रविवार, मार्च 22, 2020

म.प्र. में घायल लोकतंत्र


म.प्र. में घायल लोकतंत्र  
वीरेन्द्र जैन

म.प्र में सरकार बदल गयी। यहाँ की राजनीति दो ध्रुवीय कही जाती है, किंतु यह केवल नाम की दो ध्रुवीय है, यहाँ समय समय पर एक ही तरह से दो पार्टियां शासन करती रहती हैं। यह इकलौता ध्रुव काँग्रेस संस्कृति का है।
इन्दिरा गाँधी के बाद काँग्रेस किसी राजनीतिक दल का नाम नहीं रहा। वह ऐसे लोगों के समूह का नाम है जो अपने अहंकार के लिए या धन कमाने के लिए अथवा दोनों के लिए सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं। चूंकि देश में एक लोकतांत्रिक नामक व्यवस्था है इसलिए इन्हें अपना लक्ष्य पाने के लिए चुनावों में उतरना पड़ता है। ये लोग किसी विचारधारा, कार्यक्रम या घोषणा पत्र के आधार पर चुनाव नहीं लड़ते हैं क्योंकि ऐसा करने पर वे चुनाव नहीं जीत सकते व उनको कोई लाभ नहीं होगा। वैसे दिखावे के लिए ऐसे कागज तैयार करके रख लेते हैं, पर वोट हथियाने के लिए उन्हें क्षेत्रवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, पैसा, शराब, और बाहुबलियों के दबावों का ही सहारा लेना पड़ता है। यही कांग्रेसी संस्कृति हो गयी है, जिसे सारे प्रत्याशी अपनाते हैं, भले ही वे भाजपा के नाम से चुनाव लड़ते हों। यही कारण है कि जनता के द्वारा चुना हुआ शासन जनता के लिए और जनता का नहीं होता। इसी सुविधा के सहारे यहाँ का कोई भी जनप्रतिनिधि कभी भी भाजपा से काँग्रेस और काँग्रेस से भाजपा में बिना किसी हिचक के आ जा सकता है। कथित विकास या सशक्तिकरण योजनाएं इसलिए घोषित की जाती हैं ताकि उनके सहारे खजाने से धन निकाला जा सके। 1985 में दलबदल कानून आ जाने के बाद यह काम चुनाव के पूर्व कर लिया जाता है, पर बीच में भी तरह तरह के रास्ते निकाल लिये जाते हैं।
प्रदेश में कुछ आरक्षित सीटों को छोड़ कर प्रतिनिधित्व हर तरह से सम्पन्न लोगों के हाथों में ही रहता है इसलिए राजनीति उनके लिए शतरंज के खेल की तरह मनोरंजन का विषय रहता है। कभी कभी ये नेता अपने समर्पित लोगों का गुट बना लेते हैं। ताजा घटनाक्रम में भी काँग्रेस तीन या उससे अधिक गुटों में काम कर रही थी जिसमें से एक पूर्व बड़े राज परिवार के नेतृत्व वाले गुट ने उन्हें समुचित राजसी सम्मान न मिलने के नाम पर समर्थन वापिस लिया था और कभी भाजपा के खिलाफ जोर से गरज के अपना स्थान बनाने वाले पिछली सारी बातें भुला कर खुद भाजपा में चले गये। उन्होंने अपने गुट के कोटे से जिन लोगों को टिकिट दिलवाये थे उसके बदले में उनसे बगावत करायी थी। हाल ही मैं सम्पन्न शतरंज के खेल में एक नेतृत्व बाजी हार गया तो उसने थाली दूसरे के सामने सरका दी।
रोचक है कि कथित लोकतंत्र का यह खेल इक्कीसवी सदी में खेला जा रहा है, जब साक्षरों की संख्या में तीव्र वृद्धि हो चुकी है, देश डिजिटल हो चुका है, 24 घ्ंटे सातों दिन के सैकड़ों न्यूज चैनल हैं, जगह जगह सीसी टीवी कैमरे लगे हैं, तब काँग्रेस के एक गुट के मंत्री और विधायक राजधानी से चोरी चोरी गायब हो जाते हैं जिनके बारे में बताया गया कि उनका अपहरण कर के दूसरे राज्य में ले जाया गया है, जहाँ विपक्षी दल की पार्टी का शासन है। ये विधायक किसी रिसार्ट में थे और उनके पास उनके मोबाइल फोन नहीं थे। बताया गया था कि वे अपने दल के नेता और मुख्यमंत्री से बात नहीं करना चाहते। उनके एक ही हस्तलिपि और भाषा में लिखे एक जैसे स्तीफे विधानसभा अध्यक्ष के पास पहुँचते हैं। नियमानुसार विधानसभा अध्यक्ष स्तीफों को उनके ही द्वारा लिखे होने की पुष्टि के लिए उन्हें सामने उपस्थित होने के सन्देश भेजता है, तो भी वे सामने नहीं आते। वे जिस राज्य में थे, उस राज्य की सरकार और पुलिस भी यह कह कर इधर की सरकार की मदद नहीं करती। विधायकों की ओर से यह भी कहा बताया गया कि उन्हें भोपाल में खतरा है। वे जिस प्रदेश के निवासी हैं, विधायक हैं, मंत्री रहे थे उन्हें पार्टी के एक गुट व विपक्ष की सहानिभूति के बाद भी समूह में भोपाल आने में डर लगना बताया गया। बाद में इन विधायकों को तब ही मुक्ति मिली जब वे दिल्ली जाकर भाजपा के सदस्य बन गये।
इधर राज्यपाल सूचना माध्यमों के आधार पर सरकार से विश्वासमत प्राप्त करने को कहते हैं जबकि सरकार कहती थी कि पहले हमारे विधायक आकर विधिवत स्तीफा तो दे दें। विपक्षी दल दबाव बनाता है तो मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है और कोर्ट, बाहर रह रहे विधायकों को उनकी मर्जी पर छोड़ कर उपलब्ध विधायकों के बीच विश्वासमत प्राप्त करने का आदेश देता है। विधानसभा अध्यक्ष मजबूरन उन अनुपस्थित विधायकों का स्तीफा मंजूर कर लेता है जिससे बहुमत घट जाने के कारण मुख्यमंत्री स्तीफा दे देते हैं। इससे पहले सत्तारूढ काँग्रेस भी बचे विधायकों के अपहरण के डर से अपने उन्हें एकत्रित कर जयपुर के फाइव स्टार होटल में भिजवा देती है, बाद में भाजपा भी अपने विधायकों को सामूहिक रूप से पड़ोसी जिले के फाइव स्टार होटल में ले जाती है, जहाँ वे सामूहिक मनोरंजन और क्रिकेट खेलते देखे जाते हैं। इन में से किसी को भी कोरोना वायरस की चिंता नहीं सताती जबकि विधानसभा अध्यक्ष ने विधानसभा को इसी कारण से विलम्बित किया था।
विधायकों के त्यागपत्र मंजूर हो जाने के कारण अब उपचुनाव होगा। किंतु क्या परिणाम होगा अगर बंगलौर से लौट कर आये विधायकों में से कुछ कह देते हैं कि उन्हें बन्धक बना कर रखा गया था  स्तीफा व भाजपा की सदस्यता पर हस्ताक्षर दबाव में करना पड़े! पिछले दिनों ही एक भाजपा विधायक शरद कोल ने 6 मार्च को स्तीफा देने के बाद 16 मार्च को अध्यक्ष से कहा था कि उन पर दबाव डाल कर स्तीफा लिखवाया गया था। अध्यक्ष ने उनका स्तीफा वापिस कर दिया, किसी पर भी दबाव बनाने का कोई प्रकरण दर्ज नहीं हुआ। क्या होगा अगर उपचुनाव में भाजपा इन विधायकों को टिकिट नहीं देती है। क्या होगा अगर इन्हें टिकिट मिलने पर भाजपा के मूल सदस्यों ने इन्हें टिकिट देने का विरोध किया क्योंकि ये कुछ समय पहले तक उनके विरोधी थे व विचारहीन राजनीति में दुश्मनी निजी होती है जो ऊपर के राजनीतिक समझौतों से नहीं बदलती। क्या होगा अगर ऐसी स्थितियों में ये त्यागपत्र देने वाले विधायक कांग्रेसी प्रत्याशियों से चुनाव हार गये और कांग्रेस का फिर से बहुमत बन गया! 
यह पूरे तंत्र के बिखर जाने का परिणाम है। सवाल है कि देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी नेतृत्वहीन क्यों हो गयी, क्यों उसके पास संगठन और अनुशासन नहीं बचा? यह पार्टी क्यों अभी तक पूर्व राजाओं, महाराजाओं, की कृपा के सहारे चुनावों में उतर पाती है, जिनका जनता के बीच प्रभाव बचा हुआ है और इन से उठ गया है? क्यों इस पार्टी में इतनी गुटबाजी है और इसी के आधार पर टिकिटों का कोटा तय होता है। कैसे एक कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी से निकल कर उसका सदस्य कभी भी घोर साम्प्रदायिक पार्टी में सहजता से चला जाता है और उस पार्टी को भी कोई फर्क नहीं पड़ता।
क्या यह विश्वसनीय है कि दल बदलने या त्यागपत्र देने वाले विधायक विधायक बिना किसी लाभ लोभ के विधायकी की सुविधाओं और सम्मान को त्याग कर स्तीफा देता हो। और जैसा कि कहा जाता है कि यह डील करोड़ों रुपयों में होती है, तो ये रुपये कहाँ से आते हैं व दो नम्बर के इन रुपयों के व्यवस्था करने वाली पार्टी द्वारा काला धन निकालने के दावे कितने झूठे हैं। चार्टर्ड प्लेन और फाइव स्टार होटलों का करोड़ों का बिल कैसे चुकाया जाता है? आज़ादी और लोकतंत्र के सत्तर साल बाद भी कैसी मूल्यहीन पीढी के पास सत्ता आ गयी है जो निजी लाभ लोभ के लिए सारे मूल्यों व सम्बन्धों को भूल सकती है। राज्यपाल और चुनाव आयोग जैसे पदों के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले सन्देह के घेरे में क्यों आने लगे हैं?
यह केवल एक राज्य सरकार के मुखिया बदलने के सवाल नहीं हैं, ये पूरे तंत्र के बिखर जाने के सवाल हैं। इस बिखराव को सम्हालने की कोई तैयारी नहीं दिखती है, हम अराजकता की ओर बढ रहे हैं? क्या देश की राजधानी जैसे तीन दिन तक हस्तक्षेपमुक्त हिंसा का नंगा नाच पूरे देश तक फैलेगा?
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
                 

मंगलवार, मार्च 03, 2020

हिन्दू राष्ट्र की ओर रणनीतिकारों के कदम


हिन्दू राष्ट्र की ओर रणनीतिकारों के कदम   
वीरेन्द्र जैन
अच्छा कमांडर युद्ध में लड़ते लड़ते दुश्मन की फौज को ऐसी जगह लाने की कोशिश करता है जहाँ सामरिक स्थिति उसके पक्ष में और दुश्मन के प्रतिकूल होती है। आज भाजपा ने देश में अपने विपक्ष को ऐसी ही स्थिति में ला कर घेर लिया है। लोकतंत्र के सारे कच्चे व अधबने स्तम्भ धाराशायी कर दिये गये हैं व लड़ाई को सड़कों पर ला दिया गया है। स्थिति यह है कि सड़कों पर लड़ाई की तैयारी केवल संघ परिवार के पास है। जब लोकतंत्र नहीं होता तब संख्या बल नहीं सैनिक बल ही काम करता है। पिछली अर्ध शताब्दी में सत्तारूढ रहे निजी स्वार्थ में अन्धे लोगों ने सड़क की लड़ाई की कल्पना तक नहीं की होगी।
संघ परिवार ना तो अंग्रेज शासकों को भारत से हटाने का पक्षधर था और ना ही वर्तमान संविधान को लागू करने के पक्ष में था। संविधान बनते समय ही उनका कहना था कि जब हमारे यहाँ मनु स्मृति के रूप में संविधान मौजूद है तब नया संविधान बनाने की क्या जरूरत। ‘ हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान ‘ का नारा देकर अलग पाकिस्तान की मांग का बीजारोपण करने वाला यह विचार और इसका संगठन विभाजन के दौर में हुये साम्प्रदायिक दंगों में एक घटक की भूमिका निभाता रहा, और ऐसी मानसिकता तैयार करता रहा जिसमें देश की विविधता के महत्व को समझने वाले धर्म निरपेक्ष महात्मा गाँधी की हत्या हुयी। उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा तो बाद में मिला किंतु स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाने वाली काँग्रेस के पिता की भूमिका वे निभा रहे थे। उन्हें परिवार के उस बुजुर्ग की तरह देखा जाता था जिसका निर्देश अंतिम माना जाता है। ऐसे व्यक्ति की हत्या के बाद भी काँग्रेस ने उस  विचारधारा का मुकाबला करने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया, जिसने उसके ‘पिता’ की हत्या की पृष्ठभूमि तैयार की थी। इसे एक आपराधिक घटना मान कर और गोली चलाने वाले व्यक्ति को नियमानुसार सजा दिलाने के साथ ही उन्होंने कर्तव्य की इतिश्री मान ली।
स्वतंत्रता के बाद नेहरू सरकार में सभी तरह की विचारधारा के लोग सम्मलित किये गये थे जिनमें एक ओर अम्बेडकर थे तो दूसरी ओर श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी थे। समाजवादी सोच के लोग भी थे तो रूस की क्रांति से प्रभावित लोग भी थे। पार्टी में पूंजीपतियों के प्रभाव के कारण औद्योगिक श्रमिकों और किसानों का पक्ष लेने वाले कम्युनिस्ट उनके प्रमुख शत्रु थे जो पहले और दूसरे आम चुनाव में सबसे बड़े विपक्षी दल् के रूप में उभर कर सामने आये। राज्यों में पहली गैरकांग्रेसी सरकार भी 1957 में केरल में कम्युनिस्टों की ही बनी। इनका मुकाबला करने के लिए भी काँग्रेस सरकार परोक्ष में संघ को पालती पोषती रही। 1962 में चीन के साथ चल रहे सीमा विवाद ने जब सैनिक हस्तक्षेप का रूप ले लिया तब देश के अन्दर उसके सभी विरोधियों को कम्युनिस्टों की आलोचना का बहाना मिल गया। परिणाम यह हुआ कि वे अलोकप्रिय हुये और तत्कालीन सरकार द्वारा आर एस एस की एक टुकड़ी को 26 जनवरी की परेड तक में बुला लिया गया था। उल्लेखनीय है कि संघ को गाँधीजी की हत्या के बाद प्रतिबन्धित किया गया था। इसी के दो साल बाद देश में कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ और वे और कमजोर हो गये। जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद पाकिस्तान के साथ युद्ध और उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद इन्दिरा गाँधी व मोरारजी देसाई के बीच शक्ति परीक्षण हुआ जिसमें इन्दिरा गाँधी चुनी गयीं। 1967 में काँग्रेस के कमजोर होने से कई राज्यों में गैरकाँग्रेसवाद के आधार पर संविद सरकारें चुनी गयीं। कुछ औद्योगिक घरानों ने श्रीमती गाँधी की जगह मोरारजी देसाई गुट को सत्ता में देखना चाहा तो श्रीमती गाँधी ने कम्युनिष्टों से समझौता कर अपनी सरकार बचा ली और उम्र में वरिष्ठ नेताओं के दूसरे गुट को बाहर का रास्ता दिखा दिया जो बाद में पुरानी काँग्रेस के नाम से जाना गया। कम्युनिष्टों से सहयोग लेने के लिए श्रीमती गाँधी को उनकी कुछ शर्तें माननी पड़ीं जिनमें बैंकों और बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण व पूर्व राज परिवारों को मिलने वाले प्रिवी पर्स व विशेष अधिकारों की समाप्ति भी थी।
विभाजित पुरानी काँग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने तत्कालीन भारतीय जनसंघ, पूर्व राजाओं वाली स्वतंत्र पार्टी, और संसोपा आदि से मिल कर मोर्चा बनाया। इस मोर्चे में सबसे संगठित घटक जनसंघ ही था जो आर एस एस का आनुषांगिक संगठन था जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में सामने आया। दूसरे घटक दल या तो सामंती प्रभाव केन्द्रित थे जैसे राजा महाराजा, इतिहास केन्द्रित जैसे पुरानी काँग्रेस के वरिष्ठ नेता, या कमजोर संगठन वाले समाजवादी थे जैसे संसोपा आदि। जनसंघ एक हिन्दू राष्ट्र का सपना देखने वाली विचारधारा का संगठन वाला दल था जो राष्ट्रवाद का मुखौटा लगा कर प्रकट होता था व जिसे विभाजन के दौरान हुए साम्प्रदायिक दंगों में हिन्दू पक्षधरता की भूमिका निभाने के कारण बहुसंख्यकों की सहानिभूति मिली हुयी थी। यही कारण रहा कि इसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही।  
1971 में कम्युनिष्टों के साथ से श्रीमती गाँधी ने अपनी छवि गरीब हितैषी और पूंजीपति, राजा महाराजा विरोधी बना कर चुनाव जीत समाजवाद के नाम पर सबका सफाया कर दिया था। उन्होंने 1971-72 में पाकिस्तान के विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा कर स्वतंत्र बांग्लादेश बनवा दिया जिससे वे देश की एकक्षत्र लोकप्रिय नेता बन गयीं, छिटके कांग्रेसी काँग्रेस में वापिस आने लगे थे। बाद में उन्हें अदालती आदेश से पदच्युत करने के प्रयास हुये, जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन, इमरजैंसी और जनता पार्टी का गठन, काँग्रेस की पराजय व पुनः वापिसी के काम हुये। मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने तो 1971 में ही उनका साथ छोड़ दिया था व 1978 तक भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी की समझ में भी आ गया कि कांग्रेस का वर्ग चरित्र क्या है। श्रीमती गाँधी ने भी समाजवाद का चोला उतार फेंका व चुनिन्दा पूंजीपतियों और पूर्व राज परिवारों के सदस्यों को काँग्रेस में उचित स्थान दिया।
1971 से ही श्रीमती गाँधी ने समझ लिया था कि दलित और संघ से आतंकित मुस्लिम समुदाय के सुनिश्चित वोटों के साथ जब लोकप्रिय उम्मीदवारों को जोड़ लिया जाये तो चुनाव जीते जा सकते हैं और सत्ता बनाये रखी जा सकती है। सत्तारूढ दल को कार्पोरेट घराने तो भरपूर आर्थिक मदद करते ही हैं। इसी कारण श्रीमती गाँधी ने काँग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र को समेट दिया व दिल्ली से मनोनीत अस्थायी समितियों के सहारे पार्टी चलायी। वे स्वयं पार्टी अध्यक्ष भी बनी रहीं। काँग्रेस पार्टी वन मैन शो बन गयी थी, इन्दिरा इज इण्डिया कहा जाने लगा था इसलिए उनकी हत्या से इण्डिया की हत्या का प्रयास हुआ। उनके बाद अनाथ काँग्रेसियों द्वारा राजीव गाँधी को लाया गया, जिन्हें कभी राजनीति में रुचि नहीं थी। थोड़े दिनों बाद उनके खिलाफ विद्रोह हो गया और उनकी भी हत्या हो गयी। उसके बाद वर्षों तक देश संयुक्त मोर्चों और विभिन्न बेमेल गठबन्धनों में खिंचता रहा।
1977 में जब जनता पार्टी में, जो प्रमुख गैरकाँग्रेसी दलों के विलय से बनी थी, तब दूरदृष्टि से भारतीय जनसंघ ने भी उसमें अपना दिखावटी विलय कर दिया था। बाद में इसी नकली विलय की पहचान होने व संघ और पार्टी की दोहरी सदस्यता के कारण ही जनता पार्टी का विभाजन हुआ था। जनसंघ के लोग जैसे गये थे वैसे के वैसे बाहर निकल कर आ गये और उन्होंने भारतीय जनसंघ का ‘भारतीय’ लेकर उसे जनता पार्टी में जोड़ ‘भारतीय जनता पार्टी’ का गठन कर लिया। अब वे ज्यादा अनुभवी, समर्थ, और व्यापक थे। भले ही श्रीमती गाँधी की हत्या से उत्पन्न प्रभाव के कारण उन्हें 1984 में कुल दो सीटें मिली हों किंतु वोट भरपूर और दूर दूर तक मिले थे। इसी स्थिति में उन्होंने अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर विवाद को अपना राजनीतिक आन्दोलन बनाया और रथ यात्रा से लेकर बाबरी मस्जिद तोड़ने तक से उत्पन्न उत्तेजना को वोटों में बदल लिया। बाबर के बहाने सम्पूर्ण मुस्लिम समाज से नफरत फैलाने से जो ध्रुवीकरण हुआ, उससे उन्हें चुनावी लाभ मिला। अनाथ काँग्रेस सिमटती गयी और भाजपा के समर्थन में बढोत्तरी होती गयी।
वे सत्ता के महत्व को पहचान गये थे कि हिन्दू राष्ट्र का उनका लक्ष्य इसी के सहारे मिलेगा इसलिए उन्होंने सारी नैतिकताओं को ताक पर रखते हुए सत्ता के लिए हर सम्भव समझौते किये। विधायकों की खरीद, बेमेल गठबन्धन, अवैध धन की व्यवस्था, जातिवादी समझौते, दुष्प्रचार, हिंसा, सैलीब्रिटीज से सौदा, मतदाताओं को प्रलोभन से लेकर वोटों की लूट तक किसी भी हथकण्डे से गुरेज नहीं किया। साम्प्रदायिक नफरत और तनाव तो उनकी मूलभूत पूंजी ही थी। छह वर्ष तक अटल बिहारी की सरकार से लेकर दस साल मनमोहन सिंह की सरकार तक लोकसभा इनकी ही मर्जी से चली। कभी ईवीएम के खिलाफ किताब निकालने वाले क्यों बाद में ईवीएम का बचाव करते दिखे यह रहस्य है।
2004 में अटल बिहारी सरकार की पराजय पर मोदी को हटाये जाने की मांग ले अनशन पर बैठ जाने वाली स्मृति ईरानी हों, या मोदी को विकास नहीं विनाश पुरुष बताने वाली उमा भारती हों, सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने की इच्छा रखने वाले बाल ठाकरे हों या महात्वाकांक्षी अरुण जैटली जैसे अन्य लोग, सबने अचानक ही संघ के निर्देश पर 2002 के कलंकित मोदी को 2013 में प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में स्वीकार कर लिया था और क्रमशः मोदी ने अपने विश्वासपात्र अमितशाह को भाजपा अध्यक्ष बनवा कर व गृहमंत्री की जिम्मेवारी दे कर श्रीमती गाँधी की तरह से सरकार और पार्टी पर अपना अधिकार जमा लिया था। इन्दिरा इज इण्डिया की जगह मोदी ने ले ली, पार्टी और सरकार में कोई कद्दावर नहीं बचा। कहीं से छुटपुट आवाजें उठीं भी तो पालतू बना लिये गये मीडिया ने उसे फैलने नहीं दिया। 
इस अभियान में सबसे पहले कार्पोरेट घरानों को इस विश्वास में लिया गया कि उनके दूरगामी हित केवल मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा से ही सध सकते हैं। इन घरानों से सारे प्रमुख मीडिया घरानों  को खरीदवा लिया गया जिनमें एक साथ एक जैसी सामग्री का प्रसारण कराया गया। यह काम इस तरह से हुआ कि मीडिया का नाम ही गोदी मीडिया पड़ गया। चुनाव प्रबन्धन के लिए प्रशांत किशोर जैसे चुनावी प्रबन्धकों के तकनीकी ज्ञान का उपयोग किया गया। पहली बार थ्री डी तकनीक के सहारे एक साथ सैकड़ों जगह भाषण का प्रसारण दिखाया गया। रैलियों का प्रसारण एक साथ सैकड़ों चैनलों पर हुआ जिसमें भीड़ को कई गुणित दिखाने वाले कैमरों का प्रयोग किया गया। मीडिया को बेहतरीन दरों पर भरपूर विज्ञापन दिये गये। अतिरिक्त सहायता के लिए कार्पोरेट घरानों के उत्पादों के विज्ञापन दिलाये गये बदले में उन्होंने वही लिखा जो पार्टी चाहती थी। विपक्षी नेताओं को कमजोर साबित करना और उनका मजाक बनाना भी इसी अभियान का हिस्सा रहा। सोशल मीडिया के लक्षित ग्रुप बनवाये गये और एक सूचना के अनुसार उन्हें सामग्री उपलब्ध कराने के लिए ग्यारह हजार विशेषज्ञ लोग नियुक्त किये गये।
व्यापक स्तर पर छोटे व जातिवादी दलों को मिला कर 40 से अधिक दलों से गठबन्धन किया गया व जहाँ सम्भव था दलबदल कराया गया। यहाँ तक कि मनमोहन सिंह के मंत्रिमण्डल के अनेक सदस्यों तक को फुसला लिया गया। सेना और पुलिस के अधिकारियों सहित पूर्व प्रशासनिक अधिकारी तक पार्टी में लिये गये व उन्हें टिकिट व पद दिये गये। कुछ नौकरशाहों को पुराने पापों को माफ कर देने के वादों पर झुका लिया गया। मुरली मनोहर जोशी, अडवाणी, शांता कुमार, यशवंत सिन्हा आदि पुराने नेताओं को कोने में समेट दिया गया। इसी दौरान अटल बिहारी वाजपेयी, मनोहर पारीकर, अरुण जैटली, सुषमा स्वराज, मदन लाल खुराना, अनंत कुमार अनिल माधव दवे, आदि दिवंगत हो गये। सारे फैसले लेने के लिए ऊपर आरएसएस प्रमुख और नीचे मोदीशाह ही बचे। शेष केवल समर्थन में हाथ उठाने वाले ही बचे थे क्योंकि उनका मुँह खोलना प्रतिबन्धित था।    
राजनीति पर पकड़ तो बना ली किंतु अर्थ व्यवस्था पर नियंत्रण नहीं कर सके, वह बिगड़ती गयी, जीडीपी गिरता गया, मन्दी से कारखाने बन्द होते गये, नोटबन्दी जैसे कदमॉं के बाद भी काला धन नहीं निकाल सके, बेरोजगारी से युवा परेशान होता गया, मँहगाई पर कोई नियंत्रण नहीं रहा, जरूरी चीजें दिन प्रति दिन पहुँच से दूर होने लगीं। इतना सब होते हुए भी विपक्ष के पास ना तो नेतृत्व था और ना ही संगठन। उसके अनेक नेताओं पर पिछले दिनों किये गये भ्रष्टाचार की तलवार अलग से लटक रही थी। इधर विरोध करने वालों पर दमन की पूरी तैयारी रही। गुजरात 2002 की तरह आन्दोलनकारी छात्रों और युवाओं पर पालतू बाहुबलियों से हमले करवाये जाने लगे और पीछे से पुलिस उन्हीं बाहुबलियों की सुरक्षा करती रही व पिटने वालों पर ही मुकदमे लादती रही। न्यायाधीशों पर इतना दबाव बनाया गया कि इतिहास में पहली बार उन्हें सामने आकर प्रैस काँफ्रेंस करना पड़ी। सीबीआई जैसे संस्थानों व अन्य जाँच एजेंसियों में नियुक्तियों का सच भी सामने आया। पुलिस और फौज का साम्प्रदायीकरण किया जाने लगा। प्रशासन में चयन का तरीका बदला गया और शासन की पसन्दगी के अनुसार किसी को भी कहीं से भी पदस्थ करने की नीति बना दी गयी। कुल मिला कर पुलिस, फौज, न्याय, प्रशासन, मीडिया और कथित जनप्रतिनिधि सब पर नियंत्रण कर लिया गया। इसके साथ साथ कम समझ और कम राजनैतिक चेतना वाला ऐसा अन्धभक्त समुदाय भी तैयार कर लिया गया जो सोशल मीडिया पर फैलायी गयी हर अफवाह को सच मानता है और उसके लिए बिना आगा पीछा सोचे हिंसा करने व सहने को तैयार रहता है।  
चुनावी प्रबन्धन से मोदीशाह ने दूसरी बार भी लोकसभा का चुनाव जीत लिया व दल बदल का सहारा ले राज्यसभा में भी बहुमत बना लिया। अब वे कानून बनाने में सक्षम थे और उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाये जाने का संघ का कर्ज उतारना था। हिन्दुओं का वर्चस्व स्थापित करने के साथ साथ मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाये जाने के लिए उत्तेजना बनानी थी इसलिए ऐसे कई काम किये जिसमें मुसलमानों का स्वाभिमान आहत हो। मुसलमानों में विवाह एक समझौता होता है जिसे उसकी कीमत चुका कर व कुछ नियमों का पालन कर के बाहर आया जा सकता है। यह इतना सरल है कि तीन बार तलाक कह कर भी अलग हुआ जा सकता है। इस घेरे में आने वाली स्त्रियों के लिए यह सचमुच दुखद है, पर भारत में ऐसी पीड़ित महिलाओं की संख्या आधा प्रतिशत भी नहीं होगी, पर तलवार सब के सिर पर लटकी रहती है। तीन तलाक विरोधी कानून पास करा लिया गया। मुसलमान इसे अपने धर्म में हस्तक्षेप मानते हुए किसी तरह का विचलन नहीं चाहते थे, किंतु संख्या बल के आधार पर इसे बदल दिया गया। मुस्लिमों को मानसिक आघात लगा किंतु वे चुप रहे क्योंकि पीड़िताएं खुद कुछ नहीं बोल रही थीं। उसके बाद बाबरी मस्जिद का फैसला आया जो न्याय की जगह एक समझौते की तरह था जिसमें शांति को ध्यान में रखते हुए हिन्दुओं को विवदित स्थल सौंप दिया गया और मुसलमानों को दूर इलाके में मस्जिद बनाने हेतु कई गुना जमीन दी गयी। इतने सालों के मुकदमे और विवाद के आधार पर तनाव व सैकड़ों मौतें देख चुके मुस्लिम समाज ने इसे भी अपना अपमान समझा, पर चुप रहे। कश्मीर में धारा तीन सौ सत्तर की समाप्ति में कश्मीर के आतंकवादियों समेत पूरे कश्मीरियों और शेष अन्य मुसलमानों को भी आतंकी, पाकिस्तानी और गद्दार कह कर अपमानित किया गया। उन्होंने इसे भी सहन कर लिया। बाद में नागरिकता कानून में संशोधन का जो बिल आया उसमें तो सीधे सीधे धर्म के आधार पर विभाजन कर मुसलमानों को वंचित कर दिया गया। भले ही वह पाकिस्तान, बांगला देश और अफगानिस्तान के शरणार्थियों को नागरिकता देने के मामले में था, पर सरकार की नफरती और उकसाने वाली मानसिकता का संकेत तो दे ही रहा था। इसी बीच असम में नागरिकता रजिस्टर बनाने में जो लोग बाहर हो गये उनमें गैर मुस्लिम अधिक थे। इससे पूरे देश के लोगों को समझ में आ गया कि प्रमाण न होने पर कोई भी नागरिक संदिग्ध माना जा सकता है और डिटेंशन कैम्प में भेजा जा सकता है। इससे उठे असंतोष से बचने के लिए ही नागरिकता संशोधन कानून लाया गया था। इसमें खतरा तो सबको था किंतु मुसलमानों के साथ लगातार हो रहे भेदभाव और बार बार पाकिस्तान भेज देने की धमकियो को देखते हुए उन्हें ज्यादा खतरा महसूस हुआ। उन्होंने विरोध किया तो उत्तर प्रदेश और ज़ामिया में उन्हें गोलियां मिलीं।
ज़ामिया के विरोध में निर्मम दमन को देखते हुए दृढ संकल्पित महिलाओं को आगे किया गया जिसका प्रभाव हुआ कि पूरे देश में शाहीन बाग आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। इस आन्दोलन को भले ही सभी गैर भाजपा दलों के लोगों का समर्थन था किंतु बुर्काधारी महिलाओं की अधिक संख्या के कारण वह मुस्लिम महिलाओं का आन्दोलन नजर आया। सत्तारूढ दल भी इसे हिन्दू बनाम मुसलमान ही बनाना चाहता था। वामपंथी बुद्धिजीवियों के भरपूर सहयोग के बाबजूद भी इसका स्वरूप गोदी मीडिया ने धर्मनिरपेक्षता बनाम कट्टर हिन्दू साम्प्रदायिकता नहीं बनने दिया। दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान इसे बहुत बदनाम किया गया, महिलाओं को बिरयानी खाने या 500/- रुपये रोज पर बैठी हुयी बताया गया। पर इस बात का असर नहीं हुआ और एक बार फिर भाजपा बुरी तरह चुनाव हार गयी। यह पांचवें राज्य में उसकी लगातार गिरावट तो थी किंतु केन्द्र में उनकी पूर्न बहुमत वाली सरकार है।
दमन की सरकारी व अपने संगठन की ताकत से सम्पन्न केन्द्र सरकार दिल्ली में दूसरा शाहीन बाग खुलने का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं थी। यही कारण रहा कि उत्तरी दिल्ली में जहाँ से ही उसके विधायक जीते थे, के जाफराबाद में महिलाओं के धरने पर उसने दिल्ली और बाहर के राज्यों से बहुबलियों को बुला व दिल्ली पुलिस से सुरक्षा दिलवा कर हमला करवा दिया। इस समय मुसलमानों ने भी मुकाबला किया जिससे जानमाल का खतरा ज्यादा हुआ। बहुत सारे घर् गाड़ियां जला दी गयीं, दुकानें और मकान आग की भेंट चढ गयीं। पचास के आस पास दोनो समुदाय के लोग मारे गये और अनेक गम्भीर रूप से घायल हुये।
जब भी हिन्दू राष्ट्र की बात होती है तो हिन्दुओं के कम समझ वाले हिस्से के अहम को बड़ी संतुष्टि मिलती है। उन्हें इतना और ऐसा पौराणिक इतिहास पढा दिया गया है कि यह जगतगुरु देश हिन्दुओं का ही था, और मुसलमानों ने आकर इसे नष्ट किया, जबकि सच एकदम से भिन्न है। जो देश सात सौ साल तक मुसलमानों के शासन में रह कर भी अपने धर्म और संस्कृति को बचाये रख सका उसे उसके धर्म पर खतरे का भय दिखाया जाने लगा। इक्का दुक्का घटनाओं को उदाहरण बता कर उसे पूरी कौम पर लादा जाने लगा। कभी घर वापिसी, कभी लव जेहाद, कभी गौरक्षा के नाम माब लिंचिंग, कभी वेलंटाइन डे के नाम संस्कृति रक्षा, कभी नमाज के समय मस्जिद के आगे से बैंड बजाते हुए कथित शोभा यात्राएं निकालना, कभी जलूसों में आपत्तिजनक नारे लगवाना , कभी कुछ तो कभी कुछ कर के टकराने के मौके तलाशे जाते रहे। उनकी सूची बहुत लम्बी है और सत्ता के भरोसे वे नये नये मुद्दे सामने लाते रहेंगे। दूसरी ओर मुस्लिम समाज भी अपना रक्षा घेरा मजबूत करने के चक्कर में अलगाव का शिकार होता गया व टकराव की तैयारियां करता दिखने लगा।
घटती लोकप्रियता के समय में संघ परिवार और भाजपा के पास यह सीमित समय है जब उसके पास लोकसभा और राज्यसभा में पूर्ण बहुमत है। राष्ट्रपति और सरकार उसकी है। प्रशासन, पुलिस और फौज उसके नियंत्रण में है। वैसे तो कार्पोरेट घराने जिन्होंने पूरे मीडिया को खरीद रखा है, उसके पास है, किंतु राज्यों की पराजयों से लगता है कि आर्थिक समस्याओं के कारण उनका जनसमर्थन छीज रहा है। पार्टी के अन्दर भी घुटन बढ रही है, इसलिए उनके पास समय कम है। कथित हिन्दू राष्ट्र के लिए अपने प्रयास वे इसी दौरान कर सकते हैं। और यही समय टकराव का समय होगा। दिल्ली के दंगे इसी तेजी के परिणाम हैं।
देखना होगा कि ऊंट किस करवट बैठता है!
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
      
    
                  

रविवार, मार्च 01, 2020

दिल्ली दंगॉ की पड़ताल और ताहिर हुसैन


दिल्ली दंगॉ की पड़ताल और ताहिर हुसैन
वीरेन्द्र जैन
दिल्ली में हाल ही में हुये दंगों से पहले मैंने ताहिर हुसैन का नाम नहीं सुना था। पूरे देश ने भी दिल्ली के इस पार्षद का नाम दंगों की खबरों के बाद ही जाना। मुझे दिल्ली की उस बस्ती के भूगोल की कल्पना भी नहीं है, जहाँ करावल नगर विधान सभा और उसका नेहरू विहार स्थित है, इसलिए मुझे गोदी मीडिय़ा के अखबारों और टीवी के समाचारों में अचानक उसे इकलौता खलनायक और हत्यारा बना देने की सूचनाओं से उसके बारे में जानने की जिज्ञासा पैदा हुयी। दुखद है कि पिछले दिनों से मीडिया का एक वर्ग खबरें व सूचना देने की जगह सन्देह पैदा करने का काम कर रहा है।
सूचनाओं में बताया गया कि बीस साल पहले ताहिर हुसैन अमरोहा के एक गाँव से मजदूरी की तलाश में अकेला दिल्ली आया था और इस दौरान उसने न केवल अपने माँ बाप को दिल्ली बुलवा लिया अपितु उसके अनेक शुभचिंतक रिश्तेदार भी आसपास रहने लगे। वह इन लोगों का सहयोग करता था और शायद इन्हीं के दम पर वह उस क्षेत्र से पार्षद चुना गया होगा।
पार्षद अपने वार्ड का नेता होता है और इस समय तो ताहिर हुसैन उस आम आदमी का सदस्य था जिसकी पिछले छह साल सरकार रही थी और जो अब फिर से भारी बहुमत से चुन कर आ गयी है। तय है कि उसका कद बड़ा था। उसके सद्भावी होने का प्रमाण यह है कि पिछली बार कपिल मिश्रा ने इसी क्षेत्र से आम आदमी पार्टी के टिकिट पर चुनाव लड़ा था और उसके घर को उनका चुनाव कार्यालय बनाया गया था। वे जीत गये थे किंतु बीच में अति महात्वाकांक्षी मिश्रा ने आम आदमी पार्टी छोड़ दी और भाजपा की कठपुतली के रूप में अरविन्द केजरीवाल और उनके मंत्रिमण्डल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने लगे जबकि ईमानदारी ही केजरीवाल की इकलौती पूंजी थी। ताजा विधानसभा चुनावों में कपिल मिश्रा भाजपा के टिकिट पर लड़े थे और हार गये थे। विधानसभा में भले ही आम आदमी पार्टी की सरकार बन गयी हो किंतु उत्तरपूर्वी दिल्ली के जिन इलाकों में दंगे फैले वहाँ से ही भाजपा के आठ में से छह विधायक भाजपा के जीते हैं। ये क्षेत्र हैं, जाफराबाद, करावल नगर, मौजपुर बाबरपुर, करदमपुरी, भागीरथ विहार, शिवपुरी, और भजनपुर। तय है कि ताहिर हुसैन उनके आँख की किरकिरी होगा।
केन्द्र की मोदीशाह सरकार ने दिल्ली को जीतने के लिए जिस कठोर भाषा और प्रतीकों का स्तेमाल किया वह लोकतांत्रिक चुनावों की भाषा से बहुत गिरी हुयी भाषा थी, जिसमें भाजपा को वोट न देने वालों को गद्दार, पाकिस्तानी, और न जाने क्या क्या कहा गया था व ईवीएम मशीन का बटन इस तल्खी के साथ दबाने का आवाहन किया गया था कि करंट शाहीन बाग में अनशन करती हुयी महिलाओं तक पहुंचे। ज़ामिया यूनीवर्सिटी में घुस कर छात्रों के साथ जो दमन किया गया था उसी के प्रतिरोध में अहिंसक और शांतिपूर्ण आन्दोलन शाहीन बाग में चल रहा था व दमन का मौका न देने के लिए आन्दोलन में महिलाओं को उतारा गया था। हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में हर उम्र की महिलाएं दो महीने से रात दिन धरना दे रही थीं। इसका प्रभाव पूरे देश में पड़ रहा था जिससे लगभग तीन सौ ऐसे धरने चल रहे थे जिनमें से कुछ में तो दो दो लाख की संख्या में लोगों ने भागीदारी की थी।
जाफराबाद के रास्ते में दिये जाने वाले ऐसे ही एक धरने को दमन से उखाड़ने के लिए पहुंचे कपिल मिश्रा और भाजपा के दूसरे बाहुबलियों की धमकियों से टकराव का प्रारम्भ होना बताते हैं। दंगों में दोनों ही ओर के लोगों की जानें गयी हैं, घर व दुकानें जली हैं तथा रास्तों पर खड़ी गाड़ियों में आग लगायी गयी है। मृतकों और घायलों में 85 से अधिक लोग बन्दूक पिस्तौल की गोली से घायल हुये हैं। केवल ताहिर हुसैन के घर की छत पर पैट्रोल बम, उसे फेंकने की गुलेल और एसिड की बोतलें, मिर्ची पाउडर आदि मिली बतायी जाती हैं। अन्य मामलों में गाड़ियां जलाना, गोली चलाना या लाठी और तलवार चाकू से किये गये हमले शामिल हैं। पैट्रोल तो हर गाड़ी में होता है।
जिस आईबी के सुदर्शन युवा कर्मचारी अंकित शर्मा की मृत्यु हुयी उसके शरीर पर चाकुओं के दर्जनों वार पाये गये हैं जो निजी दुश्मनी के संकेत देते हैं। उसके भाई के दो बयानों में अलग अलग वर्ग पर आरोप लगाये गये हैं। किंतु ताहिर हुसैन को घेरने के लिए उस पर सीधे सीधे इस हत्या का आरोप मढ दिया गया है। ऐसे आरोप साम्प्रदायिक अवधारणा बनाने में मदद करते हैं।
भले ही दोनों पक्षों की भागीदारी के प्रमाण मिल रहे हों किंतु परिस्तिथियां बताती हैं कि एक पक्ष तो रास्ता घेर कर धरने का प्रयास कर रहा था इसलिए हमले की शुरुआत दूसरे पक्ष की ओर से ही की गयी होगी। कपिल मिश्रा की सीधी धमकी और कुछ वीडियो फुटेज इस बात का प्रमाण भी दे रहे हैं। जब साम्प्रदायिक हमलों की आशंका हो जाती है तो हर आशंकित अपने घर में सुरक्षा के लिए कुछ हमलावर सामग्री रखने को विवश हो जाता है। ताहिर हुसैन की छत पर ऐसी सामग्री मिली है, भले ही वे कह रहे हों कि यह सुरक्षा की सामग्री उन के घर में घुस आये लोग लेकर आये थे। उनके घर में जो गुलेल मिली है वह भी जुगाड़ से बनायी गयी थी। यह आपद सोच में ही सम्भव है। उसकी छत पर मिली सामग्री रक्षात्मक ही कही जा सकती है क्योंकि दूसरे के घर में जाकर हमला करने वाली कोई वस्तु नहीं बतायी गयी है।
पार्षद होने के कारण ताहिर हुसैन अपने समुदाय के लोगों में लोकप्रिय होगा और वे लोग उसके घर में शरण लेने आये हुए हो सकते हैं। हमलावरों ने तो बाहर निकल कर घर और दुकानों को पहचान कर हमला किया होगा। उसके पास पुलिस को फोन करने और वीडियो काल करने का रिकार्ड भी है। तय है कि जिसके पास आपत्तिजनक सामग्री हो वह पुलिस को बुलाने का खतरा मोल नहीं लेता।
 हाईकोर्ट द्वारा कुछ भाजपा के नेताओं की हेट स्पीच पर कार्यवाही का जो फैसला हुआ था, जिसके बाद रातों रात उन न्यायमूर्ति का स्थानांतरण कर दिया गया,  उसका मुकाबला करने के लिए बाद में भाजपा ने सोनिया गाँधी से लेकर केजरीवाल तक के भाषणों में हेट स्पीच के अंश खोज निकाले, लगता है उसी तरह कपिल मिश्रा का वीडियो आने के बाद उन्होंने आम आदमी पार्टी के ताहिर हुसैन को खोज निकाला है। बीस साल पहले मजदूरी के लिए आया एक व्यक्ति गाँव का घर बेच कर दिल्ली में बसता है और अपनी समाज सेवा से पार्षद बन जाता है। वह राजनीति के लिए भी आम आदमी पार्टी का चुनाव करता है जो अपेक्षाकृत रूप से ईमानदार व धर्मनिरपेक्ष मानी जाती है तो उसका मूल्यांकन करते समय इसे ध्यान में रखा जाना चाहिए।
दिल्ली पुलिस की भूमिका के बारे में तो बहुत कुछ कहा जा चुका है और कुछ ऐसे वीडियो भी वायरल हो रहे हैं जिनमें पुलिस उपद्रवियों को संरक्षण दे रही है, उल्लेखनीय है कि गुजरात में भी ऐसा ही हुआ था जब दो दिन तक नेतृत्व ने मौन होकर दमन होने दिया था।
वीरेन्द्र जैन
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