शुक्रवार, सितंबर 23, 2016

उत्तर प्रदेश का घटनाक्रम और कुछ बुनियादी सवाल

उत्तर प्रदेश का घटनाक्रम और कुछ बुनियादी सवाल
वीरेन्द्र जैन

उत्तर प्रदेश सरकार में गत दिनों जो कुछ चला, वह एक पार्टी या एक प्रदेश सरकार के संकट से अधिक, ऐसे संकटों की जड़ों को समझने की जरूरत बताता है। देश की विभिन्न सरकारों, विभिन्न दलों, और लोकतंत्र के विभिन्न स्तम्भों के बीच लगातार ऐसे ही टकराव चल रहे हैं जो कभी सतह पर आ जाते हैं और कभी अन्दर ही अन्दर व्यवस्था को खोखला करते रहते हैं। हमारा संविधान एक अच्छा संविधान है किंतु हमारे समाज से उसके अनुरूप ढलने की जो अपेक्षा की गयी थी, उसकी गति बहुत धीमी रही। परिणाम यह हुआ है कि बिना बड़े सामाजिक परिवर्तन के यह संविधान समाज के साथ साम्य नहीं बैठा पा रहा है।  
उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार की वास्तविक स्थिति यह है कि वहाँ कहने को तो समाजवादी नाम की पार्टी की सरकार है किंतु वह उतनी ही समाजवादी है जितने कि पूर्व राजपरिवार के सदस्य अपने आप को महाराजा, कुँवरसाहब, राजमाता, नबाब आदि कहते, कहलवाते हैं। पहलवान मुलायम सिंह ने कभी लोहिया जी से गंडा बँधवा लिया था और खुद को समाजवादी कहने लगे थे किंतु अमर प्रेम में पड़ने के बाद उन्होंने लोहियाबाद से ऐसा पीछा छुड़ाया कि केवल समाजवादी शब्द ही इस तरह शेष रह गया जिस तरह कि बन्दर से आदमी बनने के बाद भी पूंछ का अंतिम वेर्टेब्रा बाकी बचा हुआ है। वे कभी समाजवादी मूल्यों के पक्षधर की तरह प्रविष्ट हुये थे और उनका राजनीतिक कद भी वैसा ही था जैसा कि शेष समाजवादियों का रहा, पर मंडल कमीशन आने के बाद वे अपने पहलवान पट्ठों के उस्ताद से यादवों के नेता के रूप में बदल गये जिन्होंने पहले बहुजन समाजवादी पार्टी के सहयोग से और बाद में संघ की हिंसा से आतंकित मुसलमानों के सहयोग से समाजवादी [यादववादी] सरकार बनायी। राममन्दिर का सूत्र हाथ आने के बाद संघ परिवार ने जिस तरह से देश में साम्प्रदयिक विभाजन का सपना देखा था उसमें बहुसंख्यकों का सम्भावित वर्चस्व तोड़ने के लिए सवर्ण सशक्त चतुर हिन्दुओं को मेहनतकश जातियों से दूर करने की आवश्यकता थी और इसी आवश्यकता ने मंडल आन्दोलन को जन्म दिया था। इस आन्दोलन का पिछड़ी जातियों के उत्थान से न कोई वास्ता था और न ही इसका कोई सामाजिक असर हुआ। इसी मंडल आन्दोलन ने श्रीमती इन्दिरा गाँधी के बाद उपजे शून्य को भरने के लिए कूद पड़े संघ परिवार को देश पर झपट्टा नहीं मारने दिया। इस बीच पहलवान मुलायम सिंह को अमर सिंह जैसा व्यक्ति मिल गया जिसके पास वह सब कुछ था जो मुलायम सिंह के पास नहीं था, और जिसे वह सब कुछ चाहिए था जो मुलायम के पास था। वाक्पटुता, प्रत्युन्न्मति, बयानबाजी, सौदेबाजी तथा पार्टी चलाने और धन की ताकत वाले विरोधियों से मुकबला करने के लिए कोष की व्यवस्था करने वाला भी चाहिए था। अमरसिंह ने मुलायम सिंह की समस्त कमियों की पूर्ति की जिसके बदले में जनसमर्थन विहीन अमरसिंह ने पद प्रतिष्ठा का उपहार पाया। सफल राजनीति के लिए दोनों ही कोणों को साधने की जरूरत होती है। मुलायम सिंह ने सोचे समझे ढंग से सरकार से मिलने वाले सारे लाभ अपनी जाति के लिए लुटा दिये जिससे पहली बार उनके जाति समाज को सत्ता की मिठाई का स्वाद चखने को मिला और ये समझ में आया कि हम जिन सवर्णों के लिए लठैती करते रहे वह लाभ तो खुद भी उठा सकते हैं बशर्ते कि सरकार हमारी ही बनी रहे। अब पूरे उत्तर प्रदेश में उनकी जाति के सूबेदार अपने हित में यादववादी सरकार बनाने के लिए कृतसंकल्प रहते हैं बशर्ते जीत के लिए किसी अन्य समुदाय का साथ मिल जाये। विचार से जुड़ी नहीं होने के कारण उनकी कथित पार्टी का विस्तार इलाके से बाहर नहीं हुआ। सीधे चुनाव में उन्हें अपनी जाति और परिवार के बाहर सफलता नहीं मिली।  
सत्ता पाने और बनाये रखने के लिए जो अनियमितताएं करनी होती हैं उसके अपने वैधानिक खतरे होते हैं, जिनसे बचने के लिए सत्ता सुख में डूबे दल निरंतर असुरक्षा की भावना में जीते हैं। यह भावना उन्हें किसी भी तरह से सुरक्षातंत्र को लगातार मजबूत करने के लिए प्रेरित करती है। धन का संचय भी ऐसा ही एक उपाय है। अनियमितताओं के समानांतर कानून भी अपना काम करता रहता है। लोकतंत्र में सत्ता भी दीर्घकालीन नहीं होती इसलिए तंत्र से बचाव भी करते रहना पड़ता है। 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद अचानक अखिलेश को मुख्य मंत्री बनाना इसी सावधानी का हिस्सा था।
अमर सिंह की सलाह की सीमा में बंध जाने के बाद मुलायम सिंह ने सिर्फ और सिर्फ सत्ता की राजनीति की। अपनी सत्ता और उसके तंत्र को बचाये रखने व बढाने के लिए उन्होंने अपने प्रत्येक सहयोगी को धोखा देकर राजनीतिक लाभ उठाया। वीपी सिंह की सरकार उन्हीं के कारण गिरी थी, राष्ट्रपति के चुनाव व परमाणु समझौते के सवाल पर उन्होंने सीपीएम को धोखा दिया, प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गाँधी को धोखा दिया, गठबन्धन के सवाल पर ममता बनर्जी को धोखा दिया बिहार चुनाव में लालू प्रसाद को धोखा दिया बगैरह। अमर सिंह को झूठमूठ का निकालने और वापिस ले लेने के मामले में अपने ही आज़म खान व रामगोपाल यादव को धोखा दिया तथा 2012 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री प्रत्याशी का नाम छुपा कर अपने मतदाताओं को धोखा दिया। सच तो यह है कि समाजवादी पार्टी में न कोई समाजवादी है और न ही कोई किसी सिद्धांत के साथ है न पार्टी जनता के साथ है। यह सत्ता पाने वाला एक गिरोह है जिसमें यादव सिंह जैसे हजारों करोड़ के इंजीनियर और मथुरा कांड जैसे भूमि अतिक्रमण वाले माफिया सुरक्षा पाते रहते हैं। वोटों के लिए बनावटी धर्म निरपेक्षता और भीतरी जोड़ तोड़ चलती रहती है। जब हित टकराने लगते हैं तो हलचल सामने आ जाती है।
मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, समेत समस्त छोटे राज्यों में इसी तरह की उठापटक चलती रहती है जिनके स्वरूप भिन्न हो सकते हैं किंतु बुनियाद एक जैसी है। इन्हें देख कर लगता है कि हम ऐसे सामंती युग में जी रहे हैं जिसका पूंजीवाद के साथ कोई टकराव नहीं है। इसे बदलने के लिए एक नये तरह के बड़े सामाजिक आन्दोलन की जरूरत है। ऐसे परिवर्तन की प्रतीक्षा में हम कभी जेपी के आन्दोलन, कभी वीपी सिंह, अन्ना, आम आदमी पार्टी, के पास भटकते हैं, पर अंततः निराश होते रहे हैं। नोटा के वोटों की वृद्धि कुछ संकेत दे रही है जिसे समझने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

   

यह सामाजिक ही नहीं राजनीतिक फिल्म भी है

फिल्म समीक्षा- पिंक
यह सामाजिक ही नहीं राजनीतिक फिल्म भी है
वीरेन्द्र जैन

सुजित सरकार की फिल्म ‘पिंक’ न केवल विषय के चयन में महत्वपूर्ण है अपितु उसके निर्वहन में भी सफल है। पिछली सदी से प्रारम्भ महिलावादी आन्दोलनों के बाद जो महिला सशक्तिकरण आया है उससे परम्परावादी समाज के साथ कई टकराव भी पैदा हुये हैं। उन्हीं में से एक को इस फिल्म के विषय के रूप में चुना गया है।
यह बात खुले दिमाग से स्वीकार कर ली जाना चाहिए कि महिलावादी आन्दोलन उसी समय से तेज हुआ है जब से महिलाओं को गर्भ धारण करने या न करने की सुविधा प्राप्त हुयी है। परिवार नियोजन सम्बन्धी उपायों के विकसित हो जाने के बाद से ही महिला दोयम दर्जे के नागरिक होने से मुक्ति पा सकी है। महिला और पुरुष के बीच गर्भ धारण की क्षमता ही एक प्रमुख अंतर है, क्योंकि गर्भ धारण के दौरान उसे न केवल कठोर शारीरिक श्रम से बचना होता है अपितु बच्चे को पाल कर बढा करने में उसके जीवन का प्रमुख हिस्सा लग जाता रहा है। एक से अधिक बच्चे होने पर वह आजीवन घरेलू महिला होने के लिए अभिशप्त हो जाती है और वैसे ही घरेलू काम अपना लेती रही है। एक मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे को अपने पैरों पर खड़ा करने लायक बनाने में बीस साल लग जाते हैं जिसके लिए कई बार न चाहते हुए भी दम्पति को एक साथ रहना भी जरूरी होता है। स्तनपान कराने से लेकर मातृत्व की भावना के कारण महिला की जिम्मेवारी बच्चे के पोषण हेतु अधिक महत्वपूर्ण होती है तो घर चलाने के लिए साधन अर्जित करने की जिम्मेवारी पुरुष के हिस्से में आयी है जिसके प्रति वह लापरवाह भी हो सकता है किंतु महिला अपनी जिम्मेवारियों के प्रति लापरवाह नहीं हो सकती। यह बात उसे बाँधती रही है, उसकी आज़ादी को सीमित करती रही है। गर्भधारण की स्वतंत्रता के बाद वह पारिवारिक गुलामी से, भावनात्मक गुलामी [इमोशनली ब्लैकमेलिंग] से मुक्त हो सकने की स्थिति में आयी है।
दूसरे के श्रम से अपने लिए सुविधाएं बढाने वाले समाज ने गुलाम बनाने शुरू किये व इतिहास बताता है कि ऐसे प्रत्येक मालिक से मुक्त होने के लिए मानव जाति को संघर्ष करना पड़ा है। हर बेड़ी के अपने स्वरूप होते हैं जिनमें से कुछ दृश्य होती हैं और कुछ अदृश्य होती हैं। परम्पराओं में ढाल कर कुछ बेड़ियों को इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिससे वे प्राकृतिक जैसी लगने लगती हैं। अपने को प्राप्त हर पत्र का उत्तर देने के लिए प्रसिद्ध डा. हरिवंशराय बच्चन ने एक बार लिखा था कि ‘मैं आज़ाद को भी उतनी आज़ादी देना चाहूंगा कि अगर वह चाहे तो गुलामी स्वीकार कर ले’। न आज़ादी का स्वरूप किसी पर थोपा जा सकता है और न ही गुलामी के स्वरूप को थोपा जाना चाहिए।
अब महिलाओं को जबरदस्ती उस बन्धन से बाँध कर नहीं रखा जा सकता है जो बन्धन कच्चा पड़ चुका है। महिलाओं की शिक्षा, स्वतंत्र रोजगार, के बाद उन्हें अपना स्वतंत्र घर भी चाहिए जिससे निकाले जाने का अधिकार अब तक हमेशा परिवार के पुरुष के पास ही रहा है क्योंकि मकान का मालिकत्व उसे ही प्राप्त रहा है।  चर्चित फिल्म की तीन महिला पात्रों में से एक दिल्ली में अपने पिता का घर होते हुए भी किराये के मकान में दो अन्य युवतियों के साथ सहभागी की तरह रहती है व अपना मकान बनवाने के लिए लोन लेकर किश्तें चुका रही है। वह नहीं चाहती कि डांस के कार्यक्रमों से देर रात लौटने पर उसे परिवार की बन्दिशों का सामना करना पड़े। समझौते से देश को मिली आज़ादी के बाद एक नया सामंत वर्ग उभरा है जो नागरिक अधिकारों, सरकारी सुविधाओं, और कानून के पालन में भी अपनी विशिष्टता मानता है। रोचक यह है कि इस नये सामंती वर्ग की टकराहट पूंजीवाद से नहीं है अपितु यह उसका सहयोगी है। कथा का खलनायक ऐसे ही परिवार का लड़का है जिसे राजनीति में सक्रिय अपने चाचा का संरक्षण प्राप्त है। यही कारण है कि डिनर के लिए ले जाकर बलात्कार करने की कोशिश करने पर युवती अपनी रक्षा में उसे बोतल से मार देती कर घायल कर देती है, तो पुलिस उस लड़के की नियम विरुद्ध मदद करती है और पीड़ित लड़की को ही आरोपी बना देती है। लड़के का वकील लड़कियों की स्वतंत्र वृत्ति के कारण उनको ही चरित्रहीन सिद्ध करता है।
      यह लड़का और उसके साथी मकान मालिक को धमकाते ही नहीं अपितु उसके स्कूटर को टक्कर मार कर डराते भी हैं जिससे वह स्वतंत्र रूप से रह रही लड़कियों से मकान खाली करा ले और वे बेघर हो जायें। कहीं गुलाम परम्परा टूट न जाये इसलिए आसपास के सभी लोग स्वतंत्र लड़कियों को चरित्रहीन मान कर चलते हैं व उस धारणा को स्थापित भी करना चाहते हैं।
आन्दोलनों में एक गीत गाया जाता है- हम क्या गोरे क्या काले, सब एक हैं, हम जुल्म से लड़ने वाले सब एक हैं, एक हैं। प्रताडित और अकेली पड़ गयी लड़कियों की मदद के लिए एक ऐसा बूढा वकील सामने आता है जिसकी पत्नी [या प्रेमिका] मृत्यु शैया पर है और उसकी सेवा के लिए वह वकालत छोड़ चुका है। एक पीड़ित संवेदनशील व्यक्ति ही दूसरे की वेदना को समझ सकता है। इस वकील की सफल भूमिका अमिताभ बच्चन ने की है। यह वकील पर्यावरण के प्रदूषण से ही पीड़ित नहीं महसूस करता अपितु समाज में खत्म होती जा रही संवेदनाओं की साफ हवा की कमी को भी महसूस करता है। उम्र ने ऐसे लोगों की आवाजों को शिथिल कर दिया है व जज को उसे कहना पड़ता है कि थोड़ा तेज बोले। यह वकील, जज और मकान मालिक जैसे कुछ लोग इस बात का प्रतीक है कि मनुष्यता के पक्ष में आवाज उठाने वाले कुछ उम्रदराज लोग ही बचे हैं, और वे भी प्रदूषित वातावरण में अकेले पड़ते जा रहे हैं।
      पुलिस और नौकरशाही अपराधी राजनीतिज्ञों और उनके परिवारियों के खिलाफ कानून का पालन करवाने में डरती है। होटल मालिक जैसे व्यवसाय करने वाले उन्हीं के पक्ष में अनुकूल गवाही देने को मजबूर हैं। यह संयोग ही है कि न्याय व्यवस्था में कहीं कहीं कुछ संवेदनशील न्यायाधीश, या निरीह महिला पुलिसकर्मी दिख जाती हैं।
यह यथार्थवादी फिल्म स्पष्ट संकेत देती है कि यदि कुछ संयोग घटित न हुये होते तो व्यवस्था स्वतंत्र होने का प्रयास करती लड़कियों को हत्या के प्रयास व अवैध देह व्यापार के अपराध में सजा दे चुकी होती। महिला सशक्तिकरण कानून के दुरुपयोग को लेकर समाज में व्याप्त धारणाओं और उनके पक्ष की महिलाओं को बड़ी बिन्दी वाली ब्रिग्रेड बताने के संवाद बताते हैं कि बदलाव पर विमर्श न चाहने वाले उनकी निन्दा करके या चरित्र पर हमला करके अपनी घृणा व्यक्त करते रहते हैं। महात्मा गाँधी भी राजनीतिक स्वतंत्रता और सामाजिक स्वतंत्रता को अलग करके नहीं देखते थे। यही कारण रहा कि उन्होंने अछूतोद्धार, और स्वतंत्रता संग्राम साथ साथ चलाया था। जो राजनीति, सामाजिक स्वतंत्रता के आन्दोलन को दूर रख कर चलती है उसको गहराई नहीं मिलती। इस तरह यह फिल्म सामाजिक सवाल उठाते हुए  राजनीतिक सवाल भी उठाती है।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, सितंबर 03, 2016

राजनीतिक दलों में उम्मीदवार बनाने के नियम क्यों नहीं?

राजनीतिक दलों में उम्मीदवार बनाने के नियम क्यों नहीं?

वीरेन्द्र जैन

संविधान के अनुसार हिन्दुस्तान के नागरिकों को आम चुनाव में खड़े होने और सर्वाधिक वोट पाकर सम्बन्धित सदन में प्रतिनिधि बनने का अधिकार है। किंतु यह अधिकार पूरी तरह से स्वच्छन्द अधिकार नहीं है अपितु इसमें भी कुछ किंतु परंतु लगे हैं। प्रत्याशी की उम्र 25 साल से अधिक होना चाहिए, उसका मानसिक स्वास्थ ठीक हो अर्थात पागल न हो, उसका आर्थिक स्वास्थ ठीक हो अर्थात दिवालिया न हो, इत्यादि। ये नियम समाज के, और लोकतंत्र के हित में बनाये गये हैं, तथा समय समय पर इनमें सुधार किया जाता रहा है। पिछले ही दिनों दलों की अधिमान्यता के लिए पात्रता परीक्षण का समय पाँच साल से बढा कर दस साल कर दिया गया है। इससे पूर्व भी दल बद्ल कानून के अस्तित्व में आने के बाद सदस्यों को सदन में भी दलों के साथ जोड़ा गया था और इन दलों में उनके पदाधिकारियों के सावाधिक चुनाव अनिवार्य किये गये थे, शायद यह दलों की कार्यप्रणाली में निर्वाचन आयोग का पहला हस्तक्षेप था। सुधारों की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है इसलिए सर्वदलीय बैठक बुला कर सहमति से कुछ विकृतियों को दूर करने के लिए और भी नियम जोड़े जा सकते हैं।
भले ही हमारे विकसित होते लोकतंत्र में बड़े दलों सहित बहुत सारे दल व्यक्ति केन्द्रित हो कर रह गये हैं किंतु सार्वजनिक रूप से इस सत्य को ऐसा कोई भी दल स्वीकार नहीं करता। प्रत्येक के पास अपना दलीय संविधान और घोषणापत्र होता है भले ही उसके अमल में कितने ही विचलन होते रहते हों। विडम्बनापूर्ण है कि चुनाव लड़ने वाले किसी भी पंजीकृत दल ने उम्मीदवार बनाने के नियम नहीं बनाये हैं और टिकिट देने की जिम्मेवारी कुछ विश्वासपात्र चुनिन्दा लोगों की समिति को सौंप दी जाती है। उनके बारे में भी समय समय पर टिकिट बेचने के आरोप लगते रहते हैं। एक जातिवादी राष्ट्रीय दल तो खुले आम टिकिट बेचने के लिए कुख्यात हो गया है। टिकिट देने की इसी मनमानी के कारण दल के उद्देश्य और घोषणापत्र निरर्थक हो जाते हैं व उस क्षेत्र का चुनाव, दल की जगह व्यक्ति के चुनाव में बदल जाता है। यही कारण है कि क्षेत्रों के अपने अपने सूबेदार पैदा हो गये हैं। विभिन्न सरकारों में पदस्थ मंत्री अपने चुनाव क्षेत्र में अपने विभाग की विकास योजनाओं का काम अनुपात से अधिक कराने की कोशिश कर दूसरे क्षेत्रों के साथ पक्षपात करता है और परोक्ष रूप से सरकारी धन से अपने समर्थन को सुनिश्चित करते हुए अपने प्रिय लोगों की आर्थिक मदद करता है। उसे ही अगर अपने दल से टिकिट नहीं मिलता तो वह उसी क्षेत्र के लिए किसी दूसरे दल से टिकिट प्राप्त कर लेता है। अगर प्रत्याशी बनने के लिए पार्टी में सदस्यता की न्यूनतम अवधि तय हो तो कोई टिकिटाकांक्षी दलबदल न करेगा।  
उल्लेखनीय है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मनमोहन सिंह कैबिनेट के दो मंत्रियों व काँग्रेस समेत बहुत सारे दूसरे दलों के अनेक नेताओं को एक दिन की सदस्यता पर भी टिकिट दे दिया  था। कुछ को तो काँग्रेस का टिकिट मिल जाने के बाद भी भाजपा का टिकिट मिल गया था, और  दूरदृष्टि वाले लोग बीच सफर में ही गाड़ी बदल कर दूसरी दिशा की गाड़ी में बैठ गये थे। ऐसे भी लोग थे जिन्होंने चुनाव का फार्म पहले भरा था और पार्टी की सदस्यता का फार्म बाद में भरा था। बहुत सारे सेलीब्रिटीज को तो अचानक बुला कर आनन फानन में चुनाव लड़वा दिया गया था जिनमें परेश रावल और बाबुल सुप्रियो जैसे फिल्मों से जुड़े लोग भी सम्मलित थे।
देश में सोलह सौ से अधिक दल पंजीकृत हैं और पंजीकरण का काम आम चुनाव घोषित हो जाने के बाद भी जारी रहता है। होना यह चाहिए कि पंजीकरण के न्यूनतम पाँच वर्ष समाज सेवा करने के बाद ही दल की ओर से चुनाव में उतरने की पात्रता हो। पार्टी की ओर से टिकिट पाने के लिए भी न्यूनतम वरिष्ठता अनिवार्य हो जो कम से कम दो वर्ष हो। किसी भी राष्ट्रीय दल के लिए यह जरूरी हो कि वह देश की प्रमुख चुनौतियों के सम्बन्ध में अपना दृष्टि पत्र जारी करे और यह भी स्पष्ट करे कि समान दृष्टिपत्र वाले किसी दूसरे दल के होते हुए भी वह क्यों अलग दल पंजीकृत कराना चाहता है। किसी स्वतंत्र एजेंसी से दलों की सदस्य संख्या का आडिट भी कराया जा सकता है और दोहरी सदस्यता पर रोक लगायी जा सकती है। सहमति बनने पर उम्र की अधिकतम सीमा भी तय की जा सकती है।
अब राजनीति से जुड़े लगभग सबके पास मोबाइल फोन, आधार कार्ड और अपना यूनिक आइडेंटिफिकेशन नम्बर है तो किसी भी क्षेत्र की पार्टी इकाई से अपना उम्मीदवार तय करने के लिए आन लाइन विचार जाने जा सकते हैं। यह अधिक लोकतांत्रिक होगा और राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करेगा। इस तरह से धनिकों व दबंगों का दबाव रोका जा सकता है। देखा गया है कि कई दलों में टिकिट बाँटने वाली समिति को छुप कर काम करना होता है और उसके सदस्य अपने ही कार्यकर्ताओं से भागे भागे फिरते हैं। आय के अनुपात में लेवी लेने का नियम भी अगर सभी दलों में लागू कर दिया जाये तो राजनीतिक दलों को कार्पोरेट घरानों के चन्दे के दबाव में काम न करना पड़ेगा और किसी स्वार्थ के कारण राजनीति में घुसपैठ कर वर्चस्व जमाने वालों की विशेष स्थिति को समाप्त किया जा सकता है। आखिर राजनीतिक दलों को उसके अपने सदस्यों के सहयोग से ही चलना चाहिए। निर्वाचन के समय दिये जाने वाले शपथपत्र बताते हैं कि जनप्रतिनिधियों की आय में किस गति से वृद्धि हो रही है। ऐसी वृद्धि वाले राजनीतिक दलों के सदस्यों से आर्थिक सहयोग लेने की जगह बाहर वालों से सहयोग लेना ही राजनीति को भ्रष्ट कर रहा है।     
वीरेन्द्र जैन
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