शुक्रवार, मार्च 10, 2023

डा. ज्ञान चतुर्वेदी को व्यास समान

 


डा. ज्ञान चतुर्वेदी को व्यास समान

वीरेन्द्र जैन

हिन्दी व्यंग्य के शिखर लेखक डा. ज्ञान चतुर्वेदी को देश के सबसे बड़े सम्मानों में से एक के. के. बिरला फाउंडेशन के व्यास सम्मान मिलने की खबर से सचमुच खुशी हुयी। आम तौर पर पुरस्कार सम्मानों की खबरें मुझे प्रभावित नहीं करतीं किंतु राजेश जोशी, उदय प्रकाश, और ज्ञान चतुर्वेदी जैसे साहित्यकारों को मिलने वाले पुरस्कार सम्मान से इसलिए खुशी मिलती है क्योंकि ये सम्मान उनके हजारों, लाखों पाठकों का सम्मान भी होता है जो उनके लिखे को पसन्द करते हैं। ये पाठक उनको मिले पुरस्कार या उसकी राशि से प्रभावित होकर अपने लेखक को पसन्द नहीं करते हैं अपितु उनके रचनाकर्म से प्रभावित होकर उन्हें पसन्द करते हैं और पुरस्कार सम्मान उनकी पसन्दगी का सम्मान भी होता है। उन्हें भी लगता है कि वे सही हैं।

ज्ञान चतुर्वेदी इस काल के व्यंग्य लेखकों में निरंतर श्रेष्ठ पत्रिकाओं में नियमित लिखने वाले, श्रेष्ठ प्रकाशकों द्वारा पुस्तकाकार रूप से सामने आने वाले, और पाठकों, समीक्षकों द्वारा पसन्द किये जाने वाले लेखकों में से एक हैं। वे एक अच्छे चिकित्सिक के रूप में अपना सर्वोत्तम देते हुए अपना लेखन कर रहे हैं, क्योंकि वे सहित्येतर गतिविधियों में नहीं उलझते। वे ऐसे समारोहों में अपना समय नहीं गंवाते जहाँ से और अधिक ज्ञान सम्पन्न होने की सम्भावना न हो। वे समकालीन साहित्य से परिचित भी रहते हैं और वह सब कुछ भी पढते रहते हैं जो साहित्य के केन्द्र में रहने वालों द्वारा पढा जाना चाहिए।

जो लोग ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन से कम परिचित हैं, उन्हें यह घोषणा चौंका सकती है क्योंकि इससे पूर्व यह पुरस्कार जिन लोगों को मिला है उनमें व्यंग्य से जुड़े दो नाम हैं, एक श्रीलाल शुक्ल और दूसरे नरेन्द्र कोहली किंतु इन्हें जिन पुस्तकों के लिए मिला है वे व्यंग्य उपन्यास नहीं थे। जिन अन्य लोगों को यह सम्मान मिले है, उनमें शामिल हैं डा. राम विलास शर्ना, शिव प्रसाद सिंह, गिरजा कुमार माथुर, धर्मवीर भारती, कुंवर नारायण, केदार नाथ सिंह, गोविन्द मिश्र, गिरिराज किशोर, रमेश चन्द्र शाह, परमानन्द श्रीवास्तव, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, अमरकांत, विश्वनाथ त्रिपाठी, ममता कालिया, लीलाधर जगूड़ी, नासिरा शर्मा, असगर वजाहत आदि। इनमें से ज्यादातर लोग भाषा के अध्यापन या सम्पादन से जुड़े रहे हैं। चिकित्सा के पेशे से आकर यह सम्मान पाने वाले ज्ञान चतुर्वेदी विरले लोगों में से एक होंगे।

उन्हें मिले पुरस्कारों की विविधता भी कुछ कहती है कि उनके लेखन को चतुर्दिक मान्यता मिली है। भारत सरकार ने 1915 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया तो दिल्ली अकादमी ने व्यंग्य का अकादमी सम्मान दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ कृति का सम्मान दिया तो मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान दिया। 1992 में अट्टहास युवा सम्मान मिला तो 2014 में अट्टहास शिखर सम्मान मिला। गोयनका व्यंग्यभूषण सम्मान मिला तो लन्दन का इन्दु शर्मा सम्मान मिला। पागलखाना के लिए ही प्रिंट श्रेणी में [उपन्यास] 2018 का शब्द सम्मान मिला तो वैली आफ वर्ड्स की ओर से सम्मान मिला।

ज्ञान चतुर्वेदी ने प्रारम्भ में पत्रिकाओं के कलेवर के अनुरूप व्यंग्य लिखे और वे उसमें हास्य के उचित अनुपात को बनाये रखने का ध्यान रखते थे। फिर शायद राग दरबारी से प्रभावित होकर वे उपन्यास की ओर झुके और नरक यात्रा से शुरू करके बारामासी की सफलता से प्रोत्साहित होकर उन्होंने उपन्यासों की झड़ी लगा दी। ये उपन्यास जीवन की समीक्षा करने के साथ पाठकों की रुचि के लिए रोचकता का भी ध्यान रखते थे। वे श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी और मुश्ताक अहमद यूसुफी के अन्दाज से भी प्रभावित नजर आते हैं।

जिस उपन्यास ‘पागलखाना’ के लिए उन्हें यह सम्मान मिला है उसके बारे में मेरा विश्वास है कि इसकी सिनोप्सिस तैयार करने से पहले उन्होंने अपने मित्र प्रभु जोशी से जरूर विमर्श किया होगा। प्रभु जोशी हिन्दी के बहुत समर्थ लेखक और विचारक थे। उनकी भाषा से मैं बहुत प्रभावित था। ‘पागलखाना’ की प्रशंसा में उन्होंने जो लिखा था उससे मेरी बात और स्पष्ट हो सकेगी।

"पागलखाना ग़्य़ान चतुर्वेदी का पांचवां उपन्यास है। बाजारवाद तथा भूमण्डलीकरण की सांस्कृतिक चपेट में आ चुके भारतीय उप-महाद्वीप का दारुण यथार्थ को वृहद औपन्यासिक कृति के रूप में कदाचित किसी भी भारतीय भाषा में पहली बार प्रस्तुत करते हुए, ज्ञान चतुर्वेदी अपने प्रस्तुत उपन्यास में इस नये निर्मम यथार्थ के मायावी खेल की एक अप्रतिम फेंटेसी रचते हैं और उस फेंतेसी के विचित्र पात्रों के जरिये बाज़ारवाद  को विजयोल्लास के साथ ली जाने वाली परिसंघटना का जो छद्म है, उसे बहुत सूक्ष्म लेखकीय विवेक के साथ पर्त दर पर्त इस तरह खोलते हैं कि पाठक उपन्यास के प्रसंगों तथा पात्रों की विक्षिप्तता में भी संरचनात्मक तर्किकता तथा पाठ की लय के मध्य सुलगते सवालों का एक श्रंखलाबद्ध  विस्फोट  और अंतः विस्फोट देखता है कि बाजारवाद कैसे आम नागरिक को मात्र एक मार्केट फ्रेन्डली इंडीविजुअल बना कर छोड़ दिया है, जहाँ वह अपने देशकाल और स्थान से जुड़ी सापेक्षता और लोक से नालबद्ध भाषा और संस्कृति को अपनी ही आँखों के समक्ष स्वाहा होते देखने को बाध्य है। वह एक नये किस्म के सांस्कृतिक अनाथ में तब्दील कर दिया गया है । पागलखाना उपन्यास कुछ ऐसे ही पात्रों से भरी भटकती आकाश गंगा है जो निर्धारित विनष्टीकरण के विषम वलय में फंस गई है और वह बाजारवाद विचारहीन विचार के विराट जाल से निकलने के लिए छटपटा रही है। "हैप्पी -इकोनमिक्स " के जुलाहों की संगठित धूर्तता जो एक रेडीमेड आशावाद का नया अन्धत्व और दासत्व  एक मोहक नेपथ्य के पीछे बुन रही है, ये सच्चाई वे पात्र पहचान गये हैं। वे इस बाजारवाद से छूट कर भाग निकलने के लिए समांतर फैंटेसी को "कैमोफ्लेज्ड युक्तियों से एक नई दुनिया रचने की जद्दोजहद लिए हुये हैं।

यह उपन्यास आधुनिक क्लेसिक है। ज्ञान चतुर्वेदी अपने लेखन में प्रोलिफिक भी हैं और सर्वोत्कृष्ट भी। एक लेखक में ये दोनों चीजें एक साथ होना अलभ्य है। बहरहाल विश्व साहित्य में उत्कृष्टता जो गुण और प्रतिमान स्वीकृत हैं, वे सब के सब बहुलता के साथ ज्ञान के लेखन में सर्वत्र उपस्थित हैं । " पागलखाना" इसका उपयुक्त उदहरण है। - प्रभु जोशी  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

सोमवार, फ़रवरी 20, 2023

उनके पास हर सम्मान पिपासु के लिए एक अंजुरि जल था।श्रद्धांजलि स्मरण – राजुरकर राज

 

श्रद्धांजलि स्मरण – राजुरकर राज

वीरेन्द्र जैन

उनके पास हर सम्मान पिपासु के लिए एक अंजुरि जल था।



राजुरकर राज से मेरा परिचय 1994-95 के बीच हो गया था जब मैं जब्बार ढाकवाला के साथ उनके नेहरू नगर निवास पर गया था, जहाँ से दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय का बीज पनपा। वे उस समय भोपाल के साहित्यिक संस्कृतिकर्मियों के पतों की सूची बना चुके थे या ऐसी सूची प्रकाशित होने की प्रक्रिया में थी। मैं उनके इस काम से बहुत खुश हुआ क्योंकि यह कार्य वर्षों से मेरी कार्य सूची में था, जिसका विस्तार कर के वे मध्य प्रदेश और फिर राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहते थे। मेरे लेखन का प्रारम्भ कादम्बिनी से हुआ था जो उस समय रामानन्द दोषी के सम्पादन में एक श्रेष्ठ और पूर्ण मासिक पत्रिका थी। इस पत्रिका के कई वर्षों के पुराने अंक मैंने रद्दी में खरीद लिए थे। उस समय की प्रमुख हिन्दी पत्रिकाओं में कादम्बिनी इकलौती ऐसी पत्रिका थी जो लेखकों के पते छापती थी। लेखकों से पत्र सम्पर्क के शौक ने मुझसे उपलब्ध पते एक डायरी में दर्ज करवा लिये थे जो बाद में सेवाकाल के दौरान हुए मेरे 15 स्थानांतरणों में बहुत काम आये। 1994 में भोपाल आकर 1996 में मैं भोपाल छोड़ चुका था और इसी दौरान पतों की जो  पुस्तिका प्रकाशित हुयी जिसमें मेरा पता और फोन नम्बर भी था।

राजुरकर जी में अनेक गुण थे। वे व्यवहार में विनम्र व मृदुभाषी थे, आकाशवाणी में उद्घोषक थे इसलिए वाणी के धनी थे, अपने कार्य कौशल के बारे में आत्मविश्वास से भरे हुए रहते थे, फिर भी लो-प्रोफाइल रहने में खुशी महसूस करते थे। वे अटूट धैर्य के धनी थे, मैंने उन्हें कभी क्रोधित होते हुए नहीं देखा।  दुष्यंत संग्रहालय को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में उनकी यही प्रतिभा काम आयी। उन्होंने निरंतर सम्पर्क बनाये रखने के लिए संस्कृति कर्मियों के निजी सुख-दुख के समाचार साझा करने के लिए साहित्यकारों के आस-पास नामक पत्रिका निकाली। आकाशवाणी में नौकरी और इस पत्रिका के माध्यम से वे हर आय वर्ग, पद और कद के लोगों से मिल सके व अपने काम को सूचित कर सके। अधिकारियों और सम्पन्न लोगों में भी कुछ गुण ग्राहक होते हैं, जिन्हें चलते हुए काम हेतु किसी ईमानदार व्यक्ति को नियामानुसार सहयोग करने में कोई संकोच नहीं होता। यही कारण रहा कि उनकी सादगी को देखते हुए उन्हें यथोचित सहयोग मिला, और संस्था परवान चढती गयी। उनका परिवार उनका सहयोगी रहा व मित्रों रिश्तेदारों के साथ मिल कर संस्था का विकास करते रहे।

विदेशों में अपने विख्यात लेखकों की स्मृतियों को ही नहीं अपितु उनसे जुड़े स्मृति चिन्हों, उनके निवास आदि को संरक्षित रखने की परम्परा है,शायद वहीं कहीं से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपने प्रिय कवि दुष्यंत कुमार की स्मृति को संजो कर रखने की योजना बनायी होगी जिसका विस्तार उनके समकालीन यशस्वी साहित्यकारों के स्मृति चिन्हों और पाण्डुलिपि आदि को जोड़ कर किया। कहते हैं कि हस्तलिपि से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझा परखा जा सकता है। ये पांडुलिपियों का संग्रहालय भविष्य में साहित्य के शोध छात्रों के लिए अध्ययन के नये नये आयाम देगा।   

राजुरकर नई नई युक्तियां सोचने और कार्यांन्वित करने में दुस्साहसी थे व हमेशा सफल रहे। उन्हें संग्रहालय के लिए जो सरकारी भवन आवंटित हुआ उसके चयन में भी तीक्ष्ण और दूरदृष्टि काम आयी। नगर के केन्द्र में होने के कारण उन्होंने उसे जन सहयोग से एक साहित्यिक आयोजन स्थल में बदल दिया जिसेमें क्रमशः पंखे और एसी हाल बनते गये। जनसहयोग से ही उन्होंने अलमारियां खरीदीं, पुस्तकें प्राप्त कीं व संग्रहालय में एक लाइब्रेरी स्थापित कर दी। वाचनालय चलाया। उन्होंने संग्रहालय के बाहर प्रतिमाह एक कविता पोस्टर लगाने की प्रथा प्रारम्भ की जिसमें क्रमशः प्रसिद्ध कवियों की पहचान बनाने वाली कविताएं प्रकाशित कीं। किसी प्रसिद्ध लेखक द्वारा उस कविता का अनावरण हर माह एक आयोजन बन जाता था।

साहित्यकार हमेशा से ही यशाकांक्षी रहा है। उनकी इस आकांक्षा को पूरा करने के लिए पूरे भोपाल में दर्जनों ऐसी संस्थाएं हैं जो वंचितों, कुण्ठितों को बड़े बड़े नामों वाले पुरस्कार में प्लास्टिक का स्मृति चिन्ह और फूल माला देकर उन्हें संतोष देती हैं। वे इस तरह से ले दे कर के अपना व्यापार कर लेती हैं और कुछ सरकारी धन हस्तगत कर लेती हैं। राजुरकर ने इसमें उचित सुधार किया। दुष्यंत संग्रहालय की ओर से भी वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित किये गये जो दूसरों से भिन्न थे। पहला तो यह कि इसके जो शिखर सम्मान थे वे देश के ख्यातनाम व्यक्तियों को ही दिये जाते थे, जिससे सम्मानों की गरिमा बनी रहती थी और दूसरे सम्मान प्राप्त लोगो का कद बढता था। इस तरह  वे अधिक संतुष्ट महसूस करते थे। इसके बदले में राजुरकर कोई निजी लाभ लोभ न चाह कर संस्था को मजबूत करने में उनके पद का सहयोग ले लेते थे। परिणाम स्वरूप संस्था मजबूत होती गयी। सम्मानित करने वाला व्यक्ति भी किसी क्षेत्र का विशिष्ट व्यक्ति ही होता था। इस तरह वे प्रत्येक को उसकी प्रतिभा के अनुसार सम्मान सुख देकर संतुष्ट कर देते थे। वे अपने आयोजनों में अधिक से अधिक लोगों को किसी न किसी तरह मंच पर आने का अवसर देते थे।  

दुष्यंत कुमार देश में हिन्दी गज़ल के पितृपुरुष माने गये हैं और उनकी प्रतिभा को सामने लाने में उनके मित्र कमलेश्वर की प्रमुख भूमिका रही है जो उस समय देश की सबसे प्रमुख कथा पत्रिका सारिका के सम्पादक थे। दुष्यंत मे ‘साये में धूप ‘ की भूमिका में लिखा है कि अगर कमलेश्वर न होते तो इन गज़लों का कुछ ना बना होता-

मैं हाथों में अंगार लिए सोच रहा था  / कोई मुझे अंगारों की तासीर बताये

दुष्यंत कुमर के बाद कमलेश्वर ने अपनी बेटी की शादी दुष्यंत कुमार के बेटे से कर के अपना मित्रता धर्म निभाया और उनके नाम से खोले गये इस इकलौते संग्रहालय को दिल खोल कर संरक्षण दिया। राजुरकर ने भी उन्हें संस्था के सर्वोच्च पद से सुशोभित किया। जिस दिन कमलेश्वर जी का निधन हुआ उस दिन भोपाल के राजभवन में राज्यपाल बलराम जाखड़ ने कवि सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह, कन्हैयालाल नन्दन, नवाज देवबन्दी, आदि थे। कवि सम्मेलन की समाप्ति के बाद सब लोग कार के इंतजार में खड़े थे तब नन्दन जी बार बार कमलेश्वर जी के स्वास्थ के बारे में पूछ रहे थे, शायद उनके पास कुछ संकेत रहे होंगे, वे राजुरकर के पास जानकारी होने की आशा कर रहे थे, पर राजुरकर के पास तब तक कोई सूचना नहीं थी। अगले दिन जब कमलेश्वर जी के निधन की सूचना आयी तो मुझे सारी कहानी समझ में आ गई। सारिका के सम्पादन में बदलाव के बाद दोनों के बीच थोड़ा तनाव रहा था जो बाद में ठीक हुआ था जिसकी मुझे खबर थी। मैंने राजुरकर को यह बात बतायी तो उन्होंने अनभिज्ञता व्यक्त की, पर नन्दन जी की बेचैनी याद कर के वे भी कड़ी जोड़ सके।

बीच में मेरे मित्र श्री राम मेश्राम भी संस्था के अध्यक्ष रहे और जब जब किसी विशिष्ट व्यक्ति का संग्रहालय में आगमन होत तो संवाद करने के लिए मुझे भी बुला लेते थे। आदरणीया पुष्पा भारती के साथ संवाद में तो अनेक जानकारियां मिली थीं। प्रथम बार भोपाल आने वाले हर विशिष्ट व्यक्ति के लिए संग्रहालय के द्वार स्वागत को आतुर रहते ही थे। इस तरह मैं अनेक वर्षों तक संग्रहालय का हिस्सा होकर रहा।  रमेश चन्द्र शाह, माणिक वर्मा, आदि के साथ भी संग्रहालय की कई स्मृतियां हैं। लीलाधर मण्डलोई, सेवानिवृत न्यायाधीश देवेन्द्र जैन, आदि उनके मार्गदर्शक रहे हैं। अशोक निर्मल, विनय उपाध्याय, घनश्याम मैथिल अदि सहयोग के लिए तत्पर रहे।   

राजुरकर और दुष्यंत संग्रहालय इस तरह से एकम एक थे कि मैं जब भी राजुरकर को याद करने की कोशिश करता हूं तब तब मुझे उनकी यादों में संग्रहालय लिपटा दिखायी देता है।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023          

श्रद्धांजलि स्मरण – राजुरकर राज वीरेन्द्र जैन उनके पास हर सम्मान पिपासु के लिए एक अंजुरि जल था। राजुरकर राज से994-95 के बीच हो गया था जब मैं जब्बार ढाकवाला के साथ उनके नेहरू नगर निवास पर गया था, जहाँ से दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय का बीज पनपा। वे उस समय भोपाल के साहित्यिक संस्कृतिकर्मियों के पतों की सूची बना चुके थे या ऐसी सूची प्रकाशित होने की प्रक्रिया में थी। मैं उनके इस काम से बहुत खुश हुआ क्योंकि यह कार्य वर्षों से मेरी कार्य सूची में था, जिसका विस्तार कर के वे मध्य प्रदेश और फिर राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहते थे। मेरे लेखन का प्रारम्भ कादम्बिनी से हुआ था जो उस समय रामानन्द दोषी के सम्पादन में एक श्रेष्ठ और पूर्ण मासिक पत्रिका थी। इस पत्रिका के कई वर्षों के पुराने अंक मैंने रद्दी में खरीद लिए थे। उस समय की प्रमुख हिन्दी पत्रिकाओं में कादम्बिनी इकलौती ऐसी पत्रिका थी जो लेखकों के पते छापती थी। लेखकों से पत्र सम्पर्क के शौक ने मुझसे उपलब्ध पते एक डायरी में दर्ज करवा लिये थे जो बाद में सेवाकाल के दौरान हुए मेरे 15 स्थानांतरणों में बहुत काम आये। 1994 में भोपाल आकर 1996 में मैं भोपाल छोड़ चुका था और इसी दौरान पतों की जो पुस्तिका प्रकाशित हुयी जिसमें मेरा पता और फोन नम्बर भी था। राजुरकर जी में अनेक गुण थे। वे व्यवहार में विनम्र व मृदुभाषी थे, आकाशवाणी में उद्घोषक थे इसलिए वाणी के धनी थे, अपने कार्य कौशल के बारे में आत्मविश्वास से भरे हुए रहते थे, फिर भी लो-प्रोफाइल रहने में खुशी महसूस करते थे। वे अटूट धैर्य के धनी थे, मैंने उन्हें कभी क्रोधित होते हुए नहीं देखा। दुष्यंत संग्रहालय को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में उनकी यही प्रतिभा काम आयी। उन्होंने निरंतर सम्पर्क बनाये रखने के लिए संस्कृति कर्मियों के निजी सुख-दुख के समाचार साझा करने के लिए साहित्यकारों के आस-पास नामक पत्रिका निकाली। आकाशवाणी में नौकरी और इस पत्रिका के माध्यम से वे हर आय वर्ग, पद और कद के लोगों से मिल सके व अपने काम को सूचित कर सके। अधिकारियों और सम्पन्न लोगों में भी कुछ गुण ग्राहक होते हैं, जिन्हें चलते हुए काम हेतु किसी ईमानदार व्यक्ति को नियामानुसार सहयोग करने में कोई संकोच नहीं होता। यही कारण रहा कि उनकी सादगी को देखते हुए उन्हें यथोचित सहयोग मिला, और संस्था परवान चढती गयी। उनका परिवार उनका सहयोगी रहा व मित्रों रिश्तेदारों के साथ मिल कर संस्था का विकास करते रहे। विदेशों में अपने विख्यात लेखकों की स्मृतियों को ही नहीं अपितु उनसे जुड़े स्मृति चिन्हों, उनके निवास आदि को संरक्षित रखने की परम्परा है,शायद वहीं कहीं से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपने प्रिय कवि दुष्यंत कुमार की स्मृति को संजो कर रखने की योजना बनायी होगी जिसका विस्तार उनके समकालीन यशस्वी साहित्यकारों के स्मृति चिन्हों और पाण्डुलिपि आदि को जोड़ कर किया। कहते हैं कि हस्तलिपि से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझा परखा जा सकता है। ये पांडुलिपियों का संग्रहालय भविष्य में साहित्य के शोध छात्रों के लिए अध्ययन के नये नये आयाम देगा। राजुरकर नई नई युक्तियां सोचने और कार्यांन्वित करने में दुस्साहसी थे व हमेशा सफल रहे। उन्हें संग्रहालय के लिए जो सरकारी भवन आवंटित हुआ उसके चयन में भी तीक्ष्ण और दूरदृष्टि काम आयी। नगर के केन्द्र में होने के कारण उन्होंने उसे जन सहयोग से एक साहित्यिक आयोजन स्थल में बदल दिया जिसेमें क्रमशः पंखे और एसी हाल बनते गये। जनसहयोग से ही उन्होंने अलमारियां खरीदीं, पुस्तकें प्राप्त कीं व संग्रहालय में एक लाइब्रेरी स्थापित कर दी। वाचनालय चलाया। उन्होंने संग्रहालय के बाहर प्रतिमाह एक कविता पोस्टर लगाने की प्रथा प्रारम्भ की जिसमें क्रमशः प्रसिद्ध कवियों की पहचान बनाने वाली कविताएं प्रकाशित कीं। किसी प्रसिद्ध लेखक द्वारा उस कविता का अनावरण हर माह एक आयोजन बन जाता था। साहित्यकार हमेशा से ही यशाकांक्षी रहा है। उनकी इस आकांक्षा को पूरा करने के लिए पूरे भोपाल में दर्जनों ऐसी संस्थाएं हैं जो वंचितों, कुण्ठितों को बड़े बड़े नामों वाले पुरस्कार में प्लास्टिक का स्मृति चिन्ह और फूल माला देकर उन्हें संतोष देती हैं। वे इस तरह से ले दे कर के अपना व्यापार कर लेती हैं और कुछ सरकारी धन हस्तगत कर लेती हैं। राजुरकर ने इसमें उचित सुधार किया। दुष्यंत संग्रहालय की ओर से भी वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित किये गये जो दूसरों से भिन्न थे। पहला तो यह कि इसके जो शिखर सम्मान थे वे देश के ख्यातनाम व्यक्तियों को ही दिये जाते थे, जिससे सम्मानों की गरिमा बनी रहती थी और दूसरे सम्मान प्राप्त लोगो का कद बढता था। इस तरह वे अधिक संतुष्ट महसूस करते थे। इसके बदले में राजुरकर कोई निजी लाभ लोभ न चाह कर संस्था को मजबूत करने में उनके पद का सहयोग ले लेते थे। परिणाम स्वरूप संस्था मजबूत होती गयी। सम्मानित करने वाला व्यक्ति भी किसी क्षेत्र का विशिष्ट व्यक्ति ही होता था। इस तरह वे प्रत्येक को उसकी प्रतिभा के अनुसार सम्मान सुख देकर संतुष्ट कर देते थे। वे अपने आयोजनों में अधिक से अधिक लोगों को किसी न किसी तरह मंच पर आने का अवसर देते थे। दुष्यंत कुमार देश में हिन्दी गज़ल के पितृपुरुष माने गये हैं और उनकी प्रतिभा को सामने लाने में उनके मित्र कमलेश्वर की प्रमुख भूमिका रही है जो उस समय देश की सबसे प्रमुख कथा पत्रिका सारिका के सम्पादक थे। दुष्यंत मे ‘साये में धूप ‘ की भूमिका में लिखा है कि अगर कमलेश्वर न होते तो इन गज़लों का कुछ ना बना होता- मैं हाथों में अंगार लिए सोच रहा था / कोई मुझे अंगारों की तासीर बताये दुष्यंत कुमर के बाद कमलेश्वर ने अपनी बेटी की शादी दुष्यंत कुमार के बेटे से कर के अपना मित्रता धर्म निभाया और उनके नाम से खोले गये इस इकलौते संग्रहालय को दिल खोल कर संरक्षण दिया। राजुरकर ने भी उन्हें संस्था के सर्वोच्च पद से सुशोभित किया। जिस दिन कमलेश्वर जी का निधन हुआ उस दिन भोपाल के राजभवन में राज्यपाल बलराम जाखड़ ने कवि सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह, कन्हैयालाल नन्दन, नवाज देवबन्दी, आदि थे। कवि सम्मेलन की समाप्ति के बाद सब लोग कार के इंतजार में खड़े थे तब नन्दन जी बार बार कमलेश्वर जी के स्वास्थ के बारे में पूछ रहे थे, शायद उनके पास कुछ संकेत रहे होंगे, वे राजुरकर के पास जानकारी होने की आशा कर रहे थे, पर राजुरकर के पास तब तक कोई सूचना नहीं थी। अगले दिन जब कमलेश्वर जी के निधन की सूचना आयी तो मुझे सारी कहानी समझ में आ गई। सारिका के सम्पादन में बदलाव के बाद दोनों के बीच थोड़ा तनाव रहा था जो बाद में ठीक हुआ था जिसकी मुझे खबर थी। मैंने राजुरकर को यह बात बतायी तो उन्होंने अनभिज्ञता व्यक्त की, पर नन्दन जी की बेचैनी याद कर के वे भी कड़ी जोड़ सके। बीच में मेरे मित्र श्री राम मेश्राम भी संस्था के अध्यक्ष रहे और जब जब किसी विशिष्ट व्यक्ति का संग्रहालय में आगमन होत तो संवाद करने के लिए मुझे भी बुला लेते थे। आदरणीया पुष्पा भारती के साथ संवाद में तो अनेक जानकारियां मिली थीं। प्रथम बार भोपाल आने वाले हर विशिष्ट व्यक्ति के लिए संग्रहालय के द्वार स्वागत को आतुर रहते ही थे। इस तरह मैं अनेक वर्षों तक संग्रहालय का हिस्सा होकर रहा। रमेश चन्द्र शाह, माणिक वर्मा, आदि के साथ भी संग्रहालय की कई स्मृतियां हैं। लीलाधर मण्डलोई, सेवानिवृत न्यायाधीश देवेन्द्र जैन, आदि उनके मार्गदर्शक रहे हैं। अशोक निर्मल, विनय उपाध्याय, घनश्याम मैथिल अदि सहयोग के लिए तत्पर रहे। राजुरकर और दुष्यंत संग्रहालय इस तरह से एकम एक थे कि मैं जब भी राजुरकर को याद करने की कोशिश करता हूं तब तब मुझे उनकी यादों में संग्रहालय लिपटा दिखायी देता है। वीरेन्द्र जैन 2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

श्रद्धांजलि स्मरण – राजुरकर राज

वीरेन्द्र जैन

उनके पास हर सम्मान पिपासु के लिए एक अंजुरि जल था।

राजुरकर राज से मेरा परिचय 1994-95 के बीच हो गया था जब मैं जब्बार ढाकवाला के साथ उनके नेहरू नगर निवास पर गया था, जहाँ से दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय का बीज पनपा। वे उस समय भोपाल के साहित्यिक संस्कृतिकर्मियों के पतों की सूची बना चुके थे या ऐसी सूची प्रकाशित होने की प्रक्रिया में थी। मैं उनके इस काम से बहुत खुश हुआ क्योंकि यह कार्य वर्षों से मेरी कार्य सूची में था, जिसका विस्तार कर के वे मध्य प्रदेश और फिर राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहते थे। मेरे लेखन का प्रारम्भ कादम्बिनी से हुआ था जो उस समय रामानन्द दोषी के सम्पादन में एक श्रेष्ठ और पूर्ण मासिक पत्रिका थी। इस पत्रिका के कई वर्षों के पुराने अंक मैंने रद्दी में खरीद लिए थे। उस समय की प्रमुख हिन्दी पत्रिकाओं में कादम्बिनी इकलौती ऐसी पत्रिका थी जो लेखकों के पते छापती थी। लेखकों से पत्र सम्पर्क के शौक ने मुझसे उपलब्ध पते एक डायरी में दर्ज करवा लिये थे जो बाद में सेवाकाल के दौरान हुए मेरे 15 स्थानांतरणों में बहुत काम आये। 1994 में भोपाल आकर 1996 में मैं भोपाल छोड़ चुका था और इसी दौरान पतों की जो  पुस्तिका प्रकाशित हुयी जिसमें मेरा पता और फोन नम्बर भी था।

राजुरकर जी में अनेक गुण थे। वे व्यवहार में विनम्र व मृदुभाषी थे, आकाशवाणी में उद्घोषक थे इसलिए वाणी के धनी थे, अपने कार्य कौशल के बारे में आत्मविश्वास से भरे हुए रहते थे, फिर भी लो-प्रोफाइल रहने में खुशी महसूस करते थे। वे अटूट धैर्य के धनी थे, मैंने उन्हें कभी क्रोधित होते हुए नहीं देखा।  दुष्यंत संग्रहालय को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में उनकी यही प्रतिभा काम आयी। उन्होंने निरंतर सम्पर्क बनाये रखने के लिए संस्कृति कर्मियों के निजी सुख-दुख के समाचार साझा करने के लिए साहित्यकारों के आस-पास नामक पत्रिका निकाली। आकाशवाणी में नौकरी और इस पत्रिका के माध्यम से वे हर आय वर्ग, पद और कद के लोगों से मिल सके व अपने काम को सूचित कर सके। अधिकारियों और सम्पन्न लोगों में भी कुछ गुण ग्राहक होते हैं, जिन्हें चलते हुए काम हेतु किसी ईमानदार व्यक्ति को नियामानुसार सहयोग करने में कोई संकोच नहीं होता। यही कारण रहा कि उनकी सादगी को देखते हुए उन्हें यथोचित सहयोग मिला, और संस्था परवान चढती गयी। उनका परिवार उनका सहयोगी रहा व मित्रों रिश्तेदारों के साथ मिल कर संस्था का विकास करते रहे।

विदेशों में अपने विख्यात लेखकों की स्मृतियों को ही नहीं अपितु उनसे जुड़े स्मृति चिन्हों, उनके निवास आदि को संरक्षित रखने की परम्परा है,शायद वहीं कहीं से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपने प्रिय कवि दुष्यंत कुमार की स्मृति को संजो कर रखने की योजना बनायी होगी जिसका विस्तार उनके समकालीन यशस्वी साहित्यकारों के स्मृति चिन्हों और पाण्डुलिपि आदि को जोड़ कर किया। कहते हैं कि हस्तलिपि से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझा परखा जा सकता है। ये पांडुलिपियों का संग्रहालय भविष्य में साहित्य के शोध छात्रों के लिए अध्ययन के नये नये आयाम देगा।   

राजुरकर नई नई युक्तियां सोचने और कार्यांन्वित करने में दुस्साहसी थे व हमेशा सफल रहे। उन्हें संग्रहालय के लिए जो सरकारी भवन आवंटित हुआ उसके चयन में भी तीक्ष्ण और दूरदृष्टि काम आयी। नगर के केन्द्र में होने के कारण उन्होंने उसे जन सहयोग से एक साहित्यिक आयोजन स्थल में बदल दिया जिसेमें क्रमशः पंखे और एसी हाल बनते गये। जनसहयोग से ही उन्होंने अलमारियां खरीदीं, पुस्तकें प्राप्त कीं व संग्रहालय में एक लाइब्रेरी स्थापित कर दी। वाचनालय चलाया। उन्होंने संग्रहालय के बाहर प्रतिमाह एक कविता पोस्टर लगाने की प्रथा प्रारम्भ की जिसमें क्रमशः प्रसिद्ध कवियों की पहचान बनाने वाली कविताएं प्रकाशित कीं। किसी प्रसिद्ध लेखक द्वारा उस कविता का अनावरण हर माह एक आयोजन बन जाता था।

साहित्यकार हमेशा से ही यशाकांक्षी रहा है। उनकी इस आकांक्षा को पूरा करने के लिए पूरे भोपाल में दर्जनों ऐसी संस्थाएं हैं जो वंचितों, कुण्ठितों को बड़े बड़े नामों वाले पुरस्कार में प्लास्टिक का स्मृति चिन्ह और फूल माला देकर उन्हें संतोष देती हैं। वे इस तरह से ले दे कर के अपना व्यापार कर लेती हैं और कुछ सरकारी धन हस्तगत कर लेती हैं। राजुरकर ने इसमें उचित सुधार किया। दुष्यंत संग्रहालय की ओर से भी वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित किये गये जो दूसरों से भिन्न थे। पहला तो यह कि इसके जो शिखर सम्मान थे वे देश के ख्यातनाम व्यक्तियों को ही दिये जाते थे, जिससे सम्मानों की गरिमा बनी रहती थी और दूसरे सम्मान प्राप्त लोगो का कद बढता था। इस तरह  वे अधिक संतुष्ट महसूस करते थे। इसके बदले में राजुरकर कोई निजी लाभ लोभ न चाह कर संस्था को मजबूत करने में उनके पद का सहयोग ले लेते थे। परिणाम स्वरूप संस्था मजबूत होती गयी। सम्मानित करने वाला व्यक्ति भी किसी क्षेत्र का विशिष्ट व्यक्ति ही होता था। इस तरह वे प्रत्येक को उसकी प्रतिभा के अनुसार सम्मान सुख देकर संतुष्ट कर देते थे। वे अपने आयोजनों में अधिक से अधिक लोगों को किसी न किसी तरह मंच पर आने का अवसर देते थे।  

दुष्यंत कुमार देश में हिन्दी गज़ल के पितृपुरुष माने गये हैं और उनकी प्रतिभा को सामने लाने में उनके मित्र कमलेश्वर की प्रमुख भूमिका रही है जो उस समय देश की सबसे प्रमुख कथा पत्रिका सारिका के सम्पादक थे। दुष्यंत मे ‘साये में धूप ‘ की भूमिका में लिखा है कि अगर कमलेश्वर न होते तो इन गज़लों का कुछ ना बना होता-

मैं हाथों में अंगार लिए सोच रहा था  / कोई मुझे अंगारों की तासीर बताये

दुष्यंत कुमर के बाद कमलेश्वर ने अपनी बेटी की शादी दुष्यंत कुमार के बेटे से कर के अपना मित्रता धर्म निभाया और उनके नाम से खोले गये इस इकलौते संग्रहालय को दिल खोल कर संरक्षण दिया। राजुरकर ने भी उन्हें संस्था के सर्वोच्च पद से सुशोभित किया। जिस दिन कमलेश्वर जी का निधन हुआ उस दिन भोपाल के राजभवन में राज्यपाल बलराम जाखड़ ने कवि सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह, कन्हैयालाल नन्दन, नवाज देवबन्दी, आदि थे। कवि सम्मेलन की समाप्ति के बाद सब लोग कार के इंतजार में खड़े थे तब नन्दन जी बार बार कमलेश्वर जी के स्वास्थ के बारे में पूछ रहे थे, शायद उनके पास कुछ संकेत रहे होंगे, वे राजुरकर के पास जानकारी होने की आशा कर रहे थे, पर राजुरकर के पास तब तक कोई सूचना नहीं थी। अगले दिन जब कमलेश्वर जी के निधन की सूचना आयी तो मुझे सारी कहानी समझ में आ गई। सारिका के सम्पादन में बदलाव के बाद दोनों के बीच थोड़ा तनाव रहा था जो बाद में ठीक हुआ था जिसकी मुझे खबर थी। मैंने राजुरकर को यह बात बतायी तो उन्होंने अनभिज्ञता व्यक्त की, पर नन्दन जी की बेचैनी याद कर के वे भी कड़ी जोड़ सके।

बीच में मेरे मित्र श्री राम मेश्राम भी संस्था के अध्यक्ष रहे और जब जब किसी विशिष्ट व्यक्ति का संग्रहालय में आगमन होत तो संवाद करने के लिए मुझे भी बुला लेते थे। आदरणीया पुष्पा भारती के साथ संवाद में तो अनेक जानकारियां मिली थीं। प्रथम बार भोपाल आने वाले हर विशिष्ट व्यक्ति के लिए संग्रहालय के द्वार स्वागत को आतुर रहते ही थे। इस तरह मैं अनेक वर्षों तक संग्रहालय का हिस्सा होकर रहा।  रमेश चन्द्र शाह, माणिक वर्मा, आदि के साथ भी संग्रहालय की कई स्मृतियां हैं। लीलाधर मण्डलोई, सेवानिवृत न्यायाधीश देवेन्द्र जैन, आदि उनके मार्गदर्शक रहे हैं। अशोक निर्मल, विनय उपाध्याय, घनश्याम मैथिल अदि सहयोग के लिए तत्पर रहे।   

राजुरकर और दुष्यंत संग्रहालय इस तरह से एकम एक थे कि मैं जब भी राजुरकर को याद करने की कोशिश करता हूं तब तब मुझे उनकी यादों में संग्रहालय लिपटा दिखायी देता है।  

वीरेन्द्र जैन

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