शुक्रवार, जुलाई 26, 2024

श्रद्धांजलि / संस्मरण प्रभात झा

 

श्रद्धांजलि / संस्मरण  प्रभात झा

वीरेन्द्र जैन

दिवंगत कामरेड शैलेन्द्र शैली जिन्होंने अपने ज्ञान, अध्ययन, विवेक और संवाद कौशल के सहारे बहुत कम उम्र में शिखर के राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, रणनीतिकारों में अपना स्थान बनाया था, इतने सहज और आत्मविश्वास से भरे रहते थे कि किसी पद, धन या डिग्रीधारी के प्रभाव में नहीं आते थे। अवैज्ञानिक समझ से खुद को समझदार दिखाने का भ्रम करने वालों के साथ तो वे बहुत विनोद से बात करते थे कि पास बैठे लोगों को समझ में आ जाता था कि किसकी क्या प्रतिभा है। इसलिए वे अपने विचारों से असहमत लोगों से भी खूब संवाद करते थे और अन्दाज यह होता है कि जैसे वरिष्ठ जन अपने बच्चों से कहते हैं कि बेटे गुड़िया की शादी कर रही हो, करो पर पकवान क्या क्या परोसोगी, मुझे बुलाओगी या नहीं, या जैसे ईशा मसीह ने शांत चित्त होकर अंतिम शब्द कहे थे कि हे ईश्वर इन्हें माफ कर देना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।

प्रभात झा जब ग्वालियर में पत्रकारिता में आये तब तक शैलेन्द्र शैली पहले छात्र नेता के रूप में और बाद में युवा सीपीएम के नेता के रूप में ग्वालियर में ही कार्य कर रहे थे। दोनों की विचारधारा एकदम विपरीत थी किंतु शैली जैसा युवा नेता अपने पूरे आत्म विश्वास के साथ सबसे संवाद रखता था। प्रभात झा भी उनकी इस प्रतिभा से प्रभवित थे और विमर्श करते रहते थे। उस दौर में दोनों ही सत्तारूढ काँग्रेस के विरोधी थे इसलिए एक बात में तो सहमति थी ही। शैली के अध्यन और विश्लेषण का लाभ ग्वालियर का पूरा पत्रकार जगत उठाता था। यह जानकारी मुझे तब मिली जब कामरेड शैली के निधन के बाद निकले लोकजतन के श्रद्धांजलि अंक में मैंने प्रभात झा का लेख पढा। तब तक वे भोपाल मैं भाजपा के मीडिया प्रभारी की तरह आ चुके थे। यह लेख पढने के बाद मुझे उनके बारे में जानने की जिज्ञासा हुयी तो पता चला कि दोनों के बीच में लोकतांत्रिक संवाद था। पता चला कि एक बार भाषा पर बातचीत के दौरान शैली ने मजाक में उनसे कहा था कि प्रभात तुम आर एस एस से हो इसलिए तुम्हारी मातृ भाषा मराठी होगी और मैं सी पी एम से हूं इसलिए मेरी मातृभाषा बंगाली होगी ।

जब मैं बैंक की नौकरी से मुक्त होकर भोपाल आया तो पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश क्र लिए अतिरिक्त उत्साह से भरा हुआ था इसलिए नये विषयों पर निर्भीकता से लिखता था व उसे प्रकाशित कराने के लिए  मंच की तलाश में रहता था। ऐसा ही एक अवसर आया जब म.प्र. की दिग्विजय सिंह सरकार ने इतिहास पर एक तीन दिवसीय सेमिनार का आयोजन कराया था जिसमें देश के श्रेष्ठ इतिहासकार भागीदारी कर रहे थे। इसमें पढे गये कुछ पर्चों के बारे में प्रभात झा ने दैनिक भास्कर में एक आलोचनात्मक लेख लिखा। लगे हाथ मैंने उसी दिन के कुछ अंग्रेजी अखबारों में भिन्न विचार भी पढे तो तुरंत ही एक लम्बी प्रतिक्रिया लिख कर दैनिक भास्कर के तत्कालीन सम्पादक एन के सिंह के पास पहुंच गया। उन्होंने उसे देखा तो उन्हें विषय वस्तु तो पसन्द आयी किंतु उसका प्रतिक्रिया स्वरूप पसन्द नहीं आया। उन्होंने कहा कि यह क्या है कि बार बार ‘प्रभात झा ने यह कहा है’ ‘प्रभात झा ने यह कहा है’ आ रहा है। आप तो इसी पर एक स्वतंत्र लेख लिख लाइए जिसमें किसी के कथन पर टिप्पणी नहीं की गयी हो।

मैं विधिवत इतिहास का विद्यार्थी तो रहा नहीं और ना ही इंटरनैट गूगल आदि की सुविधाएं उपलब्ध थीं  था इसलिए मुझे सन्दर्भ सहित लिखने में समय लग गया व एक दिन बाद भी उस समय ले कर पहुंचा जब तक सम्पादकीय पेज बन चुका होता है। उन्होंने अप्रसन्नता भी व्यक्त की क्योंकि वे मेरे लेख के इंतजार में काफी देर तक पेज रोके रहे थे। फिर भी उन्होंने लेकर रख लिया। किसी राष्ट्रीय विषय पर बड़े अखबार के सम्पादकीय पेज पर छप सकने के मेरे सपने का यह अवसर था और मेरे अन्दर हलचल चल रही थी। उसी दिन मुझे दतिया के लिए निकलना था और मैं चला आया। दो दिन तक लगातार अखबार देखता रहा किंतु वह लेख नहीं छपा था। सब्र कर के रह गया।

दस दिन बाद जब लौट कर भोपाल आया और डाक देखी तब उसमें एक लिफाफा दैनिक भास्कर का भी दिखा। उत्सुकतावश सबसे पहले उसे ही खोला तो उसमें वह लेख मिला और उस पर लेख के उपयोग न कर पाने की पर्ची लगी हुयी थी। दुख हुआ पर जब पेज पलटे तो लेख के अंत में सम्पादक एन के सिंह का लाल स्याही से उप सम्पादक वीरेन मुंशी के नाम नोट था, ‘कृप्या इसे छापें’। अगले दिन जब मैं लिफाफा लेकर भास्कर कार्यालय पहुंचा तो एन के सिंह नहीं थे तो सीधे उप सम्पादक की केबिन में चला गया। जो सज्जन बैठे थे उनसे मैंने पूछा कि क्या आप ही मुंशीजी हैं तो उन्होंने इंकार किया और वताया कि मुंशी जी अब अखबार में नहीं हैं। उन्होंने मेरा परिचय और नाम जानना चाहा तो बताने पर ऐसा लगा कि वे मेरे बारे में पहले से जानते है और कहा कि आपके कुछ व्यंग्य लेख पड़े हुये थे जिनमें एक कल और बाकी भी अगले सप्ताहों में छप रहे हैं।

इस घटना के कई सालों तक मेरे लेखों को भास्कर के सम्पादकीय पेज पर स्थान मिलता रहा।

बाद में प्रभात झा ने राजनीति में कई छलांगें लगायीं। वे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय महामंत्री, दो बार राज्यसभा के सदस्य रहने के साथ प्रदेश के सर्वोच्च नेता के प्रतिद्वन्दी के रूप में भी पहचाने गये। कई वर्षों से वे मौन साधना कर रहे थे शायद स्वास्थ ही उसका कारण रहा हो। अपनी प्रतिभा और समर्पण से फर्श से अर्श तक पहुंचने वाले लोगों के इतिहास में उनका नाम लिखा जायेगा। वे मेरी यादों में दर्ज हैं, उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

     

सोमवार, जुलाई 22, 2024

फिल्म समीक्षा ; लापता लेडीज शिक्षा देती मनोरंजक फिल्म

 

फिल्म समीक्षा ; लापता लेडीज

शिक्षा देती मनोरंजक फिल्म

वीरेन्द्र जैन


लापता लेडीज यथार्थवादी फिल्म नहीं है। निर्माता को कुछ सन्देश देना थे इसलिए उसने बेतरतीब ढंग से जोड़ी हुयी एक कहानी पर मनोरंजक घटनाओं से भरे सन्देशों के वस्त्र पहना दिये। कहानी पुराने तरह की एवीएम प्रोडक्शन की फिल्मों जैसी है। कुछ लोग मानते हैं कि यह रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ” नौका डूबी “ पर बनी दिलीप कुमार की ‘मिलन [1948]’ या “घूंघट [1960]” की तरह है, पर यह सही नहीं है। उपरोक्त दोनों ही  फिल्मों से केवल इतनी समानता है कि तीनों में घूंघट के कारण दुल्हिनें बदल जाती हैं और इस भूल का पता बाद में चलता है। किंतु इस फिल्म में मुख्य समस्या घूंघट नहीं है, यह केवल संयोग भर है।

कहानी में ढेरों झोल हैं और अगर तार्किक दृष्टि से देखें तो मोबाइल फोन स्तेमाल करने वाली दुल्हिनें और फैक्स वाले थानों के दौर में दुल्हिनें बदल जाने वाले घूंघट नहीं डाले जाते। इस जमाने की बालिग दुल्हिनें अपने ससुराल के गाँव के नाम से अनभिज्ञ नहीं हो सकतीं और किसी भी परिस्तिथि में अपने पति का नाम ना बताने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हो सकतीं। गाँव में रहने वाली कम शिक्षित नायिका की ननद  बेहद अच्छी चित्रकार हो सकती है। महत्वपूर्ण यह है कि कहानी के माध्यम से निर्माता निर्देशक ने समाज व्यवस्था की जिन दुष्प्रवृत्तियों को रेखांकित करने की कोशिश की है उन्हें वह कर पाया है।

दृष्य माध्यम की विशेषता यह होती है कि वह कम से कम समय में पुस्तक के दर्जनों पेजों में वर्णित दृश्य को बता देता है। रंग बिरंगे फूल पत्ते, बहती हवा, आकाश, नदी, पहाड़, पात्रों के मनोभाव आदि सैकिंडों में सम्प्रेषित हो जाते हैं। इसके माध्यम से कथाकार निर्देशक बता देता है कि हमारे गाँवों और कस्बों की पुलिस व्यवस्था कैसे काम करती है व वहाँ से न्याय मिल पाना कितना मुश्किल होता है। एक आम आदमी के लिए रेल परिवहन की दशा कैसी है, रेलवे स्टेशनों पर चल रही खानपान की दशा कैसी है। इत्यादि।

विवाह, हिन्दी फिल्मों का ऐसा समस्या मूलक विषय है जिस पर हजारों फिल्में बन चुकी हैं। प्रसिद्ध लेखक पत्रकार और फिल्मों से जुड़े प्रितीश नन्दी एक लेख में लिखते हैं कि वे एक विदेशी मित्र को एक हिन्दी फिल्म दिखाने ले गये तो उसने फिल्म देखने के बाद पूछा कि क्या हिन्दुस्तान में विवाह अब भी इतनी बड़ी समस्या है। कनाडा में रहने वाले मेरे एक सिख मित्र ने अपनी भांजी से पूछा कि वह कनाडा निवासी सिख से व्याह करना पसन्द करेगी या भारत में रहने वाले किसी सिख से, तो उसका उत्तर था कि भारत में तो व्याह किसी व्यक्ति से नहीं, पूरे परिवार के साथ होता है इसलिए वह कनाडा निवासी से ही व्याह करना पसन्द करेगी। इस फिल्म की पटकथा में घूंघट के कारण जो दुल्हिनें बदल जाती हैं, उनमें से एक अपने थोपे हुए दूल्हे से शादी करने की इच्छुक नहीं है और वह जैविक खेती की पढाई करके उसमें अपना कैरियर बनाना चाहती है और देहरादून में प्रवेश के लिए भाग जाना चाहती है। जैविक खेती जन महत्व का विषय है किंतु यहाँ यह प्रसंग थेगड़े की तरह कहानी में अलग से चिपकाया हुआ दिखता है।

फिल्म के निर्माता निर्देशकों में आमिर खान और किरन राव के नाम से समानांतर सिनेमा के दर्शकों को भ्रम हो जाता है कि यह कला फिल्म होगी किंतु यह साधारण मनोरंजक फिल्म निकल कर उन्हें निराश करती है। कुल मिला कर यह एक मनोरंजक फिल्म ही है जिसमें रविकिशन की भूमिका और अभिनय जानदार है, शेष कलाकार नये हैं किंतु निराश नहीं करते।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

शनिवार, जुलाई 20, 2024

जगीरा का काम तो हो गया, आप लाठी पीटते रहें

 

जगीरा का काम तो हो गया, आप लाठी पीटते रहें

वीरेन्द्र जैन

किसी फिल्म का डायलाग था कि तुम हमारे [जगीरा, फिल्म का खलनायक] जैसे कपड़े तो पहिन लोगे किंतु हमारे जैसा कमीनापन कहाँ से लाओगे?

वे बहुत दिनों से प्रयासरत थे कि कांवड़ यात्रा की परम्परा को ढोने वाले युवा बेरोजगार वर्ग को कैसे बजरंग दली बनायें, लगता है वे इस बार सफल हो गये। एक बार भाजपा के एक पदाधिकारी रहे मित्र से पूछा था कि आप लोग यह कैसे तय करते हैं कि किसको विश्व हिन्दू परिषद में रखना है, किसको पार्टी में रखना है, किसको बजरंग दल में भेजना है इत्यादि। उत्तर में उन्होंने नगर के कुछ चर्चित व्यक्तियों के उदाहरण दिये थे जिससे स्पष्ट हो गया था कि किंचित बौद्धिक व्यक्ति को विश्व हिन्दू परिषद में और जो बुद्धि विवेक का स्तेमाल नहीं करता उसे बजरंग दल में भेज देते हैं। उससे वैसा ही काम लेते हैं जैसे वैलंटाइन डे पर लाठी लेकर प्रेमी जोड़ों को प्रताड़ित करके ‘संस्कृति’ की रक्षा करना या धार्मिक प्रापर्टी को हथियाना। दंगों में आगजनी करना या विधर्मियों के धर्मस्थलों को तोड़ना आदि। उनका काम झूठे सच्चे उदाहरणों से तर्क करना नहीं होता।

उनका प्रयास कई वर्षों से चल रहा था, जब उन्होंने देवी और गणेश पंडालों के लिए समितियां गठित कीं तथा लागत के रूप में पीछे से खुद आर्थिक मदद करके उन्हें धर्म भीरु या भीड़ भीरुओं से चन्दा उगा कर उसे स्तेमाल करने की स्वतंत्रता दे दी थी। इसमें जुटने वाले लड़के ज्यादातर बेरोजगार थे, निम्न आय वर्ग के थे और पिछड़ी व दलित जातियों से आते थे। कथित धार्मिक कार्य में योगदान देने में उन्हें अपनी जाति के उत्थान का भ्रम हुआ और वे उसके लिए जुटने लगे। समितियों का नेतृत्व सवर्णों या सवर्ण जैसे पिछड़ों के हाथों में रहा किंतु चन्दे का उपयोग सामूहिक रूप से हुआ। इसी प्रयोग को आगे बढाने के लिए कांवड़ यात्रा के यात्रियों के लिए जगह जगह भंडारे आयोजित करवाये गये और क्रमशः उनमें पकवानों, मिष्ठानों की वृद्धि की गयी और इनका वित्त पोषण भी संघ परिवार के समर्थक व्यापारी समुदाय के सहयोग से या उनके नाम से कराया गया। पिछले कई वर्षों से उनको एक विशेष रंग की टीशर्टें भेंट करके उनका रेजीमेंटेशन कराया जाने लगा। इन पोषाकों का वित्त पोषण भी उसी रास्ते से हुआ। दूसरे राजनीतिक दल इसे धार्मिक कार्य मान कर उदासीन रहे किंतु भाजपा की सरकारों ने उन्हें इतनी सुरक्षा दी कि उ.प्र. के पुलिस अधिकारियों को उनके पांव धोने और पैर दबाने के नमूने प्रस्तुत करने के आदेश दिये गये। उन पर हैलीकाप्टर से पुष्प वर्षा करायी गयी। उन्हें खुले में शौच जाने से नहीं रोका गया।

लोकसभा चुनाव 2024 में पिछड़े व दलित वर्ग का व्यापक समर्थन न मिलने से उत्तर प्रदेश में पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी। इसलिए उन्होंने हिन्दू मुस्लिम टकराव का पुराना तरीका निकाला और पूर्व से कार्यरत समूहों के साथ नये प्रयोग प्रारम्भ किये। मुजफ्फरनगर जैसे संवेदनशील जिले में जहाँ कभी हिन्दू मुस्लिम दंगे हो चुके थे स्ट्रीट वैंडरों को अपना नाम लिखने के फूहड़ आदेश निकाल कर छेड़ने का काम किया क्योंकि अधिकांश वैंडर मुस्लिम समुदाय से आते हैं। जैसा के स्वाभाविक था इसके विरोध में बयानबाज विपक्षी दल मुखर हो गये जिससे एक राजनीतिक ध्रुवीकरण हो गया। हिन्दू मुस्लिम के बीच निरंतर दरार पैदा करने का काम तो ये लोग करते ही रहते हैं और उस संवेदनशील वातावरण में कोई चिनगारी लग जाती है तो उसे आग बनते देर नहीं लगती। गुजरात में 2002 में ऐसे ही बहिष्कार ने वहाँ के बेकरी उद्द्योग को बर्बाद करके मुस्लिम समुदाय को बड़ा नुकसान पहुंचाया था। वैसे कोर्ट के किसी आदेश से यह प्रयास अवैध घोषित हो सकता है किंतु जो विभाजन रेखा खिंच जाती है वह मुश्किल से मिटती है। विशेषरूप से जब सोशल मीडिया के सहारे नफरत की फैक्ट्रियां चल रही हों।

यह इकलौता षड़यंत्र नहीं है। ये लोग बहुत बारीकी से काम करते हैं। जैसे इन्होंने स्कूलों में सूर्य नमस्कार का प्रयोग किया था। प्रथम दृष्ट्या यह योगासन अच्छा और स्वास्थ के लिए लाभदायक है और इसमें कोई बुराई नहीं है किंतु जब ऐसे काम, इतिहास को विकृत कराने वाली सरकार करती है, तो मुस्लिम समुदाय को आशंका होने लगती है और वे विरोध करने लगते है। केवल मुँह चलाने वाले विपक्षी भी पीड़ित पक्ष का साथ देने लगते हैं जिससे बहुसंख्यक वर्ग के समर्थन का लाभ उन्हें मिल जाता है। पर खेल तो अब शुरू होता है जब वे मासूमियत से कह देते हैं कि जिसे सूर्य नमस्कार ना करना हो वह ना करे। इससे छात्रों और अध्यापकों में एक स्पष्ट विभाजन रेखा खिंच जाती है। एक, सूर्य नमस्कार करने वाले और दूसरे मना  करने वाले, अर्थात एक हिन्दू दूसरा मुसलमान जिनके खिलाफ पहले से ही विषबीज बोया हुआ होता है। अब कोई सूर्य नमस्कार करे या ना करे, उनका काम तो हो जाता है। ऐसा ही प्रयोग वे सरकारी स्कूलों में बच्चे के प्रवेश के समय तिलक लगा कर करने से करते हैं, और बच्चों को प्राइमरी से ही विभाजित करने लगते हैं। वन्दे मातरम गाने, न गाने को भी इसी तरह स्तेमाल किया जाता है।

वे लोगों की अनभिज्ञता का लाभ उठाते हैं और लोग समझते हैं कि डेढ सौ साल पहले शुरू हुयी रावण जलाने की प्रथा या सौ साल पहले गणेश जी की सार्वजनिक झांकी सजाना उनके धर्म और परम्परा का हिस्सा है और पर्यावरण की रक्षा में पटाखे फोड़ने से रोकना उनके धर्म में अनुचित हस्तक्षेप है। वे परम्परा को समाज हित में स्तेमाल करने की जगह उससे चुनावी लाभ हानि का गणित बैठाते हैं और उन्हें लाभ देने वाली हर गलत परम्परा को भी जारी रखना चाहते हैं। वे जनता को अंधेरे में ही रखना चाहते हैं। उजाला देने की कोशिश करने वाले नरेन्द्र दाभोलकर, गोबिन्द पंसारे या गौरी लंकेश की सरे आम हत्या हो जाती है व उनकी सुपारी देने वाले पकड़े नहीं जाते। अपराधियों को पकड़ने वाले करकरे के खिलाफ मुम्बई बन्द यही लोग बुलाते हैं किंतु उससे पहले उनकी हत्या हो जाती है। आतंकी हिंसा के आरोपियों को बचाने में मदद की जाती है, उन्हें लोकसभा का टिकिट देकर उनकी छवि सुधारी जाती है। गुजरात के बिल्किस कांड के आरोपियों को जल्दी छोड़ कर उनकी बाकी की सजा माफ कर के अपनी पक्षधरता का सन्देश दिया जाता है। दूसरे कांड की आरोपी को सजा घोषित होने तक मंत्री पद से उपकृत किया जाता है।

कानून अपनी सीमाओं में रह कर साक्ष्य मिलने पर सन्देह का लाभ या सजा देता है किंतु समाज में जिसकी छवि आरोपी की है उसकी पक्षधरता,पक्ष लेने वालों के चरित्र को प्रकट करती है। चुनावों तक सीमित विपक्ष ना आन्दोलन कर सकता है और ना ही जैसे को तैसा जबाब देने में सक्षम है। षड़यंत्र रच सकने की उसकी उनके जैसी सांगठनिक क्षमता भी नहीं है, इसलिए जगीरा जीत जाता है।   

 वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.]  

गुरुवार, जून 27, 2024

पुस्तक समीक्षा एक आलोचक की गीत कविताएं

 

 पुस्तक समीक्षा

एक आलोचक की गीत कविताएं


[ प्रोफेसर डा. कृष्ण बिहारी लाल पांडेय का गीत संग्रह ‘ लिख रहे वे नदी की अंतर्कथाएं ‘ ]

वीरेन्द्र जैन

सुप्रसिद्ध प्रोफेसर डा. कृष्ण बिहारी लाल पाण्डेय, जिन्हें अधिकतर लोग के.बी.एल. पाण्डेय के नाम से जानते हैं, का गीत संग्रह ‘ लिख रहे वे नदी की अंतर्कथाएं ‘ लोकमित्र प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। बहत्तर पृष्ठ के इस संग्रह में 89 वर्षीय प्रोफेसर के कुल 36 गीत संकलित हैं। ज्ञात हुआ है कि यह पहला संग्रह भी उन्होंने प्रसिद्ध कथाकार श्री राज नारायण बोहरे के विशेष आग्रह पर दिया है।

प्रोफेसर पाण्डेय लम्बे समय तक कालेज में हिन्दी के उन प्रोफेसर्स में रहे हैं जो हिन्दी के साथ अंग्रेजी में भी एम ए और पी एचडी भर नहीं थे अपितु समकालीन साहित्य की गतिविधियों में निरंतर सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं और विभिन्न सम्मेलनों, सेमिनारों में देश के प्रतिष्ठित प्राध्यपकों, साहित्यकारों, सम्पादकों, आलोचकों के साथ निरंतर विमर्श करते रहे हैं। उनकी यह भागीदारी विभागीय औपचारिकता भर नहीं होती रही अपितु वे अपने विषय की विभिन्न विधाओं में चल रही प्रवृत्तियों पर सतर्क निगाह रखने से जनित समालोचना के साथ मौलिक उल्लेखनीय टिप्पणी के साथ होती रही है। सुप्रसिद्ध कथाकार मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों पर भी उन्होंने विशेष समीक्षात्मक टिप्पणियां की हैं। इतना ही नहीं उन्होंने यह पुस्तक भी उनके कालजयी उपन्यासों की समाज से जूझती हुयी चर्चित नायिकाओं का स्मरण करते हुए उन्हें ही समर्पित की है। बुन्देलखण्ड में जन्मे और पले बड़े तथा पूरा जीवन बुन्देलखण्ड में ही गुजार देने वाले डा. पाण्डेय इस क्षेत्र की मिट्टी की रग रग से परिचित हैं। उनके निर्देशन में ईसुरी समेत अनेक बुन्देली रचनाकारों पर शोध हुआ है। बुन्देलखण्ड के साहित्य, संस्कृति, पुरातत्व, इतिहास आदि पर जब भी बाहर से कोई अध्येता आता है तो वह पाण्डेय जी से सलाह लिए बिना नहीं जाता। यह भूमिका मैंने इसलिए दी है कि ताकि यह समझा जा सके कि कोई आलोचक जब स्वयं रचना करता है तो वह अपनी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के साथ यह भी दृष्टि में रखता है कि उसके पूर्व के रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में क्या क्या त्रुटियां की थीं, और उनके किसी भी तरह के दुहराव से भी बचना है। इसलिए इसे एक निर्दोष [बे एब]  गीत संग्रह माना जा सकता है।

कह सकते हैं कि डा. पाण्डेय का यह संग्रह एक ऐसे सतर्क कवि की रचनाओं का संग्रह है जिसने केवल संख्या बढाने के लिए रचनाएं नहीं कीं अपितु अपने अनुभवों, अध्ययन, और समझ से अपनी संवेदनाओं को शब्दों से संवारा है। ये रचनाएं नवगीत की श्रेणी में आती हैं भले ही संकलन में इसे गीत संग्रह कहा गया है, क्योंकि अपनी नवता के साथ नवगीत भी गीत ही है। दिवंगत विनोद निगम ने नवगीत की बहुत सरल सी परिभाषा दी थी कि गीत में निजी दुख को गाया जाता है और नवगीत में सामाजिक, सार्वभौमिक पीड़ा को व्यक्त किया जाता है। नचिकेता जी ‘नवगीत’ की जगह ‘समकालीन गीत’ शब्द के प्रयोग पर जोर देते थे। इस संग्रह के गीत भी इन्हीं परिभाषाओं के अंतर्गत आने वाले गीत हैं। ये गीत अपने समय की पहचान कराते हुए उन धोखों और चालाकियों की ओर इंगित करते हैं जो स्वतंत्रता की घोषित तारीख के बाद निर्मित होते देश में स्थापित होते लोकतंत्र को लागू करते समय पैदा हुयी हैं। इसलिए इसमें तल्खी या व्यंग्य आना भी स्वाभाविक है। जो धोखे मासूम जनता को लगातार दिये जाते रहे हैं, उन्हें मुकुट बिहारी सरोज अपने ‘असफल नाटकों का गीत ‘ में इन शब्दों में पहचानते रहे हैं-

नामकरण कुछ और खेल का, खेल रहे दूजा

प्रतिभा करती गई दिखायी, लक्ष्मी की पूजा

इस संग्रह का शीर्षक गीत भी दूसरों के योगदान को चुरा कर अपने नाम कर लेने वालों पर करारा व्यंग्य है।

घाट पर बैठे हुए हैं जो सुरक्षित

लिख रहे वे नदी की अंतर्कथाएं

आचमन तक के लिए उतरे नहीं जो

कह रहे वे खास वंशज हैं नदी के

सोचना भी अभी सीखा है जिन्होंने      

बन गये वे प्रवक्ता पूरी सदी के

या

पुरातत्व विवेचना में, व्यस्त हैं वे

उंगलियों से हटा कर दो इंच माटी

हो रहे ऐसे पुरस्कृत गर्व से वे

खोज ली जैसे उन्होंने सिन्धु घाटी

हर धर्म में दो सूत्र प्रमुखता से आते हैं, एक सत्य बोलो. और दूसरा चोरी मत करो। चोरी चाहे वस्तु की हो. श्रेय की हो, पद की हो या अन्य किसी भी वस्तु की वह चोरी ही होती है। मेरे पिता जिन काव्य पंक्तियों को गाहे बगाहे दुहराते थे उनमें दो पंक्तियां ये भी थीं –

जो पर पदार्थ के इच्छुक हैं  / वे चोर नहीं तो भिक्षुक हैं

नकल करके, पेपर आउट कराके, नम्बर बढवा के, नकली प्रमाणपत्रों के सहारे, सिफारिश से, नौकरी या अन्य पद, पुरस्कार या सम्मान पा जाने वाले लोग्, सुपात्रों का हक छीनने के बाद उन्हीं पर आँखें दिखाते रहे हैं। इस तरह के छद्म से पूरा तंत्र भरा हुआ है। कवि ने इसे जगह जगह अन्धकार के रूप में चित्रित किया है जो रोशनी के नाम पर परोसा जा रहा है। फज़ल ताबिश का शे’र है – रेशा रेशा उधेड़ कर देखो / रोशनी किस जगह से काली है। संग्रह की रचनाएं, इसी तरह रेशा रेशा उधेड़ कर देखने की कोशिश हैं। ये मुकुट बिहारी सरोज की परम्परा की रचनाएं हैं, जो अर्धसामंती समाज, भ्रम पैदा करने वाली व्यवस्था की राजनीति, प्रशासन और न्याय द्वारा निभाये जा रहे दोहरे चरित्र का खुलासा करती हैं।

अन्धकार के साथ जिन्होंने / सन्धि पत्र लिख दिये खुशी से / उन्हें सूर्य के संघर्षों का /

कोई क्या महत्व समझाये

बिजली के तारों पर बैठे जमे अंधेरे / चिड़ियों के, बेदखल छतों से हुये बसेरे / अंधकार की उम्र बढ गई इतनी ज्यादा / धुंधले धुंधले लगते हैं सब शुभ्र सवेरे

       किसी प्रोफेसर के गीत, शिक्षण, पुस्तकों और ज्ञान के आस पास से ही प्रतीक लेते हैं। देखें –

हम यहाँ पर किस तरह हैं / आपको अब क्या बताएं / जगह भरने को छपी हों / जिस तरह कुछ लघु कथाएं

सुबह लिये जो भी पुनीत व्रत / डूब गये सन्ध्या के रंग में / रह गयी अधूरी हर भूमिका / महाकाव्य लिखने के ढंग में

       भूल गये अभिनेता अपने संवाद / रह गये सुभाषित बस लेखक को याद

हर क्यारी में जहां लगी हैं / नागफनी की ही कक्षाएं / उस आश्रम में भला कमल के / कौन सही पर्याय बताये

दर्द काव्य का क्या जाने / ये चौड़े चौड़े रिक्त हाशिए / जैसा राजयोग तिनकों ने / वृक्षों के अधिकार पालिए

सच तो रफ कापी में ही रह गया बचा / उज्जवल प्रति तक आने में कागज़ ही बदल गया

जिन्दगी की पांडुलिपियों / को मिले कैसे प्रकाशन / जब पुरस्कृत हो रहे हैं / जुगनुओं के भजन कीर्तन

उद्घाटन भर करने आये समारोह में जो / सबने उनकी ही स्वागत में गौरव वचन कहे / और जिन्होंने पूरा रचना तंत्र बनाया था / धन्यवाद तक की सूची में वे इत्यादि रहे

सनसनी भरा हर दिन बीता / माया या मनोहर कहानी सा

है कथानक सभी का वही दुख भरा / ज़िन्दगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही

 

आम तौर पर पारम्परिक गीतों में कवि पुरानी सभ्यता संस्कृति को महान मानता हुआ जीवन के संकटों को आधुनिकता की देन मानता और बताता है, किंतु नवगीत में ऐसा नहीं होता है। इस संग्रह में कहीं पुराने गाँव का, हल बैल या पनघट का या देवस्थानों से जुड़ी अन्ध आस्थाओं का गुणगान नहीं मिलता है, अपितु अन्धआस्थाओं, उनके व्यावसायिक विदोहन पर व्यंग्य किया गया है-

धर्म के प्रति आदमी की रुचि बढेगी / अगरबत्ती और भी ज्यादा बिकेगी /पापियों का अंत होगा अब धरा से / सिर्फ एक पवित्रता जीवित रहेगी / आपका ही तना होगा हर जगह पंडाल / ऐसा ज्योतिषी जी कह रहे हैं ।

आरती के दीप ने ही जब जला दी है हथेली / ज्योति का हर पर्व अब बेकार सा लगने लगा है ।

इतनी दूर आ गये हम / उत्पादन के इतिहास में / भूल गये अंतर करना अब / भूख और उपवास में

सबके सिर पर धर्मग्रंथ हैं / सबके हाथों में गंगाजल / किस न्यायालय में अब कोई / झूठ सत्य का न्याय कराये

जिनके पात्र विदूषक भाषा पुरातत्व वाली / क्या निकलेगा उस बेहद कमजोर कहानी से

हमें पता है यहां कुशल कुछ लोगों की है / बाकी तो ईश्वर से नेक चाहते रहते /एक दूसरे का मन रखने को वैसे ही / सिर्फ औपचारिकता में वे ये बातें करते / क्या देखें पंचांग किसलिए समय विचारें /हमको जैसा सोमवार वैसा मंगल है / मगर अंत में यह मत लिखना शेष कुशल है।

       न्याय से भी उम्मीद घटती जा रही है –

बात अब किससे कहें बोलो / आप कहते हैं कि मन खोलो / खो चुके हैं शब्द अपना सच/ लग रहा है, बैठ कर रो लो । किसे सौंपें न्याय की अर्जी/ सब यहां पर बने बैठे चौधरी हैं । 

सच कहने वालों को यहाँ , गवाह न मिल पाये / लोग जीतते रहे मुकदमे गलत बयानी से

समाज में गलत दिशा में हो रहे परिवर्तनों पर भी कवि की निगाह है। शार्टकट संस्कृति, रेडीमेड फास्ट फूड, और आम जन के स्वास्थ की कीमत पर सुदर्शन वस्तुओं के व्यावसायिक उत्पादन भी कवि को अखरते हैं-    

डाल पर अब पक न पाते फल / हमारे पास कितना कम समय है/ कौन मौसम के भरोसे बैठता अब / चाहतों के लिए पूरी उम्र कम है / मंडियां सम्भावनाएं तौलती हैं / स्वाद के बाज़ार के अपने नियम हैं ।

  पिछले दिनों रहीम पर बोलते हुए प्रसिद्ध कवि अरुण कमल ने बताया था कि रहीम ने अपनी कविता में भले ही मायथोलोजी से बहुत सारे प्रतीक लिये हैं किंतु उनकी कविता में ईश्वर के भरोसे सब होने या उसकी कृपाकांक्षा के कोई संकेत नहीं मिलते हैं। इस संग्रह के नवगीत भी इसी गुण से सम्पन्न हैं। जगह जगह पाखंड और उसके सहारे पल रही समाज व्यवस्था और राजनीति पर उंगली उठाई गयी है। आधुनिक हो रहे समाज में भी सभी कुछ अच्छा नहीं अपितु उसमें भी विकृतिंया आती रहती हैं। सामाजिक सम्बन्धों में दुख दर्द भी आते रहते हैं। वे लिखते हैं कि

इतना अपनापन तुम में बढा / जो कुछ भी देखा अपना लिया / सिर्फ शपथ खानी थी वन्धुवर / तुमने तो हर विधान खा लिया ।

ओढ लिये हमने विदूषकी मुखौटे / अपनी ही दृष्टि में हुए हैं हम छोटे

इंकलाब के कंठ मुखर हैं / अब दरबारी बातों में / नाच रहे चेतक के वंशज / घुंघरू पहिन बरातों में

लग सका जो न हिलते हुए लक्ष्य पर / उस बहकते हुए बान सी ज़िन्दगी

डालियां जिसकी स्वयं ही आचरण करती वधिक का / भूल भी कितनी मधुर थी नीड़ उस तरु पर बनाना

लोरियां ही झँप गईं पर दर्द यह सोता नहीं है / मन नहीं पाषाण जो आघात पर रोता नहीं है

ज़िन्दगी में बस अभी तक / यही हमको मिल सका है /गलतियों का सफर पश्चाताप /पर आकर थका है

इन गीतों में सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति भी दिखती है –

चुप्पियों का अर्थ केवल डर नहीं है / यह किसी प्रतिरोध की आवाज भी है / मौन का आशय महज स्वीकृति नहीं है / वह असहमति का नया अन्दाज भी है

लोरियों से, क्रुद्ध पीड़ाएं नहीं सोतीं / व्रत कथाएं भूख के उत्तर नहीं होतीं

समाज का नेतृत्व करने वाले नेताओं और राजनीति से कवि की कविता सवाल पूछती है –

जिस सुबह के लिए सारी रात जागे हम / आपने वह लिखी अपनी जमींदारी में

       कौन सी जलवायु निर्मित आपने कर ली / आपकी फसलें पनपती हैं अकालों से  

मिट्ठुओ पहले कहो तुम चित्रकोटी / फिर खिलायेंगे तुम्हें हम दूध रोटी / और वह भी बन्द पिंजरे में/ क्या पता तुम बैठ जाओ दूसरी ही डाल पर / आइए बैठें जरा चर्चा करें चौपाल पर

शब्द अब एकार्थवाची हो चले हैं / खोजिए ये कहाँ जन्मे हैं, पले हैं / लिखी है प्रस्तावना ‘हम लोग भारत के’ / पर हमारे अलग सबके मामले हैं

गांव गांव का चरित्र युद्ध प्रिय / होता जा रहा राजधानी सा

ऐसी हवा चली तुलसी के बिरवे आज बबूल हो गये / आंगन आंगन जुड़ी संसदें, इतने अधिक उसूल हो गये / फूलों के बदले उगते अब कांटों भरे सवाल / न जाने कैसा फागुन आया

इतना बड़ा अपरिचय, हमसे नाम पूछती अपनी छाया

जाना क्या घुल गया कुएं में, सारा गांव लगे बौराया

छोड़ो हम भी क्या ले बैठे, दो कौड़ी की बातें छोटी / आखिर देश प्रेम भी है कुछ, जब देखो तब रोटी रोटी / करतल ध्वनि में आज़ादी का झंडा आप चढाते रहना / कभी कभी बस आते रहना

इतना था विस्तार धूप का रोज नहाया करते थे / पहला लोटा डाल आपकी जय ही गाया करते थे / जिसने हमसे धूप छीन ली, उसको ईडी सम्मन दें / चलो धूप को ज्ञापन दें

 बड़े बड़े प्रस्थान चले, पर थोड़ी दूर चले / चलते रहे विमर्श मगर निष्कर्ष नहीं निकले / या

जाइए जिस घाट हत्यारे वहीं पर / रक्त रंजित वस्त्र अपने धो रहे हैं / भूख से बेचैन इस वातावरण में रात्रि भोजों के तमाशे हो रहे हैं / मोक्ष के कुछ और दरवाजे खुले हैं / कार में, तन्दूर में या बेकरी में ।

अंततः कवि को कहना पड़ता है

अच्छा बोलो, अपना भी कोई जीवन है / या उंगली पर स्याही भर अपना विधान है / कुछ तो लगे कि हाँ यह है अधिकार हमारा / या सब कुछ कर कमलों का कृपादान है / इसीलिए कुछ प्रश्न उछालो, उत्तर मांगो, / आखिर यहां हमारा होना क्यों असफल है 

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

सोमवार, जनवरी 29, 2024

श्रदेधांजलि/ संस्मरण डा. धनंजय वर्मा

 

डा. धनंजय वर्मा श्रद्धांजलि
डा. धनंजय वर्मा से पहली मुलाकात महेश कटारे के गाँव में कमला प्रसाद जी के नेतृत्व में आयोजित ग्राम यात्रा में सम्मलित होते हुये हुई थी। तब परिचय के समय उन्होंने कहा था कि एक वीरेन्द्र जैन दतिया में भी हैं, और मैंने उन्हें विनम्रता से बताया था कि मैं वही हूं। बाद में भोपाल आने पर शिखर वार्ता में प्रकाशित उनके एक लेख पर मैंने प्रतिकूल टिप्पणी की थी पर उनका व्यवहार सदैव स्नेहिल बना रहा। बाद में तो उनकी अध्यक्षता और मुख्य आतिथ्य में कई कार्यक्रमों में सम्मलित होने का अवसर मिलता रहा। वे सदैव स्पष्टवादी और मुखर रहे, उन्होंने अपने मतभेदों को कभी छुपाया नहीं। प्रदेश में पुरस्कारों की राजनीति पर उन्होंने " मुझको मालूम है जन्नत की हकीकत " नाम से एक पुस्तिका भी लिख डाली थी।
दिल्ली के एक प्रकाशक मेरे मेहमान हुआ करते थे। उन्होंने भोपाल के कुछ प्रतिष्ठित लेखकों से पुस्तकें दिलवाने का अनुरोध किया तो मैंने वर्माजी से सम्पर्क कराया, और उन्होंने मेरा अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया।
पिछले कुछ दिनों से श्रद्धेय लोग निरंतर घटते जा रहे हैं, उनमें से एक और प्रतिष्ठित अलोचक का जाना डराता है। विनम्र श्रद्धांजलि

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Shrikant Choudhary, Mahesh Soni और 1 अन्य