मंगलवार, दिसंबर 26, 2017

नरेन्द्र मोदी को अटल जी की याद आना

नरेन्द्र मोदी को अटल जी की याद आना

वीरेन्द्र जैन
नरेन्द्र मोदी ने गत 20 दिसम्बर को संसदीय बोर्ड की बैठक में कैमरे की उपस्थिति में दो-तीन बार अपनी आँखें गीली होने जैसी प्रतीति दी। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि अगर आज अटलजी स्वस्थ होते तो वे मेरी जगह बैठे होते और कितने खुश होते। जब 1999 के लोकसभा चुनाव में मैंने गुजरात से बीस सीटें जीत कर दी थीं तो अटल जी ने मुझ से खुश होकर कहा था कि यह तुमने क्या कर दिया।
अपनी सोच और कठोर कार्यप्रणाली वाली छवि के विपरीत जब मोदी भरे गले और नम आँखों से बात करते हैं तो विरोधियों को वे नकली लगते हैं। राहुल गाँधी ने तो पिछले दिनों स्मरण भी दिलाया था कि वे अमिताभ बच्चन से भी अच्छे अभिनेता हैं, और किसी दिन सभा में आँसू बहा कर दिखा सकते हैं। उन्होंने तब भी आंसू दिखाये थे जब पहली बार संसद भवन में आये थे और अडवाणीजी ने भाजपा के पूर्ण बहुमत लाने की कृपा करने के लिए उन्हें बधाई दी थी। उन्होंने अमेरिका में जुकरवर्ग को साक्षात्कार देते हुए अपनी मां के श्रम को याद करते हुए भी आंसू बहाये थे, और नोटबन्दी पर हो रहे व्यापक विरोध को शांत करने के लिए भी आंसू बहाये थे।  
गुजरात का चुनाव मोदी के लिए बड़ा धक्का इसलिए है क्योंकि उनके प्रधानमंत्री बनने तक लोगों को यह भरोसा नहीं था कि गुजरात माडल को सामने रखे बिना साम्प्रदायिकता की दाग झेल रही भाजपा स्वतंत्र रूप से सत्ता में आ सकती है। उसी गुजरात में जीत कमजोर पड़ने से नींव कमजोर होने जैसा आभास हो रहा है। सच यह भी है कि 2014 में उनकी सरकार बनने में एंटी इंकम्बेंसी के साथ दलबदल कर आये नेता, क्रीतदास मीडिया, सेवानिवृत्त अधिकारी, कार्पोरेट प्रदत्त अटूट धन का प्रवाह, जातिवाद व साम्प्रयदायिकता, सैलीब्रिटीज आदि रहे थे फिर भी उन्होंने दो जगह से चुनाव लड़ा था और प्रधानमंत्री पद के चयन तक मुख्यमंत्री पद से स्तीफा नहीं दिया था।
प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने भाजपा के नाम को छोड़ कर पार्टी में वह सब कुछ बदलने की मुहिम छेड़ दी थी जो पुराने लोगों को महत्व देती थी। वैसे तो अटल बिहारी वाजपेयी जी उम्रगत अस्वस्थता के कारण सक्रिय राजनीति में वापिस नहीं आ सकते थे, पर फिर भी मोदी ने अटल बिहारी के समय के और उनके साथ के सारे लोगों को मुख्यधारा से हाशिए पर धकेल दिया। उनके जो दो एक रिश्तेदार सक्रिय राजनीति में थे उन्हें बाहर कर दिया या निष्क्रिय कर दिया। मोदी ने अटल बिहारी के शासन के दौर को कभी अच्छा नहीं बतलाया व सत्तर साल तक चली पिछली सरकारों की आलोचना करते हुए उन्होंने अटल जी के समय की एनडीए को भी कुशासन बतलाने में सम्मलित किया। उल्लेखनीय है कि 2002 में गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में हुयी आगजनी के बाद गुजरात में जो नरसंहार हुआ था उसके विरोध में अटल जी ने मीडिया के सामने राजधर्म के पालन की सलाह दी थी। आज के समय आंसू बहाते हुए प्रदर्शित होने वाले मोदी अटलजी की सलाह के समय हँस रहे थे जिसका वीडियो उपलब्ध है। भुला दिये गये भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि गुजरात में हुए नरसंहार से जन्मी आलोचनाओं से दुखी होकर जब अटल जी स्तीफा देने जा रहे थे तब उन्हीं ने उन्हें रोका था।
गुजरात विधानसभा चुनाव में हुयी दुर्दशा से पूर्व मोदी ने कभी अटल जी के नाम को आदर से याद नहीं किया और अब जब याद किया तब भी अपने योगदान की प्रशंसा के साथ याद किया। मेरे नैटपरिचित एक ब्लागर जिन्हें बाद में ट्रालर के रूप में ही पहचाना गया ने अपने तब के ब्लाक में लिखा था कि बहुत सारे ब्लागर्स का लम्बा प्रशिक्षण शिविर गुजरात में आयोजित किया गया था जिसमें समय समय पर मोदी स्वयं आते रहे थे। यह वही समय था जब मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाने की प्रक्रिया चल रही थी। इस शिविर से लौट कर आने के बाद उन्होंने उन्होंने अपनी पोस्टों में जो प्रमुख परिवर्तन किया था वह था अटल बिहारी शासन काल की भी आलोचना करना। उनके इस बदले रुख से तब मैं अचम्भित हुआ था। कन्धार में आतंकवादियों को छोड़ कर आने से लेकर मुशर्र्फ से वार्ता तक उन्होंने  निन्दा करना शुरू कर दिया था। किसी विरोधी की तरह उनके कमजोर हिन्दुत्व और गलत धर्मनिरपेक्षता की आलोचना भी वे करने लगे थे। पार्टी के पोस्टरों में अटल बिहारी वाजपेयी और अडवाणी जी के फोटुओं का स्तेमाल कठोरता से रोक दिया गया था।
जब मोदी जी प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी चुन लिये गये थे तब राजनाथ सिंह नाम मात्र के अध्यक्ष रह गये थे और प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव प्रबन्धन का सारा काम नरेन्द्र मोदी और अमित शाह देखने लगे थे। अडवाणी जी तक का टिकिट उन्होंने अंतिम समय तक लटकाये रखा था। लोकसभा चुनाव में जीत के बाद जब मंत्रिमण्डल गठन का सवाल आया तब उन्होंने अटल मंत्रिमण्डल के प्रमुख सदस्यों को दूर ही रखा। अडवाणी जी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, आदि तो दूर ही रखे गये सुषमा स्वराज को भी उनकी रुचि से भिन्न और वरिष्ठता से अलग विभाग दिया। रक्षा विभाग को भले ही अरुण जैटली को वित्त मंत्रालय जैसे भारी भरकम मंत्रालय के साथ नत्थी किये रहे पर किसी वरिष्ठ को उसके आसपास फटकने भी नहीं दिया। उमा भारती को ऐसा विभाग दे दिया जिसमें उनके कर सकने लायक कुछ भी नहीं था। जो मंत्री बनाये गये वे सब उपकृत लोग थे जो बाबुओं की तरह उनके वाक्य को अंतिम मान कर चलते थे।
अगले लोकसभा चुनावों से पहले जब कुछ विधानसभाओं के चुनाव सामने हैं, और नोटबन्दी, जीएसटी, से लेकर निष्प्रभावी आर्थिक नीतियों के कारण न काला धन वापिस आने और न रोजगार का सृजन होने के कारण असंतोष चरम की ओर बढ रहा है तब अटल जी की याद आ रही है। कट्टर हिन्दुत्ववादियों के प्रति जनता के बढते गुस्से को थामने के लिए अपेक्षाकृत उदार अटल बिहारी की फोटो में उम्मीदें देख रहे हैं। अटलजी इस अवसरवाद का उत्तर दे पाने की स्थिति में भी नहीं हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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बुधवार, दिसंबर 06, 2017

लोकतंत्र में निर्दलीय, सन्दर्भ उ.प्र. नगर निकाय चुनाव

लोकतंत्र में निर्दलीय, सन्दर्भ उ.प्र. नगर निकाय चुनाव
वीरेन्द्र जैन

उत्तर प्रदेश में हाल ही में सम्पन्न नगर निकाय चुनावों में भले ही भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों की तरह अपना वर्चस्व बना होने का गलत प्रचार कर रही हो, व उसका समर्थक मीडिया उनकी प्रतिध्वनि रच रहा हो, किंतु सच यह है कि राजनीतिक दृष्टि से जनता ने प्रदेश के किसी भी दल में अपना विश्वास व्यक्त नहीं किया है। यह स्थिति एक अच्छा संकेत नहीं है। अब इन सदस्यों की बोलियां लगायी जायेंगीं। जब पार्टी आधार पर चुनाव होते हैं तो दलबदल के बारे में भी वही नियम लागू होने चाहिए जो लोकसभा और विधानसभा के सदस्यों के लिए बनाये गये हैं।
चुनावी प्रबन्धन में सिद्धहस्त भाजपा गुजरात में चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं है ऐसा उसकी आम सभाओं में अपेक्षाकृत कम उपस्थिति, पूरी ताकत झौंक देने के बाद भी रैलियों में कम भीड़, और नेताओं की बातचीत के लीक होने की खबरों से पता चलता है। इसके बाबजूद भी लोगों को आशंका है कि भाजपा साम दाम दण्ड भेद का स्तेमाल करके स्थिति अपने पक्ष में कर लेगी। उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों की वास्तविकता को भिन्न तरीके से प्रस्तुत करना भी ऐसी ही तरकीबों में से एक है। विपक्षियों का तो यह भी आरोप है कि गुजरात में चुनावों को विलम्बित कराने के पीछे भी ऐसा ही प्रयास है। चुनाव परिणामों को अपने पक्ष में बतलाना भी एक कूटनीति का हिस्सा है।  
उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम का सच यह है कि सम्पूर्ण नगर निकाय चुनावों अध्यक्ष के कुल 652 पद थे जिसमें से 225 पर निर्दलीय जीते हैं और 184 पर भाजपा ने जीत दर्ज की है। समाजवादी पार्टी ने 128 सीटें जीती हैं तो बहुजन समाज पार्टी ने 76 पर जीत दर्ज की है। काँग्रेस ने 26 , आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, और राष्ट्रीय लोक दल ने दो-दो सीटें जीती हैं। ओवैसी की एआईएमआईएम ने भी नगर पंचायत की एक सीट जीत कर उत्तर भारत में प्रवेश कर लिया है। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी को एक, आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक को एक, तदर्थ पंजीकृत पार्टी को एक, तथा अमान्यता प्राप्त दल को दो सीटें मिली हैं।
उल्लेखनीय है कि कुल मतदान लगभग चार करोड़ वोटों का हुआ। जिन नगर निगम के चुनावों में भाजपा 16 में से 14 सीटें जीत कर पूरे उत्तर प्रदेश में झंडा फहराने का प्रचार कर रही है उनमें कुल 35 लाख वोट पड़े हैं। नगर पालिका परिषदों के लिए हुए चुनावों में लगभग एक करोड़ वोट पड़े हैं, वहीं नगर पंचायतों के लिए दो करोड़ पैंसठ लाख के लगभग वोट पड़े हैं।  
कुल मिला कर भाजपा को एक करोड़ तेईस लाख वोट मिले हैं जो कुल मतदान का लगभग तीस प्रतिशत हैं। वहीं निर्दलियों को लगभग 41 प्रतिशत वोट मिले हैं।  कुछ अपवादों को छोड़, बीजेपी बस्‍ती, गोंडा, चित्रकूट, इलाहाबाद, मिर्जापुर, बाराबंकी, आज़मगढ़, जौनपुर, कौसाम्‍बी, फतेहपुर, फर्रुखाबाद, फिरोज़ाबाद इत्‍यादि में लगभग सभी सीटें हार गई है। 
सभी निकायों के पार्षदों के चुनावों में भी लगभग साठ प्रतिशत पार्षद निर्दलीय हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि भाजपा के ध्रुवीकरण का प्रभाव यह भी हुआ है कि पहली बार ओवैसी की एआईएमआईएम के 29 पार्षद जीते हैं जिनमें से ग्यारह तो फिरोजाबाद से जीते हैं जहां से उनकी मेयर पद की उम्मीदवार ने विजेता को कड़ी टक्कर दी और दूसरे नम्बर पर रही। इसके अलावा उनके उम्मीदवार सम्भल, अमरोहा, मेरठ, बागपत, डासना [गाज़ियाबाद] कानपुर, सीतापुर, बिजनौर और इलाहाबाद से भी जीते हैं। चिंताजनक यह है कि जिस कट्टरवाद को समाप्त समझा जा रहा था, वह फिर अपना स्थान बनाता जा रहा है जिसका परोक्ष लाभ भाजपा के कट्टरवादी तत्वों की मजबूती में प्रकट होगा। ऐसा लगता है कि उनकी चुनावी असफलता के बाद खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वाली पार्टियों से मुसलमानों का भरोसा कम हो रहा है।
निर्दलीय उम्मीदवार की विजय का मतलब होता है कि सम्बन्धित व्यक्ति मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल से जनता में अधिक लोकप्रिय और विश्वसनीय है। ऐसे लोग भी प्रायः मान्यता प्राप्त पार्टियों से टिकिट मांगते हैं किंतु टिकिट न मिलने पर वे निर्दलीय के रूप में खड़े हो जाते हैं। जीतने के बाद पार्टियां अपनी जरूरत के अनुसार उनसे सौदा करती हैं। यह स्थिति भ्रष्टाचार की भाव भूमि तैयार कर देती है। पूरे देश में फैली गन्दगी और अतिक्रमण इसी के परिणाम हैं। नगर निकायों, सहकारिता के विभागों, और विकास प्राधिकरणों के भ्रष्टाचार से नित प्रति आम आदमी का सामना होता है इसीलिए वह भ्रष्टाचार समाप्ति की घोषणाओं पर भरोसा नहीं करता। असम के बाद मणिपुर और गोआ राज्यों में जिस तरह से सरकारें बनायी गयी थीं उसने उनके वादों पर से लोगों के विश्वास को कम किया है। गुजरात चुनावों से पहले उत्तर प्रदेश में भी व्यापक स्तर पर खरीद फरोख्त होगी।
जरूरत है कि या तो नगर निकायों में दलीय आधार पर चुनाव न हों, और अगर हों तो दलबदल कानून भी उन पर लागू हो। एवीएम मशीन पर शंकाएं की जा रही हैं किंतु उसके लिए स्वीकार्य सबूत और विधि के साथ सामने आना होगा, अन्यथा पराजय के बाद ऐसी शंकाएं व्यक्त करना सन्देहास्पद लगता है।  
वीरेन्द्र जैन
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