शुक्रवार, मई 29, 2015

क्या गुजरात एक अलग देश है?

क्या गुजरात एक अलग देश है?
वीरेन्द्र जैन 














जिन महात्मा गाँधी को देश की आज़ादी का सबसे बड़ा सिपाही माना गया है और जिन सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत में राज्यों के विलीनीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण देश का सबसे बड़ा आर्कीटेक्ट माना जाता है वे गुजरात के थे, पर उन्होंने कभी सपने में भी स्वतंत्र गुजरात की कल्पना नहीं की होगी। विडम्बना है कि आज देश का प्रधानमंत्री गुजरात का है और देश में सत्तारूढ गठबन्धन के सबसे बड़े दल का अध्यक्ष भी गुजरात का है, फिर भी उनकी दृष्टि बेहद संकीर्ण है।
जब से भाजपा सरकार सत्ता में आयी है तब से आरएसएस अपना एजेंडा लागू करवाने के प्रति बेहद उतावली दिखाई दे रही थी, किंतु मोदी की लोकप्रियता में बहुत तेजी से आयी गिरावट के बाद तो वह साम्प्रदायिक दरार को बड़ी करने के लिए छटपटाने लगी है तथा पार्टी अध्यक्ष समेत सभी मंत्रियों की क्लास ली जाने लगी है। इसी क्रम में देश की हजारों महत्वपूर्ण समस्याओं को छोड़ कर अचानक ही बीफ पर प्रतिबन्ध का शगूफा उछाला गया क्योंकि आम तौर पर मांसाहारी हिन्दू उसी तरह बीफ नहीं खाते जिस तरह मुसलमान सुअर का मांस नहीं खाते। वैसे तो हिन्दुओं में वैष्णवों और जैन आदि किसी भी तरह का मांसाहार नहीं करते यहाँ तक कि इनके कई वर्गों में प्याज, लहसुन आदि खाना भी वर्जित है, पर बीफ का खाना, न खाना सीधा सीधा हिन्दू मुस्लिम, और हिन्दू ईसाई का विभाजन पैदा करता है। कुछ बुद्धिजीवी यदा कदा उनकी योजनाओं के आशयों को उजागर करने के लिए कुछ गम्भीर प्रश्न खड़े करते रहते हैं, सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायधीश मार्कण्डेय काटजू भी उनमें से एक हैं उन्होंने बीफ खाने पर प्रतिबन्ध को साम्प्रदायिक होने से रोकने के लिए बयान दिया था कि मैं बीफ खाता हूं और भोजन का चुनाव मेरा अधिकार है। उनके इस बयान के उत्तर में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने किसी इलाकाई बाहुबली की तरह कहा कि मार्कण्डेय काटजू गुजरात में आकर बीफ खाकर दिखायें तो उन्हें पता चल जायेगा।
उल्लेखनीय है कि देश और भाजपा में अमित शाह का कोई स्वतंत्र कद नहीं है। भाजपा अध्यक्ष पद अपनी जेब में रखने के लिए ही नरेन्द्र मोदी ने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा दिया और अपने प्रभाव से कृतज्ञ भाजपाइयों द्वारा स्वीकार भी करा लिया। वे मोदी के प्रतिनिधि के रूप में भाजपा अध्यक्ष हैं। अभी हाल ही में महाराष्ट्र और हरियाणा की भाजपा सरकारों ने बीफ खाने पर प्रतिबन्ध लगाया है जबकि गौबध देश के बहुत सारे राज्यों में प्रतिबन्धित है। अमित शाह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और अगर वे अपनी पार्टी की ओर से कोई बात कहते हैं तो वह एक राज्य तक सीमित नहीं हो सकती। उल्लेखनीय है कि उन पर जब कुछ गम्भीर आरोप लगे थे तो हाई कोर्ट ने उन्हें गुजरात प्रदेशबदर कर दिया था।
 2013 में देश से गौमांस का निर्यात लगभग पन्द्रह हजार करोड़ था जिसमें पिछले वर्ष 15% की वृद्धि हुयी है। भाजपा शासित गोआ में बीफ पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है और लगाया भी नहीं जा सकता। उत्तर पूर्व से आने वाले मोदी सरकार के गृह राज्य मंत्री ने भी कहा है कि उनके प्रदेश में बीफ खाया जाता है और वे किसी के पसन्द के खान पान पर प्रतिबन्ध के खिलाफ हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार राम शरण शर्मा ने हिन्दुओं के मान्य पुराणों से उद्धरण देकर साबित किया था कि प्राचीन काल में हिन्दुओं में गौमांस वर्जित नहीं था जिसका प्रतिवाद कभी संघ के इतिहासकार भी नहीं कर सके। जहाँ जो वस्तु कानूनी रूप से प्रतिबन्धित नहीं है उसके स्तेमाल पर देश के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश को धमकी देना क्या देश की सत्तारूढ पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को शोभा देता है? इस धमकी की भाषा भी जब खुद को क्षेत्र विशेष में शेर घोषित करने वाले अन्दाज में हो तो यह क्षेत्रीयवाद से अधिक कुछ नहीं है, जहाँ वे मानते हैं कि वहाँ देश का कानून नहीं उनकी मनमानी चलेगी।
भाजपा को भले ही राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त हो किंतु उसकी मानसिकता कभी भी राष्ट्रीय पार्टी जैसी नहीं रही। हिन्दी- हिन्दू- हिन्दुस्तान के विचार से पल्लवित पुष्पित यह पार्टी सत्ता मिल पाने के प्रति इतनी सशंकित रही है कि उसने कभी नहीं सोचा कि वह जिन झूठे आरोपों और वादों के सहारे जनता के पास समर्थन माँगने जा रही है उनसे सत्ता मिल जाने पर वह उन्हें कैसे पूरा करेगी। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो स्पष्ट बहुमत न होने के बहाने समय गुजार लिया था किंतु मोदी सरकार के सामने तो स्पष्ट बहुमत ही समस्या की तरह सामने आ गया। यही कारण रहा कि बहुत सारे मामलों में उन्हें मुँह छुपाना पड़ा, यूटर्न लेना पड़ा, या साठ साल का कचरा साफ करने का बहाना लेना पड़ा। इसी तरह जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने गर्वीला गुजरात जैसा भावनात्मक नारा उछाला था, जो दूसरे राज्यों से प्रशासनिक श्रेष्ठता या औद्योगिक विकास में प्रतियोगिता न दर्शा कर, मराठा, राजपूताना की तरह जातीय श्रेष्ठता को प्रकट करता था। ये जातीय श्रेष्ठताएं देश की एकता के लिए बाधाएं हैं। इसी तरह जब मुख्यमंत्री मोदी का तत्कालीन केन्द्रीय सरकार से मिलने वाले सहयोग पर कुछ असहमतियां बनी थीं तो उन्होंने गुजरात से आयकर न चुकाये जाने की धमकी दे डाली थी। 2013 में जब केदारनाथ में प्राकृतिक आपदा आयी थी तो मोदी ने आपदा स्थल से गुजरातियों को निकाल लेने की शेखियां बघारी थीं जबकि दूसरे किसी राज्य के नेताओं ने आपदा के समय इस तरह की संकीर्णता नहीं दिखायी थी, और पूरे देश ने दिल खोल कर मदद की थी। अभी हाल ही में जब मुम्बई के मैटल व्यापारियों को कुछ समस्याएं आयीं तो मोदी के मित्र अडाणी ने उन्हें गुजरात में आकर व्यापार करने की सलाह ही नहीं दी अपितु उनके लिए अपनी ओर से जमीन भी दे दी। खीझ कर शिवसेना के सहयोग से चलने वाली महाराष्ट्र सरकार के भाजपाई मुख्यमंत्री को भी कहना पड़ा कि क्या अडाणी को महाराष्ट्र में व्यापार नहीं करना है।
जब देश में जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर के राज्य, नक्सलवाद प्रभावित आदिवासी क्षेत्र आदि में अलगाववाद सिर उठाये हुये है और राष्ट्रीय एकता पर संकट बना हुआ है तब देश के शिखर नेतृत्व की संकीर्णता देश को कहाँ ले जायेगी? इतना बड़ा देश ओखली में गुड़ फोड़ते हुए नहीं चल सकता, इसकी विविधता को देखते हुए सरकार को लोकतांत्रिक होना पड़ेगा व नेतृत्व की सामूहिकता का निर्माण करना पड़ेगा। आखिर अरुण शौरी को क्यों कहना पड़ा कि देश को एक तिकड़ी चला रही है। मोदी जनता पार्टी को भाजपा में वापिस लौटते हुए देश की अवधारणा को गुजरात की सीमा से बाहर निकालना पड़ेगा।  
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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रविवार, मई 24, 2015

फिल्म समीक्षा पीकू- दृश्यों के पीछे की आधार कथा

फिल्म समीक्षा
पीकू- दृश्यों के पीछे की आधार कथा
वीरेन्द्र जैन

       अगर मैं कोई फिल्म पहले दिन नहीं देखता तो खुद को उस पर समीक्षा लिखने का अधिकारी नहीं समझता हूं, किंतु पीकू इस मामले में अपवाद है। इस पर मैंने इसलिए लिखना चाहा क्योंकि पीकू में दीपिका पादुकोण और अमिताभ बच्चन के अच्छे अभिनय और पटकथा के बारे में विस्तार से बताती समीक्षाओं के अलावा मैंने कोई ऐसी समीक्षा नहीं पढी जो दृश्यों के बीच की अंतर्कथा को इंगित करती हो। किसी शायर का शे’र है
बाहर जो देखते हैं, वे समझेंगे किस तरह
कितने गमों की भीड़ है इस आदमी के साथ
       ‘पीकू’ केवल एक पुराने सनकी विधुर बुड्ढे रईस भास्कर [अमिताभ बच्चन] की कहानी भर नहीं है जो इतना आत्म केन्द्रित और स्वार्थी है कि उसे लगता है कि पूरी दुनिया में उसकी अपनी मामूली बीमारी के अलावा दूसरी कोई समस्या ही नहीं है। उसके कब्ज और उसके उपचार को ही हर समय चर्चा में रहना चहिए भले ही उसकी आर्कीटैक्ट बेटी पीकू [दीपिका पाडुकोण] उस समय अपने महत्वपूर्ण क्लाइंट के साथ जरूरी मीटिंग में व्यस्त हो, या अपने फ्रैंड के साथ डिनर की टेबिल पर बैठी हो, वह लगातार अपने शौच के बारे में बात कर सकता है। एक आम परम्परा के विपरीत इसे वह एक वर्जित या घृणास्पद विषय नहीं मानता अपितु दूसरी बीमारियों की तरह एक ऐसी बीमारी मानता है जो बहुत सारी बीमारियों की जड़ है, और उस पर कहीं भी कभी भी बात की जा सकती है।
       पीकू एक प्रेम कथा भी है। जिस तरह से उर्दू के प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राना कहते हैं कि क्या जरूरी है कि महबूब कोई युवती ही हो, उनकी महबूब उनकी माँ भी हो सकती है और उन पर भी शे’र कहे जा सकते हैं, उसी तरह फिल्म की नायिका का महबूब उसका विधुर पिता है जिसकी खुशी के लिए वह अपने जीवन की सारी कुर्बानियां कर रही है और आगे भी करने के लिए तैयार है। नारी पुरुष के अधिकारों की समानता के इस युग में पिता की जिम्मेवारी का भार केवल लड़कों पर ही क्यों हो! उसका पिता अपनी लड़की की शादी के खिलाफ है। उसका मानना है कि शादी करके किसी व्यक्ति की जीवन भर की गुलामी क्यों करना, अगर सेक्स एक शारीरिक जरूरत है तो उसकी पूर्ति अस्थायी रूप से किसी पुरुष मित्र से की जा सकती है, जिसकी अनुमति उसने अपनी बेटी को दी हुयी है। इतना ही नहीं अगर कोई शादी का प्रस्ताव भी लड़की के लिए आता है तो वह उससे कह देता है कि लड़की वर्जिन [कुँवारी] नहीं है। इसके समानांतर पीकू की मौसी है जो पुरुषों की गुलामी में न बँध कर तीसरी शादी कर चुकी है, और चाहती है कि पीकू शादी कर ले।
       आत्म केन्द्रित भास्कर अपने जीवन से बहुत प्रेम करता है और स्वास्थ के प्रति इतना सचेत है कि उसके लिए एक पूर्णकालिक नौकर है, हर समय बुलाने पर उपस्थित हो सकने वाला फेमिली डाक्टर है। उसका ब्लड प्रैसर, ब्लड सुगर आदि प्रति दिन नापे जाने की व्यवस्थाएं हैं और वह फिर भी अपनी नियमित जाँच करवाता रहता है। वह न केवल मरने से घबराता है अपितु वेंटीलेटर, या ग्लूकोज आदि चढाये जाने की कल्पना भी उसे भयभीत करती है और वह मिलने वालों को ऐसी स्थिति आने से दूर रहने के लिए कहता है। कब्ज से मुक्ति के लिए ढेर सारी दवाएं हमेशा साथ रखने के साथ ही उसको जब भी कोई नुस्खा सुझाया जाता है, उस पर प्रयोग करके देखता है। चाहे वह तुलसी और पुदीने का काढा पीने की बात हो या इंडियन स्टायल से शौचालय में बैठने की सलाह हो। ऐसी ही एक सलाह पर वह अखबारवाले या लाँड्री वाले की साइकिल भी चलाने की कोशिश करके सबको आशंकित करता है।
असली कथा यह है कि वह भले ही दिल्ली में रहता है किंतु उसका दिल कलकता स्थित अपने भव्य पैतृक मकान में अटका हुआ है जहाँ उसका भाई रहता है जो आर्थिक रूप से कमजोर है व भास्कर द्वारा मकान बेचने का फैसला लेने के प्रति आशंकित है। एक प्रापर्टी ब्रोकर चाहता है कि वह मकान बेच दे जिसके लिए उसकी बेटी भी सहमत है किंतु न तो वह खुद और न ही उसका भाई व उसकी पत्नी चाहती है कि पैतृक मकान बिके। फिल्म की मूल थीम यह है कि आदमी की भावनाएं व्यक्ति की देह पर और देह की विकृतियां भावनाओं पर प्रभाव डालती हैं। कथा नायक भास्कर कहता है कि आदमी का इमोशन उसके मोशन से जुड़ा होता है जबकि कहानी इस बात को विपरीत ढंग से सिद्ध करती है कि आदमी का मोशन उसके इमोशंस से जुड़ा रहता है। जब वह अपने पैतृक मकान में पहुँच जाता है और मकान को न बेचे जाने की बात को सबसे मनवा लेता है तो उसकी वर्षों की कब्ज की समस्या हल हो जाती है तथा इस उपलब्धि के साथ ही वह शांति पूर्वक मर जाता है।     
       इसके समानांतर कथा उस टैक्सी कम्पनी चलाने वाले चौधरी [इरफान] की कथा है जो इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर नौकरी करने के लिए अरब देश गया होता है जहाँ पर गये कर्मचारियों को बाँड भर के काम करना होता है व उनके सार्टिफिकेट व पासपोर्ट जमा करवा लिये जाते हैं। वहाँ से छोड़ कर वह टैक्सी कम्पनी खोलने के लिए मजबूर है तथा उसकी कम्पनी की टैक्सी ही पीकू की कम्पनी में लगी होती है। अपने पिता की सनकों से परेशान पीकू हमेशा आफिस के लिए लेट होती है व जल्दी गाड़ी चलाने का कह कर दुर्घटनाएं आमंत्रित करती है फिर भी दोष ड्राइवरों पर डालती है इसलिए उसके यहाँ जाने में सारे ड्राइवर बचते हैं। अपनी इंजीनियरिंग की डिग्री छोड़ कर टैक्सी एजेंसी चलाने वाला चौधरी भी एक ओर तो अपनी इस विवशता पर कुण्ठित है, वहीं दूसरी ओर उसकी तुनुक मिजाज माँ उसके काम में अनावश्यक दखल देती रहती है। उसके घर में भी उसकी बहिन अपने पति को छोड़ कर आयी हुयी है और माँ के कहने पर पति के खिलाफ कार्यवाहियों की योजनाएं बनाती रहती है, जिससे उसके घर में भी तनाव रहता है। जब डाक्टर के हवा पानी बदलने के सुझाव को मानते हुए भास्कर अपने सारे टीमटाम को लेकर सड़क मार्ग से कलकत्ता जाने की योजना बनाता है तो चौधरी की टैक्सी ही मँगाई जाती है किंतु पीकू के परिवार से असंतुष्ट टैक्सी ड्राइवर ठीक समय पर धोखा दे जाता है तो मजबूरन चौधरी को खुद ही गाड़ी लेकर जाना पड़ता है। इस यात्रा में घटित घटनाक्रम से उसे पता चलता है अपने घर की समस्याओं से वह अकेला ही परेशान नहीं है अपितु पीकू, उसके काका आदि सब ही कहीं न कहीं आधे अधूरे हैं। समभाव की यही समझ दोनों के बीच में आकर्षण पैदा करती है। कुल घटनाक्रम पूरी समय फिल्म को रोचक बनाये रखता है। अपने फन में कुशल शिखर के अभिनेताओं ने अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय किया है, जिससे केवल मनोरंजन के लिए फिल्म देखने वाले दर्शकों को भी निराश नहीं करती।
       यह खुशी की बात है कि पिछले दिनों से हिन्दी सिनेमा नकली प्रेम और माफिया कथाओं से बाहर निकला है व समाज में व्याप्त विभिन्न विषयों पर फिल्में बनाने लगा है। यह एक शुभ संकेत है। साहिर के शब्दोंको याद करें तो कह सकते हैं कि- भूख और प्यास से मारी हुयी इस दुनिया में ज़िन्दगी सिर्फ मुहब्बत नहीं कुछ और भी है। अब उम्मीद की जा सकती है कि यथार्थ की ओर कलाओं के बढते कदम जल्दी ही फिल्मों को सामाजिक यथार्थ को सामने रखने वाले गुरुदत्त और राजकपूर के युग को वापिस लाने में सफल होंगे। सिनेमा समाज को सन्देश देने का सबसे सशक्त माध्यम है और ‘रंग दे बसंती’ समेत आमिरखान की कई फिल्मों ने यह काम पहले से शुरू कर दिया है।   
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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शुक्रवार, मई 15, 2015

भाजपा के थिंक टैंकों में उबाल


भाजपा के थिंक टैंकों में उबाल

वीरेन्द्र जैन


सत्ता की रिसन से प्यास बुझाने की तमन्ना रखने वाले हजारों जयजयकारी समर्थकों के विपरीत जब किसी दल के विचारवान लोगों की खनकती आवाज उभरती है तो वह सत्ताधीशों के कानों में सायरन की तरह गूँजने लगती है। यह आवाज जितनी निस्वार्थ होती है, इस की धार उतनी ही पैनी होती है। भाजपा के मोदी युग का एक वर्ष पूरा होने के पूर्व ही बफादार चापलूसों की भीड़ के बीच कुछ ऐसे वरिष्ठ लोगों के स्वर गूंजने लगे हैं जिन्हें भाजपा का थिंक टैंक माना जाता रहा है। इन लोगों ने अपने विचारों, तर्कों, और व्याख्याओं से भाजपा को न केवल एक हिन्दूवादी, साम्प्रदायिक, व्यापारियों की उत्तर भारतीय पार्टी की छवि से बाहर निकलने में योगदान दिया है अपितु उसे मध्यम वर्ग की पार्टी के रूप में प्रस्तुत करके कार्पोरेट घरानों और उद्योगपतियों के बीच बिठा दिया है, जहाँ से मिला सहयोग ही उन्हें देश में सत्तारूढ कराये हुये है।       

       गोबिन्दाचार्य उन लोगों में हैं जिनकी योजना ने ही 1984 में दो सीटों तक सिमिट गयी भाजपा को दो सौ सीटों तक पहुँचा दिया था और देश भर में सामान्य जन के बीच राम भक्ति और भाजपा को एक कर दिया था। अयोध्या के रामजन्मभूमि मन्दिर निर्माण के माध्यम से सदन में संख्या वृद्धि के बाद उन्होंने स्वदेशी के नाम से जो आन्दोलन छेड़ा था वह एक ओर तो भाजपा संस्कृति के अनुकूल था वहीं देश को आत्मनिर्भर बनाने की ओर ले जा सकता था। प्रारम्भ में अपनाने के बाद जैसे ही भाजपा ने स्वदेशी आन्दोलन से किनारा किया था वैसे ही उन्होंने भाजपा से किनारा कर लिया था जिसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा का नेतृत्व आज मोदी के हाथों में है और एक बार स्तीफा देकर वापिस लेने को मजबूर हुये अडवाणी व मुरली मनोहर जोशी जैसे लोग मार्गदर्शक मंडल में बैठ कर अपना रस्ता देख रहे हैं। उल्लेखनीय है कि अपनी अध्यक्षता के दम्भ में जब नितिन गडकरी ने बयान दे दिया था कि पार्टी से बाहर हुए लोगों को वापिस लेने के बारे में वे उदारता से विचार करेंगे तो गोबिन्दाचार्य ने तल्खी के साथ कहा था कि उन्हें दल ने नहीं निकाला था अपितु वे खुद ही अध्ययन अवकाश पर गये थे व बाद में उन्होंने अपनी सदस्यता का नवीनीकरण नहीं कराया था। गडकरी अपनी जानकारी ठीक कर लें। यही गोबिन्दाचार्य अब कह रहे हैं कि मोदी सरकार की दिशा और नीतियां स्पष्ट नहीं हैं। देश के गरीबों, ग्रामीण जनता के लिए अच्छे दिन नहीं आये हैं। उन्होंने कहा कि मोदी की सरकार दूसरी सरकारों की तुलना में अलग नहीं दिख रही है। गत महीने अन्ना के नेतृत्व में भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में हुयी पद यात्रा में उन्होंने एकता परिषद के साथ किसानों की रैली के एक हिस्से का नेतृत्व भी किया था। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार के लिए विकास की नीति का मतलब केवल बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, तक रह गया है। मेक इन इंडिया के बारे में स्पष्ट रूप रेखा सामने नहीं आयी है, जबकि स्मार्ट सिटी एक ज़ुमला भर है। हो सकता है कि जीडीपी कुछ बढ जाये, कुछ कम्पनियों को फायदा हो पर समाज के अंतिम पायदान पर बैठे लोगों को फायदा नहीं होगा। काले धन के बारे में गम्भीर प्रयास नहीं हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि इस सरकार में संवाद की मानसिकता का अभाव है, जबकि इस सरकार की तुलना में तो अटल बिहारी की सरकार संवाद के लिहाज से बेहतर थी।

     राम जेठमलानी देश के उन कुछ कद्दावर वकीलों में से हैं जिन्हें राजनीतिक दल अपना उम्मीदवार बना कर गौरवान्वित होते हैं। उन्हें भाजपा ने राज्यसभा में भेजा था किंतु उनकी मुखरता के कारण ही उन्हें सदस्यता से निलम्बित भी कर दिया था। कभी अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ काँग्रेस की ओर से चुनाव लड़ने वाले  जेठमलानी, प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी चयन के समय मोदी के पक्ष में खड़े थे किंतु एक साल पूरा होने से पहले ही वे उनकी सरकार के कटु आलोचक बन गये। विदेशों में जमा काले धन के खिलाफ उन्होंने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की हुयी थी। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की वैधानिकता पर उन्होंने कटुता से कहा कि मोदी सरकार न्यायिक नियुक्तियों का राजनीतिकरण कर रही है। उनका कहना था कि भ्रष्ट सरकार को ही भ्रष्ट न्यायपालिका की जरूरत होती है। गत दिनों संसद में उन्होंने विदेशों से काला धन वपिस लाने के सरकारी प्रयासों की गम्भीर आलोचना करते हुए कहा कि काले धन पर सरकार सिर्फ हाय तौबा मचा रही है। जैटली के वित्तमंत्री रहते कालाधन नहीं आ सकता। जैटली लोगों को बेबकूफ बना रहे हैं। उनका कहना था कि उन्होंने दो ड्राफ्ट प्रधानमंत्री को दिये थे उनमें जो महत्वपूर्ण और सख्त क्लाज थे वे जैटली ने हटा दिये। सरकार कुछ लोगों को सेफ पैसेज देना चाहती है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बारे में तो उन्होंने कहा कि 15 लाख रुपया प्रत्येक के खाते में जमा कराने के बयान को जुमला बताने वाले शाह पर तो चीटिंग का केस दर्ज़ होना चाहिए।

       अटल बिहारी मंत्रिमण्डल में विनिवेश मंत्रालय जैसा अभूतपूर्व मंत्रालय सम्हालने वाले अरुण शौरी ने तो मोदी सरकार के कामकाज के तरीकों पर गम्भीर सवाल उठाते हुए एक टीवी चैनल को दिये इंटरव्यू में कहा कि भाजपा को मोदी, अमित शाह और जैटली की तिकड़ी चला रही है। ये लोग देश की अर्थव्यवस्था को ठीक से नहीं चला पा रहे हैं। विकास की दर को दो अंकों तक ले जाने की कल्पना को उन्होंने अतिशयोक्ति बताया। शौरी ने तो ओबामा दौरे के समय उपहार में मिले मँहगे सूट को पहिनने और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिन्दुत्ववादियोंके बयानों पर चुप्पी साधने के लिए भी नरेन्द्र मोदी की कटु आलोचना की। उनकी अलोचना के बाद निरुत्तर भाजपा प्रवक्ताओं ने इसे पद न मिलने के कारण कुंठित नेता का बयान तक कह डाला।

       सुब्रम्यम स्वामी तो राजनेताओं की कमजोर नस दबाने में माहिर रहे हैं और स्वयं को सर्वज्ञ मानते हुए पार्टी अनुशासन से निरपेक्ष रह कर हर महत्वपूर्ण बात में अपनी दखलन्दाजी करते रहते हैं। जब मोदी फ्रांस के दौरे पर थे और राफेल विमानों की खरीद पर बात कर रहे थे तब ही उन्होंने राफेल विमानों की निरर्थकता बताते हुए इस सौदे को सन्देह के घेरे में ला दिया। वे जानते हैं कि मोदी आसाराम बापू से नाराज हैं और भाजपा के बहुत सारे उपकृत नेता उनके साथ होते हुए भी वे मोदी की नाराजी के कारण ही आज जेल में हैं, पर फिर भी उन्होंने आसाराम का केस लड़ने की घोषणा करते हुए मोदी के खिलाफ परोक्ष सन्देश दे दिया। पुराने भाजपा नेता उनके ऐसे ही गुणों के कारण उनको भाजपा में प्रवेश नहीं दे रहे थे पर विरोधियों के खिलाफ उनकी मुखरता का लाभ लेने के लालच में मोदी ने उन्हें प्रवेश दिला दिया था। इसका नुकसान उन्हें उठाना ही पड़ेगा क्योंकि वे जो कुछ भी कहते हैं उसका कोई वैधानिक आधार तो होता ही है। जयललिता के केस में भी वे ही फरियादी हैं और एआईडीएमके के रिश्ते भाजपा से सुधरने न सुधरने में श्री स्वामी के व्यवहार की बड़ी भूमिका हो सकती है। अब न तो संजय जोशी की तरह उन्हें पार्टी से बाहर किया जा सकता है और न ही चुप किया जा सकता है।  

       पिछले दिनों मोदी के प्रवक्ताओं ने एक साल की सबसे बड़ी उपलब्धि भ्रष्टाचार का कोई बड़ा स्केंडल सामने न आना बताया था पर उक्त थिंक टैंकों के बयानों से यह भी प्रकट हो जाता है कि होना और प्रकाश में न आ पाना दो अलग अलग चीजें हैं। लोकायुक्त, चीफ विजीलेंस आफीसर, वरिष्ठ न्यायाधीशों आदि की नियुक्ति के बिना किसी स्केन्डल के होने या न होने का पता कैसे चलेगा। काले धन के बारे में जेठमलानी, और राफेल सौदे के बारे में सुब्रम्यम स्वामी जो कुछ कह रहे हैं उससे कई सवाल तो खड़े होते ही हैं। भक्तों, प्रवक्ताओं, की बातों का तो कोई भरोसा नहीं करता किंतु थिंक टैंकों की आलोचना नींव का खोखलापन बताती है। इसे सुधारने के लिए जनसम्पर्क विभागों द्वारा पानी की तरह पैसा बहा कर के भी विश्वसनीयता नहीं बन पाती है।

वीरेन्द्र जैन                                                                          

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बुधवार, मई 13, 2015

मोदी पार्टी में टूटती चुप्पियां



मोदी पार्टी में टूटती चुप्पियां

वीरेन्द्र जैन
2013 के पहले छह महीने तक दुनिया में किसी को यह भरोसा नहीं था कि श्री नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं और उस कुर्सी के अधिकारी बन सकते हैं जिस को कभी जवाहरलाल नेहरू जैसे  वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न धर्मनिर्पेक्ष स्वतंत्रता सेनानी ने सुशोभित किया था। इस अविश्वास के अनेक कारण थे। 2002 में गुजरात में हुये मुसलमानों के नरसंहार के बाद मोदी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित तो हो गये थे किंतु वह चर्चा अच्छे अर्थों में नहीं होती थी। कोई नहीं सोचता था कि भारत में गठबन्धन सरकार की जगह एक पार्टी की सरकार का युग लौट सकेगा और एनडीए के सहयोगी दल मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में स्वीकार कर लेंगे। भाजपा में भी गुजरात के बाहर उनके समर्थक नहीं के बराबर थे और अनेक लोगों की यह धारणा थी कि 2004 का लोकसभा चुनाव एनडीए मोदीजी के कारनामों के कारण ही हारी थी। जिन नीतियों के कारण राम विलास पासवान की लोजपा, बंगाल की तृणमूल काँग्रेस कश्मीर की नैशनल कांफ्रेंस, आदि ने एनडीए से समर्थन वापिस लिया था, तथा तेलगुदेशम ने बाहर से समर्थन देकर भी एनडीए सरकार में शामिल होने से साफ इंकार कर दिया था व बालयोगी के असमय निधन के बाद लोकसभा के स्पीकर का पद भी नहीं स्वीकारा था, वे नीतियां ही मोदी की भी पहचान बनाती थीं। अमेरिका और ब्रिट्रेन जैसे देशों ने उन्हें वीसा देने से इंकार कर दिया था और मीडिया में कार्टूनिस्ट उनका कैरीकैचर बनाते समय उनके हाथ में खड़ग और कसाइयों जैसी लुंगी पहिने हुए दिखाते थे। यही कारण था कि गठबन्धन सरकारों को देश की नियति मान चुके लोगों को लगता था कि आवश्यकता पड़ने पर मोदी के नाम पर कोई दूसरा दल समर्थन नहीं देगा।
       बाद में अचानक ही कुछ ऐसा हुआ कि अज्ञात कारणों से संघ ने तय कर लिया कि वह स्वाभाविक, वरिष्ठ, स्वस्थ, और सुयोग्य नेता लाल कृष्ण अडवाणी को फिर से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नहीं बनायेगी और विकल्प के रूप में उनके द्वारा सुझाये गये व बाल ठाकरे द्वारा समर्थित सुषमा स्वराज के नाम पर भी विचार नहीं करेगी। ऐसे फैसले से भाजपा में काँग्रेस जैसा संकट पैदा हो गया जहाँ गाँधी-नेहरू परिवार का नेतृत्व न मिलने पर ढेर सारे नेता सर्वोच्च पद प्राप्त करने के लिए आपस में ही लड़ने लगते हैं। अडवाणी के बाद भाजपा के पास ऐसा कोई सर्वमान्य नेता नहीं था जिसे सहजता से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाया जा सकता हो, इसका परिणाम यह हुआ कि अपनी बदनामी के कारण सर्वाधिक चर्चित नेता को ही यह पद सौंपना पड़ा क्योंकि मोदी से उपकृत उद्योग जगत पहले से ही अपना समर्थन उन्हें दे चुका था। मोदी के नाम की सम्भावना सूंघ कर ही जेडी-यू ने गठबन्धन तोड़ दिया था और बीजू जनता दल, तृणमूल काँग्रेस, डीएमके, एआईडीएमके आदि ने गठबन्धन से साफ इंकर कर दिया था। पहले भाजपा में कई कोनों से मोदी के नाम का मुखर विरोध हो रहा था, अडवाणी ने स्तीफा लिख भेजा था और मुम्बई से सुषमा स्वराज के साथ बिना भाषण दिये ही लौट आये थे। अपनी मुखरता के लिए चर्चित शत्रुघ्न सिन्हा उनके नाम का खुला विरोध कर रहे थे। जहाँ जहाँ भाजपा की सरकारें थीं उनमें गुजरात को छोड़ कर सभी सरकारों के प्रमुख अडवाणी के पक्षधर थे। शिवसेना बाल ठाकरे के बयान से बँधी थी। नितिन गडकरी मोदी के विरोध के कारण ही संघ के समर्थन के बाबजूद दुबारा से अध्यक्ष नहीं बन सके थे। वैंक्य्या नायडू तो खुद को अडवाणी का हनुमान बताते हुए कभी अटलजी को भी नाराज कर चुके थे। शांता कुमार मोदी के विरोधी थे। अरुण जैटली कह रहे थे कि भाजपा में दस से अधिक लोग प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं।
       पता नहीं कि फिर ऐसा क्या हुआ कि संघ ने संजय जोशी जैसे संघ के प्रमुख प्रचारक को बाहर करने की मोदी की माँग के आगे घुटने टेक दिये, गडकरी मामले में हुयी अपनी अवमानना को भुला दिया और मोदी को पहले चुनाव प्रभारी घोषित करने के बाद प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने भाजपा के प्रत्येक नेता को पूरी तरह मुँह सिलने और श्रीमती इन्दिरा गाँधी की तरह पार्टी का इकलौता नेता मानने का फरमान जारी कर दिया। मोदी को प्रत्याशी चयन के लिए फ्री हैंड दे दिया गया तो अपने पिछले बयान के दो दिन बाद ही जैटली कहने लगे थे कि हिट विकेट हो जाने से पहले ही भाजपा को तुरंत ही नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर देना चाहिए। मोदी, अमित शाह ग्रुप के कुशल प्रबन्धन और कार्पोरेट प्रदत्त संसाधनों के साथ भाजपा के लोगों के निर्विरोध समर्थन ने मोदी को इकतीस प्रतिशत मतों में ही स्पष्ट बहुमत दिला दिया तो मोदी ने पार्टी के अध्यक्ष पद पर भी उनके पैर छूने वाले अमित शाह के नाम से अधिकार कर लिया। यह तय है कि यदि भाजपा में अध्यक्ष पद के लिए स्वतंत्र चुनाव हुये होते तो अमित शाह को सबसे कम वोट मिले होते। चुनावी रणनीति के अन्तर्गत पार्टी में जो चुप्पी ओढ ली गयी थी वह अनुमान से भी अधिक विजय मिलने के बाद सन्नाटे में बदल गयी।
चुनावों के बाद जो सबसे बड़ा विपक्षी दल था वह इतनी सीटें भी नहीं जीत सका था कि उसे विपक्षी दल का दर्जा भी मिल सके भले ही गैर भाजपा दलों को उनहत्तर प्रतिशत मत मिले हों, पर वे राज्यवार क्षेत्रवार और आपस के प्रतिद्वन्दी थे। चुनाव परिणामों के विश्लेषण में यह निष्कर्ष सही था कि विपक्ष में कोई भी ऐसा नहीं है जो मोदी जनता पार्टी में बदल चुकी भाजपा को सदन में चुनौती दे सके। विश्लेषक एक मत थे कि भाजपा के पतन की कहानी अगर लिखी जायेगी तो वह उसके अन्दर से फूटे विरोध से ही लिखी जायेगी क्योंकि उनकी चुनावी एकजुटता में एक विरोध छुपा हुआ था जिसका दमन कर दिया गया है। पिछले दिनों संकेत मिल रहे हैं कि दमित लोग सिर उठाने की कोशिशें करने लगे हैं। अगर किसी वस्तु का आयतन गुब्बारे जैसा हो तो उसमें एक छेद ही हवा निकाल देने के लिए काफी होता है।
पिछले दिनों मोदी सरकार के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और संघ परिवार के नेताओं ने मोदी की सफाई, स्पष्टीकरण, और संकेतों के बाद भी एक के बाद दूसरे विवादास्पद बयान दिये उससे साफ हो गया था कि वे अपने स्वभाव के विपरीत आगे और घुटन सहन नहीं कर सकेंगे। शत्रुघ्न सिन्हा ने पटना क्षेत्र से सांसद होते हुए भी वहाँ के गाँधी मैदान में हुयी चुनाव की पूर्व पीठिका तैयार करने वाली रैली में भाग लेना जरूरी नहीं समझा और प्रैस से साफ साफ कहा कि पार्टी ने मुझे किसी जिम्मेवारी के लायक नहीं समझा। यह कहने वाले वे अकेले नजर आ रहे हों पर ऐसा सोचने वाले अनेक हैं। ज्यादातर सांसदों को शिकायत है कि उनकी सांसद निधि तक को एक गाँव तक सीमित करके उनके विवेक और जनसम्पर्क के इस साधन को सीमित किया गया है। मंत्रियों को स्वतंत्रता नहीं है जिसे सीमित करने के लिए मोदी ने शपथ ग्रहण के बाद पहला काम यही किया था कि सभी विभाग के सचिवों की बैठक बुला कर उन्हें उनसे सीधे सम्पर्क के लिए प्रोत्साहित किया था जो अब मंत्रियों को महत्व नहीं देते। परोक्ष धमकी देते हुए उन्होंने पिछले दिनों चेताया भी था कि उनका निजी सूचनातंत्र सरकारी सूचना तंत्र से भी अच्छा है। राजनाथ सिंह वाले प्रकरण के बाद से तो सभी मंत्री सतर्क हैं और जावेडकर जैसे मंत्री जींस पहिने हुए नजर नहीं आते। महिला मंत्रियों में केवल स्मृति ईरानी ही सदन में बोलती नजर आती हैं। सुषमा, उमा, निरंजन ज्योति  आदि चुप नहीं मौन साधे बैठी हैं। वी के सिंह दबाते दबाते भी बोल जाते हैं कि आर्म्स लाबी का दबाव काम कर रहा है जिसके इशारे पर उन्हें निशाना बनाया जा रहा है जिस कारण उन्हें प्रैस को प्रैस्टीट्यूट कहना पड़ा था जबकि भाजपा प्रैस के साथ सबसे मधुर रिश्ते बनाने के लिए मशहूर है और कभी उसे नहीं छेड़ती।
       भाजपा को दो सदस्य से दो सौ तक पहुँचाने की नीति बनाने वाले गोबिन्दाचार्य तो एकता परिषद के साथ मिल कर साफ साफ कह रहे हैं कि जमीन अधिग्रहण कानून लूट कानून है। वे अन्ना हजारे के साथ आन्दोलन में भाग ले रहे हैं जबकि मध्य प्रदेश भाजपा का मुखपत्र चरैवेति अन्ना को विदेशी एजेंट बताते हुए उन्हें देश के विकास में बाधा डालने वाले एनजीओ समूहों का मुखौटा बताता है। भाजपा के किसान और मजदूर संगठन बामपंथियों की भाषा बोल रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमण्डल में विनिवेश मंत्री जैसा दुनिया का इकलौता पद सुशोभित करने वाले पत्रकार राजनेता अरुण शौरी ने तो भाजपा के हजारों नेताओं की दबी आवाज को वाणी ही दे दी है कि पार्टी को मोदी शाह और जैटली की तिकड़ी चला रही है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा की करारी पराजय के पीछे किरन बेदी को थोपने का बदला पुराने भाजपाइयों ने गुपचुप ढंग से लिया और अब वे ही लोग आप पार्टी के मंत्रियों के वे मुद्दे उठा रहे हैं जिनकी प्रतिक्रिया में मोदी के प्रिय लोग भी घेरे में आ सकते हैं। यह बात भी अब भाजपा के नेता भी पूछने लगे हैं कि क्यों अब तक लोकपाल में नियुक्तियां नहीं हो सकीं जबकि पूरा चुनाव भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर लड़ा गया था। तीन सदस्यीय चुनाव आयोग में दो पद खाली पड़े हैं। केन्द्रीय सतर्कता आयोग का काम नियुक्ति की उम्मीद में खाली पड़ा है जिसका असर सीबीआई की नियुक्तियों पर पड़ रहा है क्योंकि सतर्कता आयोग की सिफारिश के बाद ही सीबीआई में नियुक्तियां होती हैं। इसी तरह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन की प्रतीक्षा में न्यायाधीशों के सैकड़ों पद रिक्त पड़े हैं। यही हाल राज्यपालों की नियुक्तियों का भी है। संगठन में कार्यकारिणी की बैठक ही नहीं हो रही है।
       भाजपा की सबसे बड़ी ताकत मोदी को पार्टी का अन्ध समर्थन मिलता हुआ दिखाई देना था। अब यह समर्थन बिखरता दिखाई दे रहा है। उनके मुखर प्रवक्ता भी टीवी की बहसों में दाँएं बाँएं करते दिखाई देते है क्योंकि उनके पास भी कोई जबाब नहीं होता। उनका निरुत्तर हो जाना बड़े सवाल छोड़ जाता है जो सबकी समझ में आते हैं।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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