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मंगलवार, अक्टूबर 08, 2024

श्रद्धांजलि / संस्मरण, कण्ठमणि बुधौलिया

 

श्रद्धांजलि /              संस्मरण
कण्ठमणि बुधौलिया

वे दतिया में गिनती के राजनीतिक व्यक्तियों में से एक थे

वीरेन्द्र जैन

बुधौलिया जी के निधन की सूचना देर से मिली। अचानक ही शकील अख्तर के श्रद्धांजलि लेख को पढ कर ही पता लगा। अब दतिया में ऐसे कम लोग बचे हैं जो उस दौर के व्यक्तियों के योगदान को याद करते हों जिस दौर में बुधौलिया जी सक्रिय थे।

अपनी बातों में मैं अक्सर एक बात कहा करता था कि दतिया में कुल दो लोग हैं जो राजनीति में हैं, और उनमें से एक कण्ठमणि बुधौलिया हैं। राजनीति में होने का दिखावा करने वाले अन्य लोग या तो राजनीति को रोजगार के विकल्प के रूप में लिए हुये हैं या अपनी हीनता की भावना से उबरने के लिए राजनीति में कोई पद हासिल करने की कोशिश में कहीं सम्बद्ध हो गये हैं। वे ना तो अपने दल के विचार के आधार को जानते हैं, ना ही उसके कार्यक्रम से परिचित हैं। राजनीतिक दलों से जुड़े व्यक्ति या तो नगरीय निकायों के सदस्य या सदस्य बन सकने की उम्मीद में काम करने वाले होते रहे थे या बाद में पंचायती राज आने के बाद पंच, सरपंच, जनपद पंचायत, मंडी कमेटी सदस्य आदि में खप जाते हैं। किसी गरीब क्षेत्र में लोग अपने छोटे मोटे पद से जुड़े बजट में से यथा सम्भव नोंचने में लग जाते हैं। बुधौलिया जी समाज को बदलने वाली राजनीति का हिस्सा थे।

कण्ठमणि बुधौलिया अपनी युवा अवस्था से ही समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में आ गये थे जिस कारण वे क्षेत्र की कथित मुख्यधारा की राजनीति के नाम से चलने और पलने वाले गिरोहों से मुक्त रहे। वे किसी धन सम्पन्न परिवार से नहीं आते थे। उनका परिवार पण्डिताई करने वाला किसान परिवार था और फिर भी उन्होंने अपनी विचारधारा के प्रभाव में नौकरी के पीछे भागने की जगह वकालत करना स्वीकार किया था। वकालत एक ऐसा काम है जिसमें ज्यादातर वे ही लोग सफल हो पाते हैं जो किसी सफल वकील परिवार से आते हैं या किसी सफल वकील के जूनियर बन जाते हैं।  अपनी स्वतंत्र वकालत शुरू करने वाले इक्का दुक्का लोग ही किसी संयोगवश सफल होते पाये जाते हैं। बुधौलिया जी एक योग्य किंतु व्यावसायिक रूप से असफल वकील थे, फिर भी उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। अपनी समाजवादी विचारधारा और ईमानदारी पर अडिग रहे।

अपने छात्र जीवन में मेरी पहचान भी एक वामपंथी विचारधारा के छात्र के रूप में विकसित हुयी जिसका कारण मेरे पिता का प्रगतिशील आचरण और उनकी वाम पक्षधरता का प्रभाव था। अपने प्रवेशांक से ही मेरे घर में हिन्दी ब्लिट्ज़ आता था जिसे में नियमित रूप से पढता था और उसमें व्यक्त तर्कों को अपनी बातचीत में लाता था, जिस कारण से ऐसा समझा जाता था। जब राजनीति में केवल काँग्रेस, हिन्दू महासभा का नाम सुनायी देता था तब भी छुटपुट रूप से इस सामंती क्षेत्र में समाजवादी, प्रजा समाजवादी, संयुक्त समाजवादी आदि के नारे लिखे मिल जाते थे। बाद में जनसंघ ने हिन्दू महासभा का स्थान ले लिया था।

1971 तक दतिया में कुल जमा दो समाजवादी थे जिनमें से एक कण्ठमणि बुधौलिया और दूसरे राजाराम श्रीवास्तव। इनके अनुयायी के रूप में एक ओम प्रकाश श्रीवास्तव भी दिख जाते थे, जो कार्यकर्ता अधिक थे। ये तीनों ही लोग अपनी सादगी से पहचाने जाते थे। उन दिनों भिंड से समाजवादी पार्टी के एक विधायक हुआ करते थे, नाम था श्री रघुवीर सिंह कुशवाहा जो विशेष रूप से मुझसे मिलने के लिए दतिया आये थे और वहाँ समाजवादी युवजन सभा स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था। मैं इसे स्वीकार तो नहीं कर सका किंतु नगर में एक सहयोगी ग्रुप बन गया था जिस कारण मेरा परिचय बुधौलिया जी से हुआ जो मुझ से सीनियर थे और वकालत प्रारम्भ कर चुके थे। नागरी प्रचारणी सभा की ओर से एक रिसर्च स्कालर श्री उदय शंकर दुबे भी उन दिनों दतिया में सक्रिय थे जो इलाहाबाद बनारस तरफ के थे और पुराने समाजवादी थे। उनसे साहित्यिक विमर्श होता रहता था। स्थानीय अखबारों में कभी कभी हम लोगों के सम्मलित बयान छप जाया करते थे।

उन्हीं दिनों मुख्यधारा की राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए उतावले एक प्रतिभाशाली युवा नेता शम्भू तिवारी उभरे थे जिन्होंने अपना एक निजी संगठन तैयार कर लिया था। वे भी अपनी राजनीति के हिसाब से हमारे वाम ग्रुप से पास और दूर होते रहे। इमरजैंसी के दौरान वे बुधौलिया जी के साथ जेल में रहे, तब तक मैं नौकरी में आकर बाहर चला गया था इसलिए जेल जाने से बच गया था। दतिया जेल में संघ वालों से असहमति रखने वाले ये दो ही प्रमुख लोग थे। तिवारी जी बाद में लोकदल और जनता दल के प्रयोग में भी साथ रहे तथा संभावना अनुसार काँग्रेस और भाजपा की ओर भी आवागमन करते रहे। एक बार तो वे भाजपा की ओर से विधायक बनने में भी सफल हुये, किंतु विधानसभा भंग हो जाने के कारण कार्यकाल पूरा नहीं कर सके थे।

बुधौलिया जी को अपनी विचारधारा के साथ अकेले खड़े होने भी कभी संकोच नहीं हुआ। देश और प्रदेश में यदा कदा उनकी विचारधारा के साथ चलने वाली सरकारें भी बनीं किंतु उन्होंने ना तो कभी सरकार से कोई पद चाहा न लाभ लिया। दतिया में बीड़ी निर्माण का लघु उद्योग चलता था जिसमें बीड़ी वर्कर्स की एक यूनियन उन्होंने गठित की थी। उस यूनियन को साथ लेकर वे प्रत्येक मई दिवस को नगर में रैली निकालते थे। इस रैली में बैंक और बीमा आदि की कर्मचारियों की यूनियन भी भाग लेने लगी थीं। 1990 के आसपास सीटू के नेता वकार सिद्दीकी भी दतिया आ गये थे और साथ में नेतृत्व करने लगे थे। जब उन्होंने साक्षरता आन्दोलन चलाया तो उसमें भी बुधौलिया जी ने साथ दिया था। एक बार उन्होंने एक शंकराचार्य से सवाल पूछने के क्रम में पूछ लिया था कि महाराज जी परमाणु विस्फोट का फार्मूला बताइए और उनका गुस्सा झेला था।

मैं कामरेड सव्यसाची जी द्वारा जनसामान्य की भाषा में लिखी पुस्तिकाओं से प्रभावित था और उनकी पुस्तकें व पत्रिका मंगाता था व उन्हें जरूर देता था। एक बार जब एरियर मिला तो उस राशि में से मैंने सीपीएम के मुख पत्र लोकलहर के वार्षिक चन्दे को दस लोगों के नाम देकर भेज दिया था। बुधौलियाजी भी उनमें से एक थे। वे स्थानीय अखबारों में सामायिक टिप्पणियां तो लिखते ही थे अपितु कवितायें भी लिखते थे और कवि गोष्ठियों में आते थे। जनवादी लेखक संघ के सदस्य थे। उनका एक कविता संकलन भी प्रकाशित है।

एक बार निजी बातचीत में कैफी आज़मी ने मुझ से कहा था कि कामरेड विचारधारा का रिश्ता खून के रिश्ते से भी बढ कर होता है। इस तरह उनसे एक रिश्ता था। एक समर्पित साथी के जाने का दुख है, सम्भव है कि उनकी स्मृतियों से उनके कदमों पर चलने वाले और लोग भी निकलें।     

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

शनिवार, जून 18, 2022

गामा पहलवान के नाम से जुड़ी यादें

 गामा पहलवान के नाम से जुड़ी यादें

वीरेन्द्र जैन


मेरा जन्म 1949 में हुआ था और उसी वर्ष मेरे पिता का ट्रांसफर ललितपुर से दतिया हो गया था अतः मैं अपना जन्म स्थान दतिया ही मानता रहा हूं क्योंकि 1971 में एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त करने तक मैं दतिया में ही रहा हूं। बाहर जाने पर अपने परिचय में दतिया का नाम जोड़ने पर लोग दो बातें ही याद करते थे, एक गामा पहलवान की, दूसरी दतिया को ‘गले का हार’ बताने वाली कहावत की। बचपन में मैं इतना दुबला था कि मुझे गामा की नगरी से जोड़ने के बाद लोग मुस्कराते जरूर थे।
प्रसिद्ध लोगों और विधाओं को अपने राज्य के साथ जोड़ कर राजा लोग सुख पाते थे। गामा पहलवान को दतिया महाराज भवानी सिंह ने राजाश्रय दिया था क्योंकि गामा का ननिहाल दतिया में ही था। कहते हैं कि उनकी खुराक बहुत अधिक थी जिसमें दॆढ पाउंड बादाम, दस सेर दूध, मटन, छ्ह देशी मुर्गे आदि शामिल थे। बड़े लोगों को आश्रय भी उनके अनुकूल चाहिए होता है, इसलिए बाद में पटियाला महाराज ने उन्हें बुलवा लिया था, व बाद में जो जमीन उन्होंने उन्हें दी थी वह बंटवारे के बाद पाकिस्तान में आ गयी थी, इसलिए उन्हें पाकिस्तान गया हुआ मान लिया गया। 1947 के बद भी वे लगातार हिन्दुस्तान आते रहे क्योंकि एकीकृत देश का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने जो सम्मान पाया, उसकी स्मृति ने उन्हें कभी विभाजन को स्वीकार नहीं करने दिया।
दतिया के होली पुरा पर इनकी एक हवेली थी। वह हवेली धीरे धीरे ध्वस्त होकर खण्डहर में बदल गयी थी। लोग रात विरात उसमें से निर्माण सामग्री ले जाते थे। उसी मुहल्ले में रहने वाले मेरे पिता के आफिस के एक गार्ड रात्रि में उसमें से कुछ मटेरियल उठाने गये थे कि दीवार और पत्थर गिर गये। उन्हें अस्पताल भिजवाया गया जहाँ उन्हें खून की उल्टी हुयी। डाक्टर समेत सारे लोग घबरा गये। बाद में पता चला कि खून का महत्व समझते हुये उनके सिर से जो खून बह रहा था उसे वे पीते गये थे वही उल्टी में निकला था। गामा के नाम से मेरा यह पहला परिचय था।
एक दो बार गामा और उनके भाई दतिया में आये जिनका अतिथ्य दतिया के नगर सेठ रतन लाल अग्रवाल करते थे जिनके परिवार के अनेक लोगों को पहलवानी का शौक था और उन्होंने अपने बगीचे ‘मोदी का बाग’ में अखाड़ा बनवा रखा था। यह स्थान लगातार कई तरह से चर्चित रहा है। हमारे दौर के युवाओं में से दर्जनों लोग वहाँ जाकर अखाड़ेबाजी और कसरत करते रहे। किवदंति रही है कि उस बाग में गामा कसरत करते रहे थे।
1989 से चले अयोध्या के रामजन्मभूमि अभियान के बाद जो साम्प्रदायिक वातावरण बना उसने मुझे बहुत संवेदनशील कर दिया था। मैं राजेन्द्र यादव, प्रभाष जोशी आदि से प्रेरित हो रहा था। उस समय मैं कई राज्यों में घूम घाम कर दतिया लौट आया था और वहाँ के लीड बैंक आफिस में पदस्थ था। साहित्य के साथ साथ मैं एक स्थानीय दैनिक अखबार में कबीर नाम से एक स्तम्भ भी लिखता था। इस तरह से मैं अपने राजनीतिक सामाजिक विचार भी व्यक्त करता रहता था। यह 1993-94 की बात रही होगी जब मध्य प्रदेश के सभी जिलों में खेल स्टेडियम का निर्माण करवाया गया था। दतिया में भी हुआ और उसके नामकरण का प्रस्ताव भी चर्चा में आया। मैंने अखबार के अपने स्तम्भ में लिखा कि गामा पहलवान का सम्बन्ध दतिया से रहा है इसलिए स्टेडियम का नाम गामा स्टेडियम ही ठीक रहेगा।
दतिया के एक खिलाड़ी और खेल प्रशिक्षक श्री बाबूलाल पटेरिया थे। वे हाकी खिलाड़ी के रूप में बड़े बड़े मैच खेल चुके थे, और ध्यान चन्द आदि के समकालीन थे। उनका उठना बैठना मेरे पिताजी के साथ भी रहा था। अपने योगदान को देखते हुए और उम्र को देखते हुए उनकी इच्छा थी कि स्टेडियम उनके नाम पर हो तो ठीक रहेगा। जब उन्होंने मेरा स्तम्भ पढा तो उन्होंने अखबार के कार्यालय में जाकर मालूम किया कि कबीर कौन हैं। वे चल कर मेरे कार्यालय में आये और अपना परिचय देने लगे। मैंने उठ कर उनके पांव छुये और अपना परिचय दिया कि आप तो मेरे पिताजी के साथियों में से हैं। आप दतिया में दशकों पूर्व लगातार जो हाकी टूर्नामेंट करवाते रहे हैं उसकी ख्याति से कौन परिचित नहीं हैं। नामकरण के बारे में मैंने तो केवल अपना विचार व्यक्त किया था अंतिम निर्णय तो जिलाधीश के नेतृत्व वाली समिति को लेना है।
रोचक यह रहा कि मेरा विचार तत्कालीन जिलाधीश को भी पसन्द आ रहा था। उस समिति में भाजपा के दो नेता भी थे, उनमें से एक ने कहा कि गामा पाकिस्तान चले गये थे इसलिए उनके नाम से स्टेडियम का नाम नहीं रखा जाना चाहिए किंतु उसी बैठक में दूसरे भाजपा नेता जो एक प्रसिद्ध वकील थे और जिनसे अक्सर मेरी नोक झोंक चलती रहती थी ने गामा के नाम का पक्ष लिया और कहा कि अल्लामा इकबाल भी तो पाकिस्तान चले गये थे फिर क्यों उनके ‘सारा जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा को क्यों गाते हो’। बहस आगे बढ गयी तो समिति ने फैसला किया कि स्टेडियम का नाम ‘दतिया स्टेडियम’ ही रख दिया जाये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

सोमवार, अप्रैल 11, 2011

श्रद्धांजलि ; शम्भू तिवारी

श्रद्धांजलि--ः शम्भू तिवारी
उनसे मतभेद रख कर भी मित्रता की जा सकती थी
वीरेन्द्र जैन
शम्भू तिवारी की म्रत्यु की खबर कितनी भयावह है ये वही समझ सकते हैं जो सामंती युग में जी रहे दतिया जैसे कस्बे में सोचने समझने और पढने लिखने के कारण किसी लोकतांत्रिक समाज में जीने की इच्छा रखते हैं। शम्भू तिवारी दतिया की सक्रिय राजनीति में ऐसा इकलौता नाम था जो अपनी राजनीतिक सक्रियता को एक वैचारिक आधार देता था और उस पर पूरी तार्किकता से बात करने में कभी पीछे नहीं रहता था। राजनीति में आने का चुनाव उनका अपना था। उनके पास न तो कोई वंश परंपरा थी और न ही कोई ऐसे संसाधन थे जिनकी दम पर या जिनकी रक्षा के लिए उन्हें राजनीति में आना पड़ता। शम्भू तिवारी ने नेतृत्व के गुण स्वयं विकसित किए थे और साधनों के बिना भी युवाओं की एक ऐसी टीम जोड़ी थी जो भारतीय राजनीति में केवल कम्युनिष्टों या समाजवादियों के पास ही पायी जाती रही थी। उनसे जुड़ी युवा शक्ति से चमत्कृत होकर कई संसाधनों वाले नेताओं ने उनको साथ लेने की कोशिश की किंतु वे कभी भी झुक कर समझौता करने के लिए तैयार नहीं हुये। उन्हें इमरजैंसी में जेल जाना पड़ा, किसी ग्राम में हुए किसी हत्याकांड के कारण फैले पुलिस के आतंक में जीता हुआ चुनाव हार जाना पड़ा। जीवन यापन के लिए नौकरी करनी पड़ी, पर शम्भू तिवारी को किसी ने टूटते हुए नहीं देखा। राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों को उन्होंने अपनी ताकत के आगे झुकाया और कई राजनीतिक दल बदले किंतु वे उन राजनीतिक दलों के गुलाम नहीं हुये। मेरे साथ उनके रिश्ते राजनीतिक विचार विमर्श के रिश्ते थे और किसी भी दल में रहते हुए उन्होंने कभी भी यह नहीं कहा कि वे उस दल के नीतियों को पसन्द करने के कारण उस दल में गये हैं। मुझे वे बताया करते थे कि दतिया जैसे क्षेत्र में अभी वैचारिक राजनीति सम्भव नहीं है और अपनी बात कहने व कुछ सार्थक करने के लिए यदि किसी मंच की तलाश है तो अपनी ताकत को किसी से जोड़ कर शेष राजनीतिक शत्रुओं को पराजित किया जा सकता है। इस मामले में उनकी समझ बहुत साफ थी। सामान्य तौर पर उनके आस पास रहने वालों में मैं कुछ इक्के दुक्के लोगों में से था जिनके साथ उनकी राजनीतिक विचारधारा पर लम्बी बात होती थी। उनसे मतभेद होते थे, गर्मा गरम बहसें होती थीं, पर वे कभी मन भेद में नहीं बदलती थीं। कभी कहीं किसी के साथ कोई ज्यादती होती थी तो वह बेझिझक शम्भू तिवारी का दरवाजा खटखटा सकता था। भले ही वह हर चुनाव में अपना वोट किसी पैसे वाले नेता को बेचता रहता हो, पर न्याय के लिए निःस्वार्थ मदद की उम्मीद उसे इसी दरवाजे पर रहती थी, जहाँ से उसे कभी निराशा हाथ नहीं लगती थी। यह इकलौता द्वार था जहाँ पर उसे लुटने का कोई डर नहीं होता था और ना ही दलाली का खतरा रहता था। जिन गुण्डों से लोग थर थर काँपते थे उनके घर के दरवाजे पर सही बात के लिए निर्भय होकर दस्तक देने का साहस इस इकलौते नेता में था। इस व्यक्ति का व्यक्तित्व बाहरी स्वरूप पर निर्भर नहीं था। उनके कपड़े सदा सादा रहते थे, उन्हें बड़ी गाड़ियों की दरकार नहीं थी। एसी का पास होते हुए भी स्लीपर क्लास में यात्रा कर सकते थे। उनसे ठंडी सड़क के फुटपाथ या फव्वारे पर बैठ कर देर रात तक राजनीति, समाज, दर्शन और साहित्य पर बातें होती रहीं हैं। नीरज और मुकुट बिहारी सरोज की कविताएं वे दिल की जिस गहराई के साथ सुनाते थे उससे उनकी संवेदनशीलता का पता चलता था। अपने साथ रहने वालों के साथ उन्होंने कभी भी उनकी आर्थिक हैसियत के आधार पर भेदभाव नहीं किया। वे न ऊंचे सरकारी पद से कभी प्रभावित हुए और ना ही नामी गिरामी नेता से अपनी बात साफ साफ कहने में उन्होंने कोई संकोच किया। वे न तो किसी पाखण्डी धर्मगुरु से प्रभावित होते थे और न ही किसी प्रसिद्ध धर्मस्थल से। सामाजिक रूढियां या परम्पराओं के प्रति उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था, पर वे किसी की भावनाओं को आहत नहीं करते थे। उनकी मित्रता में न कभी धर्म आढे आता था और न ही जाति। उनके मित्रों में जितने हिन्दू थे उतने ही मुसलमान। जितने ब्राम्हण थे उतनी ही दलित। जब वे विधायक थे तब उनके साथ सबसे अधिक समय रहने और साथ खाने पीने वाला व्यक्ति एक निर्धन दलित युवक ही था। यह अनुपात उनकी ओर से तब भी नहीं बदला जब उन्होंने किसी संकीर्ण सोच वाले राजनीतिक दल को भी उपकृत किया। दतिया की जन हितैषी माँगों के लिए सर्वाधिक जन आन्दोलन चलाने का इतिहास भी उन्हीं के साथ जुड़ा है।
वे यारों के यार थे और मित्रता में कुछ भी बलिदान करने की बादशाहत उनमें थी। हमारी परम्परा में भी दुनिया की सारी परम्पराओं की तरह स्वर्ग की कल्पनाएं मौजूद हैं जिसके आभास को दुनिया वाले कुछ रसायनों के सहारे पाने की कोशिश करते हैं। मध्यम वर्ग इसका आसान शिकार हो जाता है। जब कोई व्यक्ति विरोध से नहीं मरता तो उसे विकृतियों का शिकार बनाया जाता है। वे शिकार हो गये, पर जब तक जिये शान से जिये। वे न जिन्दगी में किसी से डरे और न ही मौत से डरे। दूसरे को तो डरपोक भी भयवश मार देते हैं किंतु अपने आपको मारने का काम कोई निर्भीक ही कर सकता है। उनकी अंतिम निडरता को भी सलाम।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, जनवरी 08, 2010

एक लोकप्रिय शिक्षक थे श्री राम स्वरुप गोस्वामी

गत दिनों मध्य प्रदेश के दतिया नगर में रहने वाले श्री राम स्वरूप गोस्वामी जी का निधन हो गया । वे स्कूल अध्यापक थे किंतु जिस समय ट्यूटोरियल क्लासेस का चलन प्रार्म्भ भी नहीं हुआ था तब वे पी एम टी, पी ई टी आदि कम्पटीटिव एक्जामिनेशन की पात्रता कक्षाओं के क्षात्रों को पधाते रहे हैं और उनके द्वारा पढाये गये सैकड़ों क्षात्र आज डाक्टर इंजीनियर और दूसरे पदों पर पदस्थ हैं। वे कभी किसी से ट्यूशन के पैसे नहीं मांगते थे अपितु जिसकी जितनी क्षमता होती थी वह उनकी दरी य तकिये के नीचे रख जाता था। उनमें से अनेक निर्धन क्षात्र तो कुछ भी नहीं दे पाते थे पर उनकी कक्षाओं में वे समान अधिकार से बैठते थे। वे विज्ञान और गणित को क्षात्रों की अपनी मातृ या कहना चाहिये लोकल भाषा में ऐसे समझा देते थे कि वह उसके दिमाग में घर कर जाता था। ज्ञान में भाषा के महत्व पर उनकी शिक्षण पद्धति का अध्ययन बहुत उपयोगी हो सकता है। मैंने भी उनकी कक्षाओं में बैठ कर विज्ञान पढा है। दतिया नगर में और दतिया के बाहर जहाँ जहाँ उनके पढाये क्षात्र गये हैं उनका बेहद सम्मान था।
उनके निधन पर एक स्थानीय समाचार पत्र दतिया प्रकाश में डा. नीरज जैन ने एक श्रद्धांजलि आलेख लिखा है जिसे यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं
वीरेन्द्र जैन्
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आचार्य प्रवर पं रामस्वरूप गोस्वामी जी के देहांत पर
मास्टर से संतत्व तक का सफर
प्रत्येक शख्स स्तब्ध था, इसलिये नहीं कि आचार्य गोस्वामी जी की उम्र अभी महाप्रयाण के लायक नहीं थी और न इसलिये कि उनका जाना कोई बड़ी प्राकृतिक या अप्रत्याशित दुर्घटना थी, वरन् सब उनके महाप्रयाण की खबर सुन कर ऐसे ही स्तब्ध थे जैसे सुधा पान करने वाले किसी देवता की मृत्युकी खबर सुन कर होते। बुंदेलखण्ड की सांस्कृतिक राजधानी दतिया नगर मेंदेश की आजादी के बाद जिस मास्टर ने भूखे, नंगे, गरीब व दलित बच्चोंको अपनी निहायत आकर्षक किंतु चुटीली और देहाती शैली से सभ्रान्तअंग्रेज बना दिया, बुंदेली मुहावरों से गणित पढ़ा दी, और देशीगालियों से विज्ञान सिखा दिया। उस असाधारण प्रतिभा के शिक्षक कायक-ब-यक चले जाना सबको चौंका रहा था। ग्वालियर में एक दूधवाले के बच्चों को फ्री में टयूशन पढ़ाकर अपनेदूध-पीने का शौक पूरा करने वाले आचार्य गोस्वामी अपनी जिंदगी को जन्मदेने वाले अपने निर्माता स्वयं थे। नगर की उनके जमाने की सम्मानित पदों पर पहुंचने वाली तीन चौथाईआबादी उनसे ज्ञान लेकर बढ़ी हुई, लेकिन मास्टर की लौकिक देह में ईश्वरत्वका आलौकिक दिया कब जल उठा किसी को पता नहीं। पांच घंटे की नौकरी,पांच घंटे की टयूशन और रात भर बारह घंटे की साधना। उनकी साधनाजब सिद्ध हुई तो उसका प्रकाश पूरे देश में फैल उठा, क्या छोटे? क्याबढ़े? भक्ति की अविरल गंगा में पावन दतिया के भक्ति सरोवर में पीताम्बरापीठ के बाद पंचम कवि की टोरिया एक तीर्थ बन गई। उनके निवास की गली मेंउनके घर के सामने से निकलने वाला हर राहगीर उसी तरह प्रणाम की मुद्रा मेंनिकलता है जैसे वह किसी सिद्ध स्थान की यात्रा पर हो। जब सारी दुनियां ईसा मसीह के जन्मदिन के जश्न में डूबी हुई थी। उस समयएक संत महाप्रयाण कर रहा था वह संत जिसने आत्म कल्याण को अपनाजीवन-धर्म नहीं बनाया बल्कि अपना पूरा जीवन पर कल्याण में लगा दिया। समाजके कल्याण की कीमत पर उन्होंने कभी अपने बच्चों तक के लिये कुछ नहींचाहा। एक गृहस्थ अपने भीतर देवता को छुपाये एक साथ इश्क हकीकी और इश्कमजाजी दोनों को कैसे जी लेता है यह बात केवल हमें गोस्वामी जी के जीवनसे पता चलती है। हम सब इसलिये स्तब्ध हैं क्योंकि हमें मनुष्य की मृत्यु कीखबर नहीं मिली देवता की मौत की खबर मिली है और पं रामस्वरूप गोस्वामीजी देवता थे-कुछ यूं-
''आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें''और फिर मानना पड़ता है कि खुदा है मुझमें।''
-डॉ नीरज जैन