गुरुवार, मार्च 24, 2022

समीक्षा – जिन्हें जुर्मे इश्क पे नाज था

 

समीक्षा – जिन्हें जुर्मे इश्क पे नाज था

संवेदनात्मक ज्ञान को चरितार्थ करती पुस्तक

वीरेन्द्र जैन

मुक्तिबोध ने कहा था कि साहित्य संवेदनात्मक ज्ञान है। उन्होंने किसी विधा विशेष के बारे में ऐसा नहीं कहा अपितु साहित्य की सभी विधाओं के बारे में टिप्पणी की थी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिस रचना में ज्ञान और संवेदना का संतुलन है वही साहित्य की श्रेणी में आती है।  

खुशी की बात है कि विधाओं की जड़ता लगातार टूट रही है या पुरानी विधाएं नये नये रूप में सामने आ रही हैं। दूधनाथ सिंह का आखिरी कलाम हो या कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान , काशीनाथ सिंह का काशी का अस्सी हो या वीरेन्द्र जैन [दिल्ली] का डूब, सबने यह काम किया है। पंकज सुबीर की जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ थाइसीकी अगली कड़ी है।

       अमूमन उपन्यास अनेक चरित्रों की अनेक कहानियों का ऐसा गुम्फन होता रहा है जिनके घटित होने का कालखण्ड लम्बा होता है और जो विभिन्न स्थलों पर घटती रही हैं। यही कारण रहा है कि उसे उसकी मोटाई अर्थात पृष्ठों की संख्या देख कर भी पहचाना जाता रहा है। चर्चित पुस्तक भी उपन्यास के रूप में सामने आती है। इसका कथानक भले ही छोटा हो, जिसका कालखण्ड ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास नरक यात्राकी तरह एक रात्रि तक सिमिटा हो किंतु तीन सौ पृष्ठों में फैला इसमें घटित घटनाओं से जुड़ा दर्शन और इतिहास उसे सशक्त रचना का रूप देता है भले ही किसी को उपन्यास मानने में संकोच हो रहा हो। ईश्वर की परिकल्पना को नकारने वाली यह कृति विश्व में धर्मों के जन्म, उनके विस्थापन में दूसरे धर्मों से चले हिंसक टकरावों, पुराने के पराभवों व नये की स्थापना में सत्ताओं के साथ परस्पर सहयोग का इतिहास विस्तार से बताती है। देश में स्वतंत्रता संग्राम से लेकर समकालीन राजनीति तक धार्मिक भावनाओं की भूमिका को यह कृति विस्तार से बताती है। इसमें साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक छात्र को दुष्चक्र से निकालने के लिए उसके साथ किये गये सम्वाद के साथ उसके एक रिश्तेदार से फोन पर किये गये वार्तालाप द्वारा लेखक ने समाज में उठ रहे, और उठाये जा रहे सवालों के उत्त्तर दिये हैं। पुस्तक की भूमिका तो धार्मिक राष्ट्र [या कहें हिन्दू राष्ट्र] से सम्बन्धित एक सवाल के उत्तर में दे दी गयी है, जिससे अपने समय के खतरे की पहचान की जा सकती है।

 
       “जब किसी देश के लोग अचानक हिंसक होने लगें। जब उस देश के इतिहास में हुए महापुरुषों में से चुन-चुन कर उन लोगों को महिमा मंडित किया जाने लगेजो हिंसा के समर्थक थे। इतिहास के उन सब महापुरुषों को अपशब्द कहे जाने लगेंजो अहिंसा के हामी थे। जब धार्मिक कर्मकांड और बाहरी दिखावा अचानक ही आक्रामक स्तर पर पहुँच जाए। जब कलाओं की सारी विधाओं में भी हिंसा नज़र आने लगेविशेषकर लोकप्रिय कलाओं की विधा में हिंसा का बोलबाला होने लगे। जब उस देश के नागरिक अपने क्रोध पर क़ाबू रखने में बिलकुल असमर्थ होने लगें। छोटी-छोटी बातों पर हत्याएँ होने लगें। जब किसी देश के लोग जोम्बीज़ की तरह दिखाई देने लगेंतब समझना चाहिए कि उस देश में अब धार्मिक सत्ता आने वाली है। किसी भी देश में अचानक बढ़ती हुई धार्मिक कट्टरता और हिंसा ही सबसे बड़ा संकेत होती है कि इस देश में अब धर्म आधारित सत्ता आने को है।’’ रामेश्वर ने समझाते हुए कहा।      

 

इस पुस्तक में टेलीफोन के इंटरसेप्ट होने के तरीके से इतिहास पुरुषों में ज़िन्ना, गाँधी, नाथूराम गोडसे के साथ सम्वाद किया गया है जैसा एक प्रयोग फिल्म लगे रहो मुन्नाभाईमें किया गया था। इस वार्तालाप से उक्त इतिहास पुरुषों के बारे में फैलायी गयी भ्रांतियों या दुष्प्रचार से जन्मे सवालों के उत्तर मिल जाते हैं। कथा के माध्यम से निहित स्वार्थों द्वारा कुटिलता पूर्वक धार्मिक प्रतीकों के दुरुपयोग का भी सजीव चित्रण है।

नेहरूजी के निधन पर अपने सम्वेदना सन्देश में डा. राधाकृष्णन ने कहा था कि टाइम इज द एसैंस आफ सिचुएशन, एंड नेहरू वाज वैल अवेयर ओफ इट। महावीर के दर्शन में जो सामायिक है वह बतलाता है कि वस्तुओं को परखते समय हम जो आयाम देखते हैं, उनमें एक अनदेखा आयाम समय भी होता है क्योंकि शेष सारे आयाम किसी खास समय में होते हैं। जब हम उस आयाम का ध्यान रखते हैं तो हमारी परख सार्थक होती है। पंकज की यह पुस्तक जिस समय आयी है वह इस पुस्तक के आने का बहुत सही समय है। कुटिल सत्तालोलुपों द्वारा न केवल धार्मिक भावनाओं का विदोहन कर सरल लोगों को ठगा जा रहा है, अपितु इतिहास और इतिहास पुरुषों को भी विकृत किया जा रहा है। पुराणों को इतिहास बताया जा रहा है और इतिहास को झुठलाया जा रहा है। आधुनिक सूचना माध्यमों का दुरुपयोग कर झूठ को स्थापित किया जा रहा है जिससे सतही सूचनाओं से कैरियर बनाने वाली पीढी दुष्प्रभावित हो रही है जिसका लाभ सत्ता से व्यापारिक लाभ लेने वाला तंत्र अपने पिट्ठू नेताओं को सत्ता में बैठा कर ले रहे हैं। ऐसे समय में ऐसी पुस्तकों की बहुत जरूरत होती है। यह पुस्तक सही समय पर आयी है। हर सोचने समझने वाले व्यक्ति की जिम्मेवारी है कि इसे उन लोगों तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास करे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। शायद यही कारण है कि देश के महत्वपूर्ण चिंतकों ने सुबीर को उनके साहस के लिए बधाई देते हुए उन्हें सावधान रहने की सलाह दी है।       

इस कृति की कथा सुखांत है, किंतु इसके सुखांत होने में संयोगों की भी बड़ी भूमिका है। कितने शाहनवाजों को रामेश्वर जैसे धैर्यवान उदार और समझदार गुरु मिल पाते हैं! कितने जिलों के जिलाधीश वरुण कुमार जैसे साहित्य मित्र होते हैं, विनोद सिंह जैसे पुलिस अधीक्षक होते हैं, और भारत यादव जैसे रिजर्व फोर्स के पुलिस अधिकारी मिल पाते हैं, जो रामेश्वर के छात्र भी रहे होते हैं व गुरु की तरह श्रद्धाभाव भी रखते हैं। आज जब देश का मीडिया, न्यायव्यवस्था, वित्तीय संस्थाएं, जाँच एजेंसियों सहित अधिकांश खरीदे जा सकते हों या सताये जा रहे हों, तब ऐसे इक्का दुक्का लोगों की उपस्थिति से क्या खतरों का मुकाबला किया जा सकता है या इसके लिए कुछ और प्रयत्न करने होंगे?

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

समीक्षा आड़ा वक्त [उपन्यास]

 

समीक्षा

आड़ा वक्त [उपन्यास]

लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस से प्रकाशित चर्चित कहानीकार राज नारायण बौहरे की नई औपन्यासिक कृति का नाम है। यह एक भारतीय किसान परिवार की जीवन कथा है। कथा का काल आज़ादी के बाद का है जिसमें ना तो फसल बीमा की सुविधा है, और ना ही जीवन बीमा की। उस पर समाज की रूढियां उसे जकड़े हुये हैं। यह मध्य भारत के किसानों के जीवन में आये परिवर्तनों और चुनौतियों को दर्शाने वाली कृति है। उपन्यास के पहले भाग में अविकसित असिंचित खेती से जूझते किसान का चित्रण है जिसे प्रकृति की प्रतिकूलता में मजदूरी करना पड़ती है दूसरी ओर समानांतर रूप से चल रहे देश निर्माण में शिक्षा के प्रचार प्रसार से किसान परिवार अपनी अगली पीढी को शिक्षित कर रहा है, गाँव के पास पालीटेक्निक कालेज खुल रहे हैं व देश की राजधानी में एम्स जैसे अस्पताल भी बन चुके हैं। इन परिवारों में गरीबी के बाबजूद बचा रह गया भाईचारा और समर्पण की भावना क्रमशः घट रही है। प्रारम्भ में सुख दुख में भागीदारी थी। आगे जैसे जैसे विकासशील देश में योजनाएं चलती हैं तो नौकारियों की सम्भावनाएं भी बढती जाती हैं। पहले नौकरियों के लिए आज की तरह की मारामारी नहीं थी कि कोई बड़ी बड़ी डिग्री लिये लिये ही ओवर एज हो जाये। पढने के बाद नौकरी मिल भी जाती थी।

कथा का मूल भाव किसान का जमीन के प्रति भावनात्मक लगाव है जिसकी रक्षा में वह मानवीय रिश्तों तक को तिलांजलि दे सकता है। खेत को उर्वर बनाने के लिए वह उसे बच्चे जैसा संवारता है और माँ जैसा सम्मान करता है। कैसी भी मजबूरी में अपनी जमीन को बेचने के प्रस्ताव पर उसे आग लग जाती है और वह ऐसे प्रस्तावक के प्रति सारे लिहाज भूल जाता है। कुंआ खुदवाने, जमीन को समतल करने के लिए, उसमें जम आयी छेवले की जड़ों को उखाड़ने से लेकर खरपतवार हटाने का काम वह खुद ही प्रतिदिन करता है। पैतृक सम्पत्ति में वैसे तो सभी वारिसों की बराबर से हिस्सेदारी होती है किंतु अन्य नौकरी या व्यवसाय करने वाले, किसानी करने वाले भाई द्वारा जमीन को सुधारने, संवारने व उसकी रक्षा करने का मूल्य नहीं समझते। अटूट प्रेम रखने वाले भाइयों के बीच यह टकराव का कारण बनता है। कथा नायक अपने किसान वर्ग के प्रति इतना सचेत है कि किसी की भी जमीन अधिग्रहण में आ रही हो तो उसके विरोध में उस अपरिचित का साथ देने देने के लिए तैयार हो जाता है। एक बार् अचानक ही किसान आन्दोलन में पहुँच जाने पर जब टीवी संवाददाता उसे आन्दोलनकारी किसान समझ सवाल करने लगते हैं तो वह उनके सवालों का किसी मंजे हुये नेता की तरह सटीक जबाब देता है, भले ही वह आन्दोलन का हिस्सा नहीं होता। अनुभवों के साथ उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता ही व्यक्ति को नेता बना देती है। कथा नायक का सगा भाई जब ओवरसियर बन कर सुदूर छतीसगढ में प्रशासनिक कार्य करने लगता है तब उसे सरकारी कार्यों की असलियत समझ में आती है।

उपन्यास घटना प्रधान उतना नहीं है जितना वर्णनात्मक  है, इसमें नये नये ओवरसियर द्वारा ठेकेदारों से मिलने वाली दस्तूरी के प्रति प्रारम्भिक द्वन्द भी है। मंत्री द्वारा स्थानांतरण के लिए परोक्ष में मांगी गयी रिश्वत का वर्णन भी है। छतीसगढ के जीवन की विडम्बनाएं भी हैं कि कैसे वे नदी की रेत को छान कर उसमें से सोने के कण तलाशते हैं, या बेरोजगारी से लड़ते हुए मिशनरियों से मिली शिक्षा व सुविधाओं के लिए वे थोपे गये अनुपयोगी धर्म को छोड़ देने में ही अपना भला समझते हैं। उपन्यास में बताया गया बेरोजगारीके प्रभाव में कथा नायक की बहिन का पति किस तरह गड़े हुए खजानों के चक्कर में तांत्रिकों के चक्कर में फंस जाता है।

उपन्यास प्रारम्भ में तो बहुत विस्तारित ढंग से किसान जीवन का वर्णन करता है किंतु अंत आते आते ऐसा लगता है जैसे किसी दबाव में जल्दी से समेट दिया गया है। उसका प्रवाह एक जैसा नहीं बना रहता, फिर भी किसी उपन्यास के लिए अनिवार्य तत्व कहानी, कविता और नाटक थोड़े थोड़े मौजूद हैं।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

समीक्षा राज नारायण बोहरे का उपन्यास ‘अस्थान’

 

समीक्षा

राज नारायण बोहरे का उपन्यास ‘अस्थान’

वीरेन्द्र जैन

अंतर्राष्ट्रीय ख्यति के फिल्म मिर्देशक श्याम बेनेगल ने एक फिल्म बनायी थी ‘मेकिंग आफ महात्मा’ । इस फिल्म में गाँधीजी के सक्रिय जीवन का वर्णन है कि किस तरह से वे जब दक्षिण अफ्रीका गये व वहाँ पर एशिया व अफ्रीकन मूल के लोगों का शोषण देखा तो अंग्रेज शासकों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। इस संघर्ष से जो व्यक्ति जन्मा वह हिन्दुस्तान वापिस लौट कर महात्मा बना। फिल्म बताती है कि परिवेश और परिस्तिथियां ही किसी के व्यक्तित्व को गढती हैं।

सेतु प्रकाशन से प्रकाशित राज नारायण बौहरे का उपन्यास ‘अस्थान’ भी दो ऐसे युवाओं की कथा है जो ऐसे संक्रमण काल में बड़े होते हैं जिसमें सामंत काल गया नहीं है और पूंजीवाद के कदम पड़ चुके हैं। कृषि युग से औद्योगिक युग में पदाक्रमण हो रहा है। समाज की सामंती संस्कृति को लोकतंत्र क़ॆ बैनर से ढक दिया गया है। जहाँ ज़िन्दा रहने का अधिकार तो है किंतु रोजगार का अधिकार नहीं है। जिन्दा रहने के लिए अंधेरे में हाथ पाँव मारने पड़ते हैं। जातिवादी समाज में सवर्ण समाज के लोग श्रम से जुड़े वे काम भी नहीं कर सकते जो उपलब्ध तो हैं किंतु जिन्हें नीची जाति का काम समझा जाता है। परिणाम यह निकलता है कि दो अलग अलग स्थानों में पले बढे सवर्ण परिवार में जन्मे युवाओं में से एक बीए पास करने के बाद भी सरकारी नौकरी नहीं पा पाता क्योंकि स्थानीय राजनीति में दूसरे गुट का समझे जाने के कारण निरपराध होते हुए भी हत्या का आरोपी बना दिया जाता है। वह छूट तो जाता है किंतु दागी कहलाता है।  बाद में रामलीला में भूमिका निभाने के अनुभव के कारण मानस का प्रवचनकर्ता बन जाता है, व मंच पर प्रस्तुतीकरण के नये नये तरीके अपना कर सफल हो जाता है। कुनावी राजनीति के लोग धार्मिक आस्था का विदोहन करने के लिए राम कथा, रामलीला से भी जुड़ते हैं और स्थानीय विधायक कथावाचक को आश्रम बनाने के लिए सरकारी जमीन पर कब्जा करा देते हैं।

दूसरा विवाहोत्सक युवक, अपने किसान परिवार की एक गलत परम्परा, कि उनके यहाँ पीढियों से मझला बेटा अविवाहित रहता है, कुंठित हो जाता है और खेती के प्रति भी उदासीन हो जाता है। इसी उदासीनता में वह साधुओं के सम्पर्क में आता है व उनकी जमात में शामिल हो जाता  है। उसे पागल घोषित कर उसके दोनों भाई उसके हिस्से की जमीन हड़प लेते हैं। वह एक आश्रम के महंत की सेवा टहल में जुट जाता है। आश्रमों में चल रहे आदर्श से विपरीत आचरण पाकर उसका मोह भंग होता है, अन्य अनैतिकताओं में लिप्त महंत जी आश्रम के बगीचे में गाँजे के पौधे उगाने के आरोप में पकड़े जाते हैं ।

मानसपाठी युवा धरनीधर अपने बाजारू तौर तरीकों और विधायक के सहयोग से सरकरी जमीन पर आकर्षक आश्रम तो बना लेते हैं, मन्दिर भी स्थापित कर लेते हैं और अतिरिक्त धन को विभिन्न जगह विनियोजित कर के सम्पत्ति बढा लेते हैं। अपनी व्यावसायिक सफलता के लिए वे अपने नाम के आगे उपशंकराचार्य लगाने लगते हैं। इसी क्रम में उनकी भेंट एक मधुरकंठी प्रवचनकर्ता से होती है और दोनों अपनी परिस्तिथियों में एक दूसरे के आकर्षण में विभिन्न सम्मेलनों में साथ विचरण करने लगते हैं। वे समय मिलते ही आश्रम में ऐसे साथ रहने लगते हैं, जिसे लिव इन कहा जाता है। उनके आश्रम में कोई किसी महिला की लाश फेंक जाता है व उसकी जाँच में पुलिस बेलिहाज होकर अपने पुलिसिया तरीके से पूछताछ करती है व उनके सामाजिक सम्मान का कोई लिहाज नहीं करती।  कुम्भ यात्रा पर निकले नागा बाबाओं का एक दल वहाँ से गुजरता है जो किसी भी मठ या आश्रम को अपनी रियासत समझता है और किसी राजा की तरह अपने नियम थोपता है, व जरूरत पड़ने पर दण्ड देता है। वे देश के किसी कानून को नहीं मानते व कानून को पालन कराने वाली एजेंसियां भी उन्हें ऐसा करने की पर्याप्त गुंजाइश देती हैं। खुद को उपशंकराचार्य लिखने के आरोप में नागा बाबा धरनीधर को  खड़ाऊं से पीटते ही नहीं अपितु कमरे में बन्द भी रखते हैं व अपमान भी करते हैं। उनके साथ की महिला का भी अपमान करते हैं, जिसे तात्कालिक रूप से बाहर भेजना पड़ता है, जहाँ पर भी उसे असम्मानजनक बातें सुनना पड़ती हैं। वह आश्रम छोड़ कर चली जाती है। आश्रम की महिमा घटते ही विरोधी पक्ष आश्रम की जमीन के अवैध होने आदि का मामला उठा देते हैं। पत्रकारिता के नाम पर काक दृष्टि रखने वाले बेरोजगार ब्लैकमेल करने की फिराक में रहते हैं। अपयश से आयोजकों की निगाह में उनकी कीमत घट जाती है, धन्धा मन्दा पड़ने लगता है। अपमान असहनीय हो जाता है और वे आश्रम छोड़ देते हैं।

इन्हीं दोनों व्यक्तियों की मुलाकात ट्रेन के एक डिब्बे में हो जाती है जिन्हें अपने वैरागी स्वरूप से भी वैराग्य हो गया है और अपने उस स्वरूप से निराश होकर लौट रहे हैं। आपसी संवाद और स्मृतियों के सहारे पूरी कथा कही गयी है। कृति बताती है कि इस अर्धसामंती, अर्धपूंजीवादी दौर में शांति उन्हें वहाँ भी नहीं मिलती जहाँ से भाग कर वे धर्म के धन्धे में उतरे थे। यहाँ भी ऐसी ही लपट झपट है, ऊंचे नीच है, एक दूसरे को उठाना गिराना है, सम्पत्ति जोड़ने की तमन्नाएं हैं, षड़यंत्र हैं, महंती के लिए मुकदमेबाजी तक है। शांति वहाँ भी नहीं है जहाँ वे जाने की सोच कर निकले है। ‘राग दरबारी’ का वह अंतिम वाक्य याद किया जा सकता है कि भाग कर कहाँ जाओगे रंगनाथ, जहाँ जाओगे तुम्हें किसी खन्ना की ही जगह मिलेगी।

कृति न केवल रोचक है अपितु ऐसे विषय पर सोच समझ कर विस्तृत अध्यन अनुभव व साक्षात्कार करके लिखी गयी है जिससे एक कम ज्ञात दुनिया में चल रहे कार्य व्यापार की विश्वसनीयता बनी रहे। इस क्षेत्र के लोगों की अपनी भाषा होती है, परखने के अपने कोड होते हैं, झंडे होते हैं, खानपान के नियम होते हैं, जिससे असली नकली की पहचान होती है। कृति में न केवल चुनावी राजनीति में धर्म के स्तेमाल, पुलिस प्रणाली, राजस्व प्रणाली, के कमजोर पक्ष को वर्णित किया गया है, अपितु सामाजिक कुंठाओं की ओर भी इशारा किया गया है।

उपन्यास पठनीय है।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023