शुक्रवार, मार्च 10, 2023

डा. ज्ञान चतुर्वेदी को व्यास समान

 


डा. ज्ञान चतुर्वेदी को व्यास समान

वीरेन्द्र जैन

हिन्दी व्यंग्य के शिखर लेखक डा. ज्ञान चतुर्वेदी को देश के सबसे बड़े सम्मानों में से एक के. के. बिरला फाउंडेशन के व्यास सम्मान मिलने की खबर से सचमुच खुशी हुयी। आम तौर पर पुरस्कार सम्मानों की खबरें मुझे प्रभावित नहीं करतीं किंतु राजेश जोशी, उदय प्रकाश, और ज्ञान चतुर्वेदी जैसे साहित्यकारों को मिलने वाले पुरस्कार सम्मान से इसलिए खुशी मिलती है क्योंकि ये सम्मान उनके हजारों, लाखों पाठकों का सम्मान भी होता है जो उनके लिखे को पसन्द करते हैं। ये पाठक उनको मिले पुरस्कार या उसकी राशि से प्रभावित होकर अपने लेखक को पसन्द नहीं करते हैं अपितु उनके रचनाकर्म से प्रभावित होकर उन्हें पसन्द करते हैं और पुरस्कार सम्मान उनकी पसन्दगी का सम्मान भी होता है। उन्हें भी लगता है कि वे सही हैं।

ज्ञान चतुर्वेदी इस काल के व्यंग्य लेखकों में निरंतर श्रेष्ठ पत्रिकाओं में नियमित लिखने वाले, श्रेष्ठ प्रकाशकों द्वारा पुस्तकाकार रूप से सामने आने वाले, और पाठकों, समीक्षकों द्वारा पसन्द किये जाने वाले लेखकों में से एक हैं। वे एक अच्छे चिकित्सिक के रूप में अपना सर्वोत्तम देते हुए अपना लेखन कर रहे हैं, क्योंकि वे सहित्येतर गतिविधियों में नहीं उलझते। वे ऐसे समारोहों में अपना समय नहीं गंवाते जहाँ से और अधिक ज्ञान सम्पन्न होने की सम्भावना न हो। वे समकालीन साहित्य से परिचित भी रहते हैं और वह सब कुछ भी पढते रहते हैं जो साहित्य के केन्द्र में रहने वालों द्वारा पढा जाना चाहिए।

जो लोग ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन से कम परिचित हैं, उन्हें यह घोषणा चौंका सकती है क्योंकि इससे पूर्व यह पुरस्कार जिन लोगों को मिला है उनमें व्यंग्य से जुड़े दो नाम हैं, एक श्रीलाल शुक्ल और दूसरे नरेन्द्र कोहली किंतु इन्हें जिन पुस्तकों के लिए मिला है वे व्यंग्य उपन्यास नहीं थे। जिन अन्य लोगों को यह सम्मान मिले है, उनमें शामिल हैं डा. राम विलास शर्ना, शिव प्रसाद सिंह, गिरजा कुमार माथुर, धर्मवीर भारती, कुंवर नारायण, केदार नाथ सिंह, गोविन्द मिश्र, गिरिराज किशोर, रमेश चन्द्र शाह, परमानन्द श्रीवास्तव, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, अमरकांत, विश्वनाथ त्रिपाठी, ममता कालिया, लीलाधर जगूड़ी, नासिरा शर्मा, असगर वजाहत आदि। इनमें से ज्यादातर लोग भाषा के अध्यापन या सम्पादन से जुड़े रहे हैं। चिकित्सा के पेशे से आकर यह सम्मान पाने वाले ज्ञान चतुर्वेदी विरले लोगों में से एक होंगे।

उन्हें मिले पुरस्कारों की विविधता भी कुछ कहती है कि उनके लेखन को चतुर्दिक मान्यता मिली है। भारत सरकार ने 1915 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया तो दिल्ली अकादमी ने व्यंग्य का अकादमी सम्मान दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ कृति का सम्मान दिया तो मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान दिया। 1992 में अट्टहास युवा सम्मान मिला तो 2014 में अट्टहास शिखर सम्मान मिला। गोयनका व्यंग्यभूषण सम्मान मिला तो लन्दन का इन्दु शर्मा सम्मान मिला। पागलखाना के लिए ही प्रिंट श्रेणी में [उपन्यास] 2018 का शब्द सम्मान मिला तो वैली आफ वर्ड्स की ओर से सम्मान मिला।

ज्ञान चतुर्वेदी ने प्रारम्भ में पत्रिकाओं के कलेवर के अनुरूप व्यंग्य लिखे और वे उसमें हास्य के उचित अनुपात को बनाये रखने का ध्यान रखते थे। फिर शायद राग दरबारी से प्रभावित होकर वे उपन्यास की ओर झुके और नरक यात्रा से शुरू करके बारामासी की सफलता से प्रोत्साहित होकर उन्होंने उपन्यासों की झड़ी लगा दी। ये उपन्यास जीवन की समीक्षा करने के साथ पाठकों की रुचि के लिए रोचकता का भी ध्यान रखते थे। वे श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी और मुश्ताक अहमद यूसुफी के अन्दाज से भी प्रभावित नजर आते हैं।

जिस उपन्यास ‘पागलखाना’ के लिए उन्हें यह सम्मान मिला है उसके बारे में मेरा विश्वास है कि इसकी सिनोप्सिस तैयार करने से पहले उन्होंने अपने मित्र प्रभु जोशी से जरूर विमर्श किया होगा। प्रभु जोशी हिन्दी के बहुत समर्थ लेखक और विचारक थे। उनकी भाषा से मैं बहुत प्रभावित था। ‘पागलखाना’ की प्रशंसा में उन्होंने जो लिखा था उससे मेरी बात और स्पष्ट हो सकेगी।

"पागलखाना ग़्य़ान चतुर्वेदी का पांचवां उपन्यास है। बाजारवाद तथा भूमण्डलीकरण की सांस्कृतिक चपेट में आ चुके भारतीय उप-महाद्वीप का दारुण यथार्थ को वृहद औपन्यासिक कृति के रूप में कदाचित किसी भी भारतीय भाषा में पहली बार प्रस्तुत करते हुए, ज्ञान चतुर्वेदी अपने प्रस्तुत उपन्यास में इस नये निर्मम यथार्थ के मायावी खेल की एक अप्रतिम फेंटेसी रचते हैं और उस फेंतेसी के विचित्र पात्रों के जरिये बाज़ारवाद  को विजयोल्लास के साथ ली जाने वाली परिसंघटना का जो छद्म है, उसे बहुत सूक्ष्म लेखकीय विवेक के साथ पर्त दर पर्त इस तरह खोलते हैं कि पाठक उपन्यास के प्रसंगों तथा पात्रों की विक्षिप्तता में भी संरचनात्मक तर्किकता तथा पाठ की लय के मध्य सुलगते सवालों का एक श्रंखलाबद्ध  विस्फोट  और अंतः विस्फोट देखता है कि बाजारवाद कैसे आम नागरिक को मात्र एक मार्केट फ्रेन्डली इंडीविजुअल बना कर छोड़ दिया है, जहाँ वह अपने देशकाल और स्थान से जुड़ी सापेक्षता और लोक से नालबद्ध भाषा और संस्कृति को अपनी ही आँखों के समक्ष स्वाहा होते देखने को बाध्य है। वह एक नये किस्म के सांस्कृतिक अनाथ में तब्दील कर दिया गया है । पागलखाना उपन्यास कुछ ऐसे ही पात्रों से भरी भटकती आकाश गंगा है जो निर्धारित विनष्टीकरण के विषम वलय में फंस गई है और वह बाजारवाद विचारहीन विचार के विराट जाल से निकलने के लिए छटपटा रही है। "हैप्पी -इकोनमिक्स " के जुलाहों की संगठित धूर्तता जो एक रेडीमेड आशावाद का नया अन्धत्व और दासत्व  एक मोहक नेपथ्य के पीछे बुन रही है, ये सच्चाई वे पात्र पहचान गये हैं। वे इस बाजारवाद से छूट कर भाग निकलने के लिए समांतर फैंटेसी को "कैमोफ्लेज्ड युक्तियों से एक नई दुनिया रचने की जद्दोजहद लिए हुये हैं।

यह उपन्यास आधुनिक क्लेसिक है। ज्ञान चतुर्वेदी अपने लेखन में प्रोलिफिक भी हैं और सर्वोत्कृष्ट भी। एक लेखक में ये दोनों चीजें एक साथ होना अलभ्य है। बहरहाल विश्व साहित्य में उत्कृष्टता जो गुण और प्रतिमान स्वीकृत हैं, वे सब के सब बहुलता के साथ ज्ञान के लेखन में सर्वत्र उपस्थित हैं । " पागलखाना" इसका उपयुक्त उदहरण है। - प्रभु जोशी  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

सोमवार, फ़रवरी 20, 2023

उनके पास हर सम्मान पिपासु के लिए एक अंजुरि जल था।श्रद्धांजलि स्मरण – राजुरकर राज

 

श्रद्धांजलि स्मरण – राजुरकर राज

वीरेन्द्र जैन

उनके पास हर सम्मान पिपासु के लिए एक अंजुरि जल था।



राजुरकर राज से मेरा परिचय 1994-95 के बीच हो गया था जब मैं जब्बार ढाकवाला के साथ उनके नेहरू नगर निवास पर गया था, जहाँ से दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय का बीज पनपा। वे उस समय भोपाल के साहित्यिक संस्कृतिकर्मियों के पतों की सूची बना चुके थे या ऐसी सूची प्रकाशित होने की प्रक्रिया में थी। मैं उनके इस काम से बहुत खुश हुआ क्योंकि यह कार्य वर्षों से मेरी कार्य सूची में था, जिसका विस्तार कर के वे मध्य प्रदेश और फिर राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहते थे। मेरे लेखन का प्रारम्भ कादम्बिनी से हुआ था जो उस समय रामानन्द दोषी के सम्पादन में एक श्रेष्ठ और पूर्ण मासिक पत्रिका थी। इस पत्रिका के कई वर्षों के पुराने अंक मैंने रद्दी में खरीद लिए थे। उस समय की प्रमुख हिन्दी पत्रिकाओं में कादम्बिनी इकलौती ऐसी पत्रिका थी जो लेखकों के पते छापती थी। लेखकों से पत्र सम्पर्क के शौक ने मुझसे उपलब्ध पते एक डायरी में दर्ज करवा लिये थे जो बाद में सेवाकाल के दौरान हुए मेरे 15 स्थानांतरणों में बहुत काम आये। 1994 में भोपाल आकर 1996 में मैं भोपाल छोड़ चुका था और इसी दौरान पतों की जो  पुस्तिका प्रकाशित हुयी जिसमें मेरा पता और फोन नम्बर भी था।

राजुरकर जी में अनेक गुण थे। वे व्यवहार में विनम्र व मृदुभाषी थे, आकाशवाणी में उद्घोषक थे इसलिए वाणी के धनी थे, अपने कार्य कौशल के बारे में आत्मविश्वास से भरे हुए रहते थे, फिर भी लो-प्रोफाइल रहने में खुशी महसूस करते थे। वे अटूट धैर्य के धनी थे, मैंने उन्हें कभी क्रोधित होते हुए नहीं देखा।  दुष्यंत संग्रहालय को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में उनकी यही प्रतिभा काम आयी। उन्होंने निरंतर सम्पर्क बनाये रखने के लिए संस्कृति कर्मियों के निजी सुख-दुख के समाचार साझा करने के लिए साहित्यकारों के आस-पास नामक पत्रिका निकाली। आकाशवाणी में नौकरी और इस पत्रिका के माध्यम से वे हर आय वर्ग, पद और कद के लोगों से मिल सके व अपने काम को सूचित कर सके। अधिकारियों और सम्पन्न लोगों में भी कुछ गुण ग्राहक होते हैं, जिन्हें चलते हुए काम हेतु किसी ईमानदार व्यक्ति को नियामानुसार सहयोग करने में कोई संकोच नहीं होता। यही कारण रहा कि उनकी सादगी को देखते हुए उन्हें यथोचित सहयोग मिला, और संस्था परवान चढती गयी। उनका परिवार उनका सहयोगी रहा व मित्रों रिश्तेदारों के साथ मिल कर संस्था का विकास करते रहे।

विदेशों में अपने विख्यात लेखकों की स्मृतियों को ही नहीं अपितु उनसे जुड़े स्मृति चिन्हों, उनके निवास आदि को संरक्षित रखने की परम्परा है,शायद वहीं कहीं से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपने प्रिय कवि दुष्यंत कुमार की स्मृति को संजो कर रखने की योजना बनायी होगी जिसका विस्तार उनके समकालीन यशस्वी साहित्यकारों के स्मृति चिन्हों और पाण्डुलिपि आदि को जोड़ कर किया। कहते हैं कि हस्तलिपि से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझा परखा जा सकता है। ये पांडुलिपियों का संग्रहालय भविष्य में साहित्य के शोध छात्रों के लिए अध्ययन के नये नये आयाम देगा।   

राजुरकर नई नई युक्तियां सोचने और कार्यांन्वित करने में दुस्साहसी थे व हमेशा सफल रहे। उन्हें संग्रहालय के लिए जो सरकारी भवन आवंटित हुआ उसके चयन में भी तीक्ष्ण और दूरदृष्टि काम आयी। नगर के केन्द्र में होने के कारण उन्होंने उसे जन सहयोग से एक साहित्यिक आयोजन स्थल में बदल दिया जिसेमें क्रमशः पंखे और एसी हाल बनते गये। जनसहयोग से ही उन्होंने अलमारियां खरीदीं, पुस्तकें प्राप्त कीं व संग्रहालय में एक लाइब्रेरी स्थापित कर दी। वाचनालय चलाया। उन्होंने संग्रहालय के बाहर प्रतिमाह एक कविता पोस्टर लगाने की प्रथा प्रारम्भ की जिसमें क्रमशः प्रसिद्ध कवियों की पहचान बनाने वाली कविताएं प्रकाशित कीं। किसी प्रसिद्ध लेखक द्वारा उस कविता का अनावरण हर माह एक आयोजन बन जाता था।

साहित्यकार हमेशा से ही यशाकांक्षी रहा है। उनकी इस आकांक्षा को पूरा करने के लिए पूरे भोपाल में दर्जनों ऐसी संस्थाएं हैं जो वंचितों, कुण्ठितों को बड़े बड़े नामों वाले पुरस्कार में प्लास्टिक का स्मृति चिन्ह और फूल माला देकर उन्हें संतोष देती हैं। वे इस तरह से ले दे कर के अपना व्यापार कर लेती हैं और कुछ सरकारी धन हस्तगत कर लेती हैं। राजुरकर ने इसमें उचित सुधार किया। दुष्यंत संग्रहालय की ओर से भी वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित किये गये जो दूसरों से भिन्न थे। पहला तो यह कि इसके जो शिखर सम्मान थे वे देश के ख्यातनाम व्यक्तियों को ही दिये जाते थे, जिससे सम्मानों की गरिमा बनी रहती थी और दूसरे सम्मान प्राप्त लोगो का कद बढता था। इस तरह  वे अधिक संतुष्ट महसूस करते थे। इसके बदले में राजुरकर कोई निजी लाभ लोभ न चाह कर संस्था को मजबूत करने में उनके पद का सहयोग ले लेते थे। परिणाम स्वरूप संस्था मजबूत होती गयी। सम्मानित करने वाला व्यक्ति भी किसी क्षेत्र का विशिष्ट व्यक्ति ही होता था। इस तरह वे प्रत्येक को उसकी प्रतिभा के अनुसार सम्मान सुख देकर संतुष्ट कर देते थे। वे अपने आयोजनों में अधिक से अधिक लोगों को किसी न किसी तरह मंच पर आने का अवसर देते थे।  

दुष्यंत कुमार देश में हिन्दी गज़ल के पितृपुरुष माने गये हैं और उनकी प्रतिभा को सामने लाने में उनके मित्र कमलेश्वर की प्रमुख भूमिका रही है जो उस समय देश की सबसे प्रमुख कथा पत्रिका सारिका के सम्पादक थे। दुष्यंत मे ‘साये में धूप ‘ की भूमिका में लिखा है कि अगर कमलेश्वर न होते तो इन गज़लों का कुछ ना बना होता-

मैं हाथों में अंगार लिए सोच रहा था  / कोई मुझे अंगारों की तासीर बताये

दुष्यंत कुमर के बाद कमलेश्वर ने अपनी बेटी की शादी दुष्यंत कुमार के बेटे से कर के अपना मित्रता धर्म निभाया और उनके नाम से खोले गये इस इकलौते संग्रहालय को दिल खोल कर संरक्षण दिया। राजुरकर ने भी उन्हें संस्था के सर्वोच्च पद से सुशोभित किया। जिस दिन कमलेश्वर जी का निधन हुआ उस दिन भोपाल के राजभवन में राज्यपाल बलराम जाखड़ ने कवि सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह, कन्हैयालाल नन्दन, नवाज देवबन्दी, आदि थे। कवि सम्मेलन की समाप्ति के बाद सब लोग कार के इंतजार में खड़े थे तब नन्दन जी बार बार कमलेश्वर जी के स्वास्थ के बारे में पूछ रहे थे, शायद उनके पास कुछ संकेत रहे होंगे, वे राजुरकर के पास जानकारी होने की आशा कर रहे थे, पर राजुरकर के पास तब तक कोई सूचना नहीं थी। अगले दिन जब कमलेश्वर जी के निधन की सूचना आयी तो मुझे सारी कहानी समझ में आ गई। सारिका के सम्पादन में बदलाव के बाद दोनों के बीच थोड़ा तनाव रहा था जो बाद में ठीक हुआ था जिसकी मुझे खबर थी। मैंने राजुरकर को यह बात बतायी तो उन्होंने अनभिज्ञता व्यक्त की, पर नन्दन जी की बेचैनी याद कर के वे भी कड़ी जोड़ सके।

बीच में मेरे मित्र श्री राम मेश्राम भी संस्था के अध्यक्ष रहे और जब जब किसी विशिष्ट व्यक्ति का संग्रहालय में आगमन होत तो संवाद करने के लिए मुझे भी बुला लेते थे। आदरणीया पुष्पा भारती के साथ संवाद में तो अनेक जानकारियां मिली थीं। प्रथम बार भोपाल आने वाले हर विशिष्ट व्यक्ति के लिए संग्रहालय के द्वार स्वागत को आतुर रहते ही थे। इस तरह मैं अनेक वर्षों तक संग्रहालय का हिस्सा होकर रहा।  रमेश चन्द्र शाह, माणिक वर्मा, आदि के साथ भी संग्रहालय की कई स्मृतियां हैं। लीलाधर मण्डलोई, सेवानिवृत न्यायाधीश देवेन्द्र जैन, आदि उनके मार्गदर्शक रहे हैं। अशोक निर्मल, विनय उपाध्याय, घनश्याम मैथिल अदि सहयोग के लिए तत्पर रहे।   

राजुरकर और दुष्यंत संग्रहालय इस तरह से एकम एक थे कि मैं जब भी राजुरकर को याद करने की कोशिश करता हूं तब तब मुझे उनकी यादों में संग्रहालय लिपटा दिखायी देता है।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023          

श्रद्धांजलि स्मरण – राजुरकर राज वीरेन्द्र जैन उनके पास हर सम्मान पिपासु के लिए एक अंजुरि जल था। राजुरकर राज से994-95 के बीच हो गया था जब मैं जब्बार ढाकवाला के साथ उनके नेहरू नगर निवास पर गया था, जहाँ से दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय का बीज पनपा। वे उस समय भोपाल के साहित्यिक संस्कृतिकर्मियों के पतों की सूची बना चुके थे या ऐसी सूची प्रकाशित होने की प्रक्रिया में थी। मैं उनके इस काम से बहुत खुश हुआ क्योंकि यह कार्य वर्षों से मेरी कार्य सूची में था, जिसका विस्तार कर के वे मध्य प्रदेश और फिर राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहते थे। मेरे लेखन का प्रारम्भ कादम्बिनी से हुआ था जो उस समय रामानन्द दोषी के सम्पादन में एक श्रेष्ठ और पूर्ण मासिक पत्रिका थी। इस पत्रिका के कई वर्षों के पुराने अंक मैंने रद्दी में खरीद लिए थे। उस समय की प्रमुख हिन्दी पत्रिकाओं में कादम्बिनी इकलौती ऐसी पत्रिका थी जो लेखकों के पते छापती थी। लेखकों से पत्र सम्पर्क के शौक ने मुझसे उपलब्ध पते एक डायरी में दर्ज करवा लिये थे जो बाद में सेवाकाल के दौरान हुए मेरे 15 स्थानांतरणों में बहुत काम आये। 1994 में भोपाल आकर 1996 में मैं भोपाल छोड़ चुका था और इसी दौरान पतों की जो पुस्तिका प्रकाशित हुयी जिसमें मेरा पता और फोन नम्बर भी था। राजुरकर जी में अनेक गुण थे। वे व्यवहार में विनम्र व मृदुभाषी थे, आकाशवाणी में उद्घोषक थे इसलिए वाणी के धनी थे, अपने कार्य कौशल के बारे में आत्मविश्वास से भरे हुए रहते थे, फिर भी लो-प्रोफाइल रहने में खुशी महसूस करते थे। वे अटूट धैर्य के धनी थे, मैंने उन्हें कभी क्रोधित होते हुए नहीं देखा। दुष्यंत संग्रहालय को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में उनकी यही प्रतिभा काम आयी। उन्होंने निरंतर सम्पर्क बनाये रखने के लिए संस्कृति कर्मियों के निजी सुख-दुख के समाचार साझा करने के लिए साहित्यकारों के आस-पास नामक पत्रिका निकाली। आकाशवाणी में नौकरी और इस पत्रिका के माध्यम से वे हर आय वर्ग, पद और कद के लोगों से मिल सके व अपने काम को सूचित कर सके। अधिकारियों और सम्पन्न लोगों में भी कुछ गुण ग्राहक होते हैं, जिन्हें चलते हुए काम हेतु किसी ईमानदार व्यक्ति को नियामानुसार सहयोग करने में कोई संकोच नहीं होता। यही कारण रहा कि उनकी सादगी को देखते हुए उन्हें यथोचित सहयोग मिला, और संस्था परवान चढती गयी। उनका परिवार उनका सहयोगी रहा व मित्रों रिश्तेदारों के साथ मिल कर संस्था का विकास करते रहे। विदेशों में अपने विख्यात लेखकों की स्मृतियों को ही नहीं अपितु उनसे जुड़े स्मृति चिन्हों, उनके निवास आदि को संरक्षित रखने की परम्परा है,शायद वहीं कहीं से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपने प्रिय कवि दुष्यंत कुमार की स्मृति को संजो कर रखने की योजना बनायी होगी जिसका विस्तार उनके समकालीन यशस्वी साहित्यकारों के स्मृति चिन्हों और पाण्डुलिपि आदि को जोड़ कर किया। कहते हैं कि हस्तलिपि से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझा परखा जा सकता है। ये पांडुलिपियों का संग्रहालय भविष्य में साहित्य के शोध छात्रों के लिए अध्ययन के नये नये आयाम देगा। राजुरकर नई नई युक्तियां सोचने और कार्यांन्वित करने में दुस्साहसी थे व हमेशा सफल रहे। उन्हें संग्रहालय के लिए जो सरकारी भवन आवंटित हुआ उसके चयन में भी तीक्ष्ण और दूरदृष्टि काम आयी। नगर के केन्द्र में होने के कारण उन्होंने उसे जन सहयोग से एक साहित्यिक आयोजन स्थल में बदल दिया जिसेमें क्रमशः पंखे और एसी हाल बनते गये। जनसहयोग से ही उन्होंने अलमारियां खरीदीं, पुस्तकें प्राप्त कीं व संग्रहालय में एक लाइब्रेरी स्थापित कर दी। वाचनालय चलाया। उन्होंने संग्रहालय के बाहर प्रतिमाह एक कविता पोस्टर लगाने की प्रथा प्रारम्भ की जिसमें क्रमशः प्रसिद्ध कवियों की पहचान बनाने वाली कविताएं प्रकाशित कीं। किसी प्रसिद्ध लेखक द्वारा उस कविता का अनावरण हर माह एक आयोजन बन जाता था। साहित्यकार हमेशा से ही यशाकांक्षी रहा है। उनकी इस आकांक्षा को पूरा करने के लिए पूरे भोपाल में दर्जनों ऐसी संस्थाएं हैं जो वंचितों, कुण्ठितों को बड़े बड़े नामों वाले पुरस्कार में प्लास्टिक का स्मृति चिन्ह और फूल माला देकर उन्हें संतोष देती हैं। वे इस तरह से ले दे कर के अपना व्यापार कर लेती हैं और कुछ सरकारी धन हस्तगत कर लेती हैं। राजुरकर ने इसमें उचित सुधार किया। दुष्यंत संग्रहालय की ओर से भी वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित किये गये जो दूसरों से भिन्न थे। पहला तो यह कि इसके जो शिखर सम्मान थे वे देश के ख्यातनाम व्यक्तियों को ही दिये जाते थे, जिससे सम्मानों की गरिमा बनी रहती थी और दूसरे सम्मान प्राप्त लोगो का कद बढता था। इस तरह वे अधिक संतुष्ट महसूस करते थे। इसके बदले में राजुरकर कोई निजी लाभ लोभ न चाह कर संस्था को मजबूत करने में उनके पद का सहयोग ले लेते थे। परिणाम स्वरूप संस्था मजबूत होती गयी। सम्मानित करने वाला व्यक्ति भी किसी क्षेत्र का विशिष्ट व्यक्ति ही होता था। इस तरह वे प्रत्येक को उसकी प्रतिभा के अनुसार सम्मान सुख देकर संतुष्ट कर देते थे। वे अपने आयोजनों में अधिक से अधिक लोगों को किसी न किसी तरह मंच पर आने का अवसर देते थे। दुष्यंत कुमार देश में हिन्दी गज़ल के पितृपुरुष माने गये हैं और उनकी प्रतिभा को सामने लाने में उनके मित्र कमलेश्वर की प्रमुख भूमिका रही है जो उस समय देश की सबसे प्रमुख कथा पत्रिका सारिका के सम्पादक थे। दुष्यंत मे ‘साये में धूप ‘ की भूमिका में लिखा है कि अगर कमलेश्वर न होते तो इन गज़लों का कुछ ना बना होता- मैं हाथों में अंगार लिए सोच रहा था / कोई मुझे अंगारों की तासीर बताये दुष्यंत कुमर के बाद कमलेश्वर ने अपनी बेटी की शादी दुष्यंत कुमार के बेटे से कर के अपना मित्रता धर्म निभाया और उनके नाम से खोले गये इस इकलौते संग्रहालय को दिल खोल कर संरक्षण दिया। राजुरकर ने भी उन्हें संस्था के सर्वोच्च पद से सुशोभित किया। जिस दिन कमलेश्वर जी का निधन हुआ उस दिन भोपाल के राजभवन में राज्यपाल बलराम जाखड़ ने कवि सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह, कन्हैयालाल नन्दन, नवाज देवबन्दी, आदि थे। कवि सम्मेलन की समाप्ति के बाद सब लोग कार के इंतजार में खड़े थे तब नन्दन जी बार बार कमलेश्वर जी के स्वास्थ के बारे में पूछ रहे थे, शायद उनके पास कुछ संकेत रहे होंगे, वे राजुरकर के पास जानकारी होने की आशा कर रहे थे, पर राजुरकर के पास तब तक कोई सूचना नहीं थी। अगले दिन जब कमलेश्वर जी के निधन की सूचना आयी तो मुझे सारी कहानी समझ में आ गई। सारिका के सम्पादन में बदलाव के बाद दोनों के बीच थोड़ा तनाव रहा था जो बाद में ठीक हुआ था जिसकी मुझे खबर थी। मैंने राजुरकर को यह बात बतायी तो उन्होंने अनभिज्ञता व्यक्त की, पर नन्दन जी की बेचैनी याद कर के वे भी कड़ी जोड़ सके। बीच में मेरे मित्र श्री राम मेश्राम भी संस्था के अध्यक्ष रहे और जब जब किसी विशिष्ट व्यक्ति का संग्रहालय में आगमन होत तो संवाद करने के लिए मुझे भी बुला लेते थे। आदरणीया पुष्पा भारती के साथ संवाद में तो अनेक जानकारियां मिली थीं। प्रथम बार भोपाल आने वाले हर विशिष्ट व्यक्ति के लिए संग्रहालय के द्वार स्वागत को आतुर रहते ही थे। इस तरह मैं अनेक वर्षों तक संग्रहालय का हिस्सा होकर रहा। रमेश चन्द्र शाह, माणिक वर्मा, आदि के साथ भी संग्रहालय की कई स्मृतियां हैं। लीलाधर मण्डलोई, सेवानिवृत न्यायाधीश देवेन्द्र जैन, आदि उनके मार्गदर्शक रहे हैं। अशोक निर्मल, विनय उपाध्याय, घनश्याम मैथिल अदि सहयोग के लिए तत्पर रहे। राजुरकर और दुष्यंत संग्रहालय इस तरह से एकम एक थे कि मैं जब भी राजुरकर को याद करने की कोशिश करता हूं तब तब मुझे उनकी यादों में संग्रहालय लिपटा दिखायी देता है। वीरेन्द्र जैन 2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

श्रद्धांजलि स्मरण – राजुरकर राज

वीरेन्द्र जैन

उनके पास हर सम्मान पिपासु के लिए एक अंजुरि जल था।

राजुरकर राज से मेरा परिचय 1994-95 के बीच हो गया था जब मैं जब्बार ढाकवाला के साथ उनके नेहरू नगर निवास पर गया था, जहाँ से दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय का बीज पनपा। वे उस समय भोपाल के साहित्यिक संस्कृतिकर्मियों के पतों की सूची बना चुके थे या ऐसी सूची प्रकाशित होने की प्रक्रिया में थी। मैं उनके इस काम से बहुत खुश हुआ क्योंकि यह कार्य वर्षों से मेरी कार्य सूची में था, जिसका विस्तार कर के वे मध्य प्रदेश और फिर राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहते थे। मेरे लेखन का प्रारम्भ कादम्बिनी से हुआ था जो उस समय रामानन्द दोषी के सम्पादन में एक श्रेष्ठ और पूर्ण मासिक पत्रिका थी। इस पत्रिका के कई वर्षों के पुराने अंक मैंने रद्दी में खरीद लिए थे। उस समय की प्रमुख हिन्दी पत्रिकाओं में कादम्बिनी इकलौती ऐसी पत्रिका थी जो लेखकों के पते छापती थी। लेखकों से पत्र सम्पर्क के शौक ने मुझसे उपलब्ध पते एक डायरी में दर्ज करवा लिये थे जो बाद में सेवाकाल के दौरान हुए मेरे 15 स्थानांतरणों में बहुत काम आये। 1994 में भोपाल आकर 1996 में मैं भोपाल छोड़ चुका था और इसी दौरान पतों की जो  पुस्तिका प्रकाशित हुयी जिसमें मेरा पता और फोन नम्बर भी था।

राजुरकर जी में अनेक गुण थे। वे व्यवहार में विनम्र व मृदुभाषी थे, आकाशवाणी में उद्घोषक थे इसलिए वाणी के धनी थे, अपने कार्य कौशल के बारे में आत्मविश्वास से भरे हुए रहते थे, फिर भी लो-प्रोफाइल रहने में खुशी महसूस करते थे। वे अटूट धैर्य के धनी थे, मैंने उन्हें कभी क्रोधित होते हुए नहीं देखा।  दुष्यंत संग्रहालय को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में उनकी यही प्रतिभा काम आयी। उन्होंने निरंतर सम्पर्क बनाये रखने के लिए संस्कृति कर्मियों के निजी सुख-दुख के समाचार साझा करने के लिए साहित्यकारों के आस-पास नामक पत्रिका निकाली। आकाशवाणी में नौकरी और इस पत्रिका के माध्यम से वे हर आय वर्ग, पद और कद के लोगों से मिल सके व अपने काम को सूचित कर सके। अधिकारियों और सम्पन्न लोगों में भी कुछ गुण ग्राहक होते हैं, जिन्हें चलते हुए काम हेतु किसी ईमानदार व्यक्ति को नियामानुसार सहयोग करने में कोई संकोच नहीं होता। यही कारण रहा कि उनकी सादगी को देखते हुए उन्हें यथोचित सहयोग मिला, और संस्था परवान चढती गयी। उनका परिवार उनका सहयोगी रहा व मित्रों रिश्तेदारों के साथ मिल कर संस्था का विकास करते रहे।

विदेशों में अपने विख्यात लेखकों की स्मृतियों को ही नहीं अपितु उनसे जुड़े स्मृति चिन्हों, उनके निवास आदि को संरक्षित रखने की परम्परा है,शायद वहीं कहीं से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपने प्रिय कवि दुष्यंत कुमार की स्मृति को संजो कर रखने की योजना बनायी होगी जिसका विस्तार उनके समकालीन यशस्वी साहित्यकारों के स्मृति चिन्हों और पाण्डुलिपि आदि को जोड़ कर किया। कहते हैं कि हस्तलिपि से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझा परखा जा सकता है। ये पांडुलिपियों का संग्रहालय भविष्य में साहित्य के शोध छात्रों के लिए अध्ययन के नये नये आयाम देगा।   

राजुरकर नई नई युक्तियां सोचने और कार्यांन्वित करने में दुस्साहसी थे व हमेशा सफल रहे। उन्हें संग्रहालय के लिए जो सरकारी भवन आवंटित हुआ उसके चयन में भी तीक्ष्ण और दूरदृष्टि काम आयी। नगर के केन्द्र में होने के कारण उन्होंने उसे जन सहयोग से एक साहित्यिक आयोजन स्थल में बदल दिया जिसेमें क्रमशः पंखे और एसी हाल बनते गये। जनसहयोग से ही उन्होंने अलमारियां खरीदीं, पुस्तकें प्राप्त कीं व संग्रहालय में एक लाइब्रेरी स्थापित कर दी। वाचनालय चलाया। उन्होंने संग्रहालय के बाहर प्रतिमाह एक कविता पोस्टर लगाने की प्रथा प्रारम्भ की जिसमें क्रमशः प्रसिद्ध कवियों की पहचान बनाने वाली कविताएं प्रकाशित कीं। किसी प्रसिद्ध लेखक द्वारा उस कविता का अनावरण हर माह एक आयोजन बन जाता था।

साहित्यकार हमेशा से ही यशाकांक्षी रहा है। उनकी इस आकांक्षा को पूरा करने के लिए पूरे भोपाल में दर्जनों ऐसी संस्थाएं हैं जो वंचितों, कुण्ठितों को बड़े बड़े नामों वाले पुरस्कार में प्लास्टिक का स्मृति चिन्ह और फूल माला देकर उन्हें संतोष देती हैं। वे इस तरह से ले दे कर के अपना व्यापार कर लेती हैं और कुछ सरकारी धन हस्तगत कर लेती हैं। राजुरकर ने इसमें उचित सुधार किया। दुष्यंत संग्रहालय की ओर से भी वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित किये गये जो दूसरों से भिन्न थे। पहला तो यह कि इसके जो शिखर सम्मान थे वे देश के ख्यातनाम व्यक्तियों को ही दिये जाते थे, जिससे सम्मानों की गरिमा बनी रहती थी और दूसरे सम्मान प्राप्त लोगो का कद बढता था। इस तरह  वे अधिक संतुष्ट महसूस करते थे। इसके बदले में राजुरकर कोई निजी लाभ लोभ न चाह कर संस्था को मजबूत करने में उनके पद का सहयोग ले लेते थे। परिणाम स्वरूप संस्था मजबूत होती गयी। सम्मानित करने वाला व्यक्ति भी किसी क्षेत्र का विशिष्ट व्यक्ति ही होता था। इस तरह वे प्रत्येक को उसकी प्रतिभा के अनुसार सम्मान सुख देकर संतुष्ट कर देते थे। वे अपने आयोजनों में अधिक से अधिक लोगों को किसी न किसी तरह मंच पर आने का अवसर देते थे।  

दुष्यंत कुमार देश में हिन्दी गज़ल के पितृपुरुष माने गये हैं और उनकी प्रतिभा को सामने लाने में उनके मित्र कमलेश्वर की प्रमुख भूमिका रही है जो उस समय देश की सबसे प्रमुख कथा पत्रिका सारिका के सम्पादक थे। दुष्यंत मे ‘साये में धूप ‘ की भूमिका में लिखा है कि अगर कमलेश्वर न होते तो इन गज़लों का कुछ ना बना होता-

मैं हाथों में अंगार लिए सोच रहा था  / कोई मुझे अंगारों की तासीर बताये

दुष्यंत कुमर के बाद कमलेश्वर ने अपनी बेटी की शादी दुष्यंत कुमार के बेटे से कर के अपना मित्रता धर्म निभाया और उनके नाम से खोले गये इस इकलौते संग्रहालय को दिल खोल कर संरक्षण दिया। राजुरकर ने भी उन्हें संस्था के सर्वोच्च पद से सुशोभित किया। जिस दिन कमलेश्वर जी का निधन हुआ उस दिन भोपाल के राजभवन में राज्यपाल बलराम जाखड़ ने कवि सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह, कन्हैयालाल नन्दन, नवाज देवबन्दी, आदि थे। कवि सम्मेलन की समाप्ति के बाद सब लोग कार के इंतजार में खड़े थे तब नन्दन जी बार बार कमलेश्वर जी के स्वास्थ के बारे में पूछ रहे थे, शायद उनके पास कुछ संकेत रहे होंगे, वे राजुरकर के पास जानकारी होने की आशा कर रहे थे, पर राजुरकर के पास तब तक कोई सूचना नहीं थी। अगले दिन जब कमलेश्वर जी के निधन की सूचना आयी तो मुझे सारी कहानी समझ में आ गई। सारिका के सम्पादन में बदलाव के बाद दोनों के बीच थोड़ा तनाव रहा था जो बाद में ठीक हुआ था जिसकी मुझे खबर थी। मैंने राजुरकर को यह बात बतायी तो उन्होंने अनभिज्ञता व्यक्त की, पर नन्दन जी की बेचैनी याद कर के वे भी कड़ी जोड़ सके।

बीच में मेरे मित्र श्री राम मेश्राम भी संस्था के अध्यक्ष रहे और जब जब किसी विशिष्ट व्यक्ति का संग्रहालय में आगमन होत तो संवाद करने के लिए मुझे भी बुला लेते थे। आदरणीया पुष्पा भारती के साथ संवाद में तो अनेक जानकारियां मिली थीं। प्रथम बार भोपाल आने वाले हर विशिष्ट व्यक्ति के लिए संग्रहालय के द्वार स्वागत को आतुर रहते ही थे। इस तरह मैं अनेक वर्षों तक संग्रहालय का हिस्सा होकर रहा।  रमेश चन्द्र शाह, माणिक वर्मा, आदि के साथ भी संग्रहालय की कई स्मृतियां हैं। लीलाधर मण्डलोई, सेवानिवृत न्यायाधीश देवेन्द्र जैन, आदि उनके मार्गदर्शक रहे हैं। अशोक निर्मल, विनय उपाध्याय, घनश्याम मैथिल अदि सहयोग के लिए तत्पर रहे।   

राजुरकर और दुष्यंत संग्रहालय इस तरह से एकम एक थे कि मैं जब भी राजुरकर को याद करने की कोशिश करता हूं तब तब मुझे उनकी यादों में संग्रहालय लिपटा दिखायी देता है।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023          

शनिवार, नवंबर 19, 2022

समीक्षा नरेन्द्र मौर्य के गज़ल संग्रह ‘सदी पत्थरों की ‘ पर कुछ बेतरतीब विचार

 

समीक्षा

नरेन्द्र मौर्य के गज़ल संग्रह ‘सदी पत्थरों की ‘ पर  कुछ बेतरतीब विचार


वीरेन्द्र जैन

दुष्यंत कुमार के बाद हिन्दुस्तानी [ हिन्दी-उर्दू ] भाषा में व देवनागरी लिपि में लिखी गयी गज़लों की बाढ आ गयी क्योंकि यह विधा पाठकों और कवियों दोनों को भा रही थी। इस विधा ने हिन्दी के गीतों और दूसरे छन्दों को पीछे छोड़ दिया। नरेन्द्र मौर्य की ‘अपनी बात’ के अनुसार वे भी गत तीस वर्षों से इसी भाषा और लिपि में रचनारत हैं जिसे गज़ल या हिन्दी गज़ल कहा जाता है। इसे मैं गज़ल की मूल विधा या कहें कि उर्दू गज़ल से थोड़ा भिन्न इसलिए मानता हूं क्योंकि बहुत सारे रचनाकारों ने इसके मूल अनुशासन को तोड़ कर अपनी बात कही है और जहाँ कथ्य में दम था वहाँ शिल्प को नकार कर भी रचना स्वीकारी गयी है। चूंकि यह बाढ दुष्यंत कुमार के प्रभाव के बाद आयी थी इसलिए इसमें स्वातंत्रोत्तर राजनीति का मूल्यांकन प्रमुख रूप से उभरा। नरेन्द्र मौर्य लिखते हैं कि उन्होंने पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लिखते हुए भी अपने संकलन को लाने का विचार तब किया जब उन्हें श्री अनवारे इस्लाम जैसे उस्ताद शायर की सलाह प्राप्त हुयी जिसके आधार पर उन्होंने पर्याप्त सुधार किये। उस्ताद की सलाह पर आये संकलनों को परोक्ष में संयुक्त उपक्रम माना जा सकता है जिसके लिए रचनाकार ने पुस्तक में आभार प्रकट किया ही है।

मैं भी दुष्यंत के बाद तेजी से फैली इस विधा को पसन्द करने वाले लोगों में रहा हूं इसलिए अनेक रचनाकार मुझे भी अपनी कृति भेंट करने की कृपा करते हैं और सौजन्यतावश उस पर अपने विचार बताने की व्यवहारिकता निभाते हैं, जबकि मेरे साथ वे भी जानते होंगे कि मैं पाठकीय प्रतिक्रिया ही दे सकता हूं और एक अधिकृत समीक्षक नहीं हूं। सन्दर्भित संकलन ‘ सदी पत्थरों की ‘ पर भी अपने विचार इन्हीं सीमाओं में रह कर व्यक्त कर रहा हूं।

गज़ल में मतले के शे’र में व्यक्त तुकांत के बाद का अनुशरण करते हुए भिन्न भिन्न रंग के शे’र कहे जा सकते हैं जो उसी बहर और काफिये में अलग विषय पर हो सकते हैं। इस संकलन में संकलित बहुत सारी गज़लों के शे’र , गीतों की तरह एक ही विषय पर कहे गये शे’र हैं। हिन्दी गज़ल के शे’र गज़लों की पुरानी परम्परा के अनुसार निजी प्रेम के सुख दुखों पर या महबूबा के सौन्दर्य या कोमलकांत व्यवहार, बफा बेबफाई आदि तक सीमित नहीं हैं अपितु उनमें जमाने भर के दुख दर्द शामिल हैं। रहबरों की रहजनों की तरह की जाने वाली हरकतों का वर्णन है।

मेरा मानना है कि वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक विचारधारा साथ साथ नहीं चल सकती । बहुत सारे लोग यह घपला कर रहे हैं किंतु नरेन्द्र की गज़लों में कथित धार्मिकों और धर्म के ठेकेदारों के कारनामों की कलई खोली गयी है। ईश्वर के अस्तित्व के बारे में कुछ ना कहते हुए भी वे उसके ठेकेदारों द्वारा बनायी गयी दुर्व्यवस्था पर निरंतर सवाल उठाते हैं।

ये सरफिरा भी कैसे खुरापात करे है

अल्ला मियां से कैसे सवालात करे है

कैसी इमारतों मे खुदा कैद हो गया

खुद अपने घर को कौन हवालात करे है। [पृष्ठ 11 ]

*****

झूठ के देवता को नहीं मानते

जा तिरे हम खुदा को नहीं मानते

राम का नाम लेकर करें कत्ल जो

उस सियासी फ़जा को नहीं मानते [पृष्ठ 12]

******

भूखे पेटों को रोटी चाहिए

जो भरे हैं पेट उनको राम दे  [पृष्ठ 27 ]

********

हम तुम तो अपना हुनर बेचते हैं

शातिर, खुदाओं का डर बेचते हैं [ पृष्ठ 31 ]

******

कहाँ वीरानियों में दिल लगे है

अकेला आदमी पागल लगे है

कहाँ जायें भला फरियाद करने

खुदा ही जानिए कातिल लगे है  [पृष्ठ 35]

******

कितने पंडे पुजारी हैं मुल्ला यहाँ

और कितने तुझे अर्दली चाहिए [पृष्ठ 46 ]
        ***************

पता ही नहीं जिसकी मौजूदगी का

कभी दर पै उसके भी झुकना पड़ा है  [पृष्ठ 64 ]

*********

वही पत्थर जिसे हम पूजते थे

उसी से चोट खाना पड़ गया है [पृष्ठ 69 ]
       **********

खुदाया लूट कर हमको तिरे खादिम यूं कहते हैं

जो मुश्किल में है पैगम्बर तो फिर तेरी गुजर क्यों हो [पृष्ठ 69 ]

************

उनकी गज़लों में सियासत की बातें बहुत ही स्पष्ट और साफ साफ कही गयी हैं। गत तीस वर्षों की उनकी गज़लों के शे’रों में वर्तमान की राजनीति के चेहरे भी साफ पहचाने जा सकते हैं –

विरासत की बड़ी ऊंची इमारत

सियासत को गिराने की पड़ी है

नहीं कोई मियां सुनने को राजी

सभी को बस सुनाने की पड़ी है [ पृष्ठ 37 ]

*********

जो मानो तो ये फलसफा हो गया

वो झुक कर जरा सा, बड़ा होगया

जो पियक्कड़ थे खामोश पीते रहे

कठमुल्लों को लेकिन नशा हो गया

राह सूझी नहीं, बैठे जब तक रहे

उठके चलने लगे रास्ता हो गया

जमाने का उसपै असर ये हुआ

मदारी था अब मसखरा हो गया [ पृष्ठ 45 ]

********

तेरे कायदे कानून दुनिया से निराले है

       लुटेरा भी यहाँ देखो तो पहरेदार मांगे है  [पृष्ठ 47 ]

****************

डोले है ये धरती जब अपनी ही मस्ती में

चाँद सितारों को आने लगते हैं चक्कर से

सरकस जैसी लगती है अब मुझे सियासत भी

जिसमें करतब करते रहते नेता जोकर से    [पृष्ठ 56 ]

************

इस दौरे तरक्की के वल्लाह दो चेहरे हैं

इंडिया में उजाला है, भारत में अंधेरे हैं   [पृष्ठ 60 ]

**********************

धर्म अहिंसा की पोथी तो बाँध के रख दी है सबने

अब तो भाई के सीने पर भाई ही गोली दागे है [पृष्ठ 95 ]

***************

जबसे हुजूर बज्मे सियासत में आ गये

जितने तमाशेबाज थे हरकत में आ गये

यार तू कातिल की भी दरियादिली तो देख

खुद कत्ल करके बेहया मैयत में आ गये [पृष्ठ 96 ]

***************

नाज था जिस पर सियासत देख ले

वो तेरा किरदार तो बौना हुआ    [पृष्ठ 100 ]

***************

करो फैसला और छोड़ दो लोगों पर

ये जनता की राय वाय अब छोड़ो भी

देखा है वादों का जुमला बन जाना

कितने धोखे खाय वाय अब छोड़ो भी

इन्हीं मसखरों से चलना है देश मने

कौन रहनुमा आय जाय अब छोड़ो भी [पृष्ठ 124 ]  

इस संग्रह में और कुछ याद रह जाने वाले शे’र हैं-

बहुत मुश्किल है यूं चुपचाप जीना

कभी तो आस्मा सर पर उठा रख

भले ही आंसुओं से सींच लेकिन

बस उम्मीद का पौधा हरा रख  [ पृष्ठ 24 ]

********

छोड़ दे हमको किसी भी मोड़ पर

और उनको चाहे चारों धाम दे [ पृष्ठ 24 ]

***************

नहीं तो फकत खाली धुंआ है

बरस जाये तभी बादल लगे है  [ पृष्ठ 35 ]

*********************

खोल में सब अपनी अपनी बन्द हैं

       लोग भी खुल कर यहाँ मिलते नहीं

उसको इक अच्छा सा नौकर चहिए

क्या करें पर बेजुबां मिलते नहीं   [ पृष्ठ 43 ]

****************

झूठ बोलना गुनाह है

सच कहूं तो दिल्लगी लगे  [पृष्ठ 58 ]

****************************

शहर तक जो अभी पहुंचा नहीं है

उसे फिर गाँव जाना पड़ गया है  [पृष्ठ 69 ]

***************

कैसे जाहिल थे हम भी, शहर में ऐसे आ पहुंचे,

बच्चा ये स्कूल तो पहुंचा, घर में बस्ता भूल गया  [पृष्ठ 71 ]

***********

दो और दो अब चार नहीं होगा हमसे

कहता है सरकार नहीं होगा हमसे

बढता पानी देख डरे है दिल मेरा

अब ये दरिया पार नहीं होगा हमसे [पृष्ठ 106 ]

******************

समाज में निरंतर सूखती जा रही संवेदनाओं ने मानव जाति को जिस तरह के पत्थर में बदल दिया है उसे महसूस करके ही उन्होंने अपने संग्रह का नाम ‘ सदी पत्थरों की ‘ रखा है।   

==============================

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

रविवार, सितंबर 11, 2022

स्मृति पखवाड़ा ; मेरी स्मृतियों के खजाने में बसे लोग

 

स्मृति पखवाड़ा ; मेरी स्मृतियों के खजाने में बसे लोग


वीरेन्द्र जैन

देशी कलेन्डर के हिसाब से आज पितृपक्ष का पहला दिन है। मेरे लिए यह इसलिए भी विशेष है कि मेरे तीन जन्मदिनों में से एक यह भी है। मेरी माँ इस दिन को ही मेरे जन्मदिन के रूप में याद रखे थी। कभी बचपन में इस दिन को मेरी माँ मुहल्ले की कुछ महिलाओं को बुला कर गीत गववाती थी और उन्हें एक एक कटोरी बताशे देती थी। यह सिलसिला मेरे चार या पाँच साल के होने तक ही चला होगा। उसके बाद लगभग पचास साल तक कोई आयोजन नहीं हुआ।

पता नहीं कि कब कैसे स्कूल में मेरी जन्मतिथि बदल गयी और यह 12 जून हो गयी। कभी अंग्रेजी कलेन्डर से अपने जन्मवर्ष में पितृपक्ष के पहले दिन की तलाश करायी तो वह 8 सितम्बर निकली। इस तरह मेरे तीन जन्मदिन हुये। अगर यह खुशी का दिन होता है तो मुझे तीन गुना खुशी मिलना चाहिए थी किंतु किसी एक जन्मदिन को भी खुश होने का कोई कारण समझ में नहीं आया। स्न 2000 में जब मैं नौकरी छोड़ कर भोपाल आकर रहने लगा तो एक उत्सवधर्मी मित्र जब्बार ढाकवाला को कुछ वर्षों तक पार्टी करने के एक और बहाने के रूप में मेरा स्कूली जन्मदिन मिल गया था। वे आई ए एस अधिकारी थे इसलिए इस दिन के सारे फैसले और इंतजाम वे खुद करते थे। 2010 में एक कार दुर्घटना में उनकी और उनकी पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद मेरा जन्मदिन फेसबुक तक ही सीमित होकर रह गया जिसमें शुभकामना सन्देशों के साथ साथ कभी कोई गुब्बारे, गुलदस्ते, या मोमबत्ती वाले केक के फोटो भी नत्थी कर देता है।

आज के दिन मैं थोड़ा अधिक ही भावुक हो रहा हूं। कारण यह है कि पिछले दिनों मेरा इंटरनैट लम्बे समय तक खराब रहा और मैंने अपना समय पुरानी रचनाओं व पोस्टों पर दृष्टि डाल कर बिताने की कोशिश की। इस कोशिश ने मुझे तब डरा दिया जब श्रद्धांजलि फाइल में मैंने पाया कि मेरी जिन्दगी में आये कितने सारे लोग इस दुनिया से जा चुके हैं और उनकी जगह भरने वाला कोई नहीं मिला। नैट जुड़ने के बाद जब और सर्च की तो सूची और बढ गयी।

सोचा कि आज का दिन उन लोगों को याद करने की कोशिश करूं जो दुनिया से जाकर भी मेरे दिल में ऐसी स्मृति बना कर गये हैं जो जिन्दगी भर बनी रहेगी। पिछले पन्द्रह सालों में नहीं रहे लोगों के निधन पर मैंने ब्लाग या फेसबुक पर श्रद्धांजलि लेख, टिप्पणियां या संस्मरण लिखे हैं।

सबसे पहले तो मैं अपने पिता [1975]  माँ,[1994] चाचा [2006]  बड़ी बहिन, [2014] दो बहनोई [2008 एवं 2017], एक भांजे [1997] और एक भांजे दामाद [2020]  को याद करना चाहूंगा जिसमें से कुछ असमय और बहुत जल्दी चले गये। ये मिले हुए रिश्ते थे व इनका मूल्य उनके जाने के बाद ही समझ में आया। उन पर कुछ अलग सा लिख रखा है।

कुछ ऐसे वैचारिक मित्र थे जो उम्र में तो एक, पौन या आधी पीढी बड़े थे किंतु मित्रता मानते थे और उसी स्तर पर विचार विमर्श करते थे, इनमें वंशीधर सक्सेना, राम प्रसाद कटारे, दाउ साहब भूपेन्द्र सिंह याद आते हैं।

अर्जित रिश्तों में विभिन्न कालखण्डों में बन गये मित्र, साहित्यकार, पत्रकार, वैचारिक साथी, कार्यालयीन सहयोगी, सामाजिक कार्यकर्ता आदि रहे। इनमें से प्रत्येक के जाने के साथ साथ में निर्बल होता गया।

कुछ मेरी पसन्द के विचारक, साहित्यकार, और कलाकार थे जो मेरे प्रिय थे, आदर्श थे। उनसे कभी निकटता नहीं रही, वे मुझे नहीं जानते थे किंतु मैं उन्हें उनके योगदान के कारण उस हद तक जानता था जिस हद तक उनके बारे में सार्वजनिक होता रहा। इनमें ओशो रजनीश, अमृताप्रीतम, भीष्म साहनी, हरिशंकर परसाई, दुष्यंत कुमार, रवीन्द्र नाथ त्यागी, मुश्ताक अहमद यूसिफी, अहमद फराज, निदा फाज़ली, हबीब तनवीर, बलवीर सिंह रंग, कृष्ण बिहारी नूर, राहत इन्दौरी, गोपलदास नीरज आदि रहे। [ वैसे भीष्म साहनी और परसाईजी से सामान्य पहचान और कुछ मुलाकातें रहीं, कभी नीरज जी का बड़ा प्रशंसक रहा, अनेक मुलाकातें रहीं, किंतु मेरे जैसे उनके न जाने कितने हजार  प्रशंसक रहे होंगे, इसलिए वे मुझे निजी तौर पर याद कर सकते हैं, इस बात में हमेशा सन्देह रहा ] मेरे वैचारिक आदर्शों में कामरेड सव्यसाची, मुकुट बिहारी सरोज, शीलजी, ऐसे थे जो मेरे बारे में थोड़ा सा जानते थे, उनसे अपने सुख दुख बाँट सकता था और वे घर के बड़े बुजुर्ग की तरह सलाह भी देते थे। उनसे परिचय एक आश्वस्ति देता था। धर्मवीर भारती, रामावतार चेतन, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, कैलाश सेंगर, दक्षिण समाचार के सम्पादक और कल्पना के सम्पादकीय विभाग के पूर्व वरिष्ठ सम्पादक मुनीन्द्रजी का आत्मीय स्नेह मिलता रहा। उम्र में बड़े वैचारिक साथी वेणु गोपाल ने भी कुछ अमिट छापें छोड़ी हैं। इसी दौर में वरिष्ठ कवि ओमप्रकाश ‘निर्मल’ और कन्नड़ भाषी व्यंग्य लेखक एम उपेन्द्र, प्रभु जोशी का प्रेम भी मिला। हैदराबाद में जिन लोगों से परिचय हुआ था उनमें एक मित्र बालकृष्ण ‘रोहिताश्व’ भी थे जो गोवा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो गये थे। दो बार की गोवा यात्रा में उन्होंने मेजबान की तरह व्यवहार किया था विश्व विद्यालय में मुझे अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया था दो साल पहले अचानक ही उनकी म्रत्यु की खबर मिली। नईम जी तो जितने मिले, हमेशा बहुत अपने लगते रहे।   

मैं गर्व से कहता रहा हूं कि मुझे काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, अदम गोंडवी, माणिक वर्मा, जैसे वरिष्ठ अखिल भारतीय कवियों व शरद जोशी, शंकर पुंताम्बेकर और केपी सक्सेना जैसे लेखकों का साथ मिला और वे मुझे कवि साथी से कुछ अधिक ही जानते रहे। दतिया के साहित्यकारों में मुझे वासुदेव गोस्वामी, डा. सीता किशोर खरे, राधारमण वैद्य, राम रतन अवस्थी, का स्नेह मिलता रहा।  कामता प्रसाद सड़ैया, दिनेश चन्द्र दुबे  श्रीवास्तव व जगदीश सुहाने भी सम्मानीय मित्रों में से थे।  

समकालीनों में लोकप्रिय लोगों को निजी मित्र बताना, कम लोकप्रिय लोगों को अच्छा लगता है, उस पर भी अगर उनसे उदार व्यवहार मिले तो वे जितने होते हैं उससे भी अधिक अपने लगने लगते हैं। साहित्य के क्षेत्र के ऐसे प्रतिष्ठित लोगों में जो दुनिया में नहीं रहे मुझे अक्षय कुमार जैन, कमला प्रसाद, भगवत रावत, स्वयं प्रकाश, श्याम मुंशी, राजेन्द्र अनुरागी, जब्बार ढाकवाला, अंजनी चौहान, विनय दुबे, विनोद तिवारी, रमेश यादव, शिव कुमार अर्चन, प्रदीप चौबे, हरिओम बेचैन, जहीर कुरेशी, राम अधीर, महेन्द्र गगन, बनाफर चन्द्र, चित्रकार किशोर उमरेकर, पत्रकार राजेन्द्र जोशी का स्नेह मिला।    

मेरे निजी दोस्त जो परिवार के लोगों से भी अधिक होते हैं, को भी मैंने खोया। इनमें से एक थे ओम प्रकाश गोस्वामी जो मुझे दिल से समझते थे, का बहुत महत्व था। मैंने पैसा नहीं कमाया, जबकि ओम प्रकाश ने कमाया था और मुझे भरोसा था कि किसी आपत्ति काल में वह मेरे लिए हाथ नहीं सिकोड़ेगा। वह असमय चला गया।  दूसरा बड़ा नुकसान हरीश दुबे की मृत्यु से हुआ, वह ऐसा दोस्त था जिसके सामने दिल और दिमाग खोल कर कैसी भी बात की जा सकती थी। वह उम्र से छोटा था किंतु दिल से बहुत बड़ा था, यही भावुकता उसे ले बैठी। एक बहुत ईमानदार मित्र प्रतिपाल सिंह पाली था। कनाडा चला गया था, किंतु,  अपनी माँ और बहिन के लिए लौट कर आ गया था और अपनी कमाई हुयी धन राशि अपनी भलमनसाह्त के कारण लुटाता रहा। अचानक ह्रदयाघात का शिकार हो गया। छतरपुर के एक प्रमोद पांडे थे जो प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव रहे कमला प्रसाद जी के भाई थे किसी भावुकता में आत्महत्या कर बैठे और खबर सुन कर उनकी पत्नी ने भी जान दे दी। जब मैं हरपालपुर में था तो वही एक थे जिनसे वैचारिक साम्य था। जब भी सरकारी काम से छतरपुर जाना होता तो उन्हीं के घर में ठिकाना होता और देर रात तक बातें होती रहतीं। उनकी पत्नी भी विदुषी थीं। दतिया में शम्भू तिवारी की कार्यशैली से लगता था कि उनके साथ मिल कर स्थानीय स्तर पर एक वामपंथी आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है किंतु उनकी दबी हुयी महात्वाकांक्षाएं उन्हें पहले काँग्रेस और फिर भाजपा तक ले गयीं, बाद में उन्होंने अनेक तनावों में घिर कर खुद को गोली मार ली थी। बैंक की नौकरी करते हुए मैं अपने विचारों को छद्म नाम से एक स्थानीय अखबार में व्यक्त करता था। उसके प्रकाशक सम्पादक रमेश मोर भी पिछले वर्षों में नहीं रहे। दतिया के प्रतिष्ठित वस्त्र व्यापारी और मेरे सहपाठी रहे मोहन गन्धी को उनकी पत्नी और रिश्तेदार सहित कोरोना ने लील लिया। कोरोना में ही मेरे एक चचेरे भाई भी नहीं रहे।  

मैं जो सपने लेकर भोपाल आया था उनको 2001 में कामरेड शैलेन्द्र शैली की मृत्यु से बहुत धक्का लगा और वे चकनाकूर हो गये। शैली जैसे युवा प्रतिभावान, ऊर्जावान, व्यवहारिक, खुशमिजाज नेता की आत्महत्य से भोपाल आने की योजना बिखर गयी थी, विश्वास डिग गया था। किसी तरह पत्रकारिता की एक दूसरी लाइन पकड़ी थी कि जब्बार ढाकवाला और उनकी पत्नी की दुर्घटना में मृत्यु ने फिर मुझे तोड़ दिया। मैंने तब कहा था कि उसके साथ आधा तो मैं मर गया हूं, और यह सच भी था।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023