सोमवार, नवंबर 29, 2010

बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम- एक दूसरा पक्ष्


बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम
मूल्यांकन इस पहलू से भी देखें
वीरेन्द्र जैन

लोकतंत्र में जब सत्ता की राजनीति हावी होने लगती है तब केवल चुनाव परिणाम ही देखे जाते हैं। गत बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों पर प्रतिक्रिया देते समय पूरे मीडिया ने नितीश कुमार और विकास की जीत बतायी वहीं भाजपा के नेता अपनी प्रतिक्रिया देते समय इसे एनडीए की जीत बता रहे थे। सवाल है कि क्या यह एनडीए की जीत है या नीतिश कुमार की जीत है? सच तो यह है कि तमाम बेशर्मी के साथ किसी तरह पीछे लटक कर भाजपा ने हमेशा की तरह भरपूर लाभ उठा लिया है, पर क्या वो अकेले लड़ कर उस जनता का समर्थन पा सकती थी जिसने रथयात्रा के दौरान अपने प्रदेश में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किये जाने पर तत्कालीन राज्य सरकार का खुलकर साथ दिया था और बाद में होने वाले चुनावों में अडवाणी को गिरफ्तार करने वालों को भरपूर समर्थन देकर विधानसभा और लोकसभा में भेजा था। यह जीत भाजपा के वैकल्पिक प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी और मुसलमानों के हाथ काटने की घोषणा करने वाले वरुणगान्धी को बिहार में चुनाव प्रचार न करने देकर एक सन्देश देने वालों की जीत है। नितीश कुमार ने तो चुनाव के पहले साफ घोषणा कर दी थी कि अगर गठबन्धन चलाना है तो वह हमारी शर्तों पर चलेगा। सत्ता के लिए किसी भी हद तक गिर जाने के लिए अभंजित रिकार्ड रखने वाली भाजपा ने उनके आदेश को सिर माथे लगा कर स्वीकार कर लिया था। नितीश के ये तेवर तो तब थे जब उनको अकेले दम पर सरकार बनाने के लिए कम से कम बत्तीस सीटें और चाहिए थीं और वे भाजपा के समर्थन पर बुरी तरह निर्भर थे।
ताजा चुनाव परिणामों के अनुसार नितीश को अपनी सरकार बनाने के लिए कुल आठ विधायकों का समर्थन चाहिए जो प्रदेश को भाजपा से मुक्त करने के लिए कोई भी कभी भी दे सकता है। दूसरी ओर भाजपा को अपनी सरकार बनाने के लिए कम से कम तेतीस सीटें चाहिए और उन्हें कोई भी समर्थन नहीं दे सकता। भाजपा को किसी गैर भाजपा दल ने तभी समर्थन दिया है जब वे इतनी कम सीटें जीत पाये कि भाजपा की सरकार बनवाना उनकी मजबूरी रही। किंतु जैसे ही परिस्तिथियां बदलीं वैसे ही ऐसे समर्थकों ने अपना समर्थन वापिस लेने में देर नहीं की। मायावती ने तो भाजपा से कम सीटें होते हुए भी छह छह महीने सरकार चलाने के हास्यास्पद समझौते में पहले सरकार बनाने की शर्त मनवायी थी और बाद में उन्हें समर्थन देने से इंकार कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें व्यापक दलबदल का सहारा लेना पड़ा था और सारे दलबदलुओं को मंत्री बनाने का सौदा भी उन्हीं के खाते में दर्ज है। रोचक यह है कि एक एक विभाग के दो दो तीन मंत्रियों में से दर्जनों का यह कहना रहा कि उन्हें कभी किसी फाइल पर दस्तखत करने का अवसर नहीं आया।
भाजपा के नेता बार बार जिस एनडीए की जीत की दुहाई दे रहे हैं उसका गठबन्धन के रूप में अस्तित्व कहाँ है! एनडीए की अपने किसी साझा कार्यक्रम के रूप में कोई पहचान नहीं है। भाजपा इसका सबसे बड़ा और इकलौता राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल है इसलिए इसकी भूमिका भी बड़े भाई की है। पर जिस जिस राज्य में भी उनको पूर्ण बहुमत प्राप्त है वहाँ वहाँ वे एनडीए के दूसरे किसी घटक को घास नहीं डालते। गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, हिमाचल प्रदेश में भूले से भी उनके मुँह से एनडीए का नाम नहीं निकलता। बिहार, पंजाब, उड़ीसा में वे जूनियर पार्टनर और विवशता में बनाये घटक की तरह रहे। उड़ीसा में ईसाइओं के खिलाफ उनकी साम्प्रदायिक हिंसा के कारण बीजू जनतादल को उन्हें हटाना ही पड़ा। उत्तराखण्ड, कर्नाटक, और झारखण्ड में सरकार बनाने की जोड़तोड़ में उन्हें एनडीए याद नहीं आया। केन्द्र में सत्ता होने के दौर में, तृणमूल कांग्रेस, तेलगुदेशम, एआईडीएमके, इंडियन नैशनल लोकदल, नैशनल कांफ्रेंस, आदि को उचित समय पर उनका साथ छोड़ देने में ही अपनी भलाई नजर आयी। ऐसी दशा में जब नितीश के आकर्षक शासन को पूरा श्रेय मिल रहा हो और उनकी निर्भरता भाजपा पर बहुत कम रह गयी हो तब सरकार में भी उनका महत्व कम ही होना तय है। ताजा चुनाव परिणाम की पिछले विधानसभा चुनाव परिणामों से तुलना करने पर यह भी स्मरण में रखना होगा कि पिछले चुनाव आरजेडी और कांग्रेस आदि ने मिलकर लड़े थे जबकि उक्त चुनावों में ये अलग अलग लड़ रहे थे। भाजपा, जेडीयू को मिले कुल मतों की संख्या उनके विरोध में पड़े कुल मतों की संख्या से कम है जो शासन की लोकप्रियता के बारे में एक सन्देश है। पिछले चुनावों की तुलना में छह चरणों में हुए चुनाव अधिक स्वच्छ, सुरक्षित, हिंसामुक्त हुये हैं और मतदान प्रतिशत में वृद्धि लिये हुए हैं। जातिवाद ने दलों की जगह उम्मीदवारों के स्तर पर काम किया है। लालू प्रसाद को सभी यादवों ने वोट नहीं दिया हो किंतु जिस क्षेत्र से जिस जाति का उम्मीदवार था उसे उस जाति के वोट बटोरने में सहूलियत रही।
उम्मीदवारों द्वारा दाखिल किये गये शपथपत्रों के अनुसार चुने गये 243 विधायकों में से 141 के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं। इन 141 में से 117 के खिलाफ गम्भीर आपराधिक मामले हैं। इनमें से भी 85 के खिलाफ हत्या या हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

केन्द्रीय विषय के रूप में भ्रष्टाचार और व्यवस्था corruption in centre


केन्द्रीय विषय के रूप में भ्रष्टाचार और व्यवस्था
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों संसद को लम्बे समय तक स्थगन झेलना पड़ा। इस स्थगन के मूल में भ्रष्टाचार की कुछ बड़ी बड़ी घटनाओं का एक साथ उद्घाटन होना है। भ्रष्टाचार निश्चित रूप से आज गम्भीर स्थिति तक फैल चुका है और इसकी वृद्धि का हाल यह है कि हमारा देश ट्रांसपरेंसी इंटर्नेशनल के पायदान पर भ्रष्टाचार में तीन सीड़ियां और ऊपर चढ चुका है। यह विधायिका, कार्यपालिका के साथ तो पहले से ही जुड़ा हुआ था पर अब यह सेना और न्यायपालिका में भी प्रकट होने की हद तक उफान ले चुका है। किसी देश की व्यवस्था पाँच तत्वों पर निर्भर करती है, राजनीति, पुलिस, प्रशासन, सेना, और न्यायपालिका। आज इनमें से कोई भी भ्रष्टाचार की अन्धी दौड़ से मुक्त नहीं है। पुलिस और नौकरशाही तो अंग्रेजों के समय से ही बदनाम रही है किंतु स्वतंत्रता संग्राम से जन्मा नेतृत्व क्रमशः भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आता गया। नेहरूजी के समय में टी टी कृष्णमाचारी को बहुत छोटी सी भूल के कारण पद से हाथ धोना पड़ा था। पर आज हालात यह हो गये हैं कि विधायिका में ईमानदार ढूंढना मुश्किल हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पर महाभियोग लगने की तैयारी है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस स्वयं स्वीकार चुके हैं कि तीस प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। प्रशांत भूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट के आठ जजों के भ्रष्ट होने के बारे में सार्वजनिक बयान दिया है। सेना के अधिकारियों द्वारा किये गये भ्रष्टाचार के समाचार यदा कदा आते रहे हैं किंतु अब तो इसमें बड़े और महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अधिकारियों के नाम आने से देश का आम जन देश की सबसे महत्वपूर्ण और सम्मानित संस्था की ओर सन्देह की दृष्टि से देखता हुआ स्वयं को भयभीत महसूस कर रहा है। विदेश विभाग में कार्यरत अधिकारी पाकिस्तान की जासूस निकलती है और गृह मंत्रालय का अधिकारी उद्योगपतियों व्यापारियों का जासूस पाया जाता है। अर्ध सैनिक बल का एक जवान अपने परिवार को बड़ा मुआवजा दिलाने के लिए एक बेरोजगार नौजवान को धोखा दे, अपनी ड्रैस पहिना कर उसका गला काट देता है और सिर गायब कर देता है। बाद में इसे नक्सलवादियों द्वारा की गयी हत्या प्रचारित करवा देता है। स्टिंग आपरेशन में पुलिस का थाना प्रभारी हत्या की सुपारी लेता हुआ और उस हत्या को एनकाउंटर में बदलने की योजना बनाता कैमरे में कैद कर लिया जाता है। सांसद पैसे के बदले में केवल दल बदल ही नहीं करते, अपितु सवाल पूछने, सांसद निधि स्वीकृत करने, और अपनी पत्नी के नाम पर दूसरी महिलाओं को कबूतरबाजी से विदेश भिजवाने के लिए भी कैमरे की कैद में आते हैं और फिर भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता वे समाज में ससम्मान मुस्काराते हुए घूमते हैं। एक देश भक्ति का त्रिपुण्ड धारण करने वाली सत्तारूढ पार्टी का अध्यक्ष देश की सेना के लिए ऐसे उपकरण खरीदवाने में मददगार होने की रिश्वत लेता हुआ कैमरे की कैद में आता है जो उपकरण अस्तित्व में ही नहीं है और वही अगली बार डालर में देने का आग्रह कर रहा होता दिखाई देता है। इतना ही नहीं वही पार्टी उसे उसकी गैरराजनीतिक पत्नी को सुरक्षित सीट से टिकिट देकर सांसद बना कर तुष्ट करती है। संसद में सबसे मह्त्वपूर्ण न्यूक्लीयर डील पर बहस के दौरान एक करोड़ रुपये रिश्वत की रकम बता रुपये सदन के पटल पर पटक दिये जाते हैं पर उसकी आमद और उनके सदन में आने के रास्ते की जाँच हुए बिना ही मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। कोई नहीं जानना चाहता कि वे रुपये कहाँ से आये थे और किसके थे। आज सदन में गतिरोध पैदा करने वालों में से न किसी सांसद को सदन की गरिमा की चिंता सताती है और ना ही सुरक्षा की चिंता, इसलिए भ्रष्टाचार की उक्त घटना की जाँच के लिए कोई उत्सुक नहीं दिखता।
सरकारी अफसरों के घरों में जब छापा पड़ता है तो रुपये ऐसे निकलते हैं जैसे कि उसके घर में छापाखाना लगा हो। यह सारा पैसा उन सशक्तिकरण और विकास की योजनाओं में से चुराया हुआ होता है जिनके बड़े बड़े पूरे पेज के विज्ञापन छपवा कर विभिन्न सरकारें गरीबनवाज दिखने का भ्रम पैदा करती रहती हैं। सरकार में सम्मलित मंत्री की अनुमति और हिस्सेदारी के बिना तो अफसर इतनी अटूट राशि एकत्रित नहीं कर सकते पर मंत्रियों पर छापा नहीं मारा जा सकता। किंतु जब मंत्रियों के निकट के रिश्तेदारों और नौकरों के यहाँ छापे डाले जाते हैं तो ड्राइवरों तक के लाकरों में करोड़ों रुपये निकलते हैं। आज जब भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रशासनिक कदम उठाया जाता है तो आम आदमी को अच्छा लगता है। शायद यही कारण है कि राजनीति में प्रवेश करने के लिए उतावले बाबा रामदेव जैसे लोकप्रिय व्यक्ति इस मुद्दे को पकड़ लेते हैं। पिछले दिनों लोकसभा चुनावों के दौरान बामपंथियों, जेडी[यू] के बाद भाजपा ने भी स्विस बैंक में जमा भारतियों की धनराशि को वापस मँगाने का मुद्दा उठाया था जो केवल चुनावी मुद्दा भर बन कर रह गया। इसका कारण यह रहा कि बामपंथी यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार तो पूंजीवाद का स्वाभाविक दुष्परिणाम है और यह पूंजीवाद के समाप्त होने के बाद ही समाप्त होगा, वहीं भाजपा समेत दूसरे पूंजीवादी दल स्वयं ही उसके हिस्से हैं इसलिए वे जनभावनाओं को देखते हुए इसे केवल चुनावी मुद्दे तक ही सीमित रख सकते हैं उसके खिलाफ कोई प्रभावी आन्दोलन नहीं चला सकते। बिडम्बना यह है कि जब प्रैस और जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्यायपालिका को अपना काम करना पड़ता है तो मजबूरन विपक्ष में बैठे लोगों को भी अपना राजनीतिक हित सधने का मौका नजर आता है और स्वयं की सुरक्षा भी नजर आती है। संसद में ताजा गतिरोध राजनीतिक लाभ के लिए सरकारी पार्टी के भ्रष्टाचार तक ही सीमित है और वह देश से पूर्ण भ्रष्टाचार उन्मूलन तक नहीं पहुँचता क्योंकि उसके लिए व्यवस्था के चरित्र को समझ कर उसे बदलने की दिशा में काम करना होगा। विरोध के लिए मजबूर सर्वाधिक सक्रिय विपक्षी दल जब केन्द्रीय सत्ता में था तो उसके मंत्रियों के खिलाफ भी ऐसे ही आरोप लगते रहे हैं तथा अब भी जहाँ जहाँ राज्यों में उनकी सरकारें हैं वे इसी अनुपात में भ्रष्टाचार में लिप्त हैं तथा कमजोर विपक्ष के कारण मध्यप्रदेश के मंत्री तो रिकार्ड तोड़ रहे हैं।
भ्रष्टाचार का फैलाव इस हद तक हो गया है कि इसे रोकने के लिए व्यवस्था के किसी एक अंग को अपनी सीमाएं लांघनी पड़ेंगीं और बाकी सारे अंगों की चुनौती झेलना पड़ेगी। स्मरणीय है कि इमरजैंसी लागू होने की पृष्ठभूमि में जयप्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन था जो गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध भ्रष्टाचार विरोधी क्षात्र आन्दोलन से विकसित हुआ था। स्मरणीय है कि उस क्रांति की परिणति भी सरकार बदलने तक ही सीमित रही थी और इस बदलाव के बाद जो विकल्प उभरा था वह भी नख से शिख तक भ्रष्टाचार में लिप्त रहा। गठबन्धन की मजबूरी ने एक संगठित साम्प्रदायिक दल को अपनी जड़ें देशव्यापी फैलाने का मौका मिल गया और जिसे हाशिये पर होना चाहिए था वह विपक्ष के केन्द्र में बैठा है। भ्रष्टाचार का हल सरकारें बदलने में नहीं व्यवस्था बदलने से मिलेगा और यह काम किसके नेतृत्व में होगा इसके संकेत नहीं मिल रहे हैं। ताजा हालात में तो कुँए और खाई के विकल्प हैं। राजनीतिक दल इस हद तक भ्रष्टाचार पर निर्भर हो गये हैं कि लोग भ्रष्टाचार के लिए राजनीतिक दलों में आने लगे हैं और ऐसे लोग ही अपेक्षित विधायिका के स्थान घेरते जा रहे हैं। सुप्रसिद्ध कवि मुकुट बिहारी सरोज के शब्दों में कहा जाये तो-
मरहम से क्या होगा ये फोड़ा नासूरी है
अब तो इसकी चीरफाड़ करना मजबूरी है

वीरेन्द्र जैन
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मो. 9425674629

मंगलवार, नवंबर 23, 2010

मानवाधिकार और गडकरी Human rights and BJP president Gadakaree

मानवाधिकार और गडकरी
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भाजपा के मानवाधिकर प्रकोष्ठ द्वारा नई दिल्ली में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था जिसका विषय था- मानवाधिकार आन्दोलन: गलत धारणा को सुधारना। इस विषय पर बोलते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा कि अलगाववादियों और आतंकवादियों के मानवाधिकार संरक्षण की बात करना देशद्रोह के समान है। दलितों, महिलाओं, गरीबों,और आत्महत्या के लिए मजबूर किसानों के मानव अधिकारों की बात की जाना चाहिए, पर अलगाववादियों और आतंकवादियों के मानव अधिकारों की बात करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। [जनसत्ता 2 नवम्बर 2010] गडकरी समेत संघ परिवारियों के बयानों से उनका फासिस्ट चरित्र लाख छुपाने के बाबजूद भी छुप नहीं पाता और वह कहीं न कहीं से प्रकट हो ही जाता है। भारत देश के आम नागरिक को जो अधिकार मिले हैं वे भाजपा और संघ परिवार की इजाजत से नहीं मिले हैं अपितु देश के संविधान के आधार पर मिले हैं। हमारा संविधान जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, रंग, और लिंग का कोई भेद किये बिना श्री नितिन गडकरी और मानव अधिकारवादियों समेत सबको अभिव्यक्ति का समान अधिकार देता है। यदि कोई किसी के बयान से असहमत है तो वह भी अपनी असहमति और तर्कों समेत अपनी बात खुल कर रख सकता है जिस पर एक लोकतांत्रिक समाज में देश की जनता विचार करेगी और उचित समय पर अपना फैसला लेगी। स्मरणीय है कि इमरजैंसी के बारे में अपनी बात रखते हुए एक बार अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था कि इमरजैंसी में जिन्दा रहने के अधिकार समेत सारे ही मूल अधिकार समाप्त कर दिये गये थे, जबकि जिन्दा रहने का अधिकार हमें ईश्वर ने दिया है न कि संविधान ने दिया है। इसे कोई इमरजैंसी खत्म नहीं कर सकती।
स्मरणीय है कि इमरजैंसी में संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। रोचक है कि उसके विरोध में संघ के किसी नेता ने गिरफ्तारी नहीं दी थी अपितु तत्कालीन सरकार ने जैसे ही उनके कुछ बड़े बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया वैसे ही उसके अधिकांश सदस्यों ने अपने खाकी नेकर छुपा दिये थे और सारे पूर्णकालिक सक्रिय कार्यकर्ता भूमिगत हो गये थे। जो लोग जेल में गये थे उनमें से अनेक लोगों ने बाहर आने के लिए क्षमा याचना की थी। स्वयं देवरस जी ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा श्रीमती इन्दिरा गान्धी का चुनाव वैध घोषित किये जाने के बाद उनके कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्हें पत्र लिखा था और उस पत्र में संघ से प्रतिबन्ध हटा लेने की दशा में उनके कार्यक्रमों के प्रति पूरा समर्थन व्यक्त करते हुए सहयोग देने का वादा किया था। यही लोग इमरजैंसी हटने के बाद अपने आप को क्रांतिकारी बताने लगे थे और बड़ोदा डाइनामाइट षड़यंत्र कांड के लिए मशहूर हुए जार्ज फर्नांडीस समेत इमरजैंसी में मंत्री रहे बाबू जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, विद्याचरण शुक्ल आदि के सहयोग से बनी जनता पार्टी सरकार में सम्मलित होने के लिए इतने लालायित रहे कि उन्होंने अपनी पार्टी जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन करने में एक क्षण की भी देर नहीं की, जबकि मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने ऐसी सरकार में सम्मलित होने के प्रस्ताव के प्रति अपनी असहमति खुल कर व्यक्त की थी जिसके सदस्य बिना माफी माँगे पूरे समय तक जेल में रहे थे और वहाँ पर भी अपनी असहमतियों को लगातार बनाये रहे थे। इमरजैंसी हटने के तीस साल बाद संघ के लोगों की मध्य प्रदेश में सरकार बनने के बाद उन्होंने अपने जेल से माफी माँग कर आये साथियों समेत सबको मीसा बन्दी आजीवन पेंशन बाँध ली जिसे मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के लोगों ने माफी माँग कर लौटे उन लोगों के साथ लेने से इंकार कर दिया। खेद की बात है कि आज उसी पार्टी का अध्यक्ष मानवाधिकारों की बात करने वालों को बात तक करने की इजाजत ही न देने का फतवा दे रहा है और मानव अधिकार की बात करने को देशद्रोह का नाम दे रहा है। किसी का नाम लिये बिना वे ‘जिन बड़े बड़े पुरस्कार प्राप्त व्यक्तियों द्वारा दिये गये बयानों’ के आधार पर इजाजत न देने की बात कर रहे थे तो उनका साफ संकेत अरुन्धति राय की तरफ था। यह संकेत करते समय वे यह भूल गये कि अरुन्धति राय ने जिन आदिवासियों के संघर्ष का समर्थन करने की बात की थी उसमें दलित, महिला, गरीब और किसान सभी सम्मलित हैं। अंतर केवल इतना है कि वे किसान मजदूर आत्महत्या करने की जगह हथियार उठा कर जंगल में संगठित हो गये हैं और सुरक्षा बलों के साथ हिंसा प्रतिहिंसा के खेल में सम्मलित हो गये हैं। भारत सरकार के कानून के खिलाफ हिंसा में शामिल होने पर स्वाभिक रूप से वे न केवल पुलिस की गोलियों के शिकार हो रहे हैं अपितु पकड़े जाने पर देश के कानून के अनुसार उचित सजाएं भी पा रहे हैं। उनके विचारों और तरीकों से असहमत हुआ जा सकता है, और देश के संविधान के अनुसार उचित कार्यावाही की माँग की जा सकती है। सरकार की लापरवाही और उदासीनता की स्थिति में सरकार के खिलाफ आन्दोलन किये जा सकते हैं, पर किसीके विचारों की आज़ादी और मानवाधिकारों पर रोक लगाने की माँग करना फासिस्ट तरीका है।
यही संघ परिवार आतंकवादियों को तुरंत फाँसी देने की उत्तेजना फैलाने में सबसे आगे रहता है किंतु जब मय सबूतों के उनसे जुड़े लोग आतंकी गतिविधियों में सामने आये तो वे न केवल उनके बयान बदलवाने लगे अपितु जाँच एजेंसियों के खिलाफ वातावरण तैयार करने लगे। किसी के आतंकी या देशद्रोही गतिविधियों में सम्मलित होने न होने के बारे में फैसला लेने के लिए जाँच एजेंसियां और न्यायपालिका मौजूद है। यही न्यायपालिका जब उनके पक्ष में फैसला देती है तो वे ढोल बजा कर उसका स्वागत करते हैं। आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता यह संघ परिवार के लोग भी कई बार दुहरा चुके हैं। तब ऐसी दशा में किसी भी धर्म के आरोपी कि खिलाफ हो रही जाँच और सही न्याय के काम में मदद दी जानी चाहिए। अगर कहीं कमियों हैं तो उनको सामने लाया जाना चाहिए। किंतु न्यायालय में अनास्था, स्वतंत्र जाँच और अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाने की माँग अलोकतांत्रिक है।
रोचक यह भी है अभी जब भाजपा की मातृ पितृ संस्था के प्रमुख रहे सुदर्शनजी ने यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गान्धी के सम्बन्ध में असमय, बेतुकी, आधारहीन और अश्लील टिप्पणियाँ कीं तथा कुछ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने विरोध किया तो संघ परिवार का एक हिस्सा उसे सुदर्शनजी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कह कर उनका पक्ष ले रहा था। इस पक्षधरता के बाबजूद भी सुदर्शंनजी की अभिव्यक्ति की आजादी पर आरएसएस ने ही रोक लगा दी और उन्हें घेरे में लेकर पत्रकारों व बुद्धिजीवियों से बात करने से रोक दिया। उनका बयान या टेप किया हुआ सन्देश तक बाहर नहीं आने दिया गया।
फसिस्ट संगठन अपने विरोधियों की स्वतंत्रता नहीं अपितु अपनों की स्वतंत्रता को भी बाधित करते हैं। जहाँ जहाँ मानव अधिकारों का हनन होता महसूस किया जा रहा हो वहाँ वहाँ मानव अधिकारों की माँग को उठाने की स्वतंत्रता होना चाहिए और उसके सही या गलत होने का फैसला नियमानुसार न्याय, शासन, प्रशासन और जनता को करने देना चाहिए। नाथूराम गोडसे और बेअंत सिंह को भी उन्हें अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर देने के बाद ही फाँसी दी गयी थी।

वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, नवंबर 17, 2010

araajakataa desha mem aur dalon men अराजकता देश में और दलों में

अपने संगठनों में अराजकता वाले दल देश में अराजकता कैसे रोकेंगे

वीरेन्द्र जैन
बिहार के गत विधानसभा चुनावों में राज्य के अधिकांश प्रमुख दलों को टिकिट वितरण में जिस संकट का सामना करना पड़ा वह लोकतंत्र के लिए चिंतनीय है। टिकिट वितरण के लिए चयनित नेताओं को छुप कर रहना पड़ा, कई जगह उन्हें मारपीट और झूमा झटकी का सामना करना पड़ा। पटना में तो एक टिकिट वंचित टिकिटार्थी ने कांग्रेस कार्यालय में आग ही लगा दी थी। असल में हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के जो दावे करते हैं उनकी दलों के स्तर पर सच्चे अर्थों में स्थापना अभी बाकी है। सम्बन्धित दलों में टिकिट वितरण के कोई स्पष्ट और घोषित आधार नहीं हैं। इनके लिए चुनाव अपनी राजनीतिक विचारधारा पर जनमत प्राप्त करना और अपनी घोषणाओं के लिए जनता का समर्थन पाने के लिए नहीं अपितु वे सम्पत्ति की खुली लूट और उस कारण जनता के गुस्से से सुरक्षा पाने के लिए सत्ता की ताकत हथियाने का अवसर होते हैं। इसलिए एन केन प्रकारेण चुनाव जीतना इनका लक्ष्य बन गया है। इसके लिए पूर्व से स्थापित जाति व्यवस्था को और मजबूत कर दिया गया है ताकि थोक में वोटों के ठेकेदारों से सौदा किये जा सकें। साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद,सामंतवाद और गैर राजनीतिक कारणों से अर्जित लोकप्रियता को वोट झटकने के लिए स्तेमाल किया जाता है। सत्ता का विदोहन करने, अपने उद्योग व्यापार के लिए मनमानी सुविधाएं जुटाने व सरकारी कर चुराने पर भी सुरक्षित बने रहने के लिए बड़े बड़े पूंजीपति अब चुनावों में ‘इनवेस्ट’ करने लगे हैं जिससे चुनाव, चुनाव से अधिक धन बल का खेल होकर रह गये हैं। 544 सदस्यों की संसद में 300 से अधिक करोड़ पतियों का पहुँचना इसका प्रमाण है। हमारे यहाँ काम करने वाले अधिकांश राजनीतिक दल एकदम स्वच्छन्द हैं और उनके संगठन के कोई सुचिंतित नियम नहीं हैं। जहाँ पर ये नियम कागजों पर बने हुये भी हैं वहाँ भी इनका गम्भीरता से पालन नहीं होता। चुनाव आयोग का राजनीतिक दलों को गिरोहों में बदलने से रोकने के लिए उन पर कोई नियंत्रण नहीं है। जब राजनीतिक दल राजनीतिक दलों की तरह काम ही नहीं कर रहे होंगे तो चुनाव ठीक से कराने का महत्व ही कितना रह जाता है। दलों के कार्य करने की कोई न्यूनतम साझा आदर्श आचार संहिता ही नहीं है। गत वर्षों में आधे अधूरे मन से कुछ प्रयास किये गये, जैसे दलों में संगठन के सावधिक चुनावों की अनिवार्यता, चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को अपनी सम्पत्ति और दर्ज आपराधिक प्रकरणों की घोषणा करना, चुनाव खर्च पर कड़ा नियंत्रण आदि सम्मलित हैं। किंतु इन पर भी गम्भीरता से पालन नहीं हो रहा है। कितना आश्चर्यपूर्ण है कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले राजनीतिक दल अपनी आय और उसके स्त्रोतों को गोपनीय बनाये रखना चाहते हैं। उनके कार्यालय में आयकर अधिकारी सर्वेक्षण या जाँच करने नहीं जा सकते, जबकि सर्वाधिक धन इन्हें टैक्सचोरों से ही मिलता है।
राजनीतिक दल अपने दैनिन्दन कार्यों से लेकर चुनावों तक के लिए पूंजीपतियों से चन्दा लेते हैं। ये पूंजीपति उन्हें उनके घोषित राजनीतिक कार्यक्रमों के प्रभाव में चन्दा नहीं देते अपितु सत्ता पाने की दशा में विशेष पक्षधरता पाने के लिए चन्दा देते हैं। कितना बिडम्बनापूर्ण है कि कोई पूंजीपति सभी प्रमुख पार्टियों को उदारता से चन्दा देता है ताकि सरकार किसी की भी बने पर पक्षधरता उसकी ही करे। जिन राजनीतिक दलों को पूंजीपतियों के रहमोकरम पर जिन्दा रहना पड़ता है वे उसके द्वारा की गयी अनियमताओं का विरोध कैसे कर सकते हैं। दूसरी बात यह है कि राजनीतिक दलों में काम करने वालों के लिए दलों की ओर से वेतन और पेंशन की कोई सुनिश्चित व्यवस्था नहीं है जिससे इनके पूर्णकालिक कार्यकर्ता राजनीति को जल्दी से जल्दी आर्थिक सुरक्षा पाने की होड़ का साधन बनाने में जुट जाते हैं। इसमें सफल हो जाने वाले के लालच का कोई अंत नहीं होता, और सफल न होने वाले सारे उपलब्ध साधनों और अवसरों को अपनी सफलता के प्रयास में लगा कर पूरे तंत्र को भ्रष्ट करने में जुट जाते हैं। ऐसे राजनीतिक दलों में काम करने वालों से आदर्श लोकतंत्र की स्थापना की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इसमें सुधार के लिए जरूरी है कि-
• राजनीतिक दलों की वित्तीय व्यवस्था पारदर्शी हो राजनीतिक दलों के लिए कोई साझा आचार संहिता हो, और उस पर अमल सुनिश्चित कराने के लिए कानून विद्यमान हों, और जिनका पालन भी हो।
• मतदाता सूची की तरह राजनीतिक दलों के सक्रिय सदस्यों की सूची सार्वजनिक रूप से घोषित हो और निर्वाचन आयोग से पुष्ट हो, तथा किसी दल की दो साल की न्यूनतम वरिष्ठता वाले सदस्यों को ही उनके टिकिट पर चुनाव लड़ने का अधिकार हो।
• केवल अपने सदस्यों से ही आय के अनुपात में लेवी लेकर दल को संचालित करने की आदत डालें, जैसा कि कुछ बामपंथी दलों में होता है जहाँ आय बढते ही लेवी की दर भी बढ जाती है। जो पचास पैसे प्रतिशत से लेकर आठ प्रतिशत तक जाती है।
• एक संस्थान केवल एक ही दल को चन्दा दे सके और अधिक अच्छा हो कि उसके कर्ताधर्ता किसी राजनीतिक दल के सदस्य बनें व चन्दा देने की जगह आय के अनुपात में लेवी का भुगतान करें।
• प्रत्येक पूर्णकालिक कार्यकर्ता को दलों की ओर से न्यूनतम वेतन मिलना सुनिश्चित हो तथा दलों और सरकार की ओर से सेवा निवृत्ति के बाद उन्हें आवश्यकता होने पर पेंशन मिलना सुनिश्चित हो।
जब तक दलों की दशा नहीं सुधरेगी तब तक लोकतंत्र की दशा नहीं सुधर सकती, इसलिए दलों की सांगठनिक व्यवस्था में सुधार जरूरी हो गया है ताकि मतदाता को यह माँग न करना पड़े कि उसे किसी को भी वोट न देने के लिए मतदान पत्र में खाली कालम भी रखा जाये
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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शनिवार, नवंबर 13, 2010

संत संघ और सन्देश्

संत संघ और संदेश
वीरेन्द्र जैन
मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर से समाचार है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विशाल पथ संचलन और सम्मिलन की अगुआई एक जैन मुनि ने की और उसके बाद एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए संघ की प्रशंसा की और उनके गणवेश से चमड़े के बैल्ट और जूतों को बदलने का आवाहन किया। बाद में संघ के पदाधिकारियों ने उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया और अपने गणवेश में से चमड़े का सामान हटाकर रेक्जीन के बैल्ट और कैनवास के जूतों को अपने गणवेश में सम्मलित कर लिया है। जैन संतों का यह आवाहन और संघ का सौदा धार्मिक जगत और आम जनता के बीच भ्रम पैदा करते हैं। भौतिक वस्तुओं को त्याग कर कठोर जीवन जीने वाले जैन संतों के प्रति समाज में अतिरिक्त सम्मान रहा है और उनकी बातों को निजी स्वार्थों से मुक्त माने जाने के कारण बहुत ध्यान से सुना जाता रहा है। पिछले कुछ वर्षों में तो अनेक सुशिक्षित और प्रवचन कुशल युवकों ने भी जैन दीक्षा ली है व वे अपनी बात तर्कों और आधुनिक प्रतीकों के माध्यम से कह कर बड़े गैर जैन समुदाय को भी प्रभावित करने लगे हैं। पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उनके द्वारा प्रायोजित राजनीतिक दल को जो लोग भी जानते हैं उनके मन में उपरोक्त घटना से श्रद्धा का ह्रास ही हुआ होगा।
अपनी बात को बहुत पैने तरीके से कहने वाले ओशो रजनीश ने एक बार कहा था कि महावीर के किसी भी वचन में यह नहीं कहा गया है कि मांसाहार मत करो, क्योंकि उन्होंने उससे भी बड़ा अहिंसा का सन्देश दिया है। जब कोई व्यक्ति अहिंसा धर्म का पालन करेगा तो यह सम्भव ही नहीं है कि आहार में उसकी प्राथमिकता मांसाहार हो। पर जहाँ अहिंसा धर्म का पालन करने से व्यक्ति मांसाहार के प्रति विरक्त तो हो सकता है किंतु मांसाहार न करने से उसका अहिंसा धर्म के प्रति रुझान का होना अनिवार्य नहीं है। एडोल्फ हिटलर न केवल शाकाहारी था अपितु धूम्रपान और मदिरापान भी नहीं करता था। उसी हिटलर ने निर्दयता पूर्वक लाखों लोगों को गैस चेम्बर में निर्दयतापूर्वक मार डाला था। क्या हिटलर के मात्र शाकाहारी होने के कारण उसको श्रद्धा की दृष्टि से देखा जा सकता है?
ऐसा लगता है कि उपरोक्त घटना से जुड़े जैन संत बहुत भोले हैं और अनजाने में ही वे गलत अपेक्षा के शिकार हो गये हैं। उनके इस कदम से संघ जैसे संगठन की करतूतों को एक मुखौटा लगाने का मौका मिल गया है जो चिंतनीय है। चमड़े से बनी अधिकांश सामग्री स्वाभाविक रूप से मृत या मांसाहार के लिए मारे गये जानवरों के चमड़े से बनती है, न कि सामग्री बनाने के लिए जानवरों को मारा जाता है। मृत जानवरों के अवशेषों का यह स्तेमाल पिछले हजारों वर्षों से पूरी दुनिया में हो रहा है। अहिंसा धर्म की किसी भी भावना से ऐसी सामग्री का स्तेमाल गलत नहीं है। चमड़े की वस्तुओं के प्रयोग न करने का आवाहन भी पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध से अधिक पुराना नहीं है। प्लास्टिक और केनवास के जूते आने से पहले सभी के द्वारा चमड़े के जूतों का ही प्रयोग होता रहा था। रोचक यह है कि जो लोग हर बात में पीछे की ओर देखते हैं वे ही इस तरह के चुनिन्दा मामलों में आधुनिक वस्तुओं के समर्थक होने में देर नहीं लगाते। भारतीय दर्शन में जो देह और आत्मा की कल्पना है उसके अनुसार भी देह मिट्टी है, भौतिक है, नश्वर है, किंतु आत्मा अमर है। इसी विश्वास के अनुसार मृत देह तो दूसरे किसी भी प्राकृतिक पदार्थ की तरह हो जाती है। तब फिर इसके नष्ट हो जाने वाले किसी भी अवयव का प्रयोग हिंसा कैसे हो सकता है। यदि ऐसा ही मानने लगें तो मोतियों की माला, सीप के आभूषण और हाथी दांत से बनी सजावटी वस्तुएं ही नहीं जैन मुनियों के द्वारा प्रयुक्त की जानी वाली मोर पखों की पिछी भी उसी श्रेणी में आ जायेगी। मिष्ठान्नों पर चढाये जाने वाले सोने और चाँदी के बरकों को भी जानवरों की आंतों में रख कर ही कूटा जाता है। शक्कर को साफ करने के लिए भी जानवरों की हड्डियों के चूरे का प्रयोग किया जाता है। बाजार में बिकने वाली आइसक्रीम में भी हड्डियों के चूरे का प्रयोग होता है, रसायन रंगी -सीटीसी- चाय को तो शाकाहारी समाज एक बार छोड़ने के बाद फिर से अपना चुका है,... और यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है।
यदि इसी परिभाषा से अहिंसा को परिभाषित किया जायेगा तो न तो नेत्रदान जैसा महादान सम्भव हो पायेगा और न ही जीवन बचाने के लिए दूसरे अंगों का प्रत्यारोपण ही सम्भव हो पायेगा। उल्लेखनीय है कि अनेक जैन संस्थाएं बड़े बड़े नेत्र चिकित्सालय संचालित करती हैं और नेत्रदान को प्रोत्साहित करती हैं। बड़ी बीमारियों में दूसरों से रक्त लिया जाता है और रक्तदान करने वाले किसी भी अनजान व्यक्ति के लिए रक्तदान करते रहते हैं। क्या इस मानव सेवा को हिंसा अहिंसा की गलत परिभाषा के आधार पर रोक दिया जाना चाहिए।
बिडम्बनापूर्ण यह है कि कथित जैन संतों ने जिस संगठन को चमड़े के जूते और बेल्ट न पहिनने का सन्देश दिया था और जिसने अपना चेहरा उजला बनाने के लिए इसे जोर शोर से स्वीकार कर लिया, उसके बारे में क्या वे बिल्कुल भी नहीं जानते रहे थे या जानबूझकर अनजान बने रहे। यह ऐसा ही है जिसे कि किसी कसाई से छान कर पानी पीने के लिए वे कहें और उसके स्वीकार कर लेने पर ताली बजा कर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे समृद्धि का आशीर्वाद दें। संघ परिवार का आदर्श ही हिटलर और मुसोलिनी रहे हैं जो अपनी घृणा, हिंसा और प्रतिहिंसा के लिए कुख्यात हैं। प्रतिहिंसा में भी केवल दोषियों से बदला लेने या हमलावरों से संघर्ष तक ही मामला सीमित नहीं रहता अपितु दूसरे सम्प्रदाय के किसी भी व्यक्ति को मारकर बदला लिया जाता है, भले ही उसका घटना से दूर का भी सम्बन्ध न रहा हो। पिछले वर्षों में गुजरात के गोधरा में कुछ अज्ञात लोगों द्वारा साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में लगायी गयी आग और उसमें दो कार सेवकों समेत 59 नागरिकों के मारे जाने के बाद जिस क्रूरता के साथ निर्धन और निर्दोष 3000 मुसलमानों की हत्याएं की गयी थीं वह हिटलर के कृत्य का दुहराव था। इस कृत्य के कारण अमेरिका और इंगलेंड जैसे प्रमुख देशों ने गुजरात के मुख्यमंत्री को अपने देश में प्रवेश के लिए वीजा देने से मना कर दिया था। क्या जैन संतों को गुजरात के बनावटी एनकाउंटरों और इन्दौर के समीप उज्जैन में प्रोफेसर सब्बरवाल की हत्या का भी पता नहीं है। यदि उक्त परिवार के लोग इन घटनाओं से जुड़े नहीं थे तो उन्होंने इन घटनाओं की निन्दा क्यों नहीं की और असली दोषी को पकड़ने के लिए बयान तक देने की जरूरत क्यों नहीं समझी? क्या मानव हिंसा से बड़ी भी कोई दूसरी हिंसा हो सकती है? कुष्ट रोगियों की सेवा करने वाले आस्ट्रेलियाई पादरी फादर स्टेंस को धर्म परिवर्तन की आशंका के नाम पर दो मासूम बच्चों समेत जिन्दा जलाने वालों को जूता और बेल्ट बदलने के आधार पर क्या किसी जैन संत का चरित्र प्रमाणपत्र दिया जा सकता है? ये भोले भाले जैन संत किसी संस्था के खून के धब्बे धोने की जगह उन्हें जैन दर्शन का अनेकांत क्यों नहीं पढाते जो ‘ही’ की कट्टरता को ‘भी’ की उदारता सिखाता है। संतों का काम स्वयं अध्ययन करते रहना और दूसरों को सिखाते रहना है। समाज से सम्बन्धित उपदेश देने के लिए समाज की सच्चाइयों से परिचित होते रहना भी जरूरी होता है। सामाजिक संस्थाओं को प्रमाणपत्र देने से पहले उनके बारे में विस्तार से जान लेना भी बहुत जरूरी होता है, अन्यथा धर्म प्रचार के लिए दीक्षा लिए हुए संत अपने पथ से विमुख हो जायेंगे। संघ परिवार को उनकी कदमताल से आगे भी देखना परखना जरूरी है।


वीरेन्द्र जैन
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