श्रद्धांजलि / संस्मरण से.रा.यात्री मेरे बड़े भाई से बढ कर रहे यात्रीजी
नेपथ्यलीला NEPATHYALEELA
राजनीतिक सामाजिक और साहित्यिक रंगमंच के नेपथ्य में चल रही घात प्रतिघातों का खुलासा
शनिवार, नवंबर 18, 2023
श्रद्धांजलि / संस्मरण से.रा.यात्री मेरे बड़े भाई से बढ कर रहे यात्रीजी
रविवार, नवंबर 05, 2023
फिल्म समीक्षा 12वीं फेल संवेदनशीलता से प्रेरणादायक सत्य कथा का फिल्मीकरण
फिल्म समीक्षा 12वीं फेल
संवेदनशीलता से प्रेरणादायक सत्य कथा का फिल्मीकरण
वीरेन्द्र जैन
कोई कहानी कितनी भी काल्पनिक हो किंतु जब उस पर फिल्म बनती है तो उसके दृश्य पटकथा लेखक के अपने अनुभव स्मृतियों और अध्यन से जुड़े होते हैं जिन्हें गूंथ कर वह कहानी को मौलिक रूप देने की कोशिश करता है। मिर्ज़ा गालिब का एक शे’र है –
देखिए तकरीर की लज्जत कि उसने जो कहा
सुनने वाला भी ये समझे ये हमारे दिल में है
12वीं फेल की पटकथा बिल्कुल सच्ची घटना पर आधारित है जो फिल्म बनने से पहले उपन्यास के रूप में और विभिन्न समाचार कथाओं के माध्यम से चर्चित हो चुकी है। यह सत्यकथा इतनी घटना प्रधान है कि विधु विनोद चोपड़ा जैसे जाने माने फिल्मकार को फिल्म निर्माण के लिए उपयुक्त लगी। चम्बल जैसे क्षेत्र में जहाँ बात बात में बन्दूकें निकाल कर गोलियों की भाषा में बात की जाती है। जहाँ की महिलाएं भी अपनी आन के लिए युवाओं को बन्दूक के प्रयोग से रोकती नहीं अपितु प्रोत्साहित करती हैं, वहां का एक निम्न आर्थिक स्थिति वाला परिवार स्थानीय विधायक से टकराने पर सरकारी मशीनरी की ज्यादतियों का शिकार होता है। जब वहां एक ईमानदार पुलिस अधिकारी पदस्थ होता है तो वह विधायक के स्कूल में चलने वाला नकल का गोरखधन्धा बन्द करा देता है जिससे सभी लड़के फेल हो जाते हैं, जिनमें कथा नायक भी है। वह हार कर जुगाड़ नामक स्थानीय रूप से जोड़े हुए वाहन से सवारियां ढोने लगता है जो विधायक की बस की आमदनी को कम कर देती है। पुलिस की मदद से विधायक उसे भी बन्द करा देता है। ईमानदार पुलिस अधिकारी विधायक से बिना डरे इसमें उसकी मदद करता है। इससे वह अधिकारी उसका आदर्श बन जाता है जो अपने साहस का मूल मंत्र ईमानदारी और सच्चाई को बतलाता है। कथा नायक तय करता है कि वह पुलिस अधिकारी बनेगा और ईमानदारी से समाज हित में काम करेगा। अभावों में रहते हुए ही वह कठोर मेहनत से यूपीएससी की परीक्षा पास कर डीवायएसपी बन जाता है। साथियों का विश्वास प्राप्त करता है, एक आई आर एस की परीक्षा में बैठने वाली लड़की का प्रेम जीतता है और दोनों अधिकारी बन कर ईमानदारी से काम करते हुए खुश रहते हैं।
इस घटना को फिल्म में बदलते हुए फिल्मकार जो दृश्य और संवाद दर्शाते हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं और बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाते हैं। चम्बल का असल इलाका जो इस क्षेत्र पर बनने वाली फिल्मों में इससे पहले केवल फिल्म ‘बैंडिट क्वीन‘ में ही इतनी स्वाभाविकता में दर्शाया गया था। वहां के घर, गाँव, लोग, उनके स्वभाव, उनकी बोली, उनकी मुखरता, और उनका अपना कानून सब कुछ वैसा ही है जैसा चम्बल को जानने वाले जानते हैं। ‘राग दरबारी’ के वैद्यजी जैसे विधायक हैं जो स्कूल से लेकर बस तक, पंचायत व पुलिस थाने को अपनी जागीर समझ कर संचालित करते हैं। शिक्षा ही नहीं आवागमन के साधन भी उसी काल के हैं और असहमत होने पर पुलिस और अधिकारी किसी को भी अपराधी बना कर छोड़ सकते हैं।
यूपीएससी की तैयारी में हिन्दी मीडियम से पढ कर निकले प्रतिभावानों की समस्या हो या कमजोर आर्थिक स्थिति वाले छात्रों के दिल्ली जैसे महानगरों में रहने खाने की समस्या हो, ट्यूटोरियल संस्थानों के शोषण हों या जीवन स्तर में पिछड़ने की कुण्ठाएं हों सब कुछ दर्शाया गया है। फिल्म थ्री ईडियट की तरह पिता की इच्छाओं को पूरी करने के लिए पढने वाले सम्पन्न परिवारों के बच्चों का दर्द भी सामने आया है। यूपीएससी के चयनकर्ताओं के दृष्टिकोण और संस्थान की अभिजात्य संस्कृति भी दृष्टिगोचर होती है जिसमे सामान्य परिवार से आने वाला बुझ सा जाता है। पुलिस व्यवस्था और कानूनों के बारे में सामान्य पुलिस वाले भी उतने ही अनभिज्ञ होते हैं जितनी जनता व कानून और अंग्रेजी के आगे पुलिस क व्यवहार बदल जाता है। कुल मिला कर यह एक राजनीतिक फिल्म भी है जिसमें अटल बिहारी की कविता- हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं, गीत नया गाता हूं। थीम सौंग की तरह बार बार आता है। एक बार चुनाव हारने के बाद की पहली सभा में अटल जी ने अपने अन्दाज में डमरू बजाने की तरह हाथ घुमाते हुए कहा था- हम चुनाव जरूर हारे हैं, पर हिम्मत नहीं हारे। यूपीएससी परीक्षा के साक्षात्कार लेने वाले अधिकारी तो कथा नायक के एक उत्तर में प्रतिक्रिया देते हैं कि उसे तो पोलटिक्स ज्वाइन कर लेना चाहिए।
फिल्म के पात्रों के चयन में जिस कौशल का प्रयोग किया गया है वह अद्भुत है। वे सब के सब स्वाभाविक लगते हैं। सभी ने भूमिका के साथ न्याय किया है और अपने संवेदनशील अभिनय से वे दर्शकों की आँखों को भिगो सकने में समर्थ हुये हैं। कला दिल से जोड़ती है और यह फिल्म दर्शकों के मर्म को स्पर्श करने में सफल हुयी है।
स्वतंत्रता के बाद देश में जो बड़े आन्दोलन हुये हैं, उनके मूल में भ्रष्टाचार का विरोध ही रहा है। 1975 में गुजरात का छात्र आन्दोलन तत्कालीन मुख्यमंत्री पर लगे भ्रष्टाचार से ही प्रारम्भ हुआ था जिसे जयप्रकाश नारायण आगे ले गये थे और फिर इमरजैंसी की स्थिति बनी थी। 1989 में राजीव गाँधी पर बोफोर्स काण्ड के कमीशन के आरोप में सत्ता परिवर्तन हुआ था। अन्ना और केजरीवाल का आन्दोलन भी भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आन्दोलन था और मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ भी टू जी, थ्री जी, फोर जी, आदि के आरोपों के कारण सरकार बदली थी और मोदी को मौका मिल गया था। इस फिल्म का मूल स्वर भी प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदारी को स्थापित करने का है। यही कारण रहा है कि इसके साथ ही सरकार द्वारा प्रोत्सहित अभिनेत्री कंगना रनौत की फिल्म तेजस उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्रियों के प्रमोशन के बाद भी पिट गयी और ‘12वीं फेल’ पास हो गयी। यह फिल्म इस लायक है कि इसे टैक्सफ्री करके स्कूल कालेज के छात्रों को दिखाये जाने के शो आयोजित किये जाने चाहिए। सुना जा रहा है कि यह दक्षिण भारत की कई भाषाओं में डब करके प्रदर्शित की जा रही है। यह अच्छी बात है। फिल्म के नायक विक्रांत मैसी से उम्मीदें जगती हैं वे अभिनय की दुनिया में बहुत आगे जायेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
गुरुवार, सितंबर 07, 2023
श्रद्धांजलि ; संस्मरण हसीब सोज़ एक बार फिर मैंने देर कर दी
श्रद्धांजलि ; संस्मरण हसीब सोज़
एक बार फिर मैंने देर कर दी
वीरेन्द्र जैन
मुझे एक बार फिर मुनीर नियाज़ी की उस नज़्म का
मिसरा दुहराना पड़ रहा है – “ हमेशा देर कर देता हूं मैं “
इस बार शायर हसीब सोज की मृत्यु का समाचार सुनने
के बाद अफसोस के साथ यही मिसरा याद आ गया। सोज़ साहब से मेरी कोई मुलाकात नहीं थी
किंतु लगभग बीस साल पहले से मैं इस प्रतीक्षा में था कि कभी संयोग वश उनसे भेंट हो
जायेगी और मैं उन्हें यह घटना सुनाऊंगा।
प्रदीप चौबे मेरे साहित्यिक बचपने के दोस्त थे,
अर्थात जब उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया था, लगभग उसी समय मैंने भी लिखना छपना
प्रारम्भ किया था। 1976-77 के दौरान जबलपुर से व्यंग्य की एक पत्रिका ‘व्यंग्यम’
का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ और उसके किसी अंक में हम दोनों की रचना प्रकाशित हुयी तो
रचनाएं पढ कर दोनों ने ही एक ही समय में एक दूसरे को पहले पत्र लिखे जो क्रास हो
गये। इस संयोग ने दोनों को ही आनन्द दिया जिससे मित्रता को बल मिला। जब परिचय में
पता चला कि हम दोनों ही बैंक में काम करते हैं तो और बल मिला। कुछ वर्ष भटक कर मैं
गृह नगर दतिया लौट आया और उन्होंने कवि सम्मेलनों में अपना लंगोटा फहरा दिया था
इसलिए ट्रान्सफर से बचने के लिए प्रमोशन नहीं लिया और ग्वालियर में ही स्थायी होकर
रह गये थे। फिर तो सायास अनायास मुलाकातों का सिलसिला बढता गया। हिन्दी कविता के
मंच पर स्टेंड अप कामेडी को प्रस्तुत करने वाले वे पहले व्यक्ति थे भले ही
उन्होंने इसे यह नाम नहीं दिया था। वे मूलतयः गज़लगो थे और जब उन्होंने गज़ल में
व्यंग्य का प्रयोग किया तो उसे व्यंग्यजल का नाम दिया जो चल निकला । मंच पर उनका
बड़ा नाम हो गया था किंतु उन्होंने कभी इसका अहंकार नहीं किया और हमेशा पुराने
अन्दाज़ में ही मिलते रहे। प्रदीप का एक गुण और था कि वे अपने समकक्षों से ईर्षा
नहीं करते थे अपितु प्रत्येक को उसका पूरा श्रेय देते थे, सम्मान करते थे। उनके
समकालीनों में यह गुण दुर्लभ हो गया था और हम लोग कई बार इस विषय पर बात कर चुके
थे। वे गुण ग्राहक थे।
जब मैं भरतपुर में थ तो एक योजना कौंधी थी कि मंच
के लोकप्रिय कवियों से पत्र व्यवहार कर उन्हें इस बात के लिए तैयार कर लिया जाये
कि वे जब भी आसपास के कवि सम्मेलनों में जा रहे हों तो थोड़ा सा समय निकाल कर हमारे
नगर में भी चुनिन्दा सहित्य रसिक श्रोताओं के समक्ष अपनी सुविधानुसार एक दो घंटे
का रचना पाठ न्यूनतम भेंट स्वीकार करके करें। मैं इस योजना को कार्यरूप नहीं दे
सका था किंतु इस योजना को बहुत बाद में प्रदीप ने ग्वालियर में सफलतापूर्वक
कार्यरूप दिया। वे पूरा पारिश्रमिक देकर किसी एक रचनाकार को एकल पाठ के लिए पूरे
सम्मान के साथ बुलाते थे और उस कार्यक्रम में ग्वालियर नगर के सभी श्रेष्ठ रसिक
श्रोता और विशिष्टजन पधारते थे। मुझे भी कार्ड भेजते थे और दतिया से मैं भी सुनने
के लिए आता था। कार्यक्रम का नाम ‘आरम्भ’ था। बाद में उन्होंने इसी नाम से एक
वार्षिक पत्रिका भी निकाली थी जिसमें देश विदेश के चुनिन्दा शायरों की चुनिन्दा रचनाएं
छापते थे। उनका चयन बेहतरीन होत था।
एक बार हम लोग कहीं होटल के एक ही कमरे में रुके
हुये थे और साहित्य पर बेतरतीब बातचीत चल रही थी। मैंने इसी क्रम में एक शे’र
सुनाया-
तुम्हारा घर बहुत संवरा सजा है
तुम्हारे घर में क्या बच्चे नहीं हैं
उन्हें यह शे’र बहुत पसन्द आया और कहा कि पूरी गज़ल सुनाइए। मैंने कहा
कि गज़ल नहीं यह तन्हा शे’र है और वह भी एक तरह से चोरी का शेर है। इतना ही नहीं ये
आपकी पत्रिका आरम्भ की एक रचना से प्रभावित है। इस पर वे बोले कि आरम्भ में तो ऐसा
कोई शेर नहीं छपा, मुझे तो सब अच्छे शेर याद रहते हैं।
इस पर मैंने कहा कि यह सीधी चोरी का मामला नहीं है अपितु प्रभाव ग्रहण
करने का मामला है। आरम्भ -1 में ही किसी गज़ल का शे’र है –
कपड़ों की सलवटों पै बहुत नाज़ है हमें
घर से निकल रहे थे कि बच्चा लिपट गया
प्रदीप बोले यह हसीब सोज़ की गज़ल का शे’र है किंतु अगर इस प्रभाव के
आधार पर चोरी का शे’र कहोगे तो पूरे साहित्य के बड़े हिस्से को चोरी का बताना
पड़ेगा।
इसके बाद जब मिलते जुलते प्रभाव के शेरों,
कविताओं का सिलसिला शुरू हुआ तो इसमें घंटों गुजर गये और नये नये अन्वेषण होते
गये।
मैं उसी दिन से हसीब सोज़ को खोज खोज कर पढने लगा
और सोचने लगा कि जब कभी उनसे भेंट होगी तो उन्हें यह घटना सुनाते हुए उनकी रचनाओं
के प्रति अपनी पसन्दगी व्यक्त करूंगा। जब से उन्हें फेसबुक पर पढता था तो अपने आप
लाइक के बटन पर उंगली दब जाती थी। मैं उन्हें मुनव्वर राना की परम्परा का शायर
मानता था और उसी क्रम में पसन्द करता था। उनकी सादगी के कारण उन्हें वह स्थान नहीं
मिल सका जिसके वे हकदार थे, किंतु उन्होंने साहित्य प्रेमी पाठकों के दिलो दिमाग
में बड़ी जगह बनायी हुयी थी। उन्हीं का शे’र है-
अच्छा हुआ जो लग गए जा कर ज़मीन से
अब कितना काम लेते पुरानी मशीन से
विनम्र श्रद्धांजलि
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
सोमवार, सितंबर 04, 2023
संस्मरण ; दुष्यंत की गज़लों की पैरोडी
संस्मरण ; दुष्यंत की गज़लों की पैरोडी
वीरेन्द्र जैन
पैरोडी, ऐसी विधा है जो किसी ऐसी रचना के रूप [ फार्म ] को आधार बना कर लिखी जाती है जो बहुत लोकप्रिय हो चुकी हो, और लोगों के दिलो दिमाग पर चढ चुकी हो। आम तौर पर पैरोडी मूल रचना की याद दिला कर पाठक / श्रोता को नास्टलिजिक कर गुदगुदा देती है। पैरोडी हास्य या व्यंग्य भाव पैदा करने के लिए ही लिखी जाती रही है। कई बार किसी लोकप्रिय विचार को क्षेत्रीय भाषा में लिख देने पर भी वह पैरोडी का मजा देने लगता है।
पिछली सदी के सत्तर के दशक में जब मैंने पत्र पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया था, उन्हीं दिनों दुष्यंत कुमार की गज़लें देश पर छा रहे थीं। हर कोई अपने भाषणों या लेखों में उनके शे’रों का उल्लेख कर रहा था और नये सैकड़ों रचनाकार उनके शिल्प में लिखने का प्रयास कर रहे थे जिसे हिन्दी गज़ल का नया नाम मिल गया था। मैं टाइम्स ग्रुप की फिल्मी पत्रिका माधुरी के ‘चित पट चक्रम’ नामक स्तम्भ में फिल्मी पैरोडियों के मध्यम से अपनी सामायिक राजनीतिक प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता था। इसी क्रम में मैंने उस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय गज़लकार दुष्यंत कुमार की गज़लों की पैरोडियां लिखीं। इन पैरोडियों के सहारे मैं अपने विचार व्यक्त करता था। मैंने कभी भी मूल रचनाकार के विचारों या भावनाओं का उपहास नहीं किया।
जब 1977 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने इमरजैंसी समाप्त करके आम चुनावों की घोषणा कर दी तो अनेक विपक्षीदलों ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट होकर जनता पार्टी का गठन किया और लोकदल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा। इमरजैंसी के कठोर अनुशासन से ऊबी हुयी जनता घुटन से मुक्त होने के लिए आँख मूंद कर विपक्षी गठबन्धन के साथ खड़ी हो गयी। पूरे देश में काँग्रेस की हार और जनता पार्ती की जीत का वातावरण बन गया था। इसे ही महसूस करके मैंने दुष्यंत कुमार की गज़ल ‘ बाढ की सम्भावनाएं सामने हैं, और नदियों के किनार घर बने हैं” की पैरोडी लिख डाली और लोकप्रिय साप्ताहिक ब्लिट्ज़ को भेज दी। इसके कुछ शे’र इस तरह थे-
हार की सम्भावनाएं सामने हैं,
और निर्वाचन की खातिर हम खड़े हैं
हमें चमचों ने बहुत ऊंचा उछाला,
लग रहा था आज हम सबसे बड़े हैं
सत्य का सूरज यहीं गुम हो गया है,
जिस जगह बिखरे हुये ये आंकड़े हैं
सिर मुढाने की सलाहें दी गयी थीं,
सिर मुढाते ही मगर ओले पड़े हैं
उन दिनों ब्लिट्ज़ की चिनगारी भी ठंडी पड़ चुकी थी इसलिए चुनाव के दौरान भेजी यह रचना उन्होंने उस अंक में छापी जिस दिन चुनाव परिणाम आने लगे थे।
कवि सम्मेलनों के मनोरंजन सम्मेलनों में बदल जाने का भी यही समय था। उन्हीं दिनों मैं भी कवि सम्मेलनों की तरफ आकर्षित हो रहा था किंतु उन मंचों पर पकड़ नहीं बना सका। अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए मैंने दुश्यंत कुमार की गज़ल ‘मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे ‘ का सहारा लिया और पैरोडी लिखी जो कवियों के प्रमुख मंच रंग चकल्लस की पत्रिका ‘रंग’ में छपी।
मिला निमंत्रण सम्मेलन का, गीत सुनाने आयेंगे
गीतों से ज्यादा अपना पेमेंट पकाने आयेंगे
बड़े बड़े कवि ले आयेंगे, प्यारी प्यारी शिष्याएं
निज बीबी से दूर रंग रेलियां मनाने आयेंगे
नामॉं से बेढंगे, रंग बिरंगे हास्यरसी कविवर
चोरी किये हुए फूहड़ चुटकले सुनाने आयेंगे
इमरजैंसी पर लिखी उनकी प्रसिद्ध गज़ल ‘ये जुबां हमसे सीं नहीं जाती’ की पैरोडी लिखनी पड़ी जब नौकरी में नौकरशाही ने परेशान कर डाला था। इसे ‘माधुरी ‘ ने प्रकाशित किया था।
नौकरी हमसे की नहीं जाती
क्योंकि चमचागिरी नहीं आती
अफसरों के विशाल बंगलों पर
नाक हमसे घिसी नहीं जाती
उनके कुत्ते भी बोलते इंग्लिश
हमको घिस्सी पिट्टी नहीं आती
तानाशाही चली गयी होगी
देश से अफसरी नहीं जाती
फिल्म विषयक पैरोडियों के लिए भी दुष्यंत कुमार की चर्चित गज़ल ‘ एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है “ की माधुरी में लिखी पैरोडी देखिए –
स्वार्थ ही जिस जगह की सबसे बड़ी पहचान है
उस जगह का नाम ही दुनिया में फिल्मिस्तान है
रास्ते पीछे से खुलते हैं यहाँ पर हर जगह
सामने ‘ नो एंट्री’ है और इक दरवान है
दो तरह के लोग ही मिलते हैं फिल्मी क्षेत्र में
थोड़े जीनत की तरह के थोड़े संजय खान हैं
कल वो जंगल में मिला था साथ सांभा को लिये
मैंने पूछा नाम तो बोला कि अमज़द खान है
सिलसिला चला तो मैंन फिर नीरज जी, रंगजी, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी आदि के अनेक चर्चित गीतों की पैरोडियां लिखीं जो सभी तत्कालीन राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में तब तक प्रकाशित हुयीं जब तक कि मुझे ही यह लेखन निरर्थक नहीं लगने लगा। कभी कभी कुछ घटनाओं से बचपना भी याद आ जाता है और निजी तौर पर सुख दे जाता है।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अगस्त 26, 2023
श्रद्धांजलि / संस्मरण श्री आग्नेय
श्रद्धांजलि / संस्मरण श्री आग्नेय
इकला चलने वाले
मैंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना के अंतर्गत बैंक की नौकरी से सेवा निवृत्त होकर भोपाल रहने का फैसला लिया था तो सोच में साहित्य सृजन और राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने का विचार था। इसी क्रम में साहित्यकारों से मुलाकात का सिलसिला प्रारम्भ हुआ और आग्नेय जी से मिलना हुआ जो उस समय साहित्य परिषद के सचिव और उसकी साक्षात्कार पत्रिका के सम्पादक थे। वे उस कविता के बड़े कवियों में गिने जाते थे जो कविता मेरी समझ में कम आयी किंतु साहित्य जगत की मान्यता के अनुसार सैकड़ों अन्य लोगों की तरह मैं इसमें अपनी समझ का ही दोष मानता था और सम्मान का भाव रखता था।
वे वामपंथी आन्दोलन से जुड़े रहे थे और किसी ने बताया था कि वे कम्युनिष्ट पार्टी के अखबार जनयुग में काम कर चुके थे किंतु अब आन्दोलन के प्रति क्रिटीकल थे। मैं जब उनसे मिला तब तक किसी ने मेरे बारे में उन्हें बता दिया था कि मैं मैंने कम्युनिष्ट पार्टी में काम करने के लिए बैंक की नौकरी छोड़ी है, जबकि सच यह था कि नौकरी छोड़ने के बाद मैंने कम्युनिष्ट पार्टी के समर्थक के रूप में कार्य करना चाहा था। किंतु ना तो उन्होंने कभी सीधे सीधे इस विषय में कभी पूछा और ना ही मैंने उनकी धारणा बदलने की कभी कोशिश की। वे जब भी मिलते थे तब वामपंथी आन्दोलन से अपनी सारी शिकायतें उड़ेल देते थे। मुझे इसमें उनकी आत्मीयता दिखती थी जो घटनाओं को विचलन मान कर शिकायत के रूप में सामने आती थी। मुझे इसी बात का संतोष रहता था कि वे मुझे पहचानते हैं। मिलने पर उपलब्ध होने पर अपनी पत्रिका ‘सदानीरा’ भेंट करते थे।
वे किसी भी तरह का विचलन सहन नहीं कर पाते थे व अपनी बेलिहाज साफगोई के कारण ना तो कोई गुट बना पाते थे और ना ही दोस्त। इस जमाने में एक दम परिपूर्ण लोग कहाँ मिलते हैं, जैसे वे चाह्ते थे। उनके व्यवहार से नाराज लोग तो बहुत मिले किंतु उन पर बेईमानी या पक्षपात का आरोप लगाने वाला कोई नहीं मिला। वे हमेशा मुझे अकेले मिले अकेले लगे। उनके निधन की खबर पर जब उनके वर्तमान पते की जानकारी चाही तो किसी को भी सही जानकारी नहीं थी। बाद में किसी ने बताया कि उनका बेटा विदेश में था और कुछ दिन उसके पास रहने के बाद वे लौट आये थे व किसी सुविधा सम्पन्न वृद्धाश्रम में रह रहे थे। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो –
उनने तमाम उम्र अकेले सफर किया
उन पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही
विनम्र श्रद्धांजलि।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अगस्त 23, 2023
फिल्म समीक्षा के बहाने : ओह माई गाड -2
फिल्म समीक्षा के बहाने : ओह माई गाड -2
एक व्यावसायिक उत्पाद की नकल
वीरेन्द्र जैन
जब भी व्यावसायिक रूप से सफल किसी फिल्म के नाम को दूसरा क्रम देकर कोई मूवी बनाई जाती है तो वह पहली फिल्म से अच्छी नहीं होती। ऐसी फिल्म को दूसरा क्रम इसीलिए दिया जाता है ताकि पहली सफल फिल्म के प्रभाव का लाभ उठा कर व्यावसायिक लाभ उठाया जा सके। यह एक तरह से पहली फिल्म के दर्शकों के साथ ठगी होती है। अगर अच्छी होती तो उसे नये नाम से बनायी जा सकती थी। दृश्यम -2 आदि में हम ऐसी ही ठगी देख चुके हैं।
पहले फिल्में कहानियों पर बनती थीं, फिर घटनाओं व खबरों पर बनने लगीं और ‘ओह माई गाड -2” जैसी फिल्में किसी अखबार या पत्रिका में प्रकाशित लेखों पर बनने लगी हैं। इसमें कथानक नहीं है अपितु विचार और उसके पक्ष मे तर्क वितर्क होते हैं। फिल्म में पाठ्यक्रम में यौन शिक्षा की जरूरत के पक्ष को रखने और उस विषय की पक्षधरता के लिए एक अदालती बहस खड़ी कर दी गयी है। यह फिल्म उन लोगों को कुछ जानकारी दे सकती है जो अखबारों के सम्पादकीय पेज नहीं पढते या पत्रिकाओं में सामाजिक विषयों पर प्रकाशित सामग्री नहीं देखते। फिल्म के अंत में जो जनमत बनता दिखाया गया है वह नकली लगता है क्योंकि सदियों से निर्मित धारणाओं को इतनी आसानी से नहीं तोड़ा जा सकता जितनी आसानी से इसे टूटता दिखाया गया है। बिना सामाजिक आन्दोलन चलाये हमने संविधान के सहारे जातिवाद, धार्मिक भेदभाव आदि बदलने की जो कोशिशें की हैं वे अदालती फैसलों तक सीमित होकर रह गयी हैं और उन्हें ज़मीन पर उतरना बाकी है। किशोर अवस्था में यौन शिक्षा की जानकारी केवल सूचना भर नहीं रह जाती अपितु यौन संवेदना भी पैदा करती है और उसके शमन का कोई उपाय नहीं सुझाया गया है।
फिल्म का विषय महत्वपूर्ण है जिसे और अच्छी तरह से कहानी में पिरो कर एक अधिक अच्छी फिल्म बनायी जाना चाहिए थी या कहें कि बनाई जा सकती थी किंतु निर्माता निर्देशक की दृष्टि एक धर्मस्थल पर जनता की आस्था को भुनाना, और इसी नाम से सफल हो चुकी फिल्म के दर्शकों को सिनेमा हाल तक खींचना भर थी। फिल्म पर विवाद खड़े करके उसे चर्चित कराना भी एक हथकंडा बन चुका है, जिसका स्तेमाल इस फिल्म के लिए भी किया गया था और सेंसर से ‘ए’ सार्टिफिकेट प्राप्त कर लिया गया था। इसमें कथा नायक के दुर्घटनाग्रस्त होकर मर जाने के बाद पुनर्जीवित होने को छोड़ दें तो दूसरा कोई चमत्कारी दृश्य नहीं है। बाल कलाकारों का अभिनय अच्छा है व सहयोगियों की भूमिका में अंजन श्रीवास्तव व अरुण गोविल की भूमिकाएं संतोषजनक हैं। इसे कामेडी फिल्म की तरह प्रचारित किया गया है किंतु कामेडी ना के बराबर है। इस फिल्म में स्टार अक्षय कुमार का नाम प्रमुखता से दिया गया है किंतु फिल्म के नायक पंकज त्रिपाठी हैं, जो अक्षय कुमार की तुलना में अपेक्षाकृत अच्छे अभिनेता हैं। अक्षय कुमार की बहुत सीमित भूमिका है। वकील के रूप में यामी गौतम ने सुन्दर दिखने की भूमिका भर निभायी है।
किसी सन्देश को लेकर बनायी गयी फिल्मों को दर्शक तक पहुंचाने की योजना भी बनायी जाना चाहिए थी, जिससे सम्बन्धितों तक बात पहुंचे और कार्यांवयन हो सके।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
रविवार, अगस्त 13, 2023
संस्मरण / श्रद्धांजलि श्री एम एन नायर वे अफसर से ज्यादा जनता के दोस्त थे
संस्मरण / श्रद्धांजलि श्री एम एन नायर
वे अफसर से ज्यादा जनता के दोस्त थे
वीरेन्द्र जैन

एक समय मैं कुछ पारिवारिक परेशानियों में फंस गया था और उसी समय [1985] मुझे बैंक में मैनेजर के पद से बदल कर आडीटर [इंस्पेक्टर] बना दिया गया था। तब मैं एक अराष्ट्रीयकृत ए क्लास बैंक हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक में कार्य करता था। मानसिक दबाव बहुत ज्यादा था और मुझे आडिट हेतु नगर दर नगर भटकना पड़ रहा था। उन दिनों दैनिक भत्ता कुल बीस रुपये था जिसमें होटल का किराया और भोजन भी शामिल था। आम परम्परा यह थी कि जो आडीटर जिस शाखा का निरीक्षण करता था उसके प्रबन्धक द्वारा उसके रहने खाने की व्यवस्था की जाती थी, जो मुझे स्वीकार नहीं थी| हर स्थान पर उन दिनों रहने खाने के होटल नहीं पाये जाते थे। अपनी जिद के कारण कई बार मुझे भूखा भी रहना पड़ता था। बार बार नौकरी छोड़ने का विचार आता था किंतु परिस्तिथियों के दबाव ने इसे कार्यांवित नहीं होने दिया। संयोग से 1986 में मेरे बैंक का पंजाब नैशनल बैंक में विलय किये जाने का फैसला हुआ और मुझे यायावरी से मुक्ति मिली। किंतु उस समय पिछले बैंक में जो इंस्पेक्टर या मैनेजर थे उन्हें एक ग्रेड कम करके नियुक्ति दी गयी और अलग अलग जगह पोस्टिंग दी गयी। मुझे अमरोहा में पोस्टिंग मिली। पंजाब नैशनल बैंक में एक नियम था कि जब भी किसी को असिस्टेंट मैनेजर के रूप में पोस्ट किया जाता था तो उससे पोस्टिंग वाले स्टशन पर जाने की स्वीकृति ली जाती थी। मुझे अमरोहा में ही पोस्ट करने के बाद उसी शाखा में ही असिस्टेंट मैनेजर का पद स्वीकार करने के लिए पूछा गया और दूरदृष्टि से मैंने प्रस्ताव को नकार दिया। परिणाम स्वरूप मुझे जे एम जी –वन में ही आफीसर के रूप में वहीं पदस्थ कर दिया गया जिससे मैं चाबियां रखने के चक्कर से बच गया। अब सवाल दतिया ट्रांसफर का था। मैंने इसके लिए लगातार प्रयास करने शुरू किये और अपने सभी सम्पर्कों को पत्र लिखे। बड़े से बड़े लेखक सम्पादक राजनेता आदि जिनको मैं जानता था, सबको लिखा और सबने पंजाब नैशनल बैंक के प्रबन्धन को मेरे दतिया ट्रांसफर की अनुशंसा की। उस दौर के दो वित्त मंत्रियों, जनार्दन पुजारी, और नारायण दत्त तिवारी ने सांसद बालकवि बैरागी के पत्र के उत्तर में लिखा कि बैंक के विलय की शर्तों के अनुसार विलय के दो वर्ष बाद ही स्थानांतरण सम्भव है। इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि दो वर्ष पूरे होते होते मेरा ट्रांसफर दतिया के लिए होगया और मुझे किसी शाखा की जगह लीड बैंक आफिस में पोस्ट किया गया। उस समय लीड बैंक आफीसर श्री एम एन नायर थे।
लीड बैंक आफिस का काम किसी जिले में कार्यरत समस्त बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋणों में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों और सरकारी ऋण योजनाओं के लिए लक्ष्य निर्धारित करना और इसके कार्यांवयन की जानकारी जुटाना होता है। इस जानकारी को समन्वित करके विभिन्न बैठकों में इससे सम्बन्धित समिति के समक्ष प्रस्तुत करना और समीक्षा कर कम प्रगति वाले बैंकों की समस्याओं को दूर करने का प्रयास करना होता है। इस कार्य सम्पादन के लिए जिले के सभी शासकीय वरिष्ठ अधिकारियों से और बैंक प्रबन्धकों के साथ सम्पर्क रखना होता है। इस आफिस में पोस्ट होने के बाद मुझे पहली बार बैंक की नौकरी में मुनीमगीरी से मुक्ति मिली थी। मैं अपने गृहनगर में आ गया था और आफिस में मन का काम मिला था। इसलिए मैंने अपने पूरे मन और क्षमताओं से काम शुरू कर दिया।
किसी शाखा की मैनेजरी करने के बाद मुझे जब भी जूनियर के रूप में कार्य करना पड़ा तो कार्यनीति पर मेरा अपने वरिष्ठों से टकराव होता रहा था। लीड बैंक आफिस में नायर साहब के साथ काम करने में कोई समस्या नहीं आयी। नायर साहब इतने लोकतांत्रिक व उदार विचारों के थे कि उनके स्वभाव में अफसरी दूर दूर तक नहीं थी। वे वरिष्ठ से कनिष्ठ सभी से दोस्ताना सम्बन्ध रखते थे, सभी की सुनते थे। उन दिनों निजी टेलीफोन मिलने में बहुत कठिनाइ होती थी। मैंने बरसों पहले आवेदन दे रखा था इसलिए सेवाओं का विस्तार प्रारम्भ होते ही मेरे घर पर टेलीफोन लग गया था, इससे मैं आफिस टाइम के अलावा भी सम्पर्क द्वारा काम कर सकता था। अपने गृह नगर दतिया में, मैं कभी लेखन, पत्रकारिता व छात्र राजनीति में सक्रिय रहा था इसलिए अपने नगर में मेरा परिचय क्षेत्र विस्तारित था। नायर साहब ने बहुत सारी जिम्मेवारी मुझे सौंप दी और अपने पद के अधिकारों का उपयोग करने की भी खुली छूट दे दी। हमारे साथ कार्यालय में एक और कुशल अधिकारी जुड़ गये थे श्री आर के गुप्ता जो आंकड़े जुटा कर उनको चार्ट का रूप देने में कुशल थे और समान रूप में निःस्वार्थ भाव से लगन पूर्वक काम करते थे। उनकी आंकड़ागत तैयारी के साथ मेरा काम पत्र व्यवहार और सम्पर्क कर नियत समय पर बैठकें आयोजित करना था। नायर साहब पूरी तरह से मुक्त हो अपनी जीप और ड्राइवर के साथ नगर के प्रमुख लोगों समेत अधिकरियों से मिलने जुलने, नगर भर के सरकारी, गैरसरकारी आयोजनों में भाग लेने के लिए स्वतंत्र थे। यह काम उन्हें अच्छा भी लगता था व बैंक के हित में भी था। वे हम दोनों लोगों पर इतना भरोसा करते थे कि उनकी दखलन्दाजी के बिना भी सारा काम सही और उचित समय पर हो जायेगा। ऐसा हुआ भी। हमें यह भी विश्वास था कि कभी कोई भूल हो जाने पर वे जिम्मेवारी खुद लेंगे, वैसे ऐसा अवसर कभी नहीं आया। इस दौरान जो भी जिलाधीश व अन्य उच्च अधिकारी जिले में थे वे नायर साहब के मुरीद थे। आफिस में पदस्थ हम दोनों ही अधिकारी मितव्ययी स्वभाव के थे और ऐसी युक्तियां तलाश लेते थे कि कम से कम खर्च में अपनी बैठकें कर लेते थे।
नायर साहब बैडमिंटन के अच्छे खिलाड़ी थे और हर उम्र के लोगों के साथ खेलते हुए वे छात्रों के साथ भी खेल भावना से मित्रता कर लेते थे। उनका परिचय क्षेत्र इतना अधिक हो गया था कि हर कोई उनसे बैंकिंग काम में मदद मांगने आ जाता था और यथा सम्भव उसका काम कराने को तत्पर रहते थे। अनेक जिलाधीश गैर सरकारी कामों मे उनसे सहयोग की अपेक्षा करते थे और वे उनकी सहायता कर देते थे। एक बार अति वृष्टि के कारण निचले क्षेत्र के लोगों की मदद करने में उन्होंने अपने परिचय क्षेत्र से भरपूर सहयोग जुटाया। वे कुछ समाजसेवी संस्थाओं से भी जुड़ गये थे और स्वास्थ सम्बन्धी कैम्प लगाने में मदद करते थे और मुझे भी इन संस्थाओं से जोड़ लिया था। दतिया में मिले स्नेह के कारण उन्होंने दतिया में ही अपना मकान बनवा लिया था और यहीं बसने का इरादा था किंतु बड़े बेटे के आकस्मिक निधन के बाद उन्होंने इरादा बदल लिया। केरल लौटे किंतु वहाँ भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में उनके छोटे बेटे का निधन हो गया।
वे दतिया को हमेशा याद करते रहे और दतिया में साथ काम किये लोगों के साथ मिलते रहने के लिए एक ग्रुप बनाया था जो सोशल मीडिया के साथ साथ सम्मिलन भी आयोजित करता था। उसका तीसरा आयोजन इसी अक्टूबर में केरल में ही प्रस्तावित था जिसकी तैयारी चल रही थी कि यह दुखद घटना घट गयी। 11 अगस्त 2023 को नायर साहब नहीं रहे।
मेरी नौकरी के सबसे सुखद वर्ष वे ही रहे जो मैंने उनके नेतृत्व में बिताये। वे हमेशा याद रहेंगे। इकबाल मजीद साहब ने सही फर्माया है-
कोई मरने से मर नहीं जाता
देखना, वह यहीं कहीं होगा
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023