सोमवार, फ़रवरी 27, 2012

आरएसएस और पारदर्शिता


सूप तो सूप छलनी भी बोले जिसमें सौ छेद
               आरएसएस और पारदर्शिता
                                                                          वीरेन्द्र जैन
      राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने गत दिनों यूपीए अध्यक्ष सोनिया गान्धी पर आरोप लगाया कि वे  इमरजेंसी वाली मानसिकता की है जो निरंकुश शासन और अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति का परिचायक है। उनका कहना है कि श्रीमती गान्धी ने अलोकतांत्रिक तरीके से राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया है जो कि एक समानांतर सत्ता केन्द्र है। आर्गनाइजर और पाँचजन्य के ताजा अंकों के माध्यम से संघ का कहना है कि वे इसी मानसिकता के के चलते वे देश  की जनता से अपना धर्म, बीमारी और आयकर सम्बन्धी जानकारी भी छुपाती हैं।
      रोचक यह है यह व्यक्तिगत जानकारियों को सार्वजनिक न करने का यह प्रश्न एक ऐसे संगठन ने उठाया है जो स्वयं में ही न केवल झूठ की नींव पर खड़ा है अपितु जिसके सारे के सारे काम गोपनीय होते हैं और जिसके लोग अपनी सच्चाई छुपाने के लिए हमेशा निरर्थक प्रतिक्रियावादी सवाल उठा कर अपनी कमजोरियां छुपाने की कोशिश करते रहते हैं। स्मरणीय है कि संघ अपने आप को सांस्कृतिक संगठन की तरह पंजीकृत कराये हुए हैं जबकि वे न केवल हर कोण से राजनीतिक हैं अपितु सांस्कृतिक कार्यों से उनका दूर का भी नाता नहीं है। 1948 में महात्मा गान्धी की हत्या के बाद जब संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तब उसे उठाने के लिए दिये गये प्रार्थना पत्र में संघ के नेतृत्व ने तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल को आश्वस्त करते हुए कहा था कि संघ कभी भी राजनीति में भाग नहीं लेगा। पर संघ ने इस वादे पर कभी अमल नहीं किया और अपने स्वयं सेवक भेज कर जनसंघ पार्टी का गठन करा दिया। उस समय से लेकर अब तक जनसंघ, जिसने बाद में अपना नाम भारतीय जनता पार्टी रख लिया है, के सभी स्तर के संगठन सचिव अनिवार्य रूप से आरएसएस के प्रचारक ही होते हैं। भारतीय जनता पार्टी अपने सारे नीतिगत मुद्दों की पुष्टि संघ के नेतृत्व से लेता है तथा संगठन से लेकर सरकार तक की सारी नियुक्तियां संघ से पूछ कर ही की जाती हैं। जनसंघ के सबसे पहले अध्यक्ष मोल्लि चन्द्र शर्मा ने संघ के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण ही अपने पद से त्यागपत्र दिया था व उसके बाद कोई अध्यक्ष संघ से टकराने की हिम्मत नहीं कर सका।  संघ के पदाधिकारियों की नियुक्ति में किसी लोकतांत्रिक तरीके का प्रयोग नहीं होता है पर वे दूसरे को अलोकतांत्रिक बता कर निन्दा करने में सबसे आगे रहते हैं और ऐसा करने में उन्हें कोई शर्म महसूस नहीं होती। पाकिस्तान जाकर ज़िन्ना के मजार पर फूल चढाने के बाद उनकी प्रशंसा करने के आरोप में अडवाणी जैसे वरिष्ठतम नेता को पार्टी अध्यक्ष का पद संघ के आदेश पर छोड़ना पड़ता है, और संघ की नापसन्दगी के कारण जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेता को लोकसभा में विपक्ष के नेतापद से वंचित करने के लिए निकालने का ड्रामा किया जाता है। गडकरी जैसे साधारण और दोयम दर्जे के नेता को देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी अपना अध्यक्ष संघ के आदेश पर ही चुनती है तथा उपलब्धिहीन कार्यकाल के बाद भी दूसरी बार अध्यक्ष बनाने के लिए तैयार बैठी है। अपने इन फैसलों के लिए देश तो क्या अपनी बगल बच्चा पार्टी के लोगों को भी वे विश्वास में लेने की जरूरत नहीं समझते।
      स्मरणीय है कि संघ अपने विशाल संगठन को संचालित करने के लिए धन संचय करता है और यह धन गुरु दक्षिणा के रूप में बन्द लिफाफों में लेने का ढोंग करता है। इन बन्द लिफाफों के पीछे का राज यह है कि उन्हें काले सफेद देशी विदेशी धन को ग्रहण करने के बारे में कोई जबाब नहीं देना पड़े। उल्लेखनीय है कि उनके पास एकत्रित धन की पवित्रता के बारे में समय समय पर सन्देह व्यक्त किये जाते रहे हैं। यही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ किसी के व्यक्तिगत धन के बारे में  अतिरिक्त चिंताएं दर्शा रहा है जिसने स्वयं द्वारा प्रसूत राजनीतिक दल के नेताओं की सम्पत्ति और आय को घोषित करने के बारे में  तब भी आग्रह नहीं किया जब कि उनकी राजनीतिक पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष खुले आम नोटों के बंडल लेता हुआ कैमरे की कैद में आ जाता है और उसके एक दूसरे बड़े नेता को उसके भाई ने अतिरिक्त धन के लालच में गोली मार दी थी व उसका सुपुत्र इसी धन के मद में ‘जवानी की भूल’ कर रहा था।
      उल्लेखनीय है कि संघ की सदस्यता का कोई रजिस्टर नहीं होता और वे अपनी सुविधा अनुसार किसी को भी अपना सदस्य घोषित कर देते हैं या उससे इंकार कर देते हैं। नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गान्धी की हत्या कर देने के बाद संघ ने कह दिया था कि गोडसे ने गान्धीजी को मारने से पहले संघ को छोड़ दिया था। यही बात पिछले दिनों कई आतंकी बम विस्फोटों के लिए आरोपी बनायी गयी प्रज्ञा सिंह व उसके साथियों की गिरफ्तारी के बाद कही गयी थी। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जो संगठन अपनी सदस्यता के लिए किसी भी फार्म या रजिस्टर के न होने का दावा करता है वह कुछ ही घंटों में यह कैसे बता देता है कि कौन अब उसके संगठन का सदस्य नहीं है।

                यद्यपि सार्वजनिक जीवन में रहने वाले व्यक्तियों के जीवन में पारदर्शिता को उनके विशेष गुण के रूप में देखा जाना चाहिए किंतु किसी दूसरे व्यक्ति विशेष से इसका आग्रह करते समय भूमि के कानून से अधिक की अपेक्षा करना न्याय संगत नहीं है। इसकी जगह ऐसी माँग रखने वाले लोगों को अपनी सम्पत्ति और आय की घोषणा करके एक बड़ी लकीर खींच कर दिखाना चाहिए। वैसे चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक प्रत्याशी को अपनी सम्पत्ति की घोषणा करना अनिवार्य है और उनके द्वारा दिया गया शपथपत्र चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध होता है। सन 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान श्रीमती सोनिया गान्धी ने जो शपथ पत्र प्रस्तुत किया था उसके अनुसार उनके पास कुल एक करोड़ सैंतीस लाख की कुल सम्पत्ति है जिसमें से एक करोड़ सत्तरह लाख की चल सम्पत्ति और बीस लाख की अचल सम्पत्ति है। चल सम्पत्ति बैंक जमा, म्यूचल फंड आदि के रूप में है।
      किसी की बीमारी और धर्म के बारे में जानने का दुराग्रह नितांत अनैतिक और अशालीन है। एक धर्म निरपेक्ष देश में जहाँ प्रत्येक धर्म, जाति, लिंग, को समान नागरिक अधिकार प्राप्त हैं वहाँ किसी के धर्म को जानने की अनाधिकार कोशिश कोई साम्प्रदायिक सोच का व्यक्ति या संगठन ही करना चाहेगा। स्मरणीय है कि पिछले दिनों संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन ने श्रीमती सोनिया गान्धी के विरुद्ध जब अनर्गल बयान दिया था तब उन्हीं के संगठन के लोगों ने उनके मानसिक स्वास्थ ठीक न होने के बहाने अपना मान बचाया था, पर यदि कोई उनके मानसिक स्वास्थ के बारे में अतिरिक्त जिज्ञासा करता तो क्या संघ के लोगों को अच्छा लगता?
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, फ़रवरी 19, 2012

उत्तर प्रदेश के एन आर एच एम घोटाले - दूसरे राज्य कब सबक लेंगे?


उत्तर प्रदेश के एनआरएचएम घोटाले
 दूसरे प्रदेश कब सबक लेंगे?
वीरेन्द्र जैन
      उत्तर प्रदेश में शर्मनाक अति हो चुकी है। वहाँ एनआरएचएम घोटालों से जुड़े नौ व्यक्तियों की सन्देहात्मक परिस्तिथियों में क्रमशः मृत्यु हो चुकी है और इन मौतों के हत्या होने में शायद ही किसी को सन्देह हो। इतना ही नहीं इन मौतों में से ज्यादातर को आत्महत्या बनाने की कोशिशें भी हुयी हैं। कुछ मौतें तो सरकारी कस्टडी में हुयी हैं। इससे पहले भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में शायद ही इतने ठंडे तरीके से किसी चर्चित मामले में क्रमशः हत्याओं का दुस्साहस पूर्ण कारनामा हुआ हो।
      यह केवल सरकारी संरक्षण में चल रहे आर्थिक भ्रष्टाचार तक सीमित मामला नहीं है अपितु यह पूरी व्यवस्था पर ही सवाल खड़े करता है कि हम किस जंगल तंत्र में जीने को विवश हैं। इस जंगलतंत्र का एक रूप हमने गुजरात में देखा था जहाँ आज भी अपराधी न केवल स्वतंत्र हैं अपितु शान से सत्ता सुख लूट रहे हैं क्योंकि वे अपने दुष्प्रचार से मतदाताओं के एक वर्ग को बरगलाने में सफल हैं और हम लोकतंत्र के नाम पर उनको अपने अपराध छुपाने दबाने व जाँच एजेंसियों को प्रभावित करने की ताकत देने के लिए मजबूर हैं। हरियाणा में चुनावों से ठीक पहले कुछ लोग खाप पंचायत के फैसले के नाम पर सरे आम हत्याएं कर देते हैं और लगभग सभी पार्टियों में बैठे, सत्तासुख के लिए वोटों के याचक उनका खुल कर विरोध भी नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें एक जाति के नाराज हो जाने का खतरा था। न्याय व्यवस्था के रन्ध्रों में से निकल कर लम्बे समय तक सुख से जीने वाले अपराधी न्याय में भरोसा रखने वालों को मुँह चिढाते लगते हैं जिसके परिणामस्वरूप लोग जंगली न्याय में भरोसा करने लगते हैं। समाज में बढती हिंसा के पीछे यह एक प्रमुख कारण बनता जा रहा है। जो लोग न्याय को लम्बे समय तक टलवाते रहने के दोषी हैं वे भी सजा मिलने के बाद में अपनी उम्र और बीमारी का सहारा लेकर सजा माफ करने की अपील करते हैं और कई बार इसे स्वीकार भी कर ली जाती है। मध्य प्रदेश जैसे राज्य में कमजोर अभियोजन के सहारे सतारूढ दल से जुड़े अपराधी खुले आम किये गये अपराधों में भी सन्देह का लाभ पाकर छूट रहे हैं। इससे सारे अपराधी सत्तारूढ दल के नेताओं का संरक्षण तलाशने और उनके पक्ष में आतंक पैदा कर लोकतंत्र को कलंकित कर रहे हैं।
      जनप्रतिनिधि चुने जाने और सत्ता में आने के बाद संविधान में विश्वास होने की शपथ लेनी होती है, किंतु जब ये राजनेता उसी शपथ का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें चुने जाने के बाद भी उस पद पर नहीं रहने दिया जाना चाहिए। उसकी जगह उनके ही दल के किसी दूसरे बेदाग सदस्य को जनप्रतिनिधि नामित किया जा सकता है जिससे लोकतंत्र की भावना को ठेस नहीं लगे। संविधान विरोधी काम करने वाले अपराधी को संविधान सम्मत शासन चलाने और कानून बनाने की जिम्मेवारी नहीं सौंपी जा सकती। जब तक व्यक्ति की जगह दल को महत्व नहीं मिलेगा तब तक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज विचार और कार्यक्रम की जगह विभिन्न कारणों से लोकप्रिय व्यक्तियों, अवैध तरीके से धन कमाने वालों या मतदाताओं को आतंकित करने वाले दबंगों को टिकिट देने की बीमारी सभी दलों में घर करती जा रही है जिसका नमूना हमने हाल के विधान सभा चुनावों में टिकिट वितरण समेत सभी पिछले चुनावों के दौरान भी देखा है। एक राष्ट्रीय दल ने तो उसी आरोपी राजनेता को अपने दल में सम्मलित करने में किंचित भी शर्म महसूस नहीं की जिसके भ्रष्टाचार का विरोध वे लगातार करते आ रहे थे। उल्लेखनीय है कि यही दल सबसे अधिक शुचिता का ढिंढोरा पीटता रहता है।
      देखा गया है कि जनता की ओर से माँग उठे बिना जब सामाजिक विकास और सशक्तिकरण की योजनाएं लागू की जाती हैं तो वे भ्रष्टाचार की शिकार हो जाती हैं। हितग्राही वर्ग को पता ही नहीं होता कि उसके लिए कोई योजना आयी है और उसके लिए पात्रता के क्या मापदण्ड निर्धारित किये गये हैं। सरकारी नौकरशाही उसे किसी खैरात की तरह देती है और उसमें से अपना हिस्सा काट लेती है। कई बार तो पूरी की पूरी राशि ही डकार ली जाती है। छत्तीसगढ में आदिवासियों के विकास के लिए आवंटित राशियों के साथ यही खेल चलता रहा है व उन क्षेत्रों में पदस्थ किये गये इंजीनियर और विकास अधिकारियों की सम्पत्तियां आँखें खोल देती हैं। इसी का परिणाम है कि वहाँ आज नक्सलवादियों के आवाहनों का असर होता है पर सरकारी मशीनरी को नफरत की निगाह से देखा जाता है। आर्थिक भ्रष्टाचार के सामाजिक प्रभावों के बारे में बहुत कम बातें की गयी हैं और केवल उसके आर्थिक पक्ष को ही देखा जाता है। राष्ट्र्रीय ग्रामीण स्वास्थ मिशन में भ्रष्टाचार का केवल आर्थिक पक्ष ही नहीं है अपितु यह भी देखा जाना जरूरी है कि उस भ्रष्टाचार के कारण कितने शिशुओं की अकाल मौतें हुयी हैं और कितने कुपोषण के शिकार हुये हैं। जब ग्रामीण क्षेत्रों में फैलने वाली बीमारियों और जननी सुरक्षा के लिए आवंटित राशि में भ्रष्टाचार से लगातार मौतें हो रही हैं तब प्रत्येक राज्य में एनआरएचएम में भ्रष्टाचार के लिए दोषी पाये जाने वालों पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए। जिले के स्वास्थ अधिकारी का काम केवल बीमार की चिकित्सा करना भर नहीं है अपितु उसे बीमारी न फैलने देने के लिए टीकाकरण और दूसरी सावधानियों के प्रति भी सक्रिय होना चाहिए।
      एनआरएचएम योजना देश के अठारह राज्यों में लागू की गयी थी जिसके लिए केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों को धन उपलब्ध कराया था। जो भ्रष्टाचार उत्तर प्रदेश में उजागर हुआ है वही मध्यप्रदेश समेत दूसरे राज्यों में भी जारी है। प्रदेश के अनेक अधिकारी और मंत्री आयकर विभाग व लोकायुक्त की जाँच के घेरे में हैं व भविष्य में आ सकते हैं क्योंकि मध्य प्रदेश में राजनैतिक चेतना का स्तर काफी पिछड़ा हुआ है जिससे मीडिया भी सत्ता के प्रभाव से ग्रस्त रहता है। भ्रष्टाचार का कोई भी बड़ा मामला मीडिया के द्वारा सामने नहीं आया है। बहुत छोटे अखबारों की कहीं कोई पहुँच नहीं है और बड़े अखबार गम्भीरतम मामलों में भी शर्मनाक चुप्पी साधे रहते हैं। उत्तर प्रदेश में जिस ढंग से यह घोटाला हुआ है उसी को आधार बना कर मध्य प्रदेश समेत सभी सम्बन्धित अठारह राज्यों में तुरंत गहन निरीक्षण कराया जाना चाहिए ताकि समय रहते कुछ सुधारात्मक उपाय किये जा सकें।
      एक महत्वपूर्ण कथन है कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दुहराने के लिए अभिशप्त होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, फ़रवरी 17, 2012

उमा भारती और उत्तर प्रदेश के चुनाव


उमा भारती और उत्तर प्रदेश के चुनाव
वीरेन्द्र जैन
      उमा भारती की भाजपा में वापिसी और उनका मध्य प्रदेश से निष्कासन ही नहीं अपितु उसके बाद का घटनाक्रम भी नाटकीय रहा है। भाजपा जैसी रामलीला पार्टी में यह बहुत अस्वाभाविक भी नहीं है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में उन्हें न केवल चुनाव का स्टार प्रचारक ही बनाया गया अपितु एक सीट से उम्मीदवार भी बनाया गया है। जब प्रदेश भाजपा का कोई दूसरा कोई बड़ा नेता यह दावा भी नहीं कर रहा है कि अगर भाजपा की सरकार बनी तो उसे ही मुख्य मंत्री बनाया जायेगा किंतु तब उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ने वाले प्रमुख नेताओं में मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और एनडीए शासन काल में केन्द्रीय सरकार में मंत्री रही उमा भारती का दिवास्वप्न अस्वाभाविक नहीं है बशर्ते कि वे स्वयं चुनाव जीत जायें और उनकी पार्टी स्वयं में इतनी सीटें जीत ले ताकि किसी दूसरे दल से समझौता करके सरकार बनाने में सफल हो पाये। किंतु यह अन्धविश्वास किसी मुंगेरीलाल को भी नहीं है कि भाजपा पहले तीन पायदान तक पहुँच सकेगी इसलिए उमाभारती  के नेतृत्व के सवाल पर सभी मन्द मन्द मुस्कराते हुए मौन हैं। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। चुनाव परिणामों के बाद न तो कांग्रेस भाजपा को गठबन्धन में सम्मलित कर सकती है और न ही समाजवादी पार्टी। बहुजन समाज पार्टी ने जितनी बार भी भाजपा के साथ सरकार बनायी तब सदैव ही भाजपा को निचले पायदान पर रखा है और गठबन्धन के समय अधिक सदस्य होते हुए भी पहले अपने नेतृत्व वाली सरकार बनायी। तय है पुनः ऐसा कोई अवसर आने पर मायावती भाजपा के नेतृत्व में सरकार चलाने की जगह विपक्ष में बैठना अधिक पसन्द करेंगीं। इसलिए यह तो तय है कि न तो भाजपा की सरकार बन रही है और न ही उमा भारती मुख्यमंत्री। कहा जा रहा है कि उन्हें इसलिए चरखारी से टिकिट दिया गया है ताकि वे बीच चुनाव में कोई बहाना ले कर भाग न निकलें। स्मरणीय है कि बाबू सिंह कुशवाहा के साथ भाजपा द्वारासौदा करने का तीव्र विरोध उन्होंने इसीलिए किया था बरना सुखराम जयललिता आदि से लेकर चौटाला आदि द्वारा समर्थित एनडीए सरकार में मंत्री रहने में उन्हें कभी कोई आपत्ति नहीं रही।  
      इस विषय में रोचक यह है कि मध्य प्रदेश के वे नेता उनकी जीत की कामना और प्रयास कर रहे है जो उनके घनघोर विरोधी रहे हैं। वे चाहते हैं कि उमा भारती इधर से टलें ताकि वे चैन की साँस ले सकें। स्मरणीय है कि बड़ामल्हरा उपचुनाव के दौरान उमा भारती ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर उनकी हत्या का षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया था। यही कारण है कि मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा के पट शिष्य शिवराज उमाभारती से वैसी ही दुश्मनी मानते हैं जैसी कि पटवाजी मानते हैं। पिछले दिनों ही पटवाजी ने एक बयान में उमाभारती के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा था कि वे अब मध्य प्रदेश की वोटर ही नहीं रहीं। पहले भी उन्होंने उमा भारती के बारे में टिप्पणी करते हुए त्रिया चरित्रस्य पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः कह कर बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था। उल्लेखनीय है कि उमा भारती का जिक्र आने पर उनके स्वर में कटुता आ जाती है।
      उत्तर प्रदेश भाजपा में दूसरे भगवा भेषधारी नेता योगी आदित्यनाथ हैं जो भाजपा में रहते हुए भी भाजपा में नहीं हैं अपितु भाजपा उनमें है। वे भाजपा के अनुशासन में नहीं रहते व संघ परिवार के समानांतर अलग से वैसे ही अपने संगठन बनाये हुए हैं। वे भाजपा नेताओं का सम्मान नहीं करते अपितु चुनाव जीतने के लिए भाजपा नेता उनकी चिरौरी करते हैं। विधानसभा के पिछले चुनावों के दौरान भी वे भाजपा को छोड़ कर चले आये थे तब भाजपा के बड़े बड़े नेता उनको मनाने उनके दर पर गये थे और क्षमा मांगते हुए उनके सभी लोगों को उन जगहों से टिकिट दे दिया था जिनके लिए योगी ने आदेश दिया था। अभी भी गत दिनों योगी ने लखनऊ में एक प्रैस कांफ्रेंस में कहा कि किसी को भी बहुमत नहीं मिलेगा। चुनाव के दौरान दिया गया यह बयान यथार्थवादी होते हुए भी न केवल अप्रत्याशित था अपितु इस बात का भी प्रमाण था कि भाजपा नेतृत्व को भी चुनाव जीतने का कोई भरोसा नहीं है। दूसरी ओर नईदिल्ली में भाषण करते हुए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि भाजपा की चुनावी नैया उत्तर प्रदेश में डांवाडोल हो रही है। भाजपा उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आनेवाली है इसलिए स्वयं सेवकों को चाहिए कि वे आँख मूंद कर भाजपा का समर्थन नहीं करें। भाजपा का समर्थन केवल वहीं किया जाये जहाँ वह जीतने की स्थिति में है। उन्होंने अन्य स्थानों पर बहुजन समाज पार्टी का समर्थन करने का आवाहन किया।
      यदि उमाभारती अपनी सीट जीत लेती हैं तो वे जिन्दगी भर के लिए मध्यप्रदेश से बाहर हो जायेंगीं और यदि हार जाती हैं तो उनके नेतृत्व पर सदा के लिए सवालिया निशान लग जाता है। यह भी तय हो जायेगा कि जिन लोधी वोटों के लालच में उमाभारती को उम्मीदवार बनाया था वैसा कुछ नहीं बचा तथा लोधियों का नेतृत्व कल्याण सिंह आदि नेता ही करते हैं। गतदिनों  अपनी भारतीय जनशक्ति की ओर से जब मध्य प्रदेश की सभी सीटों पर उन्होंने अपने उम्मीदवार खड़े किये थे, तब पूरे प्रदेश में कुल मिला कर उन्हें 12 लाख वोट मिल सके थे। उत्तर प्रदेश में पराजय के बाद वे कहीं की नहीं रहेंगीं।
वीरेन्द्र जैन
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