शनिवार, अक्तूबर 27, 2012

गडकरी के कारनामों की ज़िम्मेवारी संघ पर भी आती है


                 गडकरी के कारनामों की ज़िम्मेवारी संघ पर भी आती है
                                                                                                                         वीरेन्द्र जैन
      जब कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह गत एक वर्ष से लगातार यह सवाल पूछ रहे थे कि गडकरीजी के पास इतना पैसा कहाँ से आया तो दुर्भाग्य से न तो मीडिया और न ही प्रशासन इसे गम्भीरता से ले रहा था। उनके इस बयान को केवल एक राजनीतिक बयान मान कर हाशिए पर कर दिया गया था, जबकि सच्ची बात तो यह है दिग्विजय सिंह के पिछले सारे बयान तथ्यात्मक और गम्भीर प्रकृति के रहे हैं, जो बाद में सच साबित हुए हैं। संघ परिवार तो उनके बयानों से इतना भयग्रस्त रहता है कि उसने तो कभी भी उन पर गम्भीर प्रतिक्रिया नहीं की, अपितु छिछले तरीके से उन्हें हास्यास्पद बता गाली गलौज कर उनसे बचने की कोशिश की। सोशल मीडिया के प्रमाण बताते हैं कि संघ परिवार ने ऐसे लोगों की एक बड़ी टीम बना रखी है जो सैकड़ों छद्म नामों से उन सभी महत्वपूर्ण लेखकों, पत्रकारों, व राजनेताओं को गाली गलौज करके हतोत्साहित करने, और उनकी छवि खराब करने की कोशिश करते रहते हैं, जो संघ परिवार के कार्यों की समीक्षा करते हैं। आज जब सच्चाइयां सामने आ रही हैं तब ये भी जरूरी है कि सोशल मीडिया में ऐसे छद्मनाम धारी खाते खोलने वालों की न केवल तलाश की जाये अपितु उनके इस अपराध के उद्देश्य के बारे में गहन पूछ्ताछ की जाये ताकि समाज में साम्प्रदायिकता के बीज बोकर देश की दिशा को गलत रास्ते पर ले जाने के षड़यंत्र का पर्दाफाश हो सके। उल्लेखनीय है कि अपने सारे साम्प्रदायिक हिंसक कारनामों, उनके खुलासों, अदालत की टिप्पणियों, आयोगों की रिपोर्टों के बाद भी नरेन्द्र मोदी गुजरात में लोकप्रियता इसलिए बनाये हुए हैं क्योंकि अपने झूठ के सहारे संघ परिवार ने समाज के एक हिस्से में साम्प्रदायिकता की जड़ें गहरी कर दी हैं, और यह काम एक दिन में नहीं हुआ है। प्रतिक्रिया में मुस्लिम और ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों ने भी अपने अपने राजनीतिक दल बनाने शुरू कर दिये हैं जिनका असर केरल और असम में प्रत्यक्ष दिखने लगा है। इसलिए जरूरी है कि साम्प्रदायिकता से मुकाबले का काम भी उसी निरंतरता और सक्रियता से किया जाये जितनी निरंतरता और सक्रियता से साम्प्रदायिक बीज बोये जा रहे हैं। खेद की बात है कि सत्तारूढ यूपीए में सम्मलित दलों में दिग्विजय जैसे दूरदर्शी लोग अल्पसंख्यक हो गये हैं।
     
      इस बात का अब शायद ही किसी को सन्देह हो कि भाजपा संघ का ही एक सहायक संगठन है और उसकी सारी प्रमुख नीतियां व सांगठनिक निर्णय संघ द्वारा ही लिए जाते हैं जिन्हें लागू करना भाजपा के लिए जरूरी होता है। भाजपा अध्यक्ष के रूप में गडकरी के चयन के प्रति जब भाजपा के अन्दर कोई कल्पना तक नहीं कर रहा था तब संघ द्वारा उन्हें अध्यक्ष के रूप में लाद दिया गया था। उनके इस चयन के प्रति न केवल पूरा मीडिया अपितु स्वयं भाजपा के बड़े बड़े नेताओं के मुँह खुले रह गये थे। स्मरणीय है कि उन दिनों जब संघ प्रमुख से भाजपा के अगले अध्यक्ष के बारे में पूछा गया था तब उन्होंने कहा था कि दिल्ली के गेंग डी फोर, अर्थात वैंक्य्या नायडू, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, और अनंत कुमार में से कोई नहीं। बाद में हुआ भी ऐसा ही और एक फासिस्ट संगठन ने पूरी भाजपा पर गडकरी को थोप दिया था। इतना ही नहीं गडकरी को दूसरा कार्यकाल देने के लिए संविधान में संशोधन भी उन्हीं के निर्देश पर किया गया जिसका मूल लक्ष्य गडकरी को दुबारा अध्यक्ष पद पर पदारूढ करना रहा था।

      संघ की कार्यप्रणाली को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वे श्री गडकरी के कार्यकलापों से अनभिज्ञ रहे होंगे या बाद में दिग्विजय सिंह जैसे संघ विरोधी नेताओं द्वारा सवाल उठाये जाने पर जिज्ञासाएं न पैदा हुयी हों, किंतु उन्होंने सब कुछ जानते हुए भी न केवल गडकरी को भाजपा पर थोपा अपितु दूसरे कार्यकाल के लिए भी रास्ता बनवाया। सच तो यह है कि गडकरी का कार्यकाल किसी भी पूर्व अध्यक्ष से अधिक अच्छा नहीं रहा था जिन्हें ऐसी विशेष सुविधा मिली हो। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में पहले से अच्छा परिणाम देने के बाद भी जब कान्ग्रेस के अपेक्षाओं के अनुरूप परिणाम नहीं आये तो उस जिम्मेवारी का अहसास राहुल गाँधी समेत कांग्रेस के जिम्मेवार नेताओं पर देखा जा सकता था, किंतु वोटों और सीटों के मामले में पहले से पिछड़ने के बाद भी भाजपा के लोगों के समक्ष गडकरी के चेहरे पर कोई शर्म नहीं थी क्योंकि उनका भविष्य पार्टी नहीं अपितु संघ द्वारा तय किया जाना था और जब तक संघ उन्हें चाहता तब तक वे किसी की परवाह नहीं करना चाह्ते। उनके कार्यकाल में हुए विधानसभा चुनावों में गोआ जैसे छोटे राज्य को छोड़ कर कहीं भी सफलता नहीं मिली। अपनी अध्यक्षता के बाद पहली रैली के दौरान ही वे चक्कर खाकर बेहोश हो गये थे जिन्हें संयोग से वयोवृद्ध अडवाणीजी के कन्धों का सहारा मिल गया अन्यथा कोई बड़ी घटना भी सम्भावित थी। इसी दौरान उन्होंने अपने शरीर की चर्बी कम कराने के लिए शल्य चिकित्सा करायी। जब पूरा देश गम्भीर राजनीतिक गतिविधियों से उद्वेलित था तब मुख्य विपक्षी दल के अध्यक्ष गडकरीजी अपने परिवार के साथ विदेश भ्रमण के लिए चले गये। राज्य सभा के चुनावों में उन्होंने जिस तरह से अपने धनी मित्रों को टिकिट दिये उससे पार्टी में ही विद्रोह की स्थिति खड़ी हो गयी और झारखण्ड में अपने सबसे मुखर नेता श्री आहलूवालिया को नहीं जिता सके। अध्य्क्ष बनने के बाद उन्होंने जिस तरह से पार्टी को ठुकराने वाले नेताओं पर कृपादृष्टि करने का अहसान प्रदर्शित करना चाहा था उसके उत्तर में उन्हें कभी पार्टी के थिंकटैंक कहे जाने वाले गोबिन्दाचार्य से जो अपशब्द सुन कर मौन रह जाना पड़ा था वैसा व्यवहार उन जैसा  स्वाभिमानहीन व्यक्ति ही कर सकता है। उनकी कार में मृत पायी गयी लड़की की घटना हो या उनके बेटों की शादी में दौलत के शर्मनाक प्रदर्शन का मामला हो, शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार से उनके व्यापारिक सम्बन्धों का मामला हो, संघ ने कभी भी कोई आपत्ति प्रकट नहीं की। कहा जाता है कि नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी पिछली बैठक में संघ ने उन्हें गडकरी के एक और कार्यकाल के लिए मनाने की कोशिश की थी और शायद उसमें सफल भी हो गये थे।
      स्मरणीय है कि अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में पैट्रोल पम्प और गैस एजेंसियों के आवंटन में संघ के लोगों के हित में जो पक्षपात किया गया था और अटलबिहारी वाजपेयी ने जिस पर अपना त्यागपत्र देने की पेशकश तक कर दी थी, उससे संघ की शुचिता पर सन्देह के दाग लग चुके हैं। गडकरी के कारनामों के खुलासों और संघ द्वारा उन्हें अध्यक्ष बनाने व बनाये रखने की कोशिशों से ये सन्देह फिर से उभर आये हैं। ऐसे आचरणों की निरंतरता से आश्चर्य नहीं कि भविष्य में जब भ्रष्ट जननायकों की सूची और फोटो प्रकाशित हों तो उनमें संघ के पदाधिकारिय़ों के नाम भी सम्मलित दिखाई दें। गडकरी के खिलाफ साबित होने वाले किसी भी आरोप से संघ को मुक्त नहीं माना जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अक्तूबर 20, 2012

सड़क पर धर्म


सड़क पर धर्म
वीरेन्द्र जैन

     एक समय था जब लोग धर्म के लिए धार्मिक स्थलों और धर्म के पालकों व प्रचारकों  के पास स्वयं जाते थे, किंतु प्रत्येक धर्म में उसके जन्म के एक निश्चित समय के बाद पाखंड और जड़ता घर करती जाती है तथा धर्म के बारे में बिना प्रश्न किये विश्वास करने की परंपरा के कारण कुछ निहित स्वार्थ अपना उल्लू सीधा करने लगते हैं। यही कारण होता है कि निश्चित समय खण्ड (युग) के बाद एक प्रवर्तक नया धर्म प्रारम्भ करता है। दो धर्मों के संधि काल में धर्म प्रचारकों के हित में लगी हुयी ताकतों के भय से व्यक्ति अपनी शंकायें और असहमतियां तो प्रकट नहीं कर पाता किंतु वह उस युग के तथाकथित धार्मिक स्थलों और व्यक्तियों से बचने लगता है।

इस दौर में अपने कमजोर होते अस्तित्व को बचाने के लिए अब धर्म स्वयं ही सड़क पर उतर आने को मजबूर हो गया है व तथा कथित धर्म प्रचारक अपने आश्रमों को छोड़ छोड़ कर नगर नगर घूमते फिरने लगे हैं। उनका यह कहना कि वे अपने शिष्यों के विशेष आग्रह पर पधारे हैं लगभग ऐसा ही होता है जैसे कोई सिनेमा हाल वाला लाउडस्पीकर से प्रचारित करवाता है कि जनता की जबरदस्त मांग पर फलां फलां फिल्म लग गई है। यह किसी को भी नहीं पता कि जनता ने कब किससे कहाँ पर यह जबरदस्त मांग की हुयी होती है।

     आज धर्म का मंदिरों मस्जिदों आश्रमों में दम घुटने लगा है इसलिए वह खुली हवा में सड़क पर पसरने लगा है जहाँ रास्ते से गुजरने वालों को अपने भक्तों में शामिल  दिखा कर वह चैन की साँस ले पाता है। सड़कों पर आने के कारण रास्ते संकरे हो जाते हैं व संकरे रास्तों पर फंसने के लिए विवश लोगों को कुछ क्षणों के लिए वहाँ रूकना ही पड़ता है। यह लगभग ऐसा ही है जैसे त्योहारों के अवसरों पर दुकानदार अपनी दुकान से बाहर निकल कर सड़क पर पसर जाते हैं ताकि ग्राहक आगे न बढ सके। यद्यपि इससे लोग असुविधा महसूस करते हैं किंतु धर्म के व्यवसायियों के झूठ से जुट जाने वाली विवेकहीनों की हिंसक भीड़ से भयभीत लोग अपनी असुविधाओं को चुपचाप झेल जाते हैं।

हमारी बहुचर्चित सहिष्णुता के सच्चे दर्शन यहीं होते हैं।

     सड़कों पर गणेश प्रतिमाओं के पंडाल लगाकर स्वतंत्रता आन्दोलन में जातिपांत विहीन जन समर्थन जुटाने के प्रयास का सफल प्रयोग लोकमान्य तिलक ने किया था जिसे उद्देश्य की महत्ता के कारण हम अब तक प्रशंसा के भाव से याद करते हैं। किंतु एक सुनिश्चित राजनीतिक लक्ष्य के लिए प्रारंभ किया गया यह अभियान आज परंपरा बन गया है व धार्मिक अनुष्ठान समझा व बताया जा रहा है। सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति भी इसका गलत उपयोग करने लगी है तथा अपने अपने राजनीतिक लाभ के लिए इन पंडालों के बीच आपस में व्यापारिक प्रतियोगिताएं भी होने लगी हैं। वे एक दूसरे से बड़ी मूर्ति लाकर व अधिक सुशोभित जगमगाहट भरा पंडाल सजाकर व्यावसायिक द्वेष से काम करने लगे हैं। इनके इस तमाशे के लिए स्वाभाविक रूप से धन नहीं जुटता इसलिए इसे जुटाने के लिए क्षेत्र के बाहुवलियों या छुटभइये राजनेताओं की सेवाएं जुटायी जाती हैं। ये लोग सार्वजनिक धन का दुरूपयोग करने के अभ्यस्त लोग होते हैं इसलिए दबाव बनाकर खर्च से बहुत अधिक धन जुटाया जाता है व इस शेष धन का उपयोग अधार्मिक कार्यों में ही किया जाता है। इस दौरान स्थायी धर्मस्थलों में जाने वाले लोग वहां नहीं जा पाते व उन धर्मस्थलों में चढायी जाने वाली दान की राशि में गतिरोध आ जाता है।

     सड़क पर उतर आये इस धर्म में भक्त नहीं, भीड़ जुटायी जाती है जिसके लिए तरह तरह की आकर्षक झाकियाँ सजायी जाती हैं जिनके प्रति बच्चे उत्सुक होते हैं व उन बच्चों के कारण उनके मातापिता को भी आना पड़ता है। यह सारा कृत्य धार्मिक आस्था का प्रमाण नहीं है अपितु ताकतवरों द्वारा धर्मभीरूओं को बरगलाने या ब्लैकमेल करने का ढंग है। वे भीड़ को बढाने के लिए प्रसाद भी वितरित करते हैं तथा भंडारा भी करते हैं। भीड़ से भीड़ बढने के सिद्धांत के अनुसार अधिकतर पंडालों में सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर प्रचलित सुगम संगीत फूहड़ मनोरंजन से लेकर हाउजी नामक जुआ भी चलाया जाता है। दान की रसीदों की लाटरी निकाली जाती है व दानदाताओं के नाम बार बार पुकार कर दूसरों को प्रोत्साहित करने का खेल चलता है।

     आज से दो दशक पूर्व तक नवरात्रि के अवसर पर केवल बंगालियों के मुहल्ले में ही दुर्गा झांकी सजायी जाती थी किंतु गणेश पंडालों से जनित आय से उत्साहित लोग इस में भी उसी लक्ष्य व उत्साह से कूद पड़े और व्यवसाय के सारे नियम कायदे इस पर लागू कर दिये। अब जहां जितना बड़ा बाजार होता है वहाँ की झांकी भी उतनी ही बड़ी होती है। यह इस बात का प्रमाण है कि इन झांकियों की भव्यता का अनुपात भक्ति से नहीं अपितु बाजार से सही बैठता है। बच्चों के खिलौने गृहस्थी के सामान चाटपकौड़ी और झूले आदि में लपेट कर तथाकथित धर्म भी निगल लिया जाता है। इन दिनों त्योहारों का अर्थ बाजार से खरीददारी हो गया है। इन आयोजनों में भजन संगीत के टेप चलाये जाते हैं जिससे कभी धर्म से जुड़ी गायन और संगीत की शिक्षा का अभ्यास नहीं हो पाता। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए भी बाहर से संगीत पार्टियां बुला ली जाती हैं और स्थानीय कलाकारों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के अवसर ही नहीं मिल पाते। 

      कभी देवी देवताओं के स्थल ऊंची कठिन पहाड़ियों पर बनाये जाते थे तथा वहां पहुंचने का कष्टसाध्य श्रम ही व्यक्ति की भावनात्मक गहराई को प्रकट करता था। आज वे स्थल वीरान पड़े रहते हैं तथा व्यकित की दान देने की क्षमता को सड़क पर उतर आये तमाशों द्वारा बटोर लिए जाने के कारण वे आर्थिक तंगी झेलते हुये मरम्मत के अभाव में नष्ट हो रहे हैं। बाजार से जुड़ा सड़क वाला नया धर्म  पुराने धर्म को निगलता जा रहा है। लगभग ऐसा ही हाल प्रवचनकारी संतों का है जिनके प्रवचनों के आयोजनों हेतु करोड़ों का बजट बनता है पर उनके प्रवचनों का समाज पर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। ये प्रवचनकारी स्वयं तो किसी फिल्म स्टार वाली पारिश्रमिक राशि लेते ही लेते हैं  तथा अपने साथ पूरा बाजार भी साथ लिए फिरते हैं। उनकी पब्लिीसिटी का खर्च भी कई कई लाख का होता है।

     सच तो यह है कि यह 'मेटामारफोसिस' एक मरते हुये उद्योगपति के मेकअप की तरह है जिसके शेयरों के रेट बनाये रखने के लिए उसे स्वस्थ और जीवित बताया जा रहा हो। बढते वैज्ञानिक युग में वैश्वीकरण के दौर में डूबते धर्म की रक्षा के प्रयास और और तेज होंगे जो आक्रामक भी हो सकते हैं क्योंकि कहा गया है कि ' सम टाइम्स अटैक इज दि बैस्ट वे आफ डिफैंस'। सच तो यह है कि आज धर्म के उदात्त, करुणामयी, और सबजन हिताय पक्ष को पुनर्जीवित करने, और इन मज़मेबाजों के चंगुल से मुक्त कराने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, अक्तूबर 11, 2012

केजरीवाल के लिए चुनव क्षेत्र और उम्मीदवार तैयार करते अन्ना हजारे


केजरीवाल के लिए चुनाव क्षेत्र और उम्मीदवार तय करते अन्ना हजारे
वीरेन्द्र जैन
      अब यह लगभग पुष्ट हो चुका है कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन आन्दोलन के पीछे मुख्य सूत्रधार अरविन्द केजरीवाल थे जिन्होंने एक साफ सुथरे चेहरे या कहें कि मुखौटे के रूप में अन्ना हजारे को आगे किया था। परिस्तिथियां ऐसी थीं कि उन्हें पूरे देश में कोई भी चर्चित आदर्श राष्ट्रीय चेहरा नजर नहीं आया इसलिए उन्हें एक क्षेत्रीय चेहरे को राष्ट्रीय चेहरा बनाना पड़ा। इस आन्दोलन का चेहरा बनने से पहले महाराष्ट्र में अपने अनशनों से ध्यान आकर्षित करने के बाद भी अन्ना हजारे की अखिल भरतीय छवि निर्मित नहीं हुयी थी और न ही उनकी सोच इतनी व्यापक थी कि राष्ट्रीय नेतृत्व करने की पात्रता पाने के लिए वे समस्याओं और उनके निराकरण के बारे में समग्रता से सोच कर कोई हल देने का प्रयास करते। उनकी क्षमता केवल इतनी थी कि वे अपनी सीमित मांगों के लिए अपेक्षाकृत लम्बे समय तक अनशन पर बैठ सकते थे, जबकि जनता को अपेक्षा रहती है किसी भी आन्दोलन का राष्ट्रीय नेतृत्व सम्बन्धित समस्या को सभी कोणों से समझ कर आन्दोलन को गति दे। यही कारण रहा कि एक बार भड़कने के बाद इस आन्दोलन का लगातार क्षरण होता रहा। स्वामी अग्निवेष, संतोष हेगेड़े, सन्दीप पाण्डे, कुमार विश्वास,  अरुन्धति राय, मेधा पाटकर, से लेकर किरण बेदी ही नहीं खुद अन्ना हजारे को भी अपना मार्ग अलग घोषित करना पड़ा।
      आन्दोलन की बिडम्बना यह रही कि इसने एक ओर तो इसी संसदीय लोकतंत्र में पूर्ण विश्वास घोषित किया और वहीं दूसरी ओर इसी व्यवस्था से निर्वाचित संसद को चोर उचक्कों और अपराधिओं का अड्डा बताते रहे। यद्यपि कुल संसद सदस्यों का कुछ प्रतिशत इन आरोपों से घिरा हुआ है तो भी उन्हें इसी व्यवस्था के अंतर्गत मतदाताओं ने चुन कर भेजा है और इस संविधान में भरोसा करने वाले लोगों को उन्हें स्वीकारना ही पड़ता है व उसी में से राह खोजना पड़ती है। जब पूरा देश इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास के कारण गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लगातार सहन करती आ रहा है, मधु कौड़ा को निर्दलीय विधायक होने के बाद भी झारखण्ड के मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया था, और राबड़ी देवी के नेतृत्व में बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्य की सरकार को सहन किया तब एक ओर इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास घोषित करते हुए व दूसरी ओर  कुल संसद की निन्दा करना परोक्ष में उस जनता को गाली देना है जिसने उनको चुन कर संसद में भेजा है। इस बिडम्बना को सामने आने में बहुत देर नहीं लगी और अन्ना व अरविन्द को अपने अपने रास्ते अलग अलग करने पड़े। अरविन्द केजरीवाल ने राजनीतिक दल के गठन की घोषणा और चुनावों में भागीदारी पर सहमति के साथ लोकतंत्र की इसी प्रणाली को स्वीकार करने की घोषणा कर दी थी वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे ने राजनीतिक दल के गठन से असहमति व्यक्त करते हुए केवल आन्दोलन का सहारा लेने की घोषणा करके अपनी असहमति को सार्वजनिक कर दिया था। इस विभाजन ने मुख और मुखौटे का भेद प्रकट कर दिया था। इससे यह भी साफ हो गया कि अन्ना का मुखौटा लगाते समय या तो केजरीवाल के पास कोई दूरदृष्टि नहीं थी या उन्होंने सच को छुपा, अन्ना को आगे कर अपना लक्ष्य प्राप्त करने का खेल खेला। कहा जा रहा है कि अब अन्ना टीम के आन्दोलन का संचालन किरण बेदी के हाथों में होगा किंतु इसी समय अन्ना ने यह भी घोषित कर दिया है कि वे अब इस आन्दोलन के लिए अनशन का सहारा नहीं लेंगे। सवाल उठता है कि एक तेज तर्रार पुलिस अधिकारी रही देश के पहली महिला आईपीएस के रूप में विख्यात और इसी कारण बहुचर्चित किरण बेदी अनशन की जगह आन्दोलन का क्या तरीका अपनायेंगीं?
      बिडम्बना यह भी है कि अन्ना हजारे उन बाबा रामदेव से गलबहियां कर रहे हैं जो खुद अपने दल को चुनाव में उतारना चाहते रहे हैं और जिनके द्वारा बहुत ही अल्प समय में अकूत धन सम्पत्ति जोड़ी गयी है जिस कारण से विभिन्न तरह के कर वसूलने वाली एजेंसियां उन पर वे ही आरोप लगा रही हैं जिनके खिलाफ अन्ना आन्दोलन चलाने का रास्ता अपनाये हुए हैं। यही बाबा रामदेव पिछले दिनों सार्वजनिक मंच से नरेन्द्र मोदी की भूरि भूरि प्रशंसा कर चुके हैं। ध्यान देने योग्य यह भी है कि अपनी जन्मतिथि के कारण विवादों में रहे पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह बाबा रामदेव के साथ अपना भविष्य जोड़ने में लगे हुए हैं।
      अरविन्द केजरीवाल से मतभेद सामने आने के बाद अन्ना ने अपना मार्ग अलग करते हुए कहा था कि वे न तो अपना फोटो ही इस्तेमाल करने देंगे और न ही किसी उम्मीदवार के लिए प्रचार करेंगे, पर अब उन्होंने कह दिया है कि अगर अरविन्द केजरीवाल कपिल सिब्बल के खिलाफ चुनाव लड़ते हैं तो वे उनका प्रचार करेंगे। इसका अर्थ है कि अब अन्ना न केवल उम्मीदवार तय कर रहे हैं अपितु चुनाव क्षेत्र भी निर्धारित कर रहे हैं। यदि ऐसा है तो ये अन्ना को बधाई मिलनी चाहिए कि वे थोड़ी सी न नुकर करने के बाद राजनीति में उतर आये हैं और इसी संसदीय लोकतंत्र में समस्याओं के हल तलाशना चाहते हैं। लगता है कि उनके जो रस्ते केजरीवाल से अलग हो गये थे वे जुड़ने लगे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अक्तूबर 03, 2012

धार्मिक जडताओं से मुक्ति ही धर्म को बचा सकती है


धार्मिक जडताओं से मुक्ति ही धर्म को बचा सकती है
                                                      वीरेन्द्र जैन

      धार्मिक क्षेत्र में इन दिनों बडा हडक़म्प मचा हुआ है। बदले हुये समय में जो चीजें सामने आ रही हैं, उन्होंने धर्मों के उन हवा महलों को धाराशायी कर दिया है जिनका आधार कुछ कल्पनाओं पर टिका हुआ था। विज्ञान की उपलव्धियों ने जिस यथार्थ को सामने रखा है उसकी धूप ने धर्मों द्वारा पैदा की गयी धुंध को छांटने का काम शुरू कर दिया है। इस धुंध से लाभ उठा कर जो लोग अपना हित साधते आ रहे थे उनकी पोल पट्टी खुल जाने से वे परेशानी महसूस कर रहे हैं।

            किसी जमाने में चेचक का बड़ा धार्मिक कारोबार चला करता था पर जब से देश में चेचक का उन्मूलन हुआ है तब से इस धन्धे का भी उन्मूलन हो गया  है। मेरा एक मित्र बतलाता है कि चेचक उन्मूलन के बाद देश में नया कोई भी शीतला माता का मन्दिर स्थापित नहीं हुआ है। वह मजाक में कहता है कि बेरोजगार युवकों को अब चिकनगुनिया माता का कोई्र मन्दिर बना लेना चाहिये। कभी सुप्रसिद्ध लेखक ख्वाजा अहमद अव्बास ने पाकिस्तान के इस्लामी कानून के बारे में  लिखा था कि डाक्टरों ने वहां अजीब समस्या खड़ी कर दी है। शरीयत कानून के अनुसार चोरी करने वाले के हाथ काटने का प्रावधान है पर डाक्टर कहते हैं कि तुम काट दो पर हम जोड़ दैंगे। जिन दिनों शरीयत कानून अस्तित्व में आया था तब शल्य चिकित्सा का ऐसा विकास नहीं हुआ था, पर अब हो गया है। कथित धार्मिक नियम अपने समय और क्षेत्र के सामाजिक नियम कानून रहे हैं और कोई भी कानून अपने समय की सामाजिक नैतिकताओं और उनको तोड़ने की घटनाओं के अनुसार ही बनता है और उसके अनुरूप ही उसे बदलते रहना चाहिये। कुछ लोग उन कानूनों से अतिरिक्त लाभ उठाते रहते हैं इसलिये वे उसमें परिवर्तन नहीं होने देना चाहते। ये जड़ता ही समाज में टकराव पैदा करवाती है। पर लाभान्वित होने वाला वर्ग सामाजिक कानूनों को धर्म से जोड़ देता है जिससे धर्मों में अन्धी आस्था रखने वाला एक वर्ग विभूचन की हालत में आ जाता है। उसे न्याय भले ही सामने दिखाई दे रहा हो पर सैकड़ों सालों पूर्व बनाये गये नियमों में उसकी आस्था चुपचाप अन्याय होने देती है। वह या तो चुप रहता है या जानबूझ कर कुतर्क करके हास्यास्पद होता हुआ झुंझलाता रहता है।

            बदलता समय और वैज्ञानिक शिक्षा ,धार्मिक परिकल्पनाओं के प्रति संदेह पैदा करती हैं जिसका सामना करने के लिये निरन्तर विश्वास खोता हुआ धर्म झूठे चमत्कार पैदा करने के भोंड़े प्रयास करता रहता है। यह महज संयोग नहीं है कि एक सुनिश्चित समय में ही समुन्दर का पानी मीठा होने लगे, गणेशजी आदि दूध पीने लगें, मदर मेरी की आंखों से पानी निकलने लगे, पुराने भवनों की काई लगी दीवारों पर बन गयी आकृति सांई बाबा से मेल खाने लगे, कोई अध्यापक ईशु के दर्शन कराने लगे, जैन मन्दिरों के भवनों और मूर्तियों से बूंदें टपकने लगें, बुद्ध का अवतार पैदा हो जाये,। असल में ये सारे चमत्कार तेजी से डूब रहे धर्म को थोड़ा और जीवन देने की  फूहड़ कोशिश भर हैं। यह वही समय है जब एक जैन साध्वी अपने ओढे हुये ब्रम्हचरित्व को छोड़ कर  अपने प्रेमी के साथ भाग गयी होती है, इमराना के मामले में शरीयत कानून के आधार पर फैसला देने वालों  के खिलाफ चुप रहने को विवश  पढे लिखे मुसलमान शर्म के मारे मरे जा रहे होते हैं, गुड़िया के फैसले ने मौलानाओं के विवेक पर प्रश्चिन्ह खड़े कर दिये हों, शंकराचार्य बलात्कार, हत्या व धार्मिक संस्थानों के कोष का दुरूपयोग करने के आरोपों में गिरफ्तार हो रहे हों, प्रतिदिन किसी न किसी आश्रम या मठ के मठाधीश के यहां छापा पडने पर अश्लील सीडी ,हथियार, व फरार अपराधी पकड़े जा रहे हों, इमामबुखारी जैसे मुसलमानों के स्वयंभू ठेकेदार शबानाआजमी जैसी सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता व उत्कृष्ट कलाकार के बौद्धिक तर्कों का उत्तर उन्हें नाचने गाने वाली बता कर दे रहे हों तब ऐसे में धार्मिक संस्थाओं और उन पर अधिकार किये हुये धार्मिक चोगाधारियों में अन्धआस्था रखने वालों का विवेक संदिग्ध हो जाता है। सूचना तकनीक से लैस नई पीड़ी विवेकशून्य नहीं हो सकती इसलिये धर्मों का धन्धा करने वाले अपने अभियानों में चमक दमक रंगीनियां व मनोरंजन को अधिक से अधिक स्थान देने लगे हैं। कभी जो धर्म सादगी और नैसर्गिक सौन्दर्य से जुड़ा रहता था वह अब बनावटों का भन्डारगृह हो रहे हैं। प्रवचनकारों के कार्यालयों में मैटर तैयार करने के लिये पचासों लोग वेतन पर कार्यरत रहते हैं और आयोजनों से पूर्व सेविकाएं सौन्दर्य प्रसाधनों की आवश्यकताएं महसूस करने लगी हैं।

            प्रत्येक धर्म मानवता के हित में ही प्रारम्भ हुआ है व उन्होंने अपने समय के श्रेष्ठ ज्ञान को जगतहित में लगाया होता है। पर समय और परिवेश स्थिर नहीं होता । बदलती परिस्थितियों के साथ सम्बन्धित धर्म की समीक्षा होनी चाहिये, और होती भी रही है किंतु इस बीच में एक ऐसा वर्ग पैदा हो जाता है जो अपने स्वार्थों के कारण धर्म को अपने प्रारम्भिक स्वरूप में ही बनाये रखना चाहता है। यह जड़ता ही समस्याएं पैदा करती है जिससे क्रमश: धर्म संस्था विभाजन की और बढती है । आज इसी विभाजन के परिणामस्वरूप सैकड़ों की संख्या में धर्म पैदा हो गये हैं जो सभी धर्मों के सिद्धांतों में प्रथम स्थान रखने वाले सत्य की ही हत्या करते हैं।

            जो लोग धर्म को बचाये रखना चाहते हैं उन्हैं इसे जड़ता से मुक्त करना होगा । स्वतंत्रताओं की ओर दौड़ लगाती इस दुनिया को अधिक दिनों तक विवेकहीन धार्मिक परतंत्रता में बांध कर नहीं रखा जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
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