नेपथ्यलीला NEPATHYALEELA
राजनीतिक सामाजिक और साहित्यिक रंगमंच के नेपथ्य में चल रही घात प्रतिघातों का खुलासा
सोमवार, जनवरी 29, 2024
श्रदेधांजलि/ संस्मरण डा. धनंजय वर्मा
शुक्रवार, दिसंबर 15, 2023
श्रद्धांजलि / संस्मरण मधुप पांडेय
श्रद्धांजलि / संस्मरण मधुप पांडेय
प्रो. मधुप पांडेय अपने क्षेत्र के कवियों के मुखिया थे
वीरेन्द्र जैन
मधुप पांडेय जी मेरे धर्मयुग परिवार के सदस्य थे और मैं विनोद में उन्हें धर्म [युग] भाई कहता था। धर्मयुग के रंग और व्यंग्य स्तम्भ में वे मेरे वरिष्ठ थे इसलिए आदरणीय थे। नवभारत विदर्भ क्षेत्र का ही नहीं, किसी समय हिन्दुस्तान का सबसे अधिक सर्कुलेशन वाला अखबार था जिसके रविवारीय परिशिष्ट में स्तम्भ लिखा करते थे। वे अखबार के मालिकों के प्रिय और विश्वासपात्र थे। नागपुर के सीतावर्डी में विदर्भ साहित्य सम्मेलन नामक संस्था का भवन था जिसमें पुस्तकालय, वाचनालय के साथ गोष्ठी कक्ष भी थे। इस संस्था का नियंत्रण नवभारत के मालिक महेश्वरी बन्धुओं के पास था और मधुप पान्डेय एक समय उसकी संचालन समिति के प्रमुख सदस्यों में से एक थे। उनकी लोकप्रियता का एक और आयाम था कि वे पूरे विदर्भ क्षेत्र में होने वाले कवि सम्मेलनों के पसन्दीदा संचालक थे। गणेश उत्सवों के दौरान कवि सम्मेलनों की श्रंखला चला करती थी जिसके संचालक होने के कारण वे देश भर के मंचीय कवियों के आकर्षण का केन्द्र रहा करते थे।
मैंने जब धर्मयुग में छपने का अवसर पाया तो रचनाएं भेजने में निरंतरता बनाये रखी। इसे देख कर तत्कालीन उपसम्पादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने मुझ से रंग और व्यंग्य स्तम्भ में लतीफे लिखने के लिए कहा। इस आग्रह या कहें कि मौके को मैं ठुकरा नहीं सका और पूरी क्षमता से इस स्तम्भ में नये नये प्रयोग किये जिनमें से एक साहित्यकारों पर झूठे लतीफे लिखना भी था। इसमें विनोद के लिए लतीफे में साहित्यकार का नाम जोड़ दिया जाता था। कवि सम्मेलन के कवियों का नाम धर्मयुग में आने से उनकी लोकप्रियता में और वृद्धि होती थी। वे इससे खुश होते थे।
इसी दौरान मुझे मधुप पांडेय जी का एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि ‘ इन दिनों आप धर्मयुग में धड़ल्ले से छप रहे हैं, इसी क्रम में एकाध लतीफा मेरे ऊपर भी चिपका दिया करें’। मुझे पत्र पाकर अच्छा लगा और मन में मंचों पर मौका पाने की दबी छुपी कुलबुलाती आकांक्षा को रास्ता मिलता दिखा। मैंने उनका नाम भी जोड़ा, किंतु तभी एक हादसा सा हो गया। मैंने एक लतीफा लिखा था जिसमें मधुप पांडेय के बेटे के स्कूल जाने के प्रारम्भिक अनुभव पर व्यंग्य था।
लतीफे के प्रकाशन के कुछ दिनों बाद उनका पत्र आया कि ‘ आपके लतीफे से एक गड़बड़ हो गयी है। दर असल मेरे कोई संतान नहीं है और आपका लतीफा पढ कर अनेक लोगों ने पिता बनने की बधाइयां देना शुरू कर दिया है।‘ यह महसूस ही किया जा सकता है कि ऐसी दशा में परिवार को कैसा महसूस हो रहा होगा। मैंने क्षमा याचना तो की ही किंतु झूठे लतीफे लिखना बन्द कर दिया।
जब मेरा नागपुर ट्रांसफर हुआ तो उन्होंने विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में मेरा परिचय कराया जिनमें भाऊ समर्थ, कार्यालय प्रबन्धक परसाई, राजेन्द्र पटौरिया आदि थे। दामोदर खडसे भी उन दिनों नागपुर ही पदस्थ थे जिनसे मैं पूर्व से ही परिचित था। कार्यालीन परिस्तिथिवश मैं नागपुर कुल तीन महीने ही रह सका किंतु इसी दौरान मधुप जी के कारण पूरे नागपुर का हिन्दी साहित्य परिवार मेरा अपना परिवार बन चुका था। नवभारत के एक पूर्व सम्पादक शुक्ला जी भी मोर भवन [ सम्मेलन के भवन का नाम ] नियमित रूप से आते थे और उनके लम्बे सम्पादकीय काल के संस्मरण और उनकी स्मृति दंग कर देती थी। नागपुर से विदा होते समय उन्होंने घर पर खाने के लिए बुलाया था और मैं लतीफे वाली घटना से एक अपराध बोध सा लेकर उनके घर गया था। असमंजस में रहा था कि भाभीजी से क्षमा मांग कर कहीं पुरानी बात को कुरेद कर दुख ना पहुंचा दूं इसलिए लगातार अव्यक्त क्षमाप्रार्थी बना रहा।
मधुप जी की स्मृतियों को सादर नमन।
शनिवार, नवंबर 18, 2023
श्रद्धांजलि / संस्मरण से.रा.यात्री मेरे बड़े भाई से बढ कर रहे यात्रीजी
श्रद्धांजलि / संस्मरण से.रा.यात्री मेरे बड़े भाई से बढ कर रहे यात्रीजी
रविवार, नवंबर 05, 2023
फिल्म समीक्षा 12वीं फेल संवेदनशीलता से प्रेरणादायक सत्य कथा का फिल्मीकरण
फिल्म समीक्षा 12वीं फेल
संवेदनशीलता से प्रेरणादायक सत्य कथा का फिल्मीकरण
वीरेन्द्र जैन
कोई कहानी कितनी भी काल्पनिक हो किंतु जब उस पर फिल्म बनती है तो उसके दृश्य पटकथा लेखक के अपने अनुभव स्मृतियों और अध्यन से जुड़े होते हैं जिन्हें गूंथ कर वह कहानी को मौलिक रूप देने की कोशिश करता है। मिर्ज़ा गालिब का एक शे’र है –
देखिए तकरीर की लज्जत कि उसने जो कहा
सुनने वाला भी ये समझे ये हमारे दिल में है
12वीं फेल की पटकथा बिल्कुल सच्ची घटना पर आधारित है जो फिल्म बनने से पहले उपन्यास के रूप में और विभिन्न समाचार कथाओं के माध्यम से चर्चित हो चुकी है। यह सत्यकथा इतनी घटना प्रधान है कि विधु विनोद चोपड़ा जैसे जाने माने फिल्मकार को फिल्म निर्माण के लिए उपयुक्त लगी। चम्बल जैसे क्षेत्र में जहाँ बात बात में बन्दूकें निकाल कर गोलियों की भाषा में बात की जाती है। जहाँ की महिलाएं भी अपनी आन के लिए युवाओं को बन्दूक के प्रयोग से रोकती नहीं अपितु प्रोत्साहित करती हैं, वहां का एक निम्न आर्थिक स्थिति वाला परिवार स्थानीय विधायक से टकराने पर सरकारी मशीनरी की ज्यादतियों का शिकार होता है। जब वहां एक ईमानदार पुलिस अधिकारी पदस्थ होता है तो वह विधायक के स्कूल में चलने वाला नकल का गोरखधन्धा बन्द करा देता है जिससे सभी लड़के फेल हो जाते हैं, जिनमें कथा नायक भी है। वह हार कर जुगाड़ नामक स्थानीय रूप से जोड़े हुए वाहन से सवारियां ढोने लगता है जो विधायक की बस की आमदनी को कम कर देती है। पुलिस की मदद से विधायक उसे भी बन्द करा देता है। ईमानदार पुलिस अधिकारी विधायक से बिना डरे इसमें उसकी मदद करता है। इससे वह अधिकारी उसका आदर्श बन जाता है जो अपने साहस का मूल मंत्र ईमानदारी और सच्चाई को बतलाता है। कथा नायक तय करता है कि वह पुलिस अधिकारी बनेगा और ईमानदारी से समाज हित में काम करेगा। अभावों में रहते हुए ही वह कठोर मेहनत से यूपीएससी की परीक्षा पास कर डीवायएसपी बन जाता है। साथियों का विश्वास प्राप्त करता है, एक आई आर एस की परीक्षा में बैठने वाली लड़की का प्रेम जीतता है और दोनों अधिकारी बन कर ईमानदारी से काम करते हुए खुश रहते हैं।
इस घटना को फिल्म में बदलते हुए फिल्मकार जो दृश्य और संवाद दर्शाते हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं और बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाते हैं। चम्बल का असल इलाका जो इस क्षेत्र पर बनने वाली फिल्मों में इससे पहले केवल फिल्म ‘बैंडिट क्वीन‘ में ही इतनी स्वाभाविकता में दर्शाया गया था। वहां के घर, गाँव, लोग, उनके स्वभाव, उनकी बोली, उनकी मुखरता, और उनका अपना कानून सब कुछ वैसा ही है जैसा चम्बल को जानने वाले जानते हैं। ‘राग दरबारी’ के वैद्यजी जैसे विधायक हैं जो स्कूल से लेकर बस तक, पंचायत व पुलिस थाने को अपनी जागीर समझ कर संचालित करते हैं। शिक्षा ही नहीं आवागमन के साधन भी उसी काल के हैं और असहमत होने पर पुलिस और अधिकारी किसी को भी अपराधी बना कर छोड़ सकते हैं।
यूपीएससी की तैयारी में हिन्दी मीडियम से पढ कर निकले प्रतिभावानों की समस्या हो या कमजोर आर्थिक स्थिति वाले छात्रों के दिल्ली जैसे महानगरों में रहने खाने की समस्या हो, ट्यूटोरियल संस्थानों के शोषण हों या जीवन स्तर में पिछड़ने की कुण्ठाएं हों सब कुछ दर्शाया गया है। फिल्म थ्री ईडियट की तरह पिता की इच्छाओं को पूरी करने के लिए पढने वाले सम्पन्न परिवारों के बच्चों का दर्द भी सामने आया है। यूपीएससी के चयनकर्ताओं के दृष्टिकोण और संस्थान की अभिजात्य संस्कृति भी दृष्टिगोचर होती है जिसमे सामान्य परिवार से आने वाला बुझ सा जाता है। पुलिस व्यवस्था और कानूनों के बारे में सामान्य पुलिस वाले भी उतने ही अनभिज्ञ होते हैं जितनी जनता व कानून और अंग्रेजी के आगे पुलिस क व्यवहार बदल जाता है। कुल मिला कर यह एक राजनीतिक फिल्म भी है जिसमें अटल बिहारी की कविता- हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं। थीम सौंग की तरह बार बार आता है। एक बार चुनाव हारने के बाद की पहली सभा में अटल जी ने अपने अन्दाज में डमरू बजाने की तरह हाथ घुमाते हुए कहा था- हम चुनाव जरूर हारे हैं, पर हिम्मत नहीं हारे। यूपीएससी परीक्षा के साक्षात्कार लेने वाले अधिकारी तो कथा नायक के एक उत्तर में प्रतिक्रिया देते हैं कि उसे तो पोलटिक्स ज्वाइन कर लेना चाहिए।
फिल्म के पात्रों के चयन में जिस कौशल का प्रयोग किया गया है वह अद्भुत है। वे सब के सब स्वाभाविक लगते हैं। सभी ने भूमिका के साथ न्याय किया है और अपने संवेदनशील अभिनय से वे दर्शकों की आँखों को भिगो सकने में समर्थ हुये हैं। कला दिल से जोड़ती है और यह फिल्म दर्शकों के मर्म को स्पर्श करने में सफल हुयी है।
स्वतंत्रता के बाद देश में जो बड़े आन्दोलन हुये हैं, उनके मूल में भ्रष्टाचार का विरोध ही रहा है। 1975 में गुजरात का छात्र आन्दोलन तत्कालीन मुख्यमंत्री पर लगे भ्रष्टाचार से ही प्रारम्भ हुआ था जिसे जयप्रकाश नारायण आगे ले गये थे और फिर इमरजैंसी की स्थिति बनी थी। 1989 में राजीव गाँधी पर बोफोर्स काण्ड के कमीशन के आरोप में सत्ता परिवर्तन हुआ था। अन्ना और केजरीवाल का आन्दोलन भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आन्दोलन था और मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ भी टू जी, थ्री जी, फोर जी, आदि के आरोपों के कारण सरकार बदली थी और मोदी को मौका मिल गया था। इस फिल्म का मूल स्वर भी प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदारी को स्थापित करने का है। यही कारण रहा है कि इसके साथ ही सरकार द्वारा प्रोत्सहित अभिनेत्री कंगना रनौत की फिल्म तेजस उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्रियों के प्रमोशन के बाद भी पिट गयी और ‘12वीं फेल’ पास हो गयी। यह फिल्म इस लायक है कि इसे टैक्सफ्री करके स्कूल कालेज के छात्रों को दिखाये जाने के शो आयोजित किये जाने चाहिए। सुना जा रहा है कि यह दक्षिण भारत की कई भाषाओं में डब करके प्रदर्शित की जा रही है। यह अच्छी बात है। फिल्म के नायक विक्रांत मैसी से उम्मीदें जगती हैं वे अभिनय की दुनिया में बहुत आगे जायेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
गुरुवार, सितंबर 07, 2023
श्रद्धांजलि ; संस्मरण हसीब सोज़ एक बार फिर मैंने देर कर दी
श्रद्धांजलि ; संस्मरण हसीब सोज़
एक बार फिर मैंने देर कर दी
वीरेन्द्र जैन
मुझे एक बार फिर मुनीर नियाज़ी की उस नज़्म का
मिसरा दुहराना पड़ रहा है – “ हमेशा देर कर देता हूं मैं “
इस बार शायर हसीब सोज की मृत्यु का समाचार सुनने
के बाद अफसोस के साथ यही मिसरा याद आ गया। सोज़ साहब से मेरी कोई मुलाकात नहीं थी
किंतु लगभग बीस साल पहले से मैं इस प्रतीक्षा में था कि कभी संयोग वश उनसे भेंट हो
जायेगी और मैं उन्हें यह घटना सुनाऊंगा।
प्रदीप चौबे मेरे साहित्यिक बचपने के दोस्त थे,
अर्थात जब उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया था, लगभग उसी समय मैंने भी लिखना छपना
प्रारम्भ किया था। 1976-77 के दौरान जबलपुर से व्यंग्य की एक पत्रिका ‘व्यंग्यम’
का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ और उसके किसी अंक में हम दोनों की रचना प्रकाशित हुयी तो
रचनाएं पढ कर दोनों ने ही एक ही समय में एक दूसरे को पहले पत्र लिखे जो क्रास हो
गये। इस संयोग ने दोनों को ही आनन्द दिया जिससे मित्रता को बल मिला। जब परिचय में
पता चला कि हम दोनों ही बैंक में काम करते हैं तो और बल मिला। कुछ वर्ष भटक कर मैं
गृह नगर दतिया लौट आया और उन्होंने कवि सम्मेलनों में अपना लंगोटा फहरा दिया था
इसलिए ट्रान्सफर से बचने के लिए प्रमोशन नहीं लिया और ग्वालियर में ही स्थायी होकर
रह गये थे। फिर तो सायास अनायास मुलाकातों का सिलसिला बढता गया। हिन्दी कविता के
मंच पर स्टेंड अप कामेडी को प्रस्तुत करने वाले वे पहले व्यक्ति थे भले ही
उन्होंने इसे यह नाम नहीं दिया था। वे मूलतयः गज़लगो थे और जब उन्होंने गज़ल में
व्यंग्य का प्रयोग किया तो उसे व्यंग्यजल का नाम दिया जो चल निकला । मंच पर उनका
बड़ा नाम हो गया था किंतु उन्होंने कभी इसका अहंकार नहीं किया और हमेशा पुराने
अन्दाज़ में ही मिलते रहे। प्रदीप का एक गुण और था कि वे अपने समकक्षों से ईर्षा
नहीं करते थे अपितु प्रत्येक को उसका पूरा श्रेय देते थे, सम्मान करते थे। उनके
समकालीनों में यह गुण दुर्लभ हो गया था और हम लोग कई बार इस विषय पर बात कर चुके
थे। वे गुण ग्राहक थे।
जब मैं भरतपुर में थ तो एक योजना कौंधी थी कि मंच
के लोकप्रिय कवियों से पत्र व्यवहार कर उन्हें इस बात के लिए तैयार कर लिया जाये
कि वे जब भी आसपास के कवि सम्मेलनों में जा रहे हों तो थोड़ा सा समय निकाल कर हमारे
नगर में भी चुनिन्दा सहित्य रसिक श्रोताओं के समक्ष अपनी सुविधानुसार एक दो घंटे
का रचना पाठ न्यूनतम भेंट स्वीकार करके करें। मैं इस योजना को कार्यरूप नहीं दे
सका था किंतु इस योजना को बहुत बाद में प्रदीप ने ग्वालियर में सफलतापूर्वक
कार्यरूप दिया। वे पूरा पारिश्रमिक देकर किसी एक रचनाकार को एकल पाठ के लिए पूरे
सम्मान के साथ बुलाते थे और उस कार्यक्रम में ग्वालियर नगर के सभी श्रेष्ठ रसिक
श्रोता और विशिष्टजन पधारते थे। मुझे भी कार्ड भेजते थे और दतिया से मैं भी सुनने
के लिए आता था। कार्यक्रम का नाम ‘आरम्भ’ था। बाद में उन्होंने इसी नाम से एक
वार्षिक पत्रिका भी निकाली थी जिसमें देश विदेश के चुनिन्दा शायरों की चुनिन्दा रचनाएं
छापते थे। उनका चयन बेहतरीन होत था।
एक बार हम लोग कहीं होटल के एक ही कमरे में रुके
हुये थे और साहित्य पर बेतरतीब बातचीत चल रही थी। मैंने इसी क्रम में एक शे’र
सुनाया-
तुम्हारा घर बहुत संवरा सजा है
तुम्हारे घर में क्या बच्चे नहीं हैं
उन्हें यह शे’र बहुत पसन्द आया और कहा कि पूरी गज़ल सुनाइए। मैंने कहा
कि गज़ल नहीं यह तन्हा शे’र है और वह भी एक तरह से चोरी का शेर है। इतना ही नहीं ये
आपकी पत्रिका आरम्भ की एक रचना से प्रभावित है। इस पर वे बोले कि आरम्भ में तो ऐसा
कोई शेर नहीं छपा, मुझे तो सब अच्छे शेर याद रहते हैं।
इस पर मैंने कहा कि यह सीधी चोरी का मामला नहीं है अपितु प्रभाव ग्रहण
करने का मामला है। आरम्भ -1 में ही किसी गज़ल का शे’र है –
कपड़ों की सलवटों पै बहुत नाज़ है हमें
घर से निकल रहे थे कि बच्चा लिपट गया
प्रदीप बोले यह हसीब सोज़ की गज़ल का शे’र है किंतु अगर इस प्रभाव के
आधार पर चोरी का शे’र कहोगे तो पूरे साहित्य के बड़े हिस्से को चोरी का बताना
पड़ेगा।
इसके बाद जब मिलते जुलते प्रभाव के शेरों,
कविताओं का सिलसिला शुरू हुआ तो इसमें घंटों गुजर गये और नये नये अन्वेषण होते
गये।
मैं उसी दिन से हसीब सोज़ को खोज खोज कर पढने लगा
और सोचने लगा कि जब कभी उनसे भेंट होगी तो उन्हें यह घटना सुनाते हुए उनकी रचनाओं
के प्रति अपनी पसन्दगी व्यक्त करूंगा। जब से उन्हें फेसबुक पर पढता था तो अपने आप
लाइक के बटन पर उंगली दब जाती थी। मैं उन्हें मुनव्वर राना की परम्परा का शायर
मानता था और उसी क्रम में पसन्द करता था। उनकी सादगी के कारण उन्हें वह स्थान नहीं
मिल सका जिसके वे हकदार थे, किंतु उन्होंने साहित्य प्रेमी पाठकों के दिलो दिमाग
में बड़ी जगह बनायी हुयी थी। उन्हीं का शे’र है-
अच्छा हुआ जो लग गए जा कर ज़मीन से
अब कितना काम लेते पुरानी मशीन से
विनम्र श्रद्धांजलि
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
सोमवार, सितंबर 04, 2023
संस्मरण ; दुष्यंत की गज़लों की पैरोडी
संस्मरण ; दुष्यंत की गज़लों की पैरोडी
वीरेन्द्र जैन
पैरोडी, ऐसी विधा है जो किसी ऐसी रचना के रूप [ फार्म ] को आधार बना कर लिखी जाती है जो बहुत लोकप्रिय हो चुकी हो, और लोगों के दिलो दिमाग पर चढ चुकी हो। आम तौर पर पैरोडी मूल रचना की याद दिला कर पाठक / श्रोता को नास्टलिजिक कर गुदगुदा देती है। पैरोडी हास्य या व्यंग्य भाव पैदा करने के लिए ही लिखी जाती रही है। कई बार किसी लोकप्रिय विचार को क्षेत्रीय भाषा में लिख देने पर भी वह पैरोडी का मजा देने लगता है।
पिछली सदी के सत्तर के दशक में जब मैंने पत्र पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया था, उन्हीं दिनों दुष्यंत कुमार की गज़लें देश पर छा रहे थीं। हर कोई अपने भाषणों या लेखों में उनके शे’रों का उल्लेख कर रहा था और नये सैकड़ों रचनाकार उनके शिल्प में लिखने का प्रयास कर रहे थे जिसे हिन्दी गज़ल का नया नाम मिल गया था। मैं टाइम्स ग्रुप की फिल्मी पत्रिका माधुरी के ‘चित पट चक्रम’ नामक स्तम्भ में फिल्मी पैरोडियों के मध्यम से अपनी सामायिक राजनीतिक प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता था। इसी क्रम में मैंने उस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय गज़लकार दुष्यंत कुमार की गज़लों की पैरोडियां लिखीं। इन पैरोडियों के सहारे मैं अपने विचार व्यक्त करता था। मैंने कभी भी मूल रचनाकार के विचारों या भावनाओं का उपहास नहीं किया।
जब 1977 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने इमरजैंसी समाप्त करके आम चुनावों की घोषणा कर दी तो अनेक विपक्षीदलों ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट होकर जनता पार्टी का गठन किया और लोकदल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा। इमरजैंसी के कठोर अनुशासन से ऊबी हुयी जनता घुटन से मुक्त होने के लिए आँख मूंद कर विपक्षी गठबन्धन के साथ खड़ी हो गयी। पूरे देश में काँग्रेस की हार और जनता पार्ती की जीत का वातावरण बन गया था। इसे ही महसूस करके मैंने दुष्यंत कुमार की गज़ल ‘ बाढ की सम्भावनाएं सामने हैं, और नदियों के किनार घर बने हैं” की पैरोडी लिख डाली और लोकप्रिय साप्ताहिक ब्लिट्ज़ को भेज दी। इसके कुछ शे’र इस तरह थे-
हार की सम्भावनाएं सामने हैं,
और निर्वाचन की खातिर हम खड़े हैं
हमें चमचों ने बहुत ऊंचा उछाला,
लग रहा था आज हम सबसे बड़े हैं
सत्य का सूरज यहीं गुम हो गया है,
जिस जगह बिखरे हुये ये आंकड़े हैं
सिर मुढाने की सलाहें दी गयी थीं,
सिर मुढाते ही मगर ओले पड़े हैं
उन दिनों ब्लिट्ज़ की चिनगारी भी ठंडी पड़ चुकी थी इसलिए चुनाव के दौरान भेजी यह रचना उन्होंने उस अंक में छापी जिस दिन चुनाव परिणाम आने लगे थे।
कवि सम्मेलनों के मनोरंजन सम्मेलनों में बदल जाने का भी यही समय था। उन्हीं दिनों मैं भी कवि सम्मेलनों की तरफ आकर्षित हो रहा था किंतु उन मंचों पर पकड़ नहीं बना सका। अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए मैंने दुश्यंत कुमार की गज़ल ‘मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे ‘ का सहारा लिया और पैरोडी लिखी जो कवियों के प्रमुख मंच रंग चकल्लस की पत्रिका ‘रंग’ में छपी।
मिला निमंत्रण सम्मेलन का, गीत सुनाने आयेंगे
गीतों से ज्यादा अपना पेमेंट पकाने आयेंगे
बड़े बड़े कवि ले आयेंगे, प्यारी प्यारी शिष्याएं
निज बीबी से दूर रंग रेलियां मनाने आयेंगे
नामॉं से बेढंगे, रंग बिरंगे हास्यरसी कविवर
चोरी किये हुए फूहड़ चुटकले सुनाने आयेंगे
इमरजैंसी पर लिखी उनकी प्रसिद्ध गज़ल ‘ये जुबां हमसे सीं नहीं जाती’ की पैरोडी लिखनी पड़ी जब नौकरी में नौकरशाही ने परेशान कर डाला था। इसे ‘माधुरी ‘ ने प्रकाशित किया था।
नौकरी हमसे की नहीं जाती
क्योंकि चमचागिरी नहीं आती
अफसरों के विशाल बंगलों पर
नाक हमसे घिसी नहीं जाती
उनके कुत्ते भी बोलते इंग्लिश
हमको घिस्सी पिट्टी नहीं आती
तानाशाही चली गयी होगी
देश से अफसरी नहीं जाती
फिल्म विषयक पैरोडियों के लिए भी दुष्यंत कुमार की चर्चित गज़ल ‘ एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है “ की माधुरी में लिखी पैरोडी देखिए –
स्वार्थ ही जिस जगह की सबसे बड़ी पहचान है
उस जगह का नाम ही दुनिया में फिल्मिस्तान है
रास्ते पीछे से खुलते हैं यहाँ पर हर जगह
सामने ‘ नो एंट्री’ है और इक दरवान है
दो तरह के लोग ही मिलते हैं फिल्मी क्षेत्र में
थोड़े जीनत की तरह के थोड़े संजय खान हैं
कल वो जंगल में मिला था साथ सांभा को लिये
मैंने पूछा नाम तो बोला कि अमज़द खान है
सिलसिला चला तो मैंन फिर नीरज जी, रंगजी, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी आदि के अनेक चर्चित गीतों की पैरोडियां लिखीं जो सभी तत्कालीन राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में तब तक प्रकाशित हुयीं जब तक कि मुझे ही यह लेखन निरर्थक नहीं लगने लगा। कभी कभी कुछ घटनाओं से बचपना भी याद आ जाता है और निजी तौर पर सुख दे जाता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023