्हीं का शे’र है- 

अच्छा हुआ जो लग गए जा कर ज़मीन से

अब कितना काम लेते पुरानी मशीन से 

विनम्र श्रद्धांजलि

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सोमवार, सितंबर 04, 2023

संस्मरण ; दुष्यंत की गज़लों की पैरोडी

 

संस्मरण ; दुष्यंत की गज़लों की पैरोडी

वीरेन्द्र जैन

पैरोडी, ऐसी विधा है जो किसी ऐसी रचना के रूप [ फार्म ] को आधार बना कर लिखी जाती है जो बहुत लोकप्रिय हो चुकी हो, और लोगों के दिलो दिमाग पर चढ चुकी हो। आम तौर पर पैरोडी मूल रचना की याद दिला कर पाठक / श्रोता को नास्टलिजिक कर गुदगुदा देती है। पैरोडी हास्य या व्यंग्य भाव पैदा करने के लिए ही लिखी जाती रही है। कई बार किसी लोकप्रिय विचार को क्षेत्रीय भाषा में लिख देने पर भी वह पैरोडी का मजा देने लगता है।

पिछली सदी के सत्तर के दशक में जब मैंने पत्र पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया था, उन्हीं दिनों दुष्यंत कुमार की गज़लें देश पर छा रहे थीं। हर कोई अपने भाषणों या लेखों में उनके शे’रों का उल्लेख कर रहा था और नये सैकड़ों रचनाकार उनके शिल्प में लिखने का प्रयास कर रहे थे जिसे हिन्दी गज़ल का नया नाम मिल गया था। मैं टाइम्स ग्रुप की फिल्मी पत्रिका माधुरी के ‘चित पट चक्रम’ नामक स्तम्भ में फिल्मी पैरोडियों के मध्यम से अपनी सामायिक राजनीतिक प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता था। इसी क्रम में मैंने उस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय गज़लकार दुष्यंत कुमार की गज़लों की पैरोडियां लिखीं। इन पैरोडियों के सहारे मैं अपने विचार व्यक्त करता था। मैंने कभी भी मूल रचनाकार के विचारों या भावनाओं का उपहास नहीं किया।

जब 1977 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने इमरजैंसी समाप्त करके आम चुनावों की घोषणा कर दी तो अनेक विपक्षीदलों ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट होकर जनता पार्टी का गठन किया और लोकदल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा। इमरजैंसी के कठोर अनुशासन से ऊबी हुयी जनता घुटन से मुक्त होने के लिए आँख मूंद कर विपक्षी गठबन्धन के साथ खड़ी हो गयी। पूरे देश में काँग्रेस की हार और जनता पार्ती की जीत का वातावरण बन गया था। इसे ही महसूस करके मैंने दुष्यंत कुमार की गज़ल ‘ बाढ की सम्भावनाएं सामने हैं, और नदियों के किनार घर बने हैं” की पैरोडी लिख डाली और लोकप्रिय साप्ताहिक ब्लिट्ज़ को भेज दी। इसके कुछ शे’र इस तरह थे-

हार की सम्भावनाएं सामने हैं,

और निर्वाचन की खातिर हम खड़े हैं

हमें चमचों ने बहुत ऊंचा उछाला,

लग रहा था आज हम सबसे बड़े हैं

सत्य का सूरज यहीं गुम हो गया है,

 जिस जगह बिखरे हुये ये आंकड़े हैं

सिर मुढाने की सलाहें दी गयी थीं,

सिर मुढाते ही मगर ओले पड़े हैं

       उन दिनों ब्लिट्ज़ की चिनगारी भी ठंडी पड़ चुकी थी इसलिए चुनाव के दौरान भेजी यह रचना उन्होंने उस अंक में छापी जिस दिन चुनाव परिणाम आने लगे थे।

       कवि सम्मेलनों के मनोरंजन सम्मेलनों में बदल जाने का भी यही समय था। उन्हीं दिनों मैं भी कवि सम्मेलनों की तरफ आकर्षित हो रहा था किंतु उन मंचों पर पकड़ नहीं बना सका। अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए मैंने दुश्यंत कुमार की गज़ल ‘मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे ‘ का सहारा लिया और पैरोडी लिखी जो कवियों के प्रमुख मंच रंग चकल्लस की पत्रिका ‘रंग’ में छपी।

मिला निमंत्रण सम्मेलन का, गीत सुनाने आयेंगे

गीतों से ज्यादा अपना पेमेंट पकाने आयेंगे

बड़े बड़े कवि ले आयेंगे, प्यारी प्यारी शिष्याएं

निज बीबी से दूर रंग रेलियां मनाने आयेंगे

नामॉं से बेढंगे, रंग बिरंगे हास्यरसी कविवर

चोरी किये हुए फूहड़ चुटकले सुनाने आयेंगे

       इमरजैंसी पर लिखी उनकी प्रसिद्ध गज़ल ‘ये जुबां हमसे सीं नहीं जाती’ की पैरोडी लिखनी पड़ी जब नौकरी में नौकरशाही ने परेशान कर डाला था। इसे ‘माधुरी ‘ ने प्रकाशित किया था।

नौकरी हमसे की नहीं जाती

क्योंकि चमचागिरी नहीं आती

अफसरों के विशाल बंगलों पर

नाक हमसे घिसी नहीं जाती

उनके कुत्ते भी बोलते इंग्लिश

हमको घिस्सी पिट्टी नहीं आती

तानाशाही चली गयी होगी

देश से अफसरी नहीं जाती

 

फिल्म विषयक पैरोडियों के लिए भी दुष्यंत कुमार की चर्चित गज़ल ‘ एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है “ की माधुरी में लिखी पैरोडी देखिए –

स्वार्थ ही जिस जगह की सबसे बड़ी पहचान है

उस जगह का नाम ही दुनिया में फिल्मिस्तान है

रास्ते पीछे से खुलते हैं यहाँ पर हर जगह

सामने ‘ नो एंट्री’ है और इक दरवान है

दो तरह के लोग ही मिलते हैं फिल्मी क्षेत्र में

थोड़े जीनत की तरह के थोड़े संजय खान हैं

कल वो जंगल में मिला था साथ सांभा को लिये

मैंने पूछा नाम तो बोला कि अमज़द खान है

       सिलसिला चला तो मैंन फिर नीरज जी, रंगजी, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी आदि के अनेक चर्चित गीतों की पैरोडियां लिखीं जो सभी तत्कालीन राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में तब तक प्रकाशित हुयीं जब तक कि मुझे ही यह लेखन निरर्थक नहीं लगने लगा। कभी कभी कुछ घटनाओं से बचपना भी याद आ जाता है और निजी तौर पर सुख दे जाता है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023