शुक्रवार, सितंबर 23, 2016

उत्तर प्रदेश का घटनाक्रम और कुछ बुनियादी सवाल

उत्तर प्रदेश का घटनाक्रम और कुछ बुनियादी सवाल
वीरेन्द्र जैन

उत्तर प्रदेश सरकार में गत दिनों जो कुछ चला, वह एक पार्टी या एक प्रदेश सरकार के संकट से अधिक, ऐसे संकटों की जड़ों को समझने की जरूरत बताता है। देश की विभिन्न सरकारों, विभिन्न दलों, और लोकतंत्र के विभिन्न स्तम्भों के बीच लगातार ऐसे ही टकराव चल रहे हैं जो कभी सतह पर आ जाते हैं और कभी अन्दर ही अन्दर व्यवस्था को खोखला करते रहते हैं। हमारा संविधान एक अच्छा संविधान है किंतु हमारे समाज से उसके अनुरूप ढलने की जो अपेक्षा की गयी थी, उसकी गति बहुत धीमी रही। परिणाम यह हुआ है कि बिना बड़े सामाजिक परिवर्तन के यह संविधान समाज के साथ साम्य नहीं बैठा पा रहा है।  
उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार की वास्तविक स्थिति यह है कि वहाँ कहने को तो समाजवादी नाम की पार्टी की सरकार है किंतु वह उतनी ही समाजवादी है जितने कि पूर्व राजपरिवार के सदस्य अपने आप को महाराजा, कुँवरसाहब, राजमाता, नबाब आदि कहते, कहलवाते हैं। पहलवान मुलायम सिंह ने कभी लोहिया जी से गंडा बँधवा लिया था और खुद को समाजवादी कहने लगे थे किंतु अमर प्रेम में पड़ने के बाद उन्होंने लोहियाबाद से ऐसा पीछा छुड़ाया कि केवल समाजवादी शब्द ही इस तरह शेष रह गया जिस तरह कि बन्दर से आदमी बनने के बाद भी पूंछ का अंतिम वेर्टेब्रा बाकी बचा हुआ है। वे कभी समाजवादी मूल्यों के पक्षधर की तरह प्रविष्ट हुये थे और उनका राजनीतिक कद भी वैसा ही था जैसा कि शेष समाजवादियों का रहा, पर मंडल कमीशन आने के बाद वे अपने पहलवान पट्ठों के उस्ताद से यादवों के नेता के रूप में बदल गये जिन्होंने पहले बहुजन समाजवादी पार्टी के सहयोग से और बाद में संघ की हिंसा से आतंकित मुसलमानों के सहयोग से समाजवादी [यादववादी] सरकार बनायी। राममन्दिर का सूत्र हाथ आने के बाद संघ परिवार ने जिस तरह से देश में साम्प्रदयिक विभाजन का सपना देखा था उसमें बहुसंख्यकों का सम्भावित वर्चस्व तोड़ने के लिए सवर्ण सशक्त चतुर हिन्दुओं को मेहनतकश जातियों से दूर करने की आवश्यकता थी और इसी आवश्यकता ने मंडल आन्दोलन को जन्म दिया था। इस आन्दोलन का पिछड़ी जातियों के उत्थान से न कोई वास्ता था और न ही इसका कोई सामाजिक असर हुआ। इसी मंडल आन्दोलन ने श्रीमती इन्दिरा गाँधी के बाद उपजे शून्य को भरने के लिए कूद पड़े संघ परिवार को देश पर झपट्टा नहीं मारने दिया। इस बीच पहलवान मुलायम सिंह को अमर सिंह जैसा व्यक्ति मिल गया जिसके पास वह सब कुछ था जो मुलायम सिंह के पास नहीं था, और जिसे वह सब कुछ चाहिए था जो मुलायम के पास था। वाक्पटुता, प्रत्युन्न्मति, बयानबाजी, सौदेबाजी तथा पार्टी चलाने और धन की ताकत वाले विरोधियों से मुकबला करने के लिए कोष की व्यवस्था करने वाला भी चाहिए था। अमरसिंह ने मुलायम सिंह की समस्त कमियों की पूर्ति की जिसके बदले में जनसमर्थन विहीन अमरसिंह ने पद प्रतिष्ठा का उपहार पाया। सफल राजनीति के लिए दोनों ही कोणों को साधने की जरूरत होती है। मुलायम सिंह ने सोचे समझे ढंग से सरकार से मिलने वाले सारे लाभ अपनी जाति के लिए लुटा दिये जिससे पहली बार उनके जाति समाज को सत्ता की मिठाई का स्वाद चखने को मिला और ये समझ में आया कि हम जिन सवर्णों के लिए लठैती करते रहे वह लाभ तो खुद भी उठा सकते हैं बशर्ते कि सरकार हमारी ही बनी रहे। अब पूरे उत्तर प्रदेश में उनकी जाति के सूबेदार अपने हित में यादववादी सरकार बनाने के लिए कृतसंकल्प रहते हैं बशर्ते जीत के लिए किसी अन्य समुदाय का साथ मिल जाये। विचार से जुड़ी नहीं होने के कारण उनकी कथित पार्टी का विस्तार इलाके से बाहर नहीं हुआ। सीधे चुनाव में उन्हें अपनी जाति और परिवार के बाहर सफलता नहीं मिली।  
सत्ता पाने और बनाये रखने के लिए जो अनियमितताएं करनी होती हैं उसके अपने वैधानिक खतरे होते हैं, जिनसे बचने के लिए सत्ता सुख में डूबे दल निरंतर असुरक्षा की भावना में जीते हैं। यह भावना उन्हें किसी भी तरह से सुरक्षातंत्र को लगातार मजबूत करने के लिए प्रेरित करती है। धन का संचय भी ऐसा ही एक उपाय है। अनियमितताओं के समानांतर कानून भी अपना काम करता रहता है। लोकतंत्र में सत्ता भी दीर्घकालीन नहीं होती इसलिए तंत्र से बचाव भी करते रहना पड़ता है। 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद अचानक अखिलेश को मुख्य मंत्री बनाना इसी सावधानी का हिस्सा था।
अमर सिंह की सलाह की सीमा में बंध जाने के बाद मुलायम सिंह ने सिर्फ और सिर्फ सत्ता की राजनीति की। अपनी सत्ता और उसके तंत्र को बचाये रखने व बढाने के लिए उन्होंने अपने प्रत्येक सहयोगी को धोखा देकर राजनीतिक लाभ उठाया। वीपी सिंह की सरकार उन्हीं के कारण गिरी थी, राष्ट्रपति के चुनाव व परमाणु समझौते के सवाल पर उन्होंने सीपीएम को धोखा दिया, प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गाँधी को धोखा दिया, गठबन्धन के सवाल पर ममता बनर्जी को धोखा दिया बिहार चुनाव में लालू प्रसाद को धोखा दिया बगैरह। अमर सिंह को झूठमूठ का निकालने और वापिस ले लेने के मामले में अपने ही आज़म खान व रामगोपाल यादव को धोखा दिया तथा 2012 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री प्रत्याशी का नाम छुपा कर अपने मतदाताओं को धोखा दिया। सच तो यह है कि समाजवादी पार्टी में न कोई समाजवादी है और न ही कोई किसी सिद्धांत के साथ है न पार्टी जनता के साथ है। यह सत्ता पाने वाला एक गिरोह है जिसमें यादव सिंह जैसे हजारों करोड़ के इंजीनियर और मथुरा कांड जैसे भूमि अतिक्रमण वाले माफिया सुरक्षा पाते रहते हैं। वोटों के लिए बनावटी धर्म निरपेक्षता और भीतरी जोड़ तोड़ चलती रहती है। जब हित टकराने लगते हैं तो हलचल सामने आ जाती है।
मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, समेत समस्त छोटे राज्यों में इसी तरह की उठापटक चलती रहती है जिनके स्वरूप भिन्न हो सकते हैं किंतु बुनियाद एक जैसी है। इन्हें देख कर लगता है कि हम ऐसे सामंती युग में जी रहे हैं जिसका पूंजीवाद के साथ कोई टकराव नहीं है। इसे बदलने के लिए एक नये तरह के बड़े सामाजिक आन्दोलन की जरूरत है। ऐसे परिवर्तन की प्रतीक्षा में हम कभी जेपी के आन्दोलन, कभी वीपी सिंह, अन्ना, आम आदमी पार्टी, के पास भटकते हैं, पर अंततः निराश होते रहे हैं। नोटा के वोटों की वृद्धि कुछ संकेत दे रही है जिसे समझने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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