रविवार, फ़रवरी 19, 2012

उत्तर प्रदेश के एन आर एच एम घोटाले - दूसरे राज्य कब सबक लेंगे?


उत्तर प्रदेश के एनआरएचएम घोटाले
 दूसरे प्रदेश कब सबक लेंगे?
वीरेन्द्र जैन
      उत्तर प्रदेश में शर्मनाक अति हो चुकी है। वहाँ एनआरएचएम घोटालों से जुड़े नौ व्यक्तियों की सन्देहात्मक परिस्तिथियों में क्रमशः मृत्यु हो चुकी है और इन मौतों के हत्या होने में शायद ही किसी को सन्देह हो। इतना ही नहीं इन मौतों में से ज्यादातर को आत्महत्या बनाने की कोशिशें भी हुयी हैं। कुछ मौतें तो सरकारी कस्टडी में हुयी हैं। इससे पहले भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में शायद ही इतने ठंडे तरीके से किसी चर्चित मामले में क्रमशः हत्याओं का दुस्साहस पूर्ण कारनामा हुआ हो।
      यह केवल सरकारी संरक्षण में चल रहे आर्थिक भ्रष्टाचार तक सीमित मामला नहीं है अपितु यह पूरी व्यवस्था पर ही सवाल खड़े करता है कि हम किस जंगल तंत्र में जीने को विवश हैं। इस जंगलतंत्र का एक रूप हमने गुजरात में देखा था जहाँ आज भी अपराधी न केवल स्वतंत्र हैं अपितु शान से सत्ता सुख लूट रहे हैं क्योंकि वे अपने दुष्प्रचार से मतदाताओं के एक वर्ग को बरगलाने में सफल हैं और हम लोकतंत्र के नाम पर उनको अपने अपराध छुपाने दबाने व जाँच एजेंसियों को प्रभावित करने की ताकत देने के लिए मजबूर हैं। हरियाणा में चुनावों से ठीक पहले कुछ लोग खाप पंचायत के फैसले के नाम पर सरे आम हत्याएं कर देते हैं और लगभग सभी पार्टियों में बैठे, सत्तासुख के लिए वोटों के याचक उनका खुल कर विरोध भी नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें एक जाति के नाराज हो जाने का खतरा था। न्याय व्यवस्था के रन्ध्रों में से निकल कर लम्बे समय तक सुख से जीने वाले अपराधी न्याय में भरोसा रखने वालों को मुँह चिढाते लगते हैं जिसके परिणामस्वरूप लोग जंगली न्याय में भरोसा करने लगते हैं। समाज में बढती हिंसा के पीछे यह एक प्रमुख कारण बनता जा रहा है। जो लोग न्याय को लम्बे समय तक टलवाते रहने के दोषी हैं वे भी सजा मिलने के बाद में अपनी उम्र और बीमारी का सहारा लेकर सजा माफ करने की अपील करते हैं और कई बार इसे स्वीकार भी कर ली जाती है। मध्य प्रदेश जैसे राज्य में कमजोर अभियोजन के सहारे सतारूढ दल से जुड़े अपराधी खुले आम किये गये अपराधों में भी सन्देह का लाभ पाकर छूट रहे हैं। इससे सारे अपराधी सत्तारूढ दल के नेताओं का संरक्षण तलाशने और उनके पक्ष में आतंक पैदा कर लोकतंत्र को कलंकित कर रहे हैं।
      जनप्रतिनिधि चुने जाने और सत्ता में आने के बाद संविधान में विश्वास होने की शपथ लेनी होती है, किंतु जब ये राजनेता उसी शपथ का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें चुने जाने के बाद भी उस पद पर नहीं रहने दिया जाना चाहिए। उसकी जगह उनके ही दल के किसी दूसरे बेदाग सदस्य को जनप्रतिनिधि नामित किया जा सकता है जिससे लोकतंत्र की भावना को ठेस नहीं लगे। संविधान विरोधी काम करने वाले अपराधी को संविधान सम्मत शासन चलाने और कानून बनाने की जिम्मेवारी नहीं सौंपी जा सकती। जब तक व्यक्ति की जगह दल को महत्व नहीं मिलेगा तब तक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज विचार और कार्यक्रम की जगह विभिन्न कारणों से लोकप्रिय व्यक्तियों, अवैध तरीके से धन कमाने वालों या मतदाताओं को आतंकित करने वाले दबंगों को टिकिट देने की बीमारी सभी दलों में घर करती जा रही है जिसका नमूना हमने हाल के विधान सभा चुनावों में टिकिट वितरण समेत सभी पिछले चुनावों के दौरान भी देखा है। एक राष्ट्रीय दल ने तो उसी आरोपी राजनेता को अपने दल में सम्मलित करने में किंचित भी शर्म महसूस नहीं की जिसके भ्रष्टाचार का विरोध वे लगातार करते आ रहे थे। उल्लेखनीय है कि यही दल सबसे अधिक शुचिता का ढिंढोरा पीटता रहता है।
      देखा गया है कि जनता की ओर से माँग उठे बिना जब सामाजिक विकास और सशक्तिकरण की योजनाएं लागू की जाती हैं तो वे भ्रष्टाचार की शिकार हो जाती हैं। हितग्राही वर्ग को पता ही नहीं होता कि उसके लिए कोई योजना आयी है और उसके लिए पात्रता के क्या मापदण्ड निर्धारित किये गये हैं। सरकारी नौकरशाही उसे किसी खैरात की तरह देती है और उसमें से अपना हिस्सा काट लेती है। कई बार तो पूरी की पूरी राशि ही डकार ली जाती है। छत्तीसगढ में आदिवासियों के विकास के लिए आवंटित राशियों के साथ यही खेल चलता रहा है व उन क्षेत्रों में पदस्थ किये गये इंजीनियर और विकास अधिकारियों की सम्पत्तियां आँखें खोल देती हैं। इसी का परिणाम है कि वहाँ आज नक्सलवादियों के आवाहनों का असर होता है पर सरकारी मशीनरी को नफरत की निगाह से देखा जाता है। आर्थिक भ्रष्टाचार के सामाजिक प्रभावों के बारे में बहुत कम बातें की गयी हैं और केवल उसके आर्थिक पक्ष को ही देखा जाता है। राष्ट्र्रीय ग्रामीण स्वास्थ मिशन में भ्रष्टाचार का केवल आर्थिक पक्ष ही नहीं है अपितु यह भी देखा जाना जरूरी है कि उस भ्रष्टाचार के कारण कितने शिशुओं की अकाल मौतें हुयी हैं और कितने कुपोषण के शिकार हुये हैं। जब ग्रामीण क्षेत्रों में फैलने वाली बीमारियों और जननी सुरक्षा के लिए आवंटित राशि में भ्रष्टाचार से लगातार मौतें हो रही हैं तब प्रत्येक राज्य में एनआरएचएम में भ्रष्टाचार के लिए दोषी पाये जाने वालों पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए। जिले के स्वास्थ अधिकारी का काम केवल बीमार की चिकित्सा करना भर नहीं है अपितु उसे बीमारी न फैलने देने के लिए टीकाकरण और दूसरी सावधानियों के प्रति भी सक्रिय होना चाहिए।
      एनआरएचएम योजना देश के अठारह राज्यों में लागू की गयी थी जिसके लिए केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों को धन उपलब्ध कराया था। जो भ्रष्टाचार उत्तर प्रदेश में उजागर हुआ है वही मध्यप्रदेश समेत दूसरे राज्यों में भी जारी है। प्रदेश के अनेक अधिकारी और मंत्री आयकर विभाग व लोकायुक्त की जाँच के घेरे में हैं व भविष्य में आ सकते हैं क्योंकि मध्य प्रदेश में राजनैतिक चेतना का स्तर काफी पिछड़ा हुआ है जिससे मीडिया भी सत्ता के प्रभाव से ग्रस्त रहता है। भ्रष्टाचार का कोई भी बड़ा मामला मीडिया के द्वारा सामने नहीं आया है। बहुत छोटे अखबारों की कहीं कोई पहुँच नहीं है और बड़े अखबार गम्भीरतम मामलों में भी शर्मनाक चुप्पी साधे रहते हैं। उत्तर प्रदेश में जिस ढंग से यह घोटाला हुआ है उसी को आधार बना कर मध्य प्रदेश समेत सभी सम्बन्धित अठारह राज्यों में तुरंत गहन निरीक्षण कराया जाना चाहिए ताकि समय रहते कुछ सुधारात्मक उपाय किये जा सकें।
      एक महत्वपूर्ण कथन है कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दुहराने के लिए अभिशप्त होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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