मंगलवार, अप्रैल 26, 2011

क्या देश के 'अमर सिंह' भारतीय विक्कीलीक्स' बनना पसन्द करेंगे?



क्या देश के ‘अमर सिंह’ ‘भारतीय विकीलीक्स’ बनना पसन्द करेंगे
वीरेन्द्र जैन
जब भ्रष्टाचार से त्रस्त देश अन्ना हजारे के नेतृत्व में प्रकाश की एक क्षीण सी किरण देख रहा था और अपने गिने चुने सहयोगियों के सहारे सत्तारूढों को नये लोकपाल विधेयक पर सरकार को झुकी हुयी दिखने में कामयाब हो चुके थे उसी समय यथास्तिथि से लाभांवित लोगों द्वारा उनके सहयोगियों पर तरह तरह के मामलों पर हमले शुरू कर दिये गये। इन हमलों में सबसे प्रभावी हमला अमर सिंह की ओर से किया गया जिन्होंने न केवल शांतिभूषण की बातचीत की एक सीडी ही पेश की अपितु नोइडा में बेहद कीमती प्लाट्स के एलाटमेंट में उनके प्रति किये गये पक्षपात का आरोप लगाते हुए उसे अवैध सौदा बतलाया।
अमर सिंह की छवि एक कूटनीतिज्ञ की छवि है जो किसी को सत्ता दिलाने या सत्ता से हटाने, सत्तारूढों को कारपोरेट जगत से जोड़ने और इस जोड़ से दोनों ही पक्षों को लाभान्वित होने का अवसर दिलाने, दलबदल कराने या रोकने, किसी के पक्ष में न्याय कराने के लिए यथासम्भव व्यवस्थाएं कराने आदि के रूप में पहचानी जाती है। वे वाक्पटु हैं और तीखा कटाक्ष करते हैं। उनकी प्रत्युन्मति विलक्षण है। उन्होंने अपनी इन्हीं क्षमताओं से न केवल मुलायम सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री ही बनवाया अपितु अल्पमत में आने के बाद भी बनाये भी रखा था। उन्होंने ही एक समय विदेशीमहिला का नारा गढ कर श्रीमती सोनिया गान्धी को प्रधानमंत्री के रूप में चुने जाने के लिए बहुमत नहीं बनने दिया था और उनकी पार्टी से बिना पूछे हुये ज्योति बसु का नाम उछाल दिया था। बाद में उन्होंने ही मुलायम सिंह से मनमोहन सिंह सरकार को समर्थन दिलवाया और परमाणु विधेयक पर बामपंथियों द्वारा यूपीए की गठबन्धन सरकार से समर्थन वापिसी की घोषणा से उत्पन्न संकट के समय समाजवादी पार्टी को यू टर्न दिलाकर सरकार बचा दी थी जिसके बदले में वे मुलायम सिंह को गृह मंत्री बनवाना चाहते थे, पर काम निकलने के बाद उनके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया। इसी दौरान भाजपा के कुछ संसद सदस्यों ने सदन के पटल पर एक करोड़ रुपये पटक कर उन्हें दलबदल के लिए अमर सिंह द्वारा दी गयी राशि बतलाया था।
पहले कांग्रेस और बाद में समाजवादी पार्टी से होते हुए अब अपनी अलग पार्टी बनाने वाले जनाधारहीन अमर सिंह ने राजनीति में कभी भी विचार सिद्धांत या शुचिता को महत्व नहीं दिया। वे सब कुछ किसी व्यापारिक सौदों की तरह निबटाते रहे। समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद सोनिया गान्धी और राहुल की प्रशस्ति गाकर कांग्रेस का दरवाजा खटखटाने वाले, अचानक ठाकुर होकर पूर्वांचल राग छेड़ देने वाले, व कभी भाजपा को पानी पी पी के कोसने वाले अमर सिंह अब कहने लगे हैं कि उन्हें भाजपा से भी गुरेज नहीं है। कभी कोई आम चुनाव नहीं जीत पाने वाले अमर सिंह शिखर की राजनीति पर बड़े बड़े चुने हुओं को नचाने की क्षमता रखते हैं, और बहुत सारे तो उन्हीं के दिये पैसे से चुनाव जीतते रहे हैं। पिछले कई महीनों से वे मुलायम सिंह के राज खोल देने की धमकियां दे कर उन्हें समझौते की मेज पर बुलावा भेजते रहे हैं। इस समय उन्हें राज्यसभा में पुनर्निर्वाचन की व्यवस्था जमानी है जिसके लिए वे भाजपा समेत किसी भी सक्षम दल को मदद करने के लिए उतावले बैठे हैं।
भारत की समकालीन राजनीति में ऐसे वे अकेले नहीं हैं अपितु कई छोटे मोटे अन्य अमर सिंह भी पड़े हैं, जो राज नेताओं के बीच फैले भयानक भ्रष्टाचार से परिचित हैं और अपने स्वार्थ में उक्त भ्रष्टाचार की जानकारी को छुपाये रख कर अपने हित साधते रहते हैं या कोई और लक्ष्य पाना चाहते हैं। विचारों और सिद्धांतों से विहीन राजनीति में सांसद और विधायक बनने के लिए करोड़पतियों में जो अन्धी लालसा देखी जा रही है उसके पीछे अपनी कमाई हुयी अवैध दौलत की सुरक्षा और सत्ता के सहारे सरकारी सुरक्षा में लूट के अवसर तलाशने के लक्ष्य रहते हैं। बहुत सारे ऐसे लोग इसमें सफल भी हो चुके हैं। सरकारी जमीनों, बंगलों, औद्योगिक क्षेत्रों करोड़ों की वस्तु कोड़ियों में हथियाने अपनी संतति और रिश्तेदारों को प्रशासनिक मशीनरी में फिट कराने, लाइसेंस कोटा आदि को नियम विरुद्ध हस्तगत करने तथा स्थापित धन्धों में श्रम, राजस्व आदि कानूनों की अवहेलना करने के लिए ही ऐसे लोग राजनीति में आते हैं, सत्तामुखी दलों की सदस्यता लेते हैं और मंत्री सांसद विधायक अदि बनना चाहते हैं। इन सारे कामों के लिए जो विचलन करने होते हैं वे अकेले नहीं किये जा सकते इसलिए उनके निकट के लोग राजदार हो जाते हैं। ‘अमर सिंह’ ऐसे अवसरों को भुनाने वाले कुशल कारीगर होते हैं जो इस बात से भी प्रकट है कि उक्त ठाकुर अमर सिंह ने शांतिभूषण-प्रशांतभूषण वाले कथित सौदे की सीडी बना कर रखी हुयी थी। सीडी के असली नकली होने का फैसला तो होता रहेगा किंतु यह बात तो तय हो चुकी है कि अमर सिंह जैसे लोग इस तरह के कामों के रिकार्ड भी रखते हैं ताकि वक्त जरूरत काम आये। यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यालय में काम करने वाली लड़की मोनिका ने उनके साथ अपने अंतरंग सम्बन्धों में गन्दी हुयी चड्ढी भी प्रमाण के लिए सम्हाल कर रखी हुयी थी।
आज सारी दुनिया विक्कीलीक्स के खुलासों के द्वारा अज्ञात सूचनाओं, आशंकाओं, अफवाहों आदि के पुख्ता प्रमाण प्राप्त कर रही है तब इस बात की उम्मीद करने में क्या बुराई है कि हमारे देश के राजनीति में चुक चुके ‘अमर सिंह’ जो प्रत्येक बड़ी पार्टी और बड़े नेता के आसपास रह रहे होंगे वे भारतीय राजनीति की विक्कीलीक्स प्रारम्भ कर दें। हमारे देश में भी 1957 में केरल की पहली गैरकांग्रेसी सरकार गिराने से लेकर दलबदल कराने, राजनीतिक हितों के लिए साम्प्रदायिक दंगे कराने, विधायकों को कैद करके उन्हें पर्यटन कराने, अविश्वास प्रस्ताव पर विश्वास प्राप्त करने आदि की हजारों शर्मनाक और आँखें खोल देने वाली गाथाएं दबी पड़ी हैं। इलेक्ट्रोनिक संसाधनों के विकास के बाद न जाने ऐसे कितने प्रमाण कितने अमर सिंहों के पास दबे पड़े होंगे या स्मृतियों में होंगे। जब भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आवाहन पर जनता ने अपना समर्थन दे अपनी पसन्दगी जाहिर कर दी है तब अपनी अपनी किडनियां खो चुके इन सारे अमर सिंहों को अपनी अपनी विक्कीलीक्स एक साथ खोल देना चाहिए ताकि यह देश देख सके कि हमारे कर्णधारों में कौन कौन किस किस गड्ढे में पड़ा हुआ है। अगर वे इस उचित समय पर ऐसा नहीं करेंगे तो बहुत सम्भव है कि कल के दिन कोई जाँच एजेंसी नार्को टेस्ट के द्वारा इनका खुलासा करवाये। यह नहीं भूलना चाहिए कि परमाणु विधेयक पर आये विश्वास के संकट के समय जब भाजपा सांसदों ने एक करोड़ रुपये संसद के पटल पर रखे थे तब तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री श्री लालू प्रसाद यादव ने सच्चाई जानने के लिए उनके नार्को टेस्ट का सुझाव दिया था।
जनता की बेहद माँग पर केन्द्र के उन केबिनेट मंत्री के सुझाव को मानने का अवसर भी आ सकता है।



वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

गुरुवार, अप्रैल 21, 2011

गलत समय पर सिविल सोसाइटी के सदस्यों का विरोध


गलत समय पर सिविल सोसाइटी के सदस्यों का विरोध
वीरेन्द्र जैन
जब गाँव में आग लग गयी हो तब यह आग बुझाने वाले लोगों के नैतिक आचरण पर विचार विमर्श करने का सही अवसर नहीं होता। यह काम आग बुझने के बाद भले ही किया जा सकता हो।
जब अन्ना हजारे ने आमरण अनशन करके लाखों लोगों को भ्रष्टाचार के विरोध में एकजुट करके गत साठ सालों से लम्बित लोकपाल विधेयक को तयशुदा अवधि में पास कराने का आश्वासन सरकार से प्राप्त कर लिया हो तब ऐसे में इस विधेयक को तैयार करने के लिए नामित सिविल सोसाइटी के सदस्यों पर आरोप लगाने का सही समय नहीं है। इस समय ऐसा करने वाले स्वयं ही सन्देह के घेरे में आने लगते हैं। इस समय प्रश्न किसी आरोप के सही या गलत होने का नहीं है, अपितु आरोप लगाने के समय का है। जिन लोगों को पूर्व में ही उन आरोपों की जानकारी थी तो उन्होंने उसी समय कानूनी कार्यवाही के लिए सम्बन्धित विभाग को सूचित न करके स्वयं भी नागरिक कर्तव्यों का पालन न करने का दोषी बना लिया है।
सुप्रसिद्ध पूर्व न्यायाधीश शांति भूषण और एडवोकेट प्रशांत भूषण को लोकपाल बिल तैयार करने वाली समिति में सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि सदस्य के रूप में चयनित किया गया है। ये दोनों रिश्ते में पिता पुत्र भी हैं। इन दोनों को एक साथ लेने का सबसे पहला विरोध योग गुरु के रूप में लोकप्रिय हो गये बाबा रामदेव ने किया। उन्होंने इनके चयन का विरोध करने का कारण वंशवाद बताया। उनका यह आरोप भी अपने आप में हास्यास्पद था। वंशवाद तब होता है जब किसी को विरासत में अपने पूर्वज द्वारा खाली किये गये पद को स्वतः भरने का अवसर मिल जाये। यह आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़े, उद्देश्य के प्रति समर्पित और सम्बन्धित विषय के अधिकारी विद्वान दो लोगों का चयन है जो संयोगवश पिता-पुत्र भी हैं। जबकि दूसरी ओर अति महात्वाकांक्षी बाबाभेषधारी उद्योगपति रामदेव हैं, जिन्होंने बहुत ही कम समय में ग्यारह सौ करोड़ की दौलत बना ली है, जिसके स्रोत सार्वजनिक नहीं हैं। वे स्वयं को प्रत्येक मंच पर बैठे देखना चाहते हैं। यही कारण है कि वे अच्छे-खासे लोकप्रिय योगगुरू होने से संतुष्ट नहीं हैं और राजनीतिक सत्ता की ओर लालायित हैं। स्वयं को जेड श्रेणी सुरक्षा प्राप्त करने के लिए वे षड़यंत्र रचते हैं व कई पदासीनों पर आरोप लगा कर उनके नाम बताने से इंकार करने का ब्लेकमेलिंग जैसा काम करते रहते हैं। उक्त कानून विशेषज्ञों पर आरोप लगाने वाले दूसरे व्यक्ति अमर सिंह हैं। इन्होंने एक सीडी जारी करते हुए उन्हें चार करोड़ रुपयों की पेशकश किये जाने का आरोपी बताया गया है। इस बातचीत में दूसरी ओर से बात करने वाले बताये गये मुलायम सिंह ने भी इसके द्वारा उनको बदनाम करने के लिए रचा गया षडंयंत्र बताया है। स्वयं वकील पिता पुत्र ने सीडी को बनावटी बताया है। अमर सिंह को समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद वे मुलायम सिंह के जानी दुश्मन बने हुये हैं और उनके साथ किये गये ढेरों कूटनीतिक रहस्यों की दम पर उनको ब्लेकमेल कर समझौते के लिए विवश करने की लगातार कोशिशें करते रहे हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि केन्द्र के गठबन्धनों को समर्थन देने या वापिस लेने के नाम पर, या परमाणु समझौते के विधेयक पर अपनी पार्टी को अचानक यू टर्न दिला कर उन्होंने अनेक राज दबा रखे हैं जिनकी दम पर वे मुलायम सिंह को मिले जातिवादी समर्थन का सौदा करते रहे हैं। उनके पास अपना कोई जन समर्थन का क्षेत्र नहीं है और वे अपनी कुशल वाकपटुता और शातिर कूटनीतिक चालों से सत्ता के शिखर पर दखल देते रहे हैं, जो एक बुन्देली कहावत के अनुसार, ‘गाड़ी बैल पटेल के बन्दे की ललकार’, जैसा कुछ रहा है। अब उनके पास से गाड़ी बैल छीन लिये गये हैं और खाली खाली ललकार बौखलाहट में बदल गयी है। उनसे बेहतर सवाल तो उनके कट्टर प्रतिद्वन्दी दिग्विजय सिंह ने उठाया जिन्होंने पूरे अनशन आन्दोलन के दौरान किये गये खर्चे और उसके स्त्रोत को जानने की जिज्ञासा की जिससे आन्दोलन के गान्धीवादी होने के साथ यह भी पता लग सके कि इस गैरराजनीतिक बताये जा रहे आन्दोलन के पीछे कहीं किसी के राजनीतिक हित तो नहीं छुपे हैं। जैसे अभी पिछले दिनों ही यह तथ्य प्रकट हुआ था कि जनता से योग के प्रचार के नाम पर दौलत उगाहने वाले रामदेव के ट्रस्ट भाजपा को बड़ी बड़ी रकमें चन्दे में देते हैं। इससे रामदेव के गैरराजनीतिक होने का मुखौटा उतर गया था। शायद यही कारण था कि अन्ना के अनशन के दौरान समर्थकों ने रामदेव और सन्यासिन के चोले में रहने वाली उमाभारती को भी अनशन स्थल से खदेड़ दिया था। यद्यपि दिग्विजय सिंह के सवाल भी असमय उठाये गये सही सवाल हैं।
दरअसल उसकी जड़ों को समझे और उखाड़े बिना भ्रष्टाचार का विरोध एक अवधि की सनसनी से अधिक कुछ नहीं देने वाला। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सिविल सोसाइटी के सदस्य ही संसद में बैठे होते हैं बशर्ते कि सुशिक्षित, जागरूक और राजनीतिक रूप से सचेतन नागरिक एक दोषमुक्त प्रक्रिया से उन्हें चुनते हों। पर हमारी संसद व्यवहार में जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हमारी संसद का बड़ा हिस्सा चन्द बड़े भूस्वामियों, उद्योगपतियों के प्रतिनिधियों, और पुराने सामंतों के बचेखुचे प्रभाव से जनता को बहला, फुसला और डरा के बनता है और उन्हीं के हित साधने में लगा रहता है। हाल ही में हुये 2जी और विकीलीक्स के खुलासों से पता लगता है कि बड़े उद्योगपति किस तरह से मंत्रिमण्डल निर्माण को निर्देशित करते हैं और अमेरिका जैसा साम्राज्यवादी देश वित्तमंत्री की नियुक्ति पर सवाल पूछता है कि चुने गये वित्तमंत्री किस औद्योगिक घराने का प्रतिनिधित्व करते हैं! यही कारण है कि जब अन्ना हजारे एक चुनी हुयी संसद और सरकारों द्वारा चालीस साल तक जनहितकारी लोकपाल विधेयक को लटकाये जाने के खिलाफ तथाकथित सिविल सोसाइटी के सद्स्यों को विधेयक बनाने के लिए शामिल करने की माँग रखते हैं तो उन्हें जनविरोध की जगह जनसमर्थन मिलता है। यह इस बात का प्रमाण है कि लोग तीन सौ करोड़पतियों से भरी संसद को अपने अधिकारों को संरक्षित करने वाली और जनहितैषी संस्था स्वीकारने में संकोच करते हैं, और अन्ना हजारे जैसी पचास लाख का अनशन करने वाली नवगान्धीवादी गैरसंवैधानिक सत्ता में भरोसा करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक बड़े जागरूक और सक्रिय जनसमुदाय द्वारा समकालीन व्यवस्था में भरोसा खोने का संकेत भी है। शायद यही कारण है कि इस व्यवस्था में अनधिकृत रूप से फलफूल रहे लोग अन्ना को ‘ ए बुल इन द चायना शाप ‘ समझ रहे हैं, और बौखला रहे हैं।
अन्ना के इस आन्दोलन से सवालों के जबाब नहीं मिलने वाले किंतु इससे नये नये सवाल खड़े होंगे जो शायद समाज को हल पाने की दिशा में अग्रसर कर सकें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

सोमवार, अप्रैल 18, 2011

वासुदेव गोस्वामी- जन्म दिवस पर विशेष

जन्मदिवस [18 अप्रैल ] पर विशेष
वासुदेव गोस्वामी अपनी प्रत्युत्पन्नमति के लिए भी मशहूर थे
वीरेन्द्र जैन
हिन्दी की हास्य व्यंग्य कविता के लिए देश में जो नाम शिखर पर लिए जाते रहे हें उनमें वासुदेव गोस्वामी का नाम एकदम से ध्यान में नहीं आता किंतु वे उन नामों में से किसी से भी पीछे और कम प्रतिभाशाली नहीं थे। पर यह बाजार का युग है और अपना माल बेचने की कला माल की गुणवत्ता से अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। वे दतिया नामक एक छोटे से कस्बे में तब रहे जब संचार के साधनों के रूप में केवल डाक का साधन ही सुलभ था। इस लेख में मैं वासुदेवजी के पूरे लेखन पर चर्चा नहीं करने जा रहा हूँ क्योंकि एक तो मैं उसका अधिकारी विद्वान नहीं हूँ दूसरे उनके काव्य गुणों पर चर्चा के लिए एक लेख से काम नहीं चल सकता।
अपने लेखन के कक्ष में बैठ कर फुरसत में अच्छा व्यंग्य लेखन कर लेना एक बात है किंतु असल परीक्षा तो जीवन के सहज क्षणों में हास्य पैदा करने व उसमें व्यंग्य की मार कर सकने की क्षमता से होती है। वासुदेवजी उसमें निपुण थे। कुछ घटनाएं जो स्मृति में हैं वे यहाँ लिख रहा हूँ।
• एक समय दतिया में चोरियां बहुत होने लगी थीं जिससे पुलिस अधिकारियों की बहुत आलोचना होने लगी थी। इससे दुखी होकर जिले के पुलिस अधीक्षक ने पुलिस की गशत का गोपनीय निरीक्षण करने का फैसला लिया और एक रात वे औरत की पोषाक में जाँच के लिए निकल पड़े। पता नहीं कैसे एक पुलिस वाले ने उन्हें पहचान लिया और सैल्यूट भी ठोक दिया। यह खबर बहुत रूचि के साथ शहर भर की चर्चा में आ गयी। अगले ही दिन के अखबार में वासुदेवजी की कविता छपी-
पुलिस की गशत अब दी सी नजर आने लगी है
पुलिस में बहुत फुर्ती सी नजर आने लगी है
कि जब से एसपी जी औरतों के भेष में घूमे
मुझे अब हर हसीना एसपी सी नजर आने लगी है
• बजट आया तो उसमें कुछ नई वस्तुओं पर टैक्स लगाये गये थे व मनोरंजन पर कर बढा दिया गया था। वासुदेवजी ने अगले ही दिन लिखा-
मिस्सी है कर मुक्त किंतु मंजन पर कर है
सुरमा पर कुछ नहीं नेत्र अंजन पर कर है
खुशमिजाज होने से पहले सोच समझ लो
मनहूसियत मुआफ मनोरंजन पर कर है
• उन्हें नास्तिक नहीं कहा गया किंतु कतिपय धार्मिक रीति रिवाजों और विश्वासों पर चुटकियां लेने में उन्होंने सदैव ही कबीर से होड़ की। एक नागपंचमी वाले दिन बोले जानते हो नाग की पूजा क्यों की जाती है। जब मैंने नहीं में सिर हिलाया तो बोले, इसलिए क्योंकि जो गुण ईश्वर में माने गये हैं वे ही नाग में होते हैं। उनकी इस व्याख्या पर मेरा चेहरा जब और ज्यादा प्रश्नवाचक बन गया तो उन्होंने स्पष्ट किया- बिन पग चलै, सुनहि बिन काना, बिन कर कर्म करहि विधि नाना- ही तो ईश्वर के गुण हैं और यही गुण नाग में भी हैं इसीलिए उसकी पूजा की जाती है।
• शिवरात्रि को भक्त लोग भगवान शिव के विवाह की रात्रि के रूप में मनाते हैं। वासुदेवजी की पैनी निगाह इस विसंगति पर भी गयी कि दूसरे देवताओं की तो जन्म की तिथि मनायी जाती है पर शिवजी के विवाह को मनाया जाता है। उन्होंने लिखा-
अपने विवाह की मनाते सदा वर्षगांठ
हैं तो बूढे बाबा, पर बड़े आधुनिक हैं
• एक बार नगर के इकलौते सिनेमा हाल में 'बालक' नामक बच्चों की फिल्म लगी थी जो टैक्स फ्री होने के कारण बहुत भीड़ खींच रही थी। दर कम होने के कारण लोअर क्लास का र्दशक भी बालकनी में फिल्म देख रहा था। यह बात भी चर्चा का विषय बन गयी। अगले दिन ही वासुदेवजी की कविता अखबार में थी-
उसी दिवस को हो गया मुझको सच्चा इल्म
नगर सिनेमा में लगी जिस दिन बालक फिल्म
जिस दिन बालक फिल्म कहा पत्नी ने जाओ
अगली पंक्तियां मैं भूल रहा हूँ जिसमें आशय यह था कि मैं उसी दिन सिनेमा के टिकिट लेकर आया जो ऊँचे दर्जें के थे और मेंने उन्हें गर्व के साथ ये बात बतायी कि मैं तुम्हारे लिए बालकनी का टिकिट ले कर आया हूँ। इस पर वे बोलीं-
टिकिट कटाने का भी तुमको नहीं सलीका,
'बालक' का मंगवाया लाये 'बालकनी' का
• नगर में साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों को संरक्षण देने वाले एक सर्राफा व्यापारी श्री रामप्रसाद कटारे थे जो बेहद साहित्यिप्रेमी ही नहीं थे अपितु सभी तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करते थे। शाम को उनकी दुकान साहित्यकारों कलाकारों के क्लब में बदल जाती थी। एक दिन उन्होंने यों ही मजाक में पूछ लिया कि जो पुरूष पहिनते हैं उसे तो धोती कहते हैं और जो नारी पहनती है उसे साड़ी क्यों कहते हैं। थोड़ी ही देर में वासुदेव जी ने कटारे जी की शांका का समाधान करते हुये एक छन्द सुनाया-
कहा कटारे ने इससे दुविधा होती है
साड़ी क्यों कहलाती नारी की धोती है
मैंने कहा कि उस सब को साड़ी कहते हैं
दूध ढांकने की जिसमें क्षमता होती है
उल्लेखनीय है कि गर्म दूध को ठंडा करने पर उस पर जो मलाई पड़ जाती है बुन्देलखण्ड में उसे साड़ी पड़ना कहा जाता है।
• वासुदेवजी अपने किसी आपरेशन के लिए अस्पताल में गये। आपरेशन के लिए आपरेशन थियेटर में जाने वाले मरीज आमतौर पर ऐसे हो जाते हें जैसे किसी बधस्थल में जा रहे हों पर वासुदेवजी ने आपरेशन थियेटर में एनस्थीसिया दिये जाने से पहले डाक्टर से पूछा- डाक्टर साहब आपके इष्ट कौन हैं?
डाक्टर ने सोचा होगा शायद ये डर रहे हैं तो वह बोला चिंता न करें आप सब ठीक हो जायेगा
वे बोले वो तो हो जायेगा। पर शायद आपको अपने इष्ट का नाम पता नहीं है इसलिए मैं बताये देता हूं।
डाक्टर व्यवधान पर दुखी था पर उसने धैर्य रखा होगा।
वे बोले- आपके इष्ट हैं, नरसिंह भगवान
''कैसे?'' अब उसने सवाल किया
'' इसलिए क्योंकि वे भी चीरफाड़ करते थे और आप भी करते हैं। इसीलिए तो आपके अस्पताल को नरसिंग होम कहते हैं।''
अब माहौल हल्का था। और आपरेशन सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया।
• जब विन्ध्यप्रदेश की राजधानी रीवा हुआ करती थी तब वे वहाँ आडीटर जनरल जैसी किसी पोस्ट पर कार्यरत थे तथा उनके साहित्यिक मित्रों में विद्यानिवास मिश्र जैसे लोग हुआ करते थे। एक बार उन्होंने बताया कि रीवा में हम लोग एक दैनिक अखबार निकालते थे। मैं सचमुच दैनिक अखबार निकालने के नाम पर चौंक गया था तथा आशचर्य तब और भी बढ गया जब उन्होंने कहा कि वह चौबीस पेज का होता था और हस्त लिखित था। उन्होंने बतौर प्रमाण अखबार दिखाया और बताया कि वह केवल एक साल चला।
अखबार सचमुच हस्त लिखित था और चौबीस पेज का था पर उस पर लिखा हुआ था ''तीन सौ पैंसठ संयुक्तांक'' और उसकी केवल एक ही कापी होली के अवसर पर प्रकाशित की गयी थी जिसमें विद्यानिवास मिश्र से लेकर अनेक महत्वपूर्ण लोगों की रचनाएं थीं, समाचार थे और विज्ञापन भी थे।
• एक बार तो एक कवि सम्मेलन में अध्यक्षता डीआइजी से करायी गयी तथा पुलिस अधीक्षक समेत एक दो और कवि पुलिस अधिकारी मंच पर मौजूद थे तब उन्होंने जो कविता सुनायी उसका आाशय यह था कि जरूर किसी कवि पर कविता चुराने का शक है शायद इसीलिए ये इतने पुलिस अधिकारी यहाँ उपस्थित हैं।
• वे दोहावली को हाहावली कहते थे जिस पर उनका तर्क था कि दोहा माने 2 हा अर्थात हा हा इसलिए हाहावली। उनके इस सहज हास्य के पीछे जरूर कोई गहरा हाहाकार था तभी वे लिख सके हैं-
फूल चुनने को वाटिका में जाता कैसे
कांटोंसे खुद को बचाना नहीं आता है
माल में बनाता तो बनाता कैसे वासुदेव
सुमनों में सुई का चुभाना नहीं आता है
अब तक तो सुलझाई गुत्थियां ही अनकों मैंने
मुझको तो गांठ का लगाना नहीं आता है
भीतर से हिय हुलसाना ही सीखा सदा
ऊपर से माल पहिनाना नहीं आता है
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शुक्रवार, अप्रैल 15, 2011

कानून बना कर भ्रष्टाचार से मुक्ति का सपना


कानून बना कर भ्रष्टाचार से मुक्ति का सपना
वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों हम लोगों ने भ्रष्टाचार हटाने के लिए नया लोकपाल विधेयक लाने की माँग का समर्थन किया और इसके लिए देश की राजधानी के जंतर मंतर पर अन्ना हजारे के आमरण अनशन के प्रतीक के साथ जनमत संग्रह का काम भी किया। इस अभियान को भारी समर्थन मिला क्योंकि भ्रष्ट से भ्रष्ट व्यक्ति भी चाहता है कि उसे दूसरे के भ्रष्टाचार से मुक्ति मिले। यह जनमत संग्रह ईमेल, और एसएमएस के साथ देश के विभिन्न स्थानों पर निकाली गयी रैलियों और धरनों के द्वारा भी किया गया। उस दौरान मीडिया के पास सबसे अधिक सनसनीखेज समाचार यही था जिसे उसने अपनी टीआरपी को ध्यान में रखते हुए और अधिक सनसनी पूर्ण बना कर लोगों तक पहुँचाया जिससे ऐसा लगा कि पूरा देश एक साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है और मिश्र, ट्यूनीशिया, लीबिया, आदि देशों की तरह तख्तापलट करने वाला जनज्वार उमड़ पड़ा है। पाँच राज्यों में होने वाले चुनावों को दृष्टिगत रखते हुए केन्द्रीय सरकार ने नया लोकपाल विधेयक लाने और उसे तैयार करने के लिए बनी कमेटी में सिविल सोसाइटी के लोगों को सम्मलित करने की घोषणा करके यह भ्रम पैदा किया जैसे कि वे खुद भी भ्रष्टाचार को हटाना चाहते हैं और इसी लिए उन्होंने जनता की माँगें मान ली हैं। ऐसा लगा कि जैसे जनमत के आगे सरकार झुक गयी है। अपनी कूटनीति के अंतर्गत मुख्य विपक्ष ने भी आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा कर दी ताकि वह खुद के पाक साफ होने का भ्रम पैदा कर सके। दरअसल यह सब कुछ बच्चों को लालीपाप देकर बहलाने से अधिक कुछ भी नहीं है। इस पूरी कसरत में यह भी नहीं सोचा गया कि भ्रष्टाचार क्या है, कैसे हो रहा है, कौन कौन कर रहा है, कानून किस किस के समर्थन से बन पायेगा और उसे कौन लागू करेगा। यदि कानून बनाने वाले और उसका पालन सुनिश्चित करने वाले भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हैं और उन्हें चुनने वालों का बहुमत राजनीतिक चेतना से वंचित है तो इसी संसदीय व्यवस्था में ये परिवर्तन कैसे सम्भव है? उक्त आन्दोलन, चार दिन तक श्री अन्ना हजारे के नेतृत्व में चला, जो गान्धीवादी हैं और उन्होंने अपनी माँगें मनवाने के लिए गान्धीजी के अस्त्र अनशन का प्रयोग किया। इससे ऐसा लगा कि सरकार का हृदय द्रवित हो गया है और उसने अनचाहे ही अनशन की ताकत से दब कर उनकी माँगों को स्वीकार कर लिया है। यदि दोनों ही गठबन्धनों की सरकारें अनशन से प्रभावित होती होतीं तो उन्होंने इरोम शर्मीला की बात मान ली होती जो पिछले दस सालों से अनशन कर रही हैं।
जो लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं, वे यह मान कर चलते हैं कि भ्रष्टाचार इस हद तक फैल और बढ चुका है कि आम आदमी का जीवन दूभर हो गया है। ट्रांस्परेंसी इंटर्नैशनल के आंकड़े भी हमें दुनिया के कुछ प्रमुख भ्रष्ट देशों में सूची बद्ध करते हैं। जब सब कुछ इतना खुला खुला है तो सरकार और आन्दोलनकारी दोनों को ही यह पता होना चाहिए कि जो दल भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल विधेयक लाने को समर्थन देने का वादा कर रहे हैं उनके कौन कौन से सदस्य भ्रष्टाचार के घेरे में सन्दिग्ध हैं । क्या वे उक्त वादा करते समय अपने कुख्यात सदस्यों को उनके पदों से निलम्बित करने के लिए तैयार हैं? हिन्दी फीचर फिल्मों में ऐसा होता है कि जब हीरो भेष बदल कर खलनायक की पार्टी में गायक बन कर घुस जाता है तो सिनेमा हाल के दर्शक तो सारे के सारे उसे पहचान लेते हैं केवल खलनायक ही नहीं पहचान पाता। क्या यहाँ भी ऐसा ही चल रहा है? ऐसा कौन सा चुनाव क्षेत्र है जिसके मतदाता अपने नेताओं और अफसरों की सम्पत्ति के उफान से अनभिज्ञ हैं। जब सब भुगत रहे हैं तो सबको पता होगा कि किस काम का क्या रेट चल रहा है और इसके अनुपात में किस नेता और अफसर के पास कम से कम कितना भ्रष्ट धन है, पर आन्दोलनकारियों ने अपने समर्थकों से ऐसी किसी भी सूची को बनाने का आवाहन नहीं किया है। यदि घोषित तिथि को विधेयक लागू भी हो जाता है तो इतने भ्रष्टाचार के प्रकरण तैयार करने में कितने युग लगेंगे? नींबू पानी पी कर अनशन खत्म कर देने वाले दिन अन्ना हजारे ने अपने लाखों समर्थकों को प्रदेश, जिला, तहसील और ग्राम स्तर पर भ्रष्टाचार के प्रकरण तैयार करने के लिए क्यों नहीं कहा?
एक गाँव में भयंकर सूखा पढा तब उस गाँव के एक पुजारी ने आवाहन किया कि सारे गाँव के लोग एक खास दिन पास के जंगल में स्थित मन्दिर पर एकत्रित हों जहाँ बारिश के लिए भगवान से प्रार्थना की जायेगी। तय समय पर पूरे गाँव के लोग एकत्रित हो गये तब पुजारी ने गाँव वालों से पूछा कि उन्हें यह भरोसा तो है कि भगवान हमारी प्रार्थना सुन कर पानी बरसायेंगे। इस पर सारे गाँव वालों ने एक स्वर से सहमति दी। तब पुजारी ने पूछा कि तब आप लोगों में से छाता लेकर कौन आया है! उसके सवाल के जबाब में सारे सिर झुके रह गये।
मैंने कुछ ठेकेदारों और ट्रांस्पोर्ट आपरेटरों से, जिन्हें प्रतिदिन रिश्वत देनी पड़ती है, पूछा कि जब पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ इतना कोलाहल मचा हुआ था तब क्या किसी अधिकारी या निरीक्षक को रिश्वत लेने में संकोच करते हुए पाया। उल्लेखनीय है कि उनका उत्तर नकारात्मक था। उनका कहना था कि उनमें से कोई भी इस सब से बिल्कुल भी भयभीत नहीं था। उन्होंने यह भी जोड़ा कि जब कभी भी सीबीआई, विजीलेंस आदि छापों में कोई अफसर रंगे हाथ पकड़ा जाता है तो उसकी जगह पर आने वाला अफसर उसके दूसरे दिन से ही अपना हिस्सा माँगते हुये पिछले के बारे में कहता है कि उनका समन्वय ठीक नहीं था, अन्यथा यह कमीशन तो तय नियम के अनुसार है। जो दल अरबों रुपयों का चुनावी चन्दा कुख्यात भ्रष्ट लोगों से लेते हैं, जो नेता कई करोड़ खर्च करके चुनाव जीतते हैं, जो अफसर लाखों देकर कमाई वाली जगह ट्रांसफर कराते हैं, वे इस विधेयक को पास हो जाने देंगे यह मानना मूर्खों के स्वर्ग में रहना है। जब भ्रष्टाचार इतने व्यापक पैमाने पर फैला है और सरकार तथा विपक्ष दोनों ने ही विधेयक पास कराने के आश्वासन दिये हैं तब भी किसी एक भ्रष्ट व्यक्ति का भी ह्रदय अन्ना के आमरण अनशन से द्रवित नहीं हुआ, न किसी ने स्वयं का भ्रष्ट होना स्वीकारा और ना ही किसी ने अपनी अवैध अर्जित सम्पत्ति सरकार को सौंपने के लिए प्रस्तुत की। जिनका बनाया कानून इतने दिनों से भ्रष्ट व्यक्तियों की रक्षा कर रहा है, और उन्होंने स्वयं आगे बढ कर उसे बदलने की कोई कोशिश नहीं की, उन्हीं सन्दिग्ध लोगों से बिल पास कराने की उम्मीद हास्यास्पद है। वैसे गान्धी का एक तरीका कानून तोड़ने का भी था जिसे उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नाम दिया था।
नया कानून बनवाने वाले अन्ना हजारेजी, उसके बारे में क्या विचार है?


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

मंगलवार, अप्रैल 12, 2011

अन्ना के अनशन से क्या हासिल हुआ?


अन्ना के अनशन से क्या हासिल हुआ!
वीरेन्द्र जैन
किसी बड़े और चमत्कारी परिवर्तन की उम्मीद पाल बैठे कुछ निराश लोगों का विचार है कि चार दिन की अखबारी सुर्खियों और मीडिया की सनसनी के बाद अन्ना हजारे के अनशन से जन्मा ज्वार उतर गया है। आइ पी एल, आदर्श सोसाइटी, कामनवैल्थ घोटाला, टू जी घोटाला, इसरो घोटाला, आदि आदि सैकड़ों घोटालों की ओर केन्द्रित हो गया ध्यान अब फिर से वैसे ही आइ पी एल जनित सतही उत्तेजना की ओर केन्द्रित हो जायेगा जैसे कि क्रिकेट के वर्ल्ड कप की उत्पादित उत्तेजना के नशे में कई करोड़ मध्यमवर्गीय लोग भ्रष्टाचार को भूल गये थे। अनन्त कालों तक चलने वाली जाँचों की तरह जन लोकपाल विधेयक बनने की तारीखें थोड़ा थोड़ा करके आगे खिसकती रहेंगीं और फिर किसी छेददार गुब्बारे की तरह का एक रंग बिरंगा कानून आ जायेगा जिसमें कभी भी हवा नहीं भरी जा सकेगी। वैसे भी भले ही लोगों ने मीडिया के आक्रामक प्रचार के वशीभूत टीवी कैमरों के सामने आकर भीड़ जुटा ली हो और मोमबत्तियां जला ली हों, किंतु इस दौरान एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिला कि भ्रष्टाचारी डर गये हों और जहाँ भी रिश्वतखोरी और कमीशन चलता है वहाँ किसी ने इसे लेने में संकोच किया हो। कानून उन्हें पास करना है जिन के ऊपर सारे आरोप हैं। सवाल यह है कि आखिर कोई अपना सलीब खुद क्यों बनायेगा। सलीब तो वह उन लोगों का बनायेगा जो उसको सलीब पर चढाने का भोला सा सपना पाले हुये हैं। कभी नेहरूजी ने भी कहा था कि सारे भ्रष्टाचारियों को बिजली के खम्भे पर लटका कर फ़ाँसी दे देना चाहिए। पर हुआ यह कि-
उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ
हमें यकीन हमारा कसूर निकलेगा
निराशावादी मित्रों की ये आशंकाएं किसी हद तक सही हो सकती है किंतु ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि अन्ना हजारे के अनशन से बिल्कुल भी कुछ हासिल नहीं हुआ। वैसे तो उन्होंने स्वयं भी माना है कि यह शुरुआत है, अभियान आगे चलेगा। आइए देखें कि अन्ना के आन्दोलन के अदृष्य हासिल क्या हैं-
• इस अभियान के द्वारा हमें पता चला है कि देश की जनता का भरोसा राजनीतिक दलों की तुलना में स्वच्छ छवि वाले सादगी पसन्द समाज सेवियों में अधिक है, और उनकी आशाएं वहीं टिकी हैं। यह इस बात का भी प्रमाण है कि हमारे चुनावी राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता समाप्तप्रायः है तथा उनसे किसी बदलाव की कोई उम्मीद वे नहीं रखते।
• यदि आवाहन किसी सच्चे सुपात्र का हो तो देश की एक बड़ी आबादी को अभी भी गान्धीवादी तरीके में भरोसा है, पर ऐसे भरोसेमन्द सुपात्र लोग कितने बचे हैं!
• कई बड़े राजनीतिक दल इतने खोखले हैं कि वे इस आन्दोलन की ताकत को पहचान कर अपना राजनीतिक हित साधने के लिए उसके इर्दगिर्द जुटने लगे थे और आन्दोलन के समर्थकों व नेताओं द्वारा उनसे दूर रहने को कहने के बाद भी अपने किसी एजेंट के माध्यम से जुड़े रहना चाहते थे। जरा जरा सी बात पर उत्तेजित होकर पार्टी छोड़ देने, तोड़ देने के लिए जानी जाने वाली उमा भारती ने धरना स्थल से खदेड़े जाने के बाद भी अन्ना को पत्र लिख कर कहा कि वे फिर भी उनके साथ हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी से लेकर राज्य सरकारों के भ्रष्टतम मंत्री और नेता भी अन्ना को समर्थन देने के लिए विवश थे भले ही यदि यह विधेयक अमल में आ पाता है तो उनकी मुश्किलें बढ जाने वाली हैं और वे दिल से बिल्कुल भी नहीं चाहते कि यह विधेयक पास हो।
• इस आन्दोलन से देश में विपक्ष की भूमिका बदली हुयी नजर आती है। इस अनशन के दौरान भाजपा के गडकरी और संघ के मोहन भागवत को कई घंटों तक बाबा रामदेव से गोपनीय बात करने की जरूरत महसूस हुयी, जिससे आन्दोलन में रामदेव की हैसियत में कमी आयी। यही रामदेव पहले दो दिन तक धरना स्थल पर नजर नहीं आये। इससे आन्दोलन में उनकी भूमिका का पता चलता है। इसके बाद बाबा रामदेव ने कानूनी प्रारूप के लिए बनी समिति में उन्हें न लिये जाने पर किरन बेदी के नाम के बहाने आपत्ति उठाना शुरू कर दी।
• अन्ना एक धर्मनिरपेक्ष गान्धीवादी हैं। सामाजिक समस्याओं के बहाने साम्प्रदायिक राजनीति के लिए ज़मीन तैयार करने वाले लोगों को वे राजनीतिक लाभ नहीं उठाने देंगे और जब वे धर्म निरपेक्षता के ज्वलंत सवाल पर अपने विचार रखेंगे तब साम्प्रदायिक राजनीति अपने आप हाशिये पर चली जायेगी। ऐसे में तय है कि साम्प्रदायिक संगठन विधेयक में खामियां निकाल कर इसे पास होने में अड़चनें डालेंगे जैसे कि महिला आरक्षण विधेयक सबके मौखिक समर्थन के बाद भी अभी तक पास नहीं हो सका। इससे साम्प्रदायिक दलों के मुखौटे उतरेंगे।
• इस अनशन से मालूम चला है कि देश में कितने गैर सरकारी संगठन सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं और कितने कागजों पर काम कर रहे हैं। अगर वे सभी किसी मुद्दे पर एकजुट हो जायें तो कुछ हलचल पैदा कर सकते हैं, और सरकारों को जनहित में झुका सकते हैं।
• भले ही यह बिल उन्हीं जनप्रतिनिधियों के समर्थन से पास हो सकता है जिन पर सबसे अधिक आरोप हैं किंतु किसी भी दल का कोई भी व्यक्ति अब तक इसके खुले आम विरोध का साहस नहीं जुटा सका है। इससे उनके अपराध बोध का पता चलता है। रोचक यह भी है कि विधेयक को समर्थन की घोषणाओं के बाद भी किसी ने अपने दल के आरोपियों को दल से बाहर निकालने की प्रक्रिया शुरू नहीं की है। सारी जाँचें सरकारी स्तर पर चल रही हैं किंतु दलों के स्तर पर किसी ने भी जाँचें नहीं बैठायी हैं।
• इस अभियान में जहाँ संघ से सहानिभूति रखने वाले बाबा रामदेव भी सम्मलित हैं वहीं नक्सलवादियों से सहानिभूति रखने वाले स्वामी अग्निवेष भी सम्मलित हैं। यदि राजनीतिक दल बाद में विधेयक में किंतु परंतु लगा कर कन्नी काटते हैं तो परोक्ष में नक्सलवादियों को ही बल मिलने का खतरा सामने रहेगा।
कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि इस अभियान ने अचेत पड़े देश और निर्द्वन्द होकर चर रहे राजनेताओं, नौकरशाहों के बीच एक हलचल पैदा की है, और यह हलचल कुछ न कुछ तो शुरुआत करेगी। ये मोमबत्तियां ही मशालों को जलाने का साधन भी बन सकती हैं। दुष्यंत कुमार ने कभी कहा था- एक चिनगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तो इस दिये में तेल से भीगी हुयी बाती तो है

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

सोमवार, अप्रैल 11, 2011

श्रद्धांजलि ; शम्भू तिवारी

श्रद्धांजलि--ः शम्भू तिवारी
उनसे मतभेद रख कर भी मित्रता की जा सकती थी
वीरेन्द्र जैन
शम्भू तिवारी की म्रत्यु की खबर कितनी भयावह है ये वही समझ सकते हैं जो सामंती युग में जी रहे दतिया जैसे कस्बे में सोचने समझने और पढने लिखने के कारण किसी लोकतांत्रिक समाज में जीने की इच्छा रखते हैं। शम्भू तिवारी दतिया की सक्रिय राजनीति में ऐसा इकलौता नाम था जो अपनी राजनीतिक सक्रियता को एक वैचारिक आधार देता था और उस पर पूरी तार्किकता से बात करने में कभी पीछे नहीं रहता था। राजनीति में आने का चुनाव उनका अपना था। उनके पास न तो कोई वंश परंपरा थी और न ही कोई ऐसे संसाधन थे जिनकी दम पर या जिनकी रक्षा के लिए उन्हें राजनीति में आना पड़ता। शम्भू तिवारी ने नेतृत्व के गुण स्वयं विकसित किए थे और साधनों के बिना भी युवाओं की एक ऐसी टीम जोड़ी थी जो भारतीय राजनीति में केवल कम्युनिष्टों या समाजवादियों के पास ही पायी जाती रही थी। उनसे जुड़ी युवा शक्ति से चमत्कृत होकर कई संसाधनों वाले नेताओं ने उनको साथ लेने की कोशिश की किंतु वे कभी भी झुक कर समझौता करने के लिए तैयार नहीं हुये। उन्हें इमरजैंसी में जेल जाना पड़ा, किसी ग्राम में हुए किसी हत्याकांड के कारण फैले पुलिस के आतंक में जीता हुआ चुनाव हार जाना पड़ा। जीवन यापन के लिए नौकरी करनी पड़ी, पर शम्भू तिवारी को किसी ने टूटते हुए नहीं देखा। राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों को उन्होंने अपनी ताकत के आगे झुकाया और कई राजनीतिक दल बदले किंतु वे उन राजनीतिक दलों के गुलाम नहीं हुये। मेरे साथ उनके रिश्ते राजनीतिक विचार विमर्श के रिश्ते थे और किसी भी दल में रहते हुए उन्होंने कभी भी यह नहीं कहा कि वे उस दल के नीतियों को पसन्द करने के कारण उस दल में गये हैं। मुझे वे बताया करते थे कि दतिया जैसे क्षेत्र में अभी वैचारिक राजनीति सम्भव नहीं है और अपनी बात कहने व कुछ सार्थक करने के लिए यदि किसी मंच की तलाश है तो अपनी ताकत को किसी से जोड़ कर शेष राजनीतिक शत्रुओं को पराजित किया जा सकता है। इस मामले में उनकी समझ बहुत साफ थी। सामान्य तौर पर उनके आस पास रहने वालों में मैं कुछ इक्के दुक्के लोगों में से था जिनके साथ उनकी राजनीतिक विचारधारा पर लम्बी बात होती थी। उनसे मतभेद होते थे, गर्मा गरम बहसें होती थीं, पर वे कभी मन भेद में नहीं बदलती थीं। कभी कहीं किसी के साथ कोई ज्यादती होती थी तो वह बेझिझक शम्भू तिवारी का दरवाजा खटखटा सकता था। भले ही वह हर चुनाव में अपना वोट किसी पैसे वाले नेता को बेचता रहता हो, पर न्याय के लिए निःस्वार्थ मदद की उम्मीद उसे इसी दरवाजे पर रहती थी, जहाँ से उसे कभी निराशा हाथ नहीं लगती थी। यह इकलौता द्वार था जहाँ पर उसे लुटने का कोई डर नहीं होता था और ना ही दलाली का खतरा रहता था। जिन गुण्डों से लोग थर थर काँपते थे उनके घर के दरवाजे पर सही बात के लिए निर्भय होकर दस्तक देने का साहस इस इकलौते नेता में था। इस व्यक्ति का व्यक्तित्व बाहरी स्वरूप पर निर्भर नहीं था। उनके कपड़े सदा सादा रहते थे, उन्हें बड़ी गाड़ियों की दरकार नहीं थी। एसी का पास होते हुए भी स्लीपर क्लास में यात्रा कर सकते थे। उनसे ठंडी सड़क के फुटपाथ या फव्वारे पर बैठ कर देर रात तक राजनीति, समाज, दर्शन और साहित्य पर बातें होती रहीं हैं। नीरज और मुकुट बिहारी सरोज की कविताएं वे दिल की जिस गहराई के साथ सुनाते थे उससे उनकी संवेदनशीलता का पता चलता था। अपने साथ रहने वालों के साथ उन्होंने कभी भी उनकी आर्थिक हैसियत के आधार पर भेदभाव नहीं किया। वे न ऊंचे सरकारी पद से कभी प्रभावित हुए और ना ही नामी गिरामी नेता से अपनी बात साफ साफ कहने में उन्होंने कोई संकोच किया। वे न तो किसी पाखण्डी धर्मगुरु से प्रभावित होते थे और न ही किसी प्रसिद्ध धर्मस्थल से। सामाजिक रूढियां या परम्पराओं के प्रति उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था, पर वे किसी की भावनाओं को आहत नहीं करते थे। उनकी मित्रता में न कभी धर्म आढे आता था और न ही जाति। उनके मित्रों में जितने हिन्दू थे उतने ही मुसलमान। जितने ब्राम्हण थे उतनी ही दलित। जब वे विधायक थे तब उनके साथ सबसे अधिक समय रहने और साथ खाने पीने वाला व्यक्ति एक निर्धन दलित युवक ही था। यह अनुपात उनकी ओर से तब भी नहीं बदला जब उन्होंने किसी संकीर्ण सोच वाले राजनीतिक दल को भी उपकृत किया। दतिया की जन हितैषी माँगों के लिए सर्वाधिक जन आन्दोलन चलाने का इतिहास भी उन्हीं के साथ जुड़ा है।
वे यारों के यार थे और मित्रता में कुछ भी बलिदान करने की बादशाहत उनमें थी। हमारी परम्परा में भी दुनिया की सारी परम्पराओं की तरह स्वर्ग की कल्पनाएं मौजूद हैं जिसके आभास को दुनिया वाले कुछ रसायनों के सहारे पाने की कोशिश करते हैं। मध्यम वर्ग इसका आसान शिकार हो जाता है। जब कोई व्यक्ति विरोध से नहीं मरता तो उसे विकृतियों का शिकार बनाया जाता है। वे शिकार हो गये, पर जब तक जिये शान से जिये। वे न जिन्दगी में किसी से डरे और न ही मौत से डरे। दूसरे को तो डरपोक भी भयवश मार देते हैं किंतु अपने आपको मारने का काम कोई निर्भीक ही कर सकता है। उनकी अंतिम निडरता को भी सलाम।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, अप्रैल 08, 2011

आज के समय में विश्वसनीयता

आज के समय में विश्वसनीयता
वीरेन्द्र जैन
आज मेरे एक मित्र ने मुझे फोन करके बताया कि उन्होंने जब एक सुपरिचित भ्रष्ट व्यक्ति को अन्ना के समर्थन अनशन करते देखा तो आश्चर्य से पूछा- आप भी.......? उत्तर के लिए वे मुझे एकांत में ले गये और बोले कि तुम्हें पता है कि नवरात्रि को तो मैं वैसे ही प्रतिवर्ष पूरे नौ दिन उपवास करता हूं सो सोचा के एक पंथ दो काज हो जायेंगे इसलिए आगे बढ कर बैठ गया। इतना बताने के बाद उस मित्र ने मुझ से पूछा कि अनशन की यह तारीख तय करने में आयोजकों की दृष्टि भी कहीं नवरात्रि वाली तो नहीं थी!
उसकी बात का उत्तर तो मेरे पास नहीं था किंतु आज की पाखण्डी राजनीति ने लोगों को कितना शंकालु बना दिया है कि वे हर बात में सन्देह करने लगे हैं। और हों भी क्यों न, जब भाजपा नेताओं और अमेरिका के दूतावास के लोगों की बातचीत का जो खुलासा विक्कीलीक्स ने किया है उससे अगर लोग शंकालु होकर सारी आस्थाएं भुला दें तो क्या आश्चर्य है! आज अगर गान्धीजी भी होते तो उन को भी विश्वास का संकट झेलना पड़ता
वीरेन्द्र जैन
मो. 9425674629

बुधवार, अप्रैल 06, 2011

जनाकांक्षा का प्रतिनिधित्व किंतु जनयुद्ध की रणनीति नहीं


अन्ना हजारे का अनशन
जनाकांक्षा का प्रतिनिधित्व किंतु जनयुद्ध की रणनीति नहीं
वीरेन्द्र जैन
अन्ना हजारे ने अपने पूर्व घोषित निर्णय के अनुसार जन लोकपाल विधेयक लाने हेतु सरकार पर दबाव बनाने और जन समर्थन को जुटाने के लिए गत 5 अप्रैल से दिल्ली के जंतर मंतर पर आमरण अनशन शुरू कर दिया। उनके बैनरों पर लिख हुआ है- भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनयुद्ध- । अन्ना हजारे ने इससे पहले भी महाराष्ट्र राज्य में भ्रष्टाचार के विरोध में इस गान्धीवादी तरीके का सफल प्रयोग किया है और उस राज्य के कई मंत्रियों को उनके पद से हटने के लिए मजबूर किया है। श्री हजारे सत्ता की राजनीति नहीं करते और उनका साफ सुथरा जीवन इतिहास उनको गान्धीवाद का सच्चा प्रतिनिधि दर्शाता है। पता नहीं कि उनके अहिंसक आन्दोलन के बैनरों पर जनयुद्ध लिखवाने वाले कौन हैं और क्या चाहते हैं।
पिछले अभियानों के विपरीत, इस बार अन्ना हजारे का उक्त अनशन किसी व्यक्ति विशेष के भ्रष्टाचार या किसी काण्ड विशेष के खिलाफ नहीं है, अपितु यह अनशन भ्रष्टाचार के पहचाने गये आरोपियों को सजा सुनिश्चित करने के लिए है। उनकी माँगों के मुख्य बिन्दु हैं –
1- निर्वाचन आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन जो किसी भी मुकदमे की जाँच को एक साल में पूरी करके दो साल के अन्दर सम्बन्धित को जेल भेजना सुनिश्चित करे। इनके सदस्यों की नियुक्ति पारदर्शी तरीके से नागरिकों और संवैधानिक संस्थाओं द्वारा की जाये। वर्तमान की संस्थाएं जैसे सीवीसी, सीबीआई, भ्रष्टाचार निरोधक विभाग, आदि का विलय भी लोकपाल में कर दिया जाये।
2- अपराध सिद्ध होने पर सरकार को हुए घाटे को सम्बन्धित से वसूल किया जाये।
3- किसी सरकारी कार्यालय से अगर किसी नागरिक का काम तय समय सीमा में नहीं हो तो दोषी पर जुर्माना लगाया जाये जो पीड़ित को मुआवजे के रूप में मिले।
दरअसल अन्ना हजारे की ये माँगें ऐसी जरूर हैं जिनके पूरे होने की इच्छा आज देश के सभी नागरिकों के मन में है किंतु ये माँगें एक शुभेक्षा से अधिक कुछ भी सिद्ध नहीं होने जा रही हैं क्योंकि ये भ्रष्टाचार की जड़ पर कोई विचार नहीं करतीं अपितु हो चुके भ्रष्टाचार के पकड़ में आये अपराधियों को सजा दिलाने के लिए एक नया कानून और एक नयी संस्था के गठन से आगे नहीं जातीं। ऐसा लगता है कि वे मानते हैं कि जाँच एजेंसियों के काम करने के सुस्त तरीके और दण्ड प्रक्रिया की त्रुटियों के कारण भ्रष्टाचार हो रहा है, जबकि ऐसा नहीं है। उन्होंने महाराष्ट्र राज्य में कतिपय मंत्रियों को पद त्याग का जो दण्ड दिलवाया क्या उससे महाराष्ट्र में मंत्री स्तर का भ्रष्टाचार रुक गया? सूचनाएं बताती हैं कि उसके बाद भी भ्रष्टाचार यथावत रहा अपितु कई मामलों में तो और बढ गया। सीबीआई जैसी जाँच एजेंसी के बारे में भी आरोप लगता है कि वो केन्द्र सरकार के हाथ का खिलोना होकर रह गयी है। परमाणु विधेयक पास होने के दौरान सदन में जो नोटों के बण्डल दिखाये जाने की शर्मनाक घटना हुयी थी उसकी जाँच के लिए संसदीय जाँच समिति बनी थी जो किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकी थी।
किसी भी लोकतंत्र में कानून बनाने और उन कानूनों को पालन कराने के लिए सरकार के गठन का काम जनता से चुने हुए जनप्रतिनिधि करते हैं, और जब तक जनता सही और ईमानदार प्रतिनिधि चुनने के लिए सुशिक्षित, संकल्पित और सक्षम नहीं होती तब तक न तो सही कानून बन सकते हैं और ना ही उनको पालन कराने वाली संस्थाएं ही सही काम कर सकती हैं। अदालत में वकीलों के द्वारा प्रत्येक घटना की व्याख्या अपने मुवक्किल के हितानुसार की जा सकती है, और न्यायालय एक पसंदीदा बहस के पक्ष में फैसला सुना सकता है। सबूत तो सरकार की एजेंसियाँ ही जुटाती और प्रस्तुत करती हैं तथा गवाहों को किसी भी स्तर पर अपने बयानों से मुकरने की सुविधा उपलब्ध है। लाखों मुकदमों में गवाहों ने कहा होगा कि जो बयान पुलिस ने प्रस्तुत किया है वह उसने दिया ही नहीं या पुलिस ने उससे दबाव डालकर जबरदस्ती दिलवा दिया था। रोचक यह होता है कि गवाह की बात को स्वीकार करने वाली अदालतें सम्बन्धित पुलिस अधिकारी के खिलाफ कोई आदेश पारित नहीं करतीं जिसके द्वारा ऐसा गैर कानूनी काम अगर किया गया है तो एक गम्भीर अपराध है। पिछले दिनों एक सच्ची घटना पर बनी फिल्म का नाम अदालती व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य करने वाला था। फिल्म का नाम था- नो वन किल्लड् जेसिका। देश की राजधानी में सैकड़ों सम्भ्रांत लोगों के बीच एक काम करने वाली लड़की की हत्या हो जाती है। हत्यारे के प्रभाव के कारण उपस्थित सम्भ्रांत लोग गवाही नहीं देते और जिन साधरण लोगों ने दी होती है वे बदल जाते हैं, परिणामस्वरूप अदालत किसी को भी जिम्मेवार नहीं ठहरा पाती। इसलिए फिल्मकार उसका नाम देता है, नो वन किल्ल्ड जेसिका।
हमारी अदालतों में एक नहीं अपितु किसी को भी जिम्मेवार न ठहराने वाले हजारों फैसले प्रति माह होते हैं। गुजरात में सरे आम हजारों मुसलमानों का नरसंहार कर दिया गया किंतु अदालत से किसी को भी सजा नहीं मिल सकी। मध्य प्रदेश में टीवी कैमरों के सामने हुए सव्वरवाल हत्याकाण्ड के प्रकरण में मुकदमे को प्रदेश से बाहर ले जाकर भी न्याय नहीं हो सका क्योंकि प्रकरण को प्रस्तुत करने वाले सजा दिलाना ही नहीं चाहते थे। इसलिए सवाल एक नये कानून के बनने या नई जाँच एजेंसी खड़ी करने भर का नहीं है अपितु एक जन चेतना पैदा करने और उस चेतना के लोकतांत्रिक प्रभाव को सफल बनाने का भी है। अन्ना हजारे का उक्त अभियान उस दिशा में कुछ नहीं कर रहा। सत्त्ता और विपक्ष दोनों ही अपने चुनावी मुद्दे के रूप में एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते हैं किंतु सरकार बदलने के बाद नई सरकार पिछली सरकार के खिलाफ कुछ भी नहीं करती। पूर्व सता पक्ष जो अब विपक्ष में आ चुका होता है तत्कालीन सत्तापक्ष पर वैसे ही आरोप दुहराने लगता है। वे सत्ता में रहते हुए एक जैसे काम करते हैं। विपक्ष में बैठे हुए जो लोग भी अन्ना हजारे के पक्ष में दिखने की कोशिश कर रहे हैं वे भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए नहीं अपितु उसके नाम पर अपने लिए सत्ता का रास्ता सुगम करने के लिए ऐसा कर रहे हैं।
भ्रष्टाचार इस व्यवस्था का सहज उत्पादन है और जब तक व्यवस्था को आमूलचूल बदलने का अभियान नहीं छेड़ा जायेगा तब तक भ्रष्टाचार का कुछ नहीं बिगड़ने वाला।
अन्ना हजारे का यह अभियान भले ही वह लक्ष्य न प्राप्त कर सके जिसके लिए यह छेड़ा गया है किंतु व्यवस्था परिवर्तन के लिए होने वाले भावी आन्दोलन की पहली सीड़ी तो बन ही सकता है। इसकी असफलता यदि उत्साह को कम नहीं करे तो अगले अभियान का सूत्रपात करेगी। अभी यह जनयुद्ध नहीं है किंतु जनयुद्ध की शुरुआत ऐसे भी हो सकती है।




वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शनिवार, अप्रैल 02, 2011

मध्यप्रदेश की दुर्दशा : अभाव से या अव्यवस्था से ?


मध्य प्रदेश की दुर्दशा: अभाव से या अव्यवस्था से?
वीरेन्द्र जैन
मध्यप्रदेश में रामभक्त होने का दावा करने वाली पार्टी की सरकार ने प्रदेश को स्वर्णिम मध्य प्रदेश बनाने की घोषणा की हुयी है। यह बात अलग है कि जिस राम कथा से वे अपने सारे मुखौटे बनाते हैं उस रामकथा में सोने की तो रावण की लंका थी। इसी कथा के अनुसार अयोध्या में तो रामराज्य आने के बाद की स्तिथि- दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज्य नहिं काहुई व्यापा- वाली थी जहाँ – सब नर करें परस्पर प्रीती, चलहिं सुधर्म नेक और नीती- वाला मामला था।
आइए देखें कि इस रामभक्ति का दिखावा करने वाली सरकार में प्रदेश की दशा कैसी है, जिससे तय करें कि यहाँ राम राज्य चल रहा है या रावण राज्य चल रहा है। हाल ही में प्रकाश में आई ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2010 की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि यह प्रदेश अफ्रीकी देशों से भी ज्यादा भूखा है। पिछले वर्ष भी भारत के कुपोषित 17 प्रदेशों में मध्य प्रदेश की हालत सबसे अधिक चिंता जनक थी। इस प्रदेश ने अंतर्राष्ट्रीय नक्शे पर अपनी बदनामी को चमकाया है। इस प्रदेश में 50% बच्चे औसत से कम वजन के पैदा हो रहे हैं इनमें पाँच साल तक के 48% प्रतिशत बच्चे गम्भीर रूप से कुपोषित हैं। बचपन में ही मौत के मुँह में समा जाने वाले बच्चों में से 30% की मौत का कारण यह कुपोषण ही है। संसद में महिलाओं के लिए जितने प्रतिशत आरक्षण की माँग की गयी है वह कब पूरी होगी यह तो पता नहीं किंतु प्रदेश की 33% महिलाओं में कुपोषण पाया गया है।
सबसे बड़ा सवाल यह है क्या यह प्रदेश अपनी गरीबी के कारण इस दशा को पहुँचा है या प्रदेश के शासन प्रशासन में ही कोई दोष है। इस प्रदेश की सरकार सदैव ही केन्द्र सरकार के सामने कटोरा लिए खड़ी रहती है और इतनी असंगत माँग करती है जो किसी भी मापदण्ड से स्वीकार योग्य नहीं होती किंतु जो पैसा उसे केन्द्र सरकार की योजनाओं के रूप में मिलता है उसे वह पूरी तरह खर्च ही नहीं कर पाती। इस सरकार ने वित्तीय वर्ष 2009-10 में 3000 करोड़ और वर्ष 2010-11 के लिए 3090 करोड़ उपयोग न कर पाने के कारण सरेंडर किये हैं। जिस प्रदेश में तीन सौ से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हों उस प्रदेश ने राष्ट्रीय कृषि योजना के लिए मिले 1109 करोड़ में से कुल 363 करोड़ ही खर्च कर पाये। विकास मिशन के लिए प्राप्त 34 करोड़ में से कुल 14 करोड़ ही खर्च कर पाये। ग्रामीण विकास विभाग को 2421 करोड़ रुपये मिले जिसमें से कुल 1830 करोड़ ही खर्च कर पाये। सिंचाई विभाग को 1861 करोड़ रुपये मिले जिसमें से 1421 करोड़ ही खर्च कर पाये। महिला बाल विकास को 1622 करोड़ मिले जिसमें से 1340 करोड़ ही खर्च हुये। नगरीय प्रशासन विभाग को मिले 880 करोड़ में से 655 करोड़ ही खर्च किये गये। जहाँ शिक्षा के लिए मिली राशि में से 930 करोड़ रुपये लेप्स हुये वहीं ऊर्जा के लिए मिली राशि में से 271 करोड़ लेप्स हुये। राजनीतिक दबाओं से त्रस्त नौकरशाही की उदासीनता के कारण प्रदेश को 3400 करोड़ की हानि हुयी है। विभिन्न विभाग प्रदेश में 2618 करोड़ की वसूली नहीं कर पाये। विभिन्न विभागों में चल रही अनियमतताओं और लापरवाही के कारण 34 करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ। वाणिज्यिक कर, राज्य उत्पाद शुल्क, मोटर वाहन कर, स्टाम्प ड्यूटी एवं रजिस्ट्रेशन फीस, मनोरंजन कर आदि में 3366 करोड़ की राजस्व हानि अनुमानित की गयी है। प्रदेश की नौकरशाही जिस तरह से काम कर रही है उससे स्थानीय निधि आडिट में ही 289 करोड़ के घपले सामने आये हैं। लगभग 46लाख के गबन, दो करोड़ चालीस लाख से अधिक के दुहरे भुगतान, तेइस करोड़ से अधिक के अनियमित भुगतान, तीन करोड़ सोलह लाख से अधिक के सन्दिग्ध खर्चे, बीस करोड़ छियानवे लाख से अधिक की आर्थिक क्षतियां, दो करोड़ तिरेपन लाख से अधिक की निर्माण कार्य में अनियमितताएं, 58 करोड़ से अधिक की अपेक्षित वसूली, 173 करोड़ से अधिक की अन्य अनियमितताएं और पाँच करोड़ से अधिक के अनियमित भुगतान के प्रकरण सामने आ चुके हैं। सब जानते हैं कि लम्बी जाँच के बाद इनको दाखिल दफ्तर कर दिया जायेगा। प्रदेश की सरकार की केवल दो चिंताएं हैं, पहली तो यह कि सरकार के रहते किस तरह संघ परिवार के संगठनों को और नेताओं को माला माल कर दिया जाये, और दूसरी कि किस तरह से तरह तरह के भावनात्मक मुद्दे उछाल, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर के विभिन्न चुनावों में मतदाताओं से वोट निकलवा लिया जाये। पिछले दिनों इस सरकार ने लगभग मुफ्त के भाव संघ परिवार से जुड़ी संस्थाओं को बेशकीमती जमीनें सौंप दी हैं जिनमें से अधिकांश में दुकानें बनवा कर संस्थाओं की आय को सुनिश्चित किया जा रहा है तथा प्राप्त पगड़ी की राशि से पूरा भवन बन कर तैयार हो जाता है। भोपाल के सबसे कीमती स्थल शाहपुरा में ग्राम भारती शिक्षा समिति मध्य भारत को 8.375 हेक्टेयर और सेवा भारती समिति मध्यभारत आनन्दधाम को 51680 वर्गफीट जमीन आवंटित की गयी। सेवा भारती को ही उमरिया में 4000 वर्गफीट, अनूपपुर में 11745 वर्गफीट, जमीन आवंटित की गयी है। शाजापुर के मदाना में बप्पा रावल शिक्षा समिति को 0.418 हेक्टेयर, राजगड़ के पिप्ल्याकुर्मी में ग्रामभारती शिक्षा समिति को 0.325 हेक्टेयर, बलाघाट के बैहर में आदिवासी विकास परिषद को 5000 वर्गफीट, श्योपुर में सेवाभारती को 5बीघा 6 डिसिमल, जबलपुर के सुभाषनगर जैसे क्षेत्र में विद्यार्थी परिषद को 6983 वर्गफीट, उज्जैन के सरदारपुरा में हेडगेवार जन्म शताब्दी स्मृति समिति को 450 वर्गफीट, तथा आष्टा में माधव स्मृति शिक्षा समिति को 130680 वर्गफीट जमीन आवंटित की गयी है। जमीनों की लूट का यह सिलसिला कहीं भी रुकने का नाम नहीं ले रहा। अकेले सरस्वती शिशु मन्दिर को ही धमनार मन्दसौर में एक हेक्टेयर, शिवाजी नगर भोपाल में साथ एकड़, नौगाँव छतरपुर में 0.672 हेक्टेयर, उम्हेल उज्जैन में 0.40 हेक्टेयर, बालागुड़ा मन्दसौर में 10000 वर्गफीट, चन्देरी अशोकनगर में 1.04 हेक्टेयर पृथ्वीपुर टीकमगढ में 0.609 हेक्टेयर, मोहगाँव मंडला में 0.10 हेक्टेयर, सोनारा सतना में 7.14 एकड़, हरदा में 14350 वर्गफीट, मल्हारगढ मन्दसौर में 0.819 हेक्टेयर, अनूपपुर में 1.54 एकड़, जयेन्द्र नगर ग्वालियर में 96125 वर्गफीट, बर्डिया मन्दसौर में 1.10 हेक्टेयर, होशंगाबाद में 2 एकड़, अमरकंटक रीवा में 7.5 एकड़, मलिया खेरखेड़ा मन्दसौर में 2 हेक्टेयर, बनीखेड़ा मन्दसौर में 95538 वर्गफीट,रहेली सागर में 86111 वर्गफीट, पिप्ल्या मंडी मन्दसौर में 1000 वर्गफीट, और राजेन्द्र ग्राम अनूपपुर में 1.54 एकड़ जमीन आवंटित की गयी है।
प्रदेश का ढेर सारा पैसा राजनीतिक कामों में खर्च हो रहा है, विभिन्न कार्य व्यापार करने वालों की पंचायतें, किसान सम्मेलन, मुख्यमंत्री के पाँच साल पूरे होने पर बड़ा तमाशा, आदिवासी कुम्भ आदि में करोड़ों रुपया फूंका गया है। इतना ही नहीं सन्दिग्ध इतिहास के नायक राजा भोज की मूर्ति लगाने, भोपाल के बड़े ताल का नाम भोजताल करने और भोपाल का नाम बदल कर भोजपाल करने के प्रयास और उसके आधार पर समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने के लिए भी सरकारी पैसा फूंका जा रहा है जबकि कभी सौ आदमियों के प्रतिनिधि मण्डल ने भी राजा भोज का पुतला लगाने या भोपाल का नाम बदलने के लिए आवेदन नहीं दिया। मुख्यमंत्री के विज्ञापन, पोस्टर और होर्डिंग लगवाने में जन सम्पर्क का पूरा बजट फूंक दिया जाता है किंतु सरकार स्वतंत्र प्रैस को विकसित करने या ईमानदार पत्रकारिता को प्रोत्साहित करने की कोई कोशिश नहीं करती जबकि केन्द्रीय सरकार तो रेल किराये में राहत देकर कुछ मदद भी करती है। दूसरी ओर चापलूस और दलाल कोटि के पत्रकारों को समाचारों को दबाने के लिए सरकार का खजाना खुला रहता है।
प्रदेश बीमार है किंतु यह कहने वाली कोई अवाज शेष नहीं है। विपक्ष है ही नहीं। प्रैस मालिकों के मुँह या तो बन्द कर दिये गये हैं, या सिल दिये गये हैं। केवल अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़े सरकारी प्रचार का मुँह चिढा रहे हैं।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629